Pages

Monday, September 8, 2014

श्रम कानूनों में बदलाव के मायने


- जावेद अनीस

उस दिन मध्यप्रदेश के मैहर स्थित एक सीमेंट फैक्ट्री में रोज की तरह मजदूर काम कर रहे थे। दोपहर करीब दो बजे साइलो के अंदर अचानक सीमेंट वॉल्ब खुल गया,जिससे बड़े पैमाने पर सीमेंट नीचे आ गई। सीमेंट के नीचे बड़ी संख्या में मजदूर दब गए, हादसे में दर्जन भर मजदूर घायल हो गये, चार मजदूरों की हालत गंभीर बताई गयी, हादसे के बाद घायलों को तत्काल मैहर अस्पातल पहुंचाया गया लेकिन इस घटना की सूचना थाना को नहीं दी गई। इस पूरे मामले में कंपनी की लापरवाही साफ तौर पर सामने आई है। साइलो के अंदर सीमेंट वॉल्ब खुलना गंभीर मामला है। दूसरी तरफ नियमों के अनुसार किसी भी बड़ी कंपनी में एक डॉक्टर 24 घंटे उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन सीमेंट फैक्ट्री में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं था। इस दौरान यह बात भी सामने आई है कि हादसे के दौरानजो मजदूर वहां काम कर रहे थे वे ठेका कंपनी के मजदूर थे। क्योंकि सीमेंट फैक्ट्री ने हर काम ठेके पर दे रखा था, ठेका मजदूर होने के कारण सीमेंट फैक्ट्री सीधी तौर पर अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती है। जाहिर तौर यह पूरा मामला एक कंपनी मजदूरों के ठेकेदारी के मार्फ़त कम मजदूरी देकर अधिक काम कराए जाने और कार्यस्थल पर मजदूरों के लिए जरूरी सुविधायें और सुरक्षा न उपलब्ध कराये जाने का है ।


मैहर सीमेंट फैक्ट्री जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे मजदूरों के लिए श्रम कानून पहले ही बेमानी हो चुके है। लेकिन “अच्छे दिनों’’ के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी-सरकार के राज में तो संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत भी बदतर होने वाली है, सरकार ने श्रम-कानूनों में बदलाव को अपनी पहली प्राथमिकताओं में रखा और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैक्टरी कानून,एप्रेंटिस कानून और श्रम कानून (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न भरने और रजिस्टर रखने से छूट) कानून में संशोधन को मंजूरी दे दिया है, साथ ही साथ केंद्र सरकार ने लोकसभा के इस सत्र में कारखाना (संशोधन) विधेयक, 2014 भी पेश किया है, इस पूरी कवायद के पीछे तर्क है इन ‘सुधारों’’ से निवेश और रोजगार बढेंगे। पहले कारखाना अधिनियम, जहाँ 10 कर्मचारी बिजली की मदद से और 20 कर्मचारी बिना बिजली से चलने वाले संस्थानों पर लागू होता था वहीँ संसोधन के बाद यह क्रमशः 20 और 40 मजदूर वाले संस्थानों पर लागू होगा। ओवर टाइम की सीमा को भी 50 घण्टे से बढ़ाकर100 घण्टे कर दिया गया है और वेतन सहित वार्षिक अवकाश की पात्रता को 240 दिनों से घटाकर 90 दिन कर दिया है। ठेका मजदूर कानून अबबीस की जगह पचास श्रमिकों पर लागू होगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्राविधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी। अप्रेंटिसशिप एक्ट, 1961 में भी बदलाव किया गया है, अब अप्रेंटिसशिप एक्ट न लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार या जेल में नहीं डाला जा सकेगा। यही नहीं कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। स्पष्ट है कि तथाकथित “सुधार” मजदूर हितों के खिलाफ हैं। इससे मजदूरों को पहले से मिलने वाली सुविधाओं में कानूनी तौर कमी आएगी।


