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Wednesday, January 4, 2012

क्रिकेट का विश्व कप, भारतीय शासक वर्ग और जनता के लिए खेलों की उपेक्षा

[Note: This article was published in CRITIQUE, Vol-1, Issue-3. Critique is a Quarterly brought out by the Delhi University Chapter of New Socialist Initiative (NSI)]

-विद्याधर दाते

मैं उन गिनेचुने लोगों में बचा हूं जिन्हें विख्यात बल्लेबाज सी के नायडू से बात करने का मौका मिला था, जो अपने छक्कों के लिए मशहूर थे। एक क्रिकेट प्रेमी की तरह मैं बड़ा हुआ हूं और एक पत्राकार के तौर पर क्रिकेट मैचों को ‘कवर’ करने का काम मैंने 18 साल की उम्र से किया है, सुनिल गावसकर को मैंने तब देखा है जब वह अभी टेस्ट क्रिकेट में पहुंचे नहंी थे। लेकिन अब मैंने क्रिकेट को देखना बन्द किया है। आखिर मैं ऐसी बात क्यों कह रहा हूं जब कि विश्व कप को लेकर क्रिकेट का बुखार चढ़ा हुआ है।

लोग विश्व कप देखें और उसका आनन्द उठायें मगर मैं यहां कुछ बातों को रखना चाह रहा हूं। मैं एक घटना से शुरू करना चाह रहा हूं। मुंबई प्रेस क्लब ने 15 फरवरी को एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया जिसका मकसद था खेल पत्राकारिता में बेहतरी के लिए जनाब के एन प्रभु की स्मृति में रखे पुरस्कार दिए जाएं और प्रदीप शिन्दे की याद में अपराध रिपोर्टिंग के लिए पुरस्कार प्रदान किए जाएं। प्रभु लम्बे समय तक टाईम्स आफ इण्डिया के खेल सम्पादक थे और मैं उनका सहयोगी हुआ करता था।

क्रिकेट और अपराध दो बिल्कुल जुदा क्षेत्रा हैं। लेकिन मैच फिक्सिंग, बेटिंग, आईपीएल के अन्तर्गत क्रिकेटरों की नीलामी और हाल के तमाम सारे घपलों को देखते हुए अब ऐसा नहीं कहा जा सकता। अयाज मेनन जैसे एक पुराने क्रिकेट लेखक और क्रिकेट प्रतिष्ठान के समर्थक ने भी कार्यक्रम के दौरान कहा कि अब क्रिकेट पत्राकार को चार्टड अकौण्टसी और स्टाॅक एक्स्चेंज आदि के बारे में भी जानकारी होना आवश्यक है।

अन्य खेल पत्राकारों की तुलना में प्रभु की खासियत यह थी कि वह काफी पढ़े लिखे थे और सामाजिक तौर पर जागरूक थे। इसीलिए वह सी एल आर जेम्स -अश्वेत वेस्ट इण्डियन माक्र्सवादी इतिहासकार - की अहमियत जानते थे, जिन्होंने ‘बियांण्ड बाउण्डरी’ शीर्षक से एक मशहूर किताब लिखी थी। उनकी चर्चित पंक्ति थी -क्रिकेट के बारे में वो क्या जानते हैं जो सिर्फ क्रिकेट ही जानते हैं। इसका तात्पर्य था कि क्रिकेट अब एक खेल से अधिक कुछ था। किसी के लिए भी उस व्यापक हकीकत को जानना जरूरी था और महज खेल जानना ही काफी नहीं था।

इसलिए मैं एक बार वेस्ट इण्डिज में एक टेस्ट मैच के दौरान बहुत चकित हुआ था जब प्रेस दीर्घा में जेम्स की तस्वीर के साथ प्रभु की फोटो भी लगी थी। जेम्स की किताब क्रिकेट पर अब तक लिखी गयी सबसे बेहतर किताब समझी जाती है। हालांकि, भारत के कितने लोगों ने उनके बारेमें सुना होगा या उनकी किताब पढ़ी होगी ? यह उस देश के लिए शर्म की बात है जिसका क्रिकेट प्रतिष्ठान हर साल सैकड़ों करोड़ रूपया मुनाफा बटोर रहा है। अधिक शर्मनाक बात यह है कि इस खेल को अब बड़े घपले में और धोखाधड़ी में बदल दिया गया है जहां क्रिकेट मैचों पर सट्टेबाजी में हजारों करोड रूपयों का वारा न्यारा होता है।

जेम्स ने क्रिकेट की सुन्दरता के बारे में लिखा लेकिन उसने यह भी लिखा कि किस तरह इस खेल ने अश्वेत वेस्ट इण्डियन्स को स्वाभिमान प्रदान किया और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ एकजुटता का वह केन्द्र बन गया। वे अपने शासकों को क्रिकेट के खेल मंे हरा सकते थे। यह क्रिकेट की ताकत थी और एक तरह से आमिर खान ने कई कई साल बाद लगान में जो बात कही उसका यह पूर्वानुमान था।

