Thursday, May 12, 2022

(सन्धान व्याख्यानमाला)सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति, हिंदी जनमानस और हिंदी बुद्धिजीवी:वीरेंद्र यादव

 

सन्धान व्याख्यानमाला

पाँचवा वक्तव्य

विषय: ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति, हिंदी जनमानस और हिंदी बुद्धिजीवी

वक्ता: वीरेंद्र यादव

(लेखक और आलोचक)

दिनांक:  14 मई 2022, शाम 6 बजे से

आयोजक :  न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव (NSI) हिंदी प्रदेश




व्याख्यान ज़ूम पर होगा व फ़ेसबुक पर लाइव किया जायेगा।

फेसबुक लाइव

https://www.facebook.com/sandhaanonline

जूम लिंक

https://us02web.zoom.us/j/84131408337…

मीटिंग आईडी : 841 3140 8337

पासकोड  : 692956

आप सभी इस श्रृंखला में भागेदारी व वैचारिक हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित हैं।


कुछ बिंदु: 

1- ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ मात्र एक राजनीतिक व्यूहरचना न होकर एक ऐसी अवधारणा है जिसकी गहरी जड़ें पारम्परिक रूप से हिंदू जनमानस में मौजूद हैं।

2- 1857 से लेकर 1947 तक विस्तृत ‘स्वाधीनता’ विमर्श में इस हिन्दू मन की शिनाख्त की जा सकती है।

3- स्वाधीनता आंदोलन इस हिन्दू मन से मुठभेड़ की नीति न अपनाकर मौन सहकार की व्यावहारिकता की राह पर ही चला।

4- हिंदी क्षेत्र में तर्क, ज्ञान व वैज्ञानिक चिंतन की धारा भारतीय समाज की वास्तविकताओं में कम अवस्थित थीं, उनकी प्रेरणा के मूल में पश्चिमी आधुनिकता व वैश्विक प्रेरणा अधिक थी।

5- हिंदी क्षेत्र व समाज में ज़मीनी स्तर व हाशिये के समाज के बीच से जो तार्किक, अंधविश्वास विरोधी व विज्ञान सम्मत सुधारवादी प्रयास हुए उन्हें मुख्यधारा के चिंतन-विचार में शामिल नहीं किया गया।

6- ध्यान देने की बात है कथित ‘हिंदी नवजागरण’ विभेदकारी वर्ण-जातिगत सामाजिक संरचना की अनदेखी कर प्रभुत्ववादी मुहावरे में ही विमर्शकारी रहा।

7- संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्ष आधुनिक भारत की परियोजना में भारतीय समाज की धर्म व जाति की दरारों के जड़मूल से उच्छेदन को प्रभावी ढंग से शामिल नहीं किया जा सका।

8-सारी आधुनिकता के बावजूद हिंदी बुद्धिजीवियों का वृहत्तर संवर्ग वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर जनबुद्धिजीवी की भूमिका न अपना सका।

9- सामाजिक न्याय की अवधारणा का मन में स्वीकार भाव न होना, हिंदी बुद्धिजीवी की एक बड़ी बाधा है।

10- ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का प्रतिविमर्श रचने के हिंदी बुद्धिजीवी के उपकरण वही रहे जो हिंदू बुद्धिजीवियों के।

11- हिंदी बुद्धिजीवी के सवर्णवादी अवचेतन से उपजा दुचित्तापन ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का प्रतिविमर्श रचने में एक बड़ी बाधा है।