इस मामले में तो राजस्थान सरकार केंद्र सरकार से भी आगे निकल गई है,राजस्थान सरकार ने राजस्थान विधानसभा में औद्योगिक विवाद (राजस्थान संशोधन) विधेयक 2014, ठेका श्रम (विनियमन और उत्पादन) राजस्थान संशोधन विधेयक, कारखाना (राजस्थान संशोधन) विधेयक और प्रशिक्षु अधिनियम रखा था जो की पारित भी हो गया। औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव के बाद अब मजदूरों की छंटनी और कारखाना बंदी के लिये 100 के स्थान 300 कर्मचारियों तक के कारखानो को ही सरकार की अनुमति की बाध्यता रह गई है, जाहिर तौर पर इससे बडी संख्या में कारखानों को छंटनी करने या बनावटी रूप में कारखाना बंदी करने की छूट मिल जायेगी क्योंकि वे अपने अपने रिकॉर्ड में स्थाई श्रमिको की संख्या 299 तक ही बतायेंगे और बाकी श्रमिको को ठेका मजदूर के रूप में बतायेंगे। इसी तरह से ठेका मज़दूर क़ानून भी अब मौजुदा 20 श्रमिकों के स्थान पर 50कर्मचारियों पर लागू होगा। पहले किसी भी कारखाने में किसी यूनियन के रूप में मान्यता के लिए 15 प्रतिशत सदस्य संख्या जरूरी थी लेकिन इसे बढ़ाकर 30 प्रतिशत कर दिया गया है, इसका अर्थ यह होगा कि मजदूरों के लिए अब यूनियन बनाकर मान्यता प्राप्त करना मुश्किल हो गया है, इससे नियोजको को यह अवसर मिलेगा कि वे अपनी पंसदीदा यूनियनो को ही बढावा दे।

कारखाना अधिनियम में बदलाव के बाद कारखाने की परिभाषा में बिजली के उपयोग से चलने वाले वही कारखाने आयेंगे जहाँ 20 श्रमिक काम करते हो पहले यह संख्या 10 थी। इसी तरह से बिना बिजली के उपयोग से चलने वाले वाले 20 के स्थान पर 40 श्रमिको की संख्या वाले कारखाने ही इसके दायरे में आयेंगें। इसका मतलब यह होगा कि अब और बड़ी संख्या में श्रमिको को श्रम कानूनो से मिलने वाले फायदे जैसे सफाई, पीने का पानी,सुरक्षा, बाल श्रमिको का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश,छुट्टियां, मातृत्व अवकाश, ओवरटाईम आदि से महरूम होने वाले हैं।

कुल मिलकर यह संशोधन श्रमिको के अधिकारों को कमजोर करने वाले हैं।शायद इसका मकसद नियोक्ताओं व कॉरपोरेट घरानों को बिना किसी जिम्मेवारी व जवाबदेही के आसानी से अनाप–शनाप मुनाफे कमाने के लिए रास्ता खोलना है। हालाँकि राजस्थान सरकार द्वारा पारित संशोधन विधेयक राज्य में लागु राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद ही होंगे I 

Tuesday, September 2, 2014

स्याह दौर में कागज कारे

English version of the article ('Scribbling in Dark Times) can be read on 'Kafila'

सुभाष गाताडे


‘‘अंधेरे वक्त़ में
क्या गीत होंगे ?
हां, गीत भी होंगे
अंधेरे वक्त़ के बारे में

                     - बर्तोल ब्रेख्त

1.

हरेक की जिन्दगी में ऐसे लमहे आते हैं जब हम वाकई अपने आप को दिग्भ्रम में पाते हैं, ऐसी स्थिति जिसका आप ने कभी तसव्वुर नहीं किया हो। ऐसी स्थिति जब आप के इर्दगिर्द विकसित होने वाले हालात के बारे में आप के तमाम आकलन बेकार साबित हो चुके हों, और आप आप खामोश रहना चाहते हों, अपने इर्दगिर्द की चीजों के बारे में गहन मनन करना चाहते हों, अवकाश लेना चाहते हों, मगर मैं समझता हूं कि यहां एकत्रित लोगों के लिए - कार्यकर्ताओं, प्रतिबद्ध लेखकों - ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं है। जैसा कि अपनी एक छोटी कविता में फिलीपिनो कवि एवं इन्कलाबी जोस मारिया सिसोन लिखते हैं

