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Tuesday, November 9, 2021

(सन्धान व्याख्यानमाला) साहित्य का विचार: अशोक वाजपेयी

 


अभिवादन

हिन्दी इलाके को लेकर विचार-विमर्श के लिये सन्धान व्याख्यानमालाकी शुरुआत इस शनिवार, 13 नवम्बर, को शाम 6 बजे प्रख्यात कवि और विचारक श्री अशोक वाजपेयी के व्याख्यान से हो रही है.

इस व्याख्यानमाला की शुरुआत के पीछे हमारी मंशा ये है कि हिन्दी में विचार, इतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति और समाज-सिद्धान्त के गम्भीर विमर्श को बढ़ावा मिले. हिन्दी इलाक़े के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास को लेकर हमारी चिन्ता पुरानी है. आज से बीस साल पहले हमारे कुछ अग्रज साथियों ने सन्धाननाम की पत्रिका की शुरुआत की थी जो अनेक कारणों से पाँच साल के बाद बन्द हो गयी थी. इधर हम हिंदी-विमर्श का यह सिलसिला फिर से शुरू कर रहे हैं. यह व्याख्यानमाला इस प्रयास का महत्वपूर्ण अंग होगी.

हममें से अधिकांश लोग न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिवनाम के प्रयास से भी जुड़े हैं. यह प्रयास अपने आप को सामान्य और व्यापक प्रगतिशील परिवार का अंग समझता है, हालाँकि यह किसी पार्टी या संगठन से नहीं जुड़ा है. इसका मानना है कि भारतीय और वैश्विक दोनों ही स्तरों पर वामपन्थी आन्दोलन को युगीन मसलों पर नए सिरे से विचार करने की और उस रौशनी में अपने आप को पुनर्गठित करने की आवश्यकता है. यह आवश्यकता दो बड़ी बातों से पैदा होती है. पहली यह कि पिछली सदी में वामपन्थ की सफलता मुख्यतः पिछड़े समाजों में सामन्ती और औपनिवेशिक शक्तियों के विरुद्ध मिली थी. आधुनिक लोकतान्त्रिक प्रणाली के अधीन चलने वाले पूँजीवाद के विरुद्ध सफल संघर्ष के उदहारण अभी भविष्य के गर्भ में हैं. दूसरी यह कि बीसवीं सदी का समाजवाद, अपनी उपलब्धियों के बावजूद, भविष्य के ऐसे समाजवाद का मॉडल नहीं बन सकता जो समृद्धि, बराबरी, लोकतन्त्र और व्यक्ति की आज़ादी के पैमानों पर अपने को वांछनीय और श्रेष्ठ साबित कर सके.

सन्धान व्याख्यानमालाका प्रस्ताव यूँ है कि हिन्दी सभ्यता-संस्कृति-समाज को लेकर हिंदी भाषा में विचार की अलग से आवश्यकता है. हिन्दी में विचार अनिवार्यतः साहित्य से जुड़ा है और हिन्दी मनीषा के निर्माण में साहित्यिक मनीषियों की अग्रणी भूमिका है. हम हिन्दी साहित्य-जगत के प्रचलित विमर्शों-विवादों से थोड़ा अलग हटकर साहित्य के बुनियादी मसलों से शुरुआत करना चाहते हैं. प्रगतिशील बिरादरी का हिस्सा होते हुए भी हम यह नहीं मानते कि साहित्य की भूमिका क्रान्तियों, आन्दोलनों और ऐतिहासिक शक्तियों के चारण मात्र की है. हम यह नहीं मानते कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता साहित्य की उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो सकता है. हम अधिक बुनियादी सवालों से शुरू करना चाहते हैं, भले ही वे पुराने सुनायी पड़ें. मसलन, साहित्य कहाँ से आता है ऐसा क्यों है कि मानव सभ्यता के सभी ज्ञात उदाहरणों में साहित्य न केवल पाया जाता है बल्कि ख़ासकर सभ्यताओं के शैशव काल में, और अनिवार्यतः बाद में भी, उन सभ्यताओं के निर्माण और विकास में महती भूमिका निभाता है. साहित्य के लोकमानस में पैठने की प्रक्रियाएँ और कालावधियाँ कैसे निर्धारित होती हैं? क्या शेक्सपियर के इंग्लिश लोकमानस में पैठने की प्रक्रिया वही है जो तुलसीदास के हिन्दी लोकमानस में पैठने की? निराला या मुक्तिबोध के लोकमानस में संश्लेष के रास्ते में क्या बाधाएँ हैं और उसकी क्या कालावधि होगी? इत्यादि. हमारा मानना है कि जनपक्षधर बनाम कलावादीतथा अन्य ऐसी बहसें साहित्य के अंतस्तल पर और उसकी युगीन भूमिका पर सम्यक प्रकाश नहीं डाल पातीं हैं. बुनियादी और दार्शनिक प्रश्न संस्कृतियों और सभ्यताओं पर विचार के लिए अनिवार्य हैं.

इस व्याख्यानमाला में हम विचार-वर्णक्रम के विविध आधुनिक एवं प्रगतिशील प्रतिनिधियों को आमन्त्रित करेंगे. ज़रूरी नहीं है कि वक्ताओं के विचार हमारे अपने विचारों से मेल खाते हों. हमारी मंशा गम्भीर विमर्श और बहस-मुबाहिसे की है.

प्रख्यात कवि और विचारक श्री अशोक वाजपेयी इस शृंखला के पहले वक्ता होंगे जिनका मानना है कि साहित्य की अपनी स्वतन्त्र वैचारिक सत्ता होती है; उस विचार का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता; वह विचार अन्य विचारों से संवाद-द्वन्द्व में रहता है पर साहित्य को किसी बाहर से आये विचार का उपनिवेश बनने का प्रतिरोध करता है; साहित्य का विचार विविक्त नहीं, रागसिक्त विचार होता है.

आप सभी इस शृंखला में भागीदारी और वैचारिक हस्तक्षेप के लिये आमन्त्रित हैं.

सन्धान व्याख्यानमाला

पहला वक्तव्य

‘साहित्य का विचार’

वक्ता : श्री अशोक वाजपेयी (वरिष्ठ कवि,अग्रणी विचारक)

13 नवम्बर शाम 6 बजे

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