जेम्स ने क्रिकेट पर अपने लेखन के जरिए अश्वेत लोगों के खिलाफ श्वेतों द्वारा क्रिकेट टीमों के अन्दर किए जा रहे भेदभाव को भी उजागर किया।  उसने अपने लेखन को इस बात पर भी केन्द्रित किया कि औपनिवेशिक शासकों के खिलाफ लड़ने की जरूरत है। एक लम्बे संघर्ष के बाद पहली दफा चर्चित फ्रैंक वाॅरेल पहले अश्वेत खिलाड़ी बने जिन्होंने 1960 में वेस्ट इण्डीज के टीम की अगुआई की। उसके पहले क्रिकेट की टीमों की अगुआई हमेशा श्वेत खिलाड़ी करते थे। मुझे अभीभी याद है कि पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में वहां की टीम की कप्तानी श्वेत खिलाड़ी गेरी एलेक्झाण्डर के हाथों में थी, जो एक विकेट कीपर थे। वह कप्तान थे मगर उनकी टीम में उनसे काबिल कई खिलाड़ी थे जिनमें महान वाॅरेल भी शामिल थे। वेस्ट इण्डीज क्रिकेट का वह दौर तीन अज़ीम शख्सियतों का था वीक्स, वाॅरेल और वाॅलकाॅट। जेम्स ने वाॅरेल को कप्तान बनाने पर लगातार जोर दिया और अन्ततः उसे 1960 में कप्तान बनाया गया और उसी के बाद क्रिकेटवाले मुल्क के तौर पर वेस्ट इण्डीज का उभार शुरू हुआ।

जेम्स ने गुलाम श्रमिकों के विद्रोह पर भी एक चर्चित नाटक लिखा जिसमें पाॅल राॅबसन जैसे महान अभिनेता ने भी मुख्य भूमिका अदा की।

इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भारत के शासक वर्ग ने क्रिकेट को अवाम की अफीम में तब्दील कर दिया है। अगर क्रिकेट जैसे उपकरण नहीं होते तो हमारे यहां भी मिस्त्रा जैसा लोकप्रिय विद्रोह हो सकता था।

शासक वर्ग अब क्रिकेट की लोकप्रियता का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहा है। शासक वर्ग जानता है कि वह अवाम की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है और समूची दुनिया में उसकी स्थिति बहुत कमतर है क्योंकि यहां व्यापक गरीबी है। इसलिए वह ऐसी छदम् छवि बनाना चाहता है कि हम क्रिकेट में अव्वल हैं। 17 फरवरी 2011 को टाईम्स आफ इण्डिया की हेडलाइन्स देखें, जिस दिन विश्व कप टूर्नामेण्ट का उद्घाटन था।‘ क्या भारत फिर एक बार दुनिया पर राज करेगा ?’ यह दिखाता है अपने शासकवर्गों का भारी हीनताबोध और अपनी फर्जी महानता पर दांवा ठोकने की उनकी मिमियाती कोशिश।

क्रिकेट दरअसल चन्द देशों द्वारा ही खेला जाता है। इसलिए यह दावा करना बेकार है कि हम दुनिया में सबसे अव्वल हैं। दुनिया में अव्वल होने का असली पैमाना है एथलेटिक्स और फूटबाॅल जैसे खेलों में महारत हासिल करना, जिनमें वैश्विक सहभागिता होती है।लेकिन यहां हमारा रेकार्ड लज्जाजनक है। फूटबाॅल जैसे खेल में तो हम एशियाई खेलों में भी खराब खेलते हैं।

इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि भारतीय शासक वर्ग अवाम की बुनियादी जरूरतें पूरा करने में असफल रहा है , दुनिया पर राज करने की उसकी यह गप्पबाजी दरअसल बहुत असभ्य और मूर्खतापूर्ण मालूम पड़ती है।

निश्चित ही जनाब शरद पवार को क्रिकेट के प्रति इस पागलपन के लिए अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, जिसके चलते बाकी सभी खेलों  की कीमत पर इसे बढ़ावा दिया गया है। यहां तक कि संगठित वाम भी वैकल्पिक खेल नीति को विकसित करने में असफल रहा है। अपने कैरिअर के शुरूआती दिनों में कमसे कम जनाब पवार देशज भारतीय खेलों जैसे कबड्डी और खो खो तथा कुश्ती के भी संरक्षक हुआ करते थे। अब हालत यह है कि इन खेलों की पूरी तरह उपेक्षा की जा रही है जबकि क्रिकेट पर सारी दौलत लुटायी जा रही है।
दरअसल यह सडांध बहुत पहले ही शुरू हुई। सत्तर के दशक के शुरूआती वर्षों में जब वानखेडे स्टेडियम का निर्माण किया जा रहा था तभी श्री के एन प्रभु ने इस बात को देखा था। वह वाजिब कारणों से उसकी आलोचना करते थे। वह दिन थे जब सिमेण्ट की कमी थी। इसके बावजूद ब्रेबाॅर्न स्टेडियम से थोड़ी दूरी पर इस स्टेडियम का निर्माण किया जा रहा था। राष्ट्रीय सम्पदा का कितना भारी अपव्यय था। और वह सब चन्द लोगों के अहंकार की तुष्टि के लिए। राजनेता इस बात से दुखी थे कि बे्रबाॅने स्टेडियम का संचालन क्रिकेट क्लब आफ इण्डिया के हाथों में है, जिस पर उनका कोई नियंत्राण नहीं है। इसलिए जनाब एस के वानखेडे, जो कांग्रेसी नेता थे और उन दिनों मंत्राी हुआ करते थे, उन्होंने पहल ली और स्टेडियम का निर्माण हुआ ..