पेड़ खामोश होना चाहते हैं
मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं

मैं जानता हूं कि इस वक्त़ हमारा मौन’, हमारी चुप्पीअंधेरे की ताकतों के सामने समर्पण के तौर पर प्रस्तुत की जाएगी, इन्सानियत के दुश्मनों के सामने हमारी बदहवासी के तौर पर पेश की जाएगी, और इसीलिए जबकि हम सभी के लिए चिन्तन मनन की जबरदस्त जरूरत है, हमें लगातार बात करते रहने की, आपस में सम्वाद जारी रखने की, आगे क्या किया जाए इसे लेकर कुछ फौरी निष्कर्ष निकालने की और उसे समविचारी लोगों के साथ साझा करते रहने की जरूरत है ताकि बहस मुबाहिसा जारी रहे और हम आगे की दूरगामी रणनीति तैयार कर सकें।

आज जब मैं आप के समक्ष खड़ा हूं तो अपने आप को इसी स्थिति में पा रहा हूं।

क्या यह उचित होगा कि हमें जो फौरी झटकालगा है, उसके बारे में थोड़ा बातचीत करके हम अपनी यात्रा को उसी तरह से जारी रखें ?

या जरूरत इस बात की है कि हम जिस रास्ते पर चलते रहे हैं, उससे रैडिकल विच्छेद ले लें, क्योंकि उसी रास्ते ने हमारी ऐसी दुर्दशा की है, जब हम देख रहे हैं कि ऐसी ताकतें जो 2002 के गुजरात के सफल प्रयोगको शेष मुल्क में पहुंचाने का दावा करती रही हैं आज हुकूमत की बागडोर को सम्भाले हुए हैं।

अगर हम 1992  - जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ था - से शुरू करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि दो दशक से अधिक वक्त़ गुजर गया जबकि इस मुल्क के साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन को, धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक के बाद एक झटके खाने पड़े हैं। हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि बीच में ऐसे भी अन्तराल रहे हैं जब हम नफरत की सियासत करनेवाली ताकतों को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर कर सके हैं, मगर आज जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो यही लगता है कि वह सब उन्हें महज थामे रखनेवाला था, उनकी जड़ों   पर हम आघात नहीं कर सके थे।

न इस अन्तराल में ‘‘साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष को सर्व धर्म समभाव के विमर्श से आगे ले जाया जा सका और नाही  समाज एवं राजनीति के  साम्प्रदायिक और बहुसंख्यकवादी गढंत (कान्स्ट्रक्ट) को एजेण्डा पर लाया जा सका। उन्हीं दिनों एक विद्वान ने इस बात की सही भविष्यवाणी की थी कि जब तक भारतीय राजनीति की बहुसंख्यकवादी मध्य भूमि (majoritarian middle ground) जिसे हम बहुसंख्यकवादी नज़रिये की लोकप्रियता, धार्मिकता की अत्यधिक अभिव्यक्ति, समूह की सीमारेखाओं को बनाए रखने पर जोर, खुल्लमखुल्ला साम्प्रदायिक घटनाओं को लेकर जागरूकता की कमी, अल्पसंख्यक हितों की कम स्वीकृति - में दर्शनीय बदलाव नहीं होता, तब तक नयी आक्रामकता के साथ साम्प्रदायिक ताकतों की वापसी की सम्भावना बनी रहेगी। आज हमारी स्थिति इसी भविष्यवाणी को सही साबित करती दिखती है।

और इस तरह हमारे खेमे में तमाम मेधावी, त्यागी, साहसी लोगों की मौजूदगी के बावजूद ; लोगों, समूहो, संगठनों द्वारा अपने आप को जोखिम में डाल कर किए गए काम के बावजूद और इस तथ्य के बावजूद कि राजनीतिक दायरे में अपने आप के धर्मनिरपेक्ष कहलानेवाली पार्टियों की तादाद अधिक है और यह भी कि इस देश में एक ताकतवर वाम आन्दोलन - भले ही वह अलग गुटों में बंटा हो - की उपस्थिति हमेशा रही है, यह हमें कूबूल करना पड़ेगा कि हम सभी की तमाम कोशिशों के बावजूद हम भारतीय राजनीति के केन्द्र में हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के आगमन को रोक नहीं सके।
और जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं स्थिति की गम्भीरता अधिकाधिक स्पष्ट हो रही है।

