Wednesday, January 30, 2019

क्या जनबुद्धिजीवी प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े सलाखों के पीछे भेज दिए जाएंगे ?



जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव, रमणिका फाउंडेशन, साहित्य वार्ता, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ के प्रतिनिधियों द्वारा जारी बयान


एक आसन्न गिरफ़्तारी देश के ज़मीर पर शूल की तरह चुभती दिख रही है।

पुणे पुलिस द्वारा भीमा कोरेगांव मामले में प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ दायर एफ आई आर को खारिज करने की मांग को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ठुकरा दिए जाने के बाद यह स्थिति बनी है। अदालत ने उन्हें चार सप्ताह तक गिरफ़्तारी से सुरक्षा प्रदान की है और कहा है कि इस अन्तराल में वह निचली अदालत से जमानत लेने की कोशिश कर सकते हैं। इसका मतलब है कि उनके पास फरवरी के मध्य तक का समय है।

इस मामले में बाकी विद्वानोंमानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जमानत देने से इन्कार करनेवाली निचली अदालत इस मामले में अपवाद करेगीइसकी संभावना बहुत कम बतायी जा रही है। सुधा भारद्वाज, वर्नन गोंसाल्विस, वरवर राव, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा जैसे अनेक लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सरकार के निशाने पर आ चुके हैं और इनमें से ज़्यादातर को गिरफ़्तार किया जा चुका है।
   
दलित खेत मज़दूर माता-पिता के घर जनमे और अपनी प्रतिभालगनसमर्पण और प्रतिबद्धता के ज़रिए विद्वतजगत में ही नहीं बल्कि देश के ग़रीबों-मजलूमों के हक़ों की आवाज़ बुलन्द करते हुए नयी उंचाइयों तक पहुंचे प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े की यह आपबीती देश-दुनिया के प्रबुद्ध जनों में चिन्ता एवं क्षोभ का विषय बनी हुई है।

विश्वविख्यात विद्वानों नोम चोमस्कीप्रोफेसर कार्नेल वेस्टजां द्रेज से लेकर देश दुनिया के अग्रणी विश्वविद्यालयोंसंस्थानों से सम्बद्ध छात्रकर्मचारियों एवं अध्यापकों ने और दुनिया भर में फैले अम्बेडकरी संगठनों ने एक सुर में यह मांग की है कि पुणे पुलिस द्वारा डा आनन्द तेलतुम्बड़ेजो वरिष्ठ प्रोफेसर एवं गोवा इन्स्टिटयूट ऑफ़ मैनेजमेण्ट में बिग डाटा एनालिटिक्स के विभागाध्यक्ष हैंके ख़िलाफ़ जो मनगढंत आरोप लगाए गए हैं, उन्हें तत्काल वापस लिया जाए। जानीमानी लेखिका अरूंधती रॉय ने कहा है कि उनकी आसन्न गिरफ़्तारी एक राजनीतिक कार्रवाई होगी। यह हमारे इतिहास का एक बेहद शर्मनाक और खौफ़नाक अवसर होगा।

मालूम हो कि इस मामले में प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ प्रथम सूचना रिपोर्ट पुणे पुलिस ने पिछले साल दायर की थी और उन पर आरोप लगाए गए थे कि वह भीमा कोरेगांव संघर्ष के दो सौ साल पूरे होने पर आयोजित जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं (जनवरी 2018)। यह वही मामला है जिसमें सरकार ने देश के चन्द अग्रणी बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया हैजबकि इस प्रायोजित हिंसा को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों पर एवं उनके मास्टरर्माइंडों पर हिंसा के पीड़ितों द्वारा दायर रिपोर्टों को लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया है।

इस मामले में दर्ज पहली प्रथम सूचना रिपोर्ट (8 जनवरी 2018) में प्रोफेसर आनन्द का नाम भी नहीं थाजिसे बिना कोई कारण स्पष्ट किए 21 अगस्त 2018 को शामिल किया गया और इसके बाद उनकी गैरमौजूदगी में उनके घर पर छापा भी डाला गयाजिसकी चारों ओर भर्त्सना हुई थी।

गौरतलब है कि जिस जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसका आयोजन सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी बी सावंत और न्यायमूर्ति बी जी कोलसे पाटील ने किया थाजिसमें खुद डा आनन्द शामिल भी नहीं हुए थे बल्कि अपने एक लेख में उन्होंने ऐसे प्रयासों की सीमाओं की बात की थी। उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि भीमा कोरेगांव का मिथक उन्हीं पहचानों को मजबूत करता हैजिन्हें लांघने का वह दावा करता है। हिन्दुत्ववादी शक्तियों से लड़ने का संकल्प निश्चित ही काबिलेतारीफ हैमगर इसके लिए जिस मिथक का प्रयोग किया जा रहा है वह कुल मिला कर अनुत्पादक होगा।