ये दोनों स्टेडियम बहुत कम इस्तेमाल हो पाते हैं। आम दिनों में उनका कोई खास उपयोग नहीं हो पाता। इसके अलाव हमारे यहां नवी मुंबई में एक अन्य बड़ा स्टेडियम है जिसका निर्माण अन्य सियासतदां डी वाई पाटील ने किया है, जहां आईपीएल फाईनल का मैच खेला गया। लोग खेलों में भ्रष्टाचार और सामन्तवाद को बरदाश्त कर सकते हैं मगर असली मुद्दा यह है कि सियासतदानों ने खेलों में लोगों की सक्रिय भागीदारी और उनके शारीरिक स्वास्थ्य की भारी उपेक्षा की है।

एक अन्य गम्भीर मसला है राजनेताओं और खिलाड़ियों के अधिक लालची बनने का। सचिन तेण्डुलकर एक खिलाड़ी के तौर पर बड़ा हो सकता है, मगर अपने करोड़ों रूपयों के बावजूद आखिर मुंबई के बान्द्रा पश्चिम के अपने नए बंगले में जिमनैशियम का निर्माण करने के लिए वह क्यों छूट चाहता है ? कुछ समय पहले मीडिया में इस किस्म की ख़बरें छपी थीं कि वह बान्द्रा में जमीन का वही प्लाॅट चाह रहा था जिसे बेघरों के लिए आरक्षित रखा गया था। अपने पास जमा करोड़ों-अरबों रूपयों का वह आखिर क्या करेगा ? आखिर में मानवीय उपभोग की भी कुछ सीमा है।

महाराष्ट्र टाईम्स ने अपने पहले पेज पर एक बेहद शरारतपूर्ण सूर्खी लगायी थी जिसमें कहा गया था कि दरअसल सचिन के फिटनेस की आड़ में समुद्र किनारों के संचालन के लिए बने नियम आड़े आ रहे हैं। अपने बंगले में जिमनैशियम का निर्माण करने में , किसी तरह की छूट की मांग न करते हुए -जो कई करोड़ रूपयों की होगी - सचिन को किसने रोका है ?

आखिर में इस बंगले में चार लोगों के परिवार में जिमनैशियम के निर्माण के लिए पर्याप्त जगह होगी। मैंने जमीन का वह प्लाॅट देखा है। वह पर्याप्त बड़ा है। 

वानखेड़े स्टेडियम को विश्व कप के लिए खूब सजाया जा रहा है मगर आम लोगों के लिए उसमें बहुत कम जगह होगी क्योंकि अधिकतर टिकटें क्रिकेट क्लबों और कार्पोरेट सम्राटों के हाथों पहुंचेंगी, जो विशेष सीटों के लिए मुंहमांगी रकम देने के लिए तैयार होंगे, जिसका तसव्वुर भी करना आम आदमी के बस में नही होगा। - 

पश्चिम में बड़े खेल आयोजनांे के अवसर पर लोगों को यह कहा जाता है कि वह अपनी कारों को लेकर वहां न आयें क्योंकि उससे ट्रैफिक जाम की स्थिति बनती है। मगर मुंबई में सरकार की यह हिम्मत नहीं है कि वह धनाढयों को कहें कि वह इस आयोजन के अवसर पर सार्वजनिक यातायात साधनों का प्रयोग करें। यह स्टेडियम चर्चगेट रेलवे टर्मिनल के बिल्कुल पास है, इसके बावजूद रईस चाहते हैं कि वह अपनी कारों के साथ वहां पहुंचें और पुलिस को यह मशक्कत करनी पड़ेगी कि वह पार्किग के लिए जगह का इन्तजाम करे। संसाधनों और वक्त की पूरी बर्बादी।

विद्याधर दाते, वरिष्ठ पत्राकार और ‘‘ट्रैफिक इन द एरा आफ क्लायमेट चेंज’’ शीर्षक किताब के लेखक
साभार, काउण्टरकरंट, 23 फरवरी 2011

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