इस मौके पर हम अमेरिकन राजनीतिक विज्ञानी डोनाल्ड युजेन स्मिथ के अवलोकन को याद कर सकते हैं, जब उन्होंने लिखा था: ‘‘ भारत में भविष्य में हिन्दू राज्य की सम्भावना को पूरी तरह खारिज करना जल्दबाजी होगी। हालांकि, इसकी सम्भावना उतनी मजबूत नहीं जान पड़ती।  भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य के बने रहने की सम्भावना अधिक है। (इंडिया एज सेक्युलर स्टेट, प्रिन्स्टन, 1963, पेज 501) इस वक्तव्य के पचास साल बाद आज भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य बहुत कमजोर बुनियाद पर खड़ा दिख रहा है और हिन्दु राज्य की सम्भावना 1963 की तुलना में अधिक बलवती दिख रही है।

2.

निस्सन्देह कहना पड़ेगा कि हमें शिकस्त खानी पड़ी है।

हम अपने आप को सांत्वना दे सकते हैं कि आबादी के महज 31 फीसदी लोगों ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया और वह जीते नहीं हैं बल्कि हम हारे हैं। हम यह कह कर भी दिल बहला सकते हैं कि इस मुल्क में जनतांत्रिक संस्थाओं की जड़ें गहरी हुई हैं और भले ही कोई हलाकू या चंगेज हुकूमत में आए, उसे अपनी हत्यारी नीतियों से तौबा करनी पड़ेगी।
लेकिन यह सब महज सांत्वना हैं। इन सभी का इस बात पर कोई असर नहीं पड़ेगा जिस तरह वह भारत को और उसकी जनता को अपने रंग में ढालना चाहते हैं।

हमें यह स्वीकारना ही होगा कि हम लोग जनता की नब्ज को पहचान नहीं सके और जाति, वर्ग, नस्लीयता आदि की सीमाओं को लांघते हुए लोगों ने उन्हें वोट दिया। निश्चित ही यह पहली दफा नहीं है कि लोगों ने अपने हितों के खिलाफ खुद वोट दिया हो।

यह हक़ीकत है कि लड़ाई की यह पारी हम हार चुके हैं और हमारे आगे बेहद फिसलन भरा और अधिक खतरनाक रास्ता दिख रहा है।

यह सही कहा जा रहा है कि जैसे जैसे यह जादूउतरेगा नए किस्म के पूंजी विरोधी प्रतिरोध संघर्ष उभरेगे और हरेक को इसमें अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी। मगर यह कल की बात है। आज हमें अपनी शिकस्त के फौरी और दूरगामी कारणों पर गौर करना होगा और हम फिर किस तरह आगे बढ़ सकें इसकी रणनीति बनानी होगी।

भाजपा की अगुआई वाले गठजोड़ को मिली जीत के फौरी कारणों पर अधिक गौर करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और उस पर प्रतिक्रिया भी दी जा चुकी है। जैसा कि प्रस्तुत बैठक के निमंत्राण पत्र में ही लिखा गया था कि भाजपा की इस अभूतपूर्व जीत के पीछे मीडिया तथा कार्पोरेट तबके एवं संघ की अहम भूमिका दिखती है और कांग्रेस के प्रति मतदाताओं की बढ़ती निराशा नेइसे मुमकिन बनाया है। विश्लेषण को पूरा करने के लिए हम चाहें तो युवाओं और महिलाओं के समर्थनऔर मोदी द्वारा आकांक्षाओं की राजनीति के इस्तेमालको भी रेखांकित कर सकते हैं। हम इस बात के भी गवाह हैं कि इन चुनावों ने कई मिथकों को ध्वस्त किया है।