मालूम हो कि पिछले साल इस गिरफ़्तारी को औचित्य प्रदान करने के सबूत’ के तौर पर पुणे पुलिस ने ‘‘कामरेड आनंद’’ को सम्बोधित कई फर्जी पत्र जारी किए। पुणे पुलिस द्वारा लगाए गए उन सभी आरोपों को डा तेलतुम्बड़े ने सप्रमाणदस्तावेजी सबूतों के साथ खारिज किया है। इसके बावजूद ये झूठे आरोप डा तेलतुम्बड़े को आतंकित करने एवं खामोश करने के लिए लगाए जाते रहे हैं। जैसा कि स्पष्ट है यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) की धाराओं के तहत महज़ इन आरोपों के बलबूते डा तेलतुम्बड़े को सालों तक सलाखों के पीछे रखा जा सकता है।

डा आनन्द तेलतुम्बड़े की संभावित गिरफ़्तारी कई ज़रूरी मसलों को उठाती है।

दरअसल रफ़्ता-रफ़्ता दमनकारी भारतीय राज्य ने अपने-आप को निर्दोष साबित करने की बात खुद पीड़ित पर ही डाल दी है: हम सभी दोषी है जब तक हम प्रमाणित न करें कि हम निर्दोष हैं। हमारी जुबां हमसे छीन ली गयी है।

प्रोफेसर आनन्द की संभावित गिरफतारी को लेकर देश की एक जानीमानी वकील ने एक विदुषी के साथ निजी बातचीत में (scroll.inजो सवाल रखे हैंवह इस मौके पर रेखांकित करनेवाले हैं। उन्होंने पूछा है, ‘आख़िर आपराधिक दंडप्रणाली के प्राथमिक सिद्धांतों का क्या हुआआखिर क्यों अदालतें सबूतों के आकलन में बेहद एकांतिकलगभग दुराग्रही रूख अख्तियार कर  रही हैंआखिर अदालतें क्यों कह रही हैं कि अभियुक्तों को उन मामलों में भी अदालती कार्रवाइयों से गुज़रना पड़ेगा जहां वह खुद देख सकती हैं कि सबूत बहुत कमज़ोर हैंगढ़े गए हैं और झूठे हैं आखिर वे इस बात पर क्यों ज़ोर दे रही हैं कि एक लम्बीथकाउखर्चीली अदालती कार्रवाई का सामना करके ही अभियुक्त अपना निर्दोष होना साबित कर सकते हैंजबकि जुटाए गए सबूत प्रारंभिक अवस्था में ही खारिज किए जा सकते हैं ? ’

आज हम उस विरोधाभासपूर्ण स्थिति से गुजर रहे हैं कि आला अदालत को राफेल डील में कोई आपराधिकता नज़र नहीं आती जबकि उसके सामने तमाम सबूत पेश किए जा चुके हैंवहीं दूसरी तरफ वह तेलतुम्बड़े के मामले में गढ़ी हुई आपराधिकता पर मुहर लगा रही हैं। न्याय का पलड़ा फिलवक्त़ दूसरी तरफ झुकता दिखता है। इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि अदालत ने जनतंत्र में असहमति की भूमिका को रेखांकित किया हैआखिर वह मानवाधिकार कार्यकर्ताओंबुद्धिजीवियों के लिए दूसरा पैमाना अपनाने की बात कैसे कर सकती है।

लेखकोंसंस्कृतिकर्मियोंप्रबुद्ध जनों की यह सभा इस समूचे घटनाक्रम पर गहरी चिन्ता प्रकट करती है और सरकार से यह मांग करती है कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए सभी फ़र्जी आरोपों को तत्काल खारिज किया जाए।

हम देश के हर संवेदनशीलप्रबुद्ध एवं इन्साफ़पसंद व्यक्ति के साथकलम के सिपाहियों एवं सृजन के क्षेत्र में तरह तरह से सक्रिय लोगों एवं समूहों के साथ इस चिन्ता को साझा भी करना चाहते हैं कि प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़ेजो जाति-वर्ग के अग्रणी विद्वान हैंजिन्होंने अपनी छब्बीस किताबों के ज़रिये - जो देश- दुनिया के अग्रणी प्रकाशनों से छपी हैंअन्य भाषाओं में अनूदित हुई हैं और सराही गयी हैं - अकादमिक जगत में ही नहीं सामाजिक-राजनीतिक हल्कों में नयी बहसों का आगाज़ किया हैजो कमेटी फ़ॉर प्रोटेक्शन आफ डेमोक्रेटिक राइट्स - जो मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए बनी संस्था है - के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैजिन्होंने जनबुद्धिजीवी के तौर पर सत्ताधारियों को असहज करनेवाले सवाल पूछने से कभी गुरेज नहीं किया हैऔर जो फ़िलवक्त गोवा इन्स्टिटयूट ऑफ़ मैनेजमेण्ट में बिग डाटा एनालिटिक्स’ के विभागप्रमुख हैं और उसके पहले आई आई टी में प्रोफेसरभारत पेटोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक और पेट्रोनेट इंडिया के सीईओ जैसे पदों पर रहे चुके हैंक्या हम उनकी इस आसन्न गिरफतारी पर हम मौन रहेंगे!

आईएअपने मौन को तोड़ें और डा अम्बेडकर के विचारों को जन जन तक पहुंचाने में मुब्तिलाउनके विचारों को नए सिरे से व्याख्यायित करने में लगे इस जनबुद्धिजीवी के साथ खड़े हों!
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अशोक भौमिक, जन संस्कृति मंच (जसम)
हीरालाल राजस्थानी, दलित लेखक संघ (दलेस)
सुभाष गाताडे, न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव
रमणिका गुप्ता, रमणिका फाउंडेशन
प्रेम सिंह, साहित्य वार्ता
अली जावेद, प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, जनवादी लेखक संघ (जलेस)



Thursday, January 24, 2019

Erik Olin Wright 1947-2019


Prof. Erik Olin Wright died on 23rd January 2019, due to acute myeloid leukaemia. He was 72.


Prof. Wright was one of the most distinguished Marxist scholars of our times. He was best known for his theory of class, a field that preoccupied him for more than four decades. In his hands, Marxist class theory became a rigorous weapon of sociological research and hundreds of his students employed it in their study of numerous social formations.


Prof. Wright was one of the founders of Analytical Marxism. But unlike many of his colleagues who later on abandoned Marxism altogether, Prof. Wright was always mindful of the excesses of analytical theory and never lost sight of the basic socialist vision.

Towards the final decade of his life, Prof. Wright had turned his attention to the question of transition and socialist alternatives. In a series of articles and books, Prof. Wright argued that revolutions of the twentieth century kind (in his terms – ‘ruptural transformations’) are no longer in the agenda because of the changed times. So what is required today, among other things, is building of certain processes and institutions which will help the working classes in training and preparing themselves well before the moment of transition (transfer of state power). This involves, among other things, building and expanding non-capitalist solidarity sectors within the body of capitalism. This will ensure that when the time of transition comes, it will be less painful and a backlash doesn’t occur against the new socialist regime, as it is faced with a shrinking economy as a result of investment strike by capital. An already existing and nourished non-capitalist sector will ensure that the workers will be in a position to launch a successful counter-strike and run a worker controlled economy and polity on their own. 

We, at NSI, believe that there is an urgent need for renewal of socialist theory and practice, given our past experiences and requirements of the present. In this regard, we have a lot to learn from Prof. Wrights immense contributions.

Monday, January 14, 2019

NSI’s statement on the Peoples’ Resistance against the Citizenship Amendment Bill



New Socialist Initiative stands in solidarity with the people of Assam, Tripura and the other North Eastern states in their heroic struggle against the communally motivated Citizenship Amendment Bill (CAB). It was only because of the resistance of the people that the government couldn’t table the Bill for voting in the Rajya Sabha after surreptitiously passing it in the Lok Sabha. This is in fact a victory for all the progressive and democratic forces of the country,who have been fighting to save and expand the secular character of the nation. While the danger still looms large and there is a strong possibility that the government may try to bring back the bill in the upcoming budget session, the mass resistance of the people has demonstrated very clearly that the evil designs of the fascists in power will not go unanswered and that the people will fight back with all their might.

Perhaps it is a testimony to the success of the peoples’ resistance and the frustration of the fascist rulers that the Assam police slapped sedition charges against three prominent personalities of the state, who have been leading the mass resistance against the CAB in the state. Marxist literary critic Dr. Hiren Gohain, KMSS leader Akhil Gogoi and senior journalist Manjit Mahanta have been booked under Sections 120(B), 121, 123 and 124(A) of the IPC. In Tripura, numerous protectors have been beaten up by the police and the state government has prevented civil society delegations from neighbouring states from visiting and meeting the injured. We appeal to all the left, democratic and secular forces of the country to condemn such fascist attempts to muzzle democratic dissent and raise their voice in solidarity with protesters.