“सन्धान व्याख्यानमाला” का प्रस्ताव यूँ है कि हिन्दी सभ्यता-संस्कृति-समाज को लेकर हिंदी भाषा में विचार की अलग से आवश्यकता है। हिन्दी में विचार अनिवार्यतः साहित्य से जुड़ा है और हिन्दी मनीषा के निर्माण में साहित्यिक मनीषियों की अग्रणी भूमिका है। हम हिन्दी साहित्य-जगत के प्रचलित विमर्शों-विवादों से थोड़ा अलग हटकर साहित्य के बुनियादी मसलों से शुरुआत करना चाहते हैं। प्रगतिशील बिरादरी का हिस्सा होते हुए भी हम यह नहीं मानते कि साहित्य की भूमिका क्रान्तियों, आन्दोलनों और ऐतिहासिक शक्तियों के चारण मात्र की है। हम यह नहीं मानते कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता साहित्य की उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो सकता है। हम अधिक बुनियादी सवालों से शुरू करना चाहते हैं, भले ही वे पुराने सुनायी पड़ें। मसलन, साहित्य कहाँ से आता है – ऐसा क्यों है कि मानव सभ्यता के सभी ज्ञात उदाहरणों में साहित्य न केवल पाया जाता है बल्कि ख़ासकर सभ्यताओं के शैशव काल में, और अनिवार्यतः बाद में भी, उन सभ्यताओं के निर्माण और विकास में महती भूमिका निभाता है। साहित्य के लोकमानस में पैठने की प्रक्रियाएँ और कलावधियाँ कैसे निर्धारित होती हैं? क्या शेक्सपियर के इंग्लिश लोकमानस में पैठने की प्रक्रिया वही है जो तुलसीदास के हिन्दी लोकमानस में पैठने की? निराला या मुक्तिबोध के लोकमानस में संश्लेष के रास्ते में क्या बाधाएँ हैं और उसकी क्या कालावधि होगी? इत्यादि। हमारा मानना है कि “जनपक्षधर बनाम कलावादी” तथा अन्य ऐसी बहसें साहित्य के अंतस्तल पर और उसकी युगीन भूमिका पर सम्यक प्रकाश नहीं डाल पातीं हैं. बुनियादी और दार्शनिक प्रश्न संस्कृतियों और सभ्यताओं पर विचार के लिए अनिवार्य हैं।

(Democracy Dialogue special lecture ) ‘How did UP Decide: Identities, Interests and Politics by Prof Zoya Hasan

 

Special lecture in the Democracy Dialogues series  was delivered by Prof Zoya Hasan  on 24 April 2022 where she  spoke on "How did UP Decide: Identities, Interests and Politics"




Here is the YouTube Link of the lecture.


Abstract

 Uttar Pradesh has just seen an intensely contested assembly election which resulted in a second straight victory for the Bharatiya Janata Party in this politically crucial state. This momentous outcome is the subject of intense debate among analysts and indeed the public at large. There was a premise this time, particularly in UP, that communal polarisation wasn’t working because of acute economic discontent which could trigger electoral change. However, the large-scale discontent over many economic issues, including jobs, did not translate into a decision to vote out the government. Many analysts have attributed BJP’s reelection to welfare measures and free rations to the poor during the lockdown. This cannot explain BJP’s persistent success which extends beyond this election. The welfarist argument ignores the compelling logic of long term communalism and the systematic construction of the Hindu vote in UP politics since the time of the Ramjanmabhoomi movement centered in UP and the communal campaigns in the last five years, its impact is reflected in the election results. This construction of the Hindu vote also trumped the caste-based politics of the regional Samajwadi Party and Bahujan Samaj Party through a mobilization of upper caste and non-dominant backward and lower caste communities. Communal polarization and identity politics is the keystone of their strategy and the decisive factor driving electoral choices.






(वीडियो) संस्कृति और राजनीति : प्रणय कृष्ण

 “सन्धान व्याख्यानमाला” का चौथा आयोजन 10 अप्रैल  2022 को किया गया  जिसमें प्रणय कृष्ण (प्रोफेसर , हिन्दी विभाग , इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पूर्व महासचिव, जन संस्कृति मंच) द्वारा  “संस्कृति और राजनीति “विषय पर व्याख्यान दिया गया.


इस व्याख्यान का वीडियो हमारे यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है.



सारांश 

‘संस्कृति’ कोई सुनिश्चित अवधारणा नहीं है, उसके अर्थ का विस्तार और संकोच समय समय पर होता रहा है. उसे महसूस तो हर कोई करता है लेकिन उसे परिभाषित करना कठिन काम है. फिर भी, सुविधा और सरलता के लिए उसे ‘ जीने के दंग’ या जीवन पद्धति कहा जा सकता है. भारत या अमेरिका जैसे देश ‘ बहुसांस्कृतिक’ हैं, अर्थात यहां अनेक जीवन पद्धतियां एक साथ विद्यमान है जिनमें अंतर्बाह्य संघर्ष भी चला करता है. कुछ लोगों की मान्यता है कि आमूल परिवर्तनकारी राजनीति जिन दौरों में कमज़ोर पड़ती है, उन दौरों में राजनीति सांस्कृतिक मोड़ लेती है अर्थात संस्कृति के प्रश्न राजनीतिज प्रश्न बन जाते हैं. वर्तमान भारत में तो सत्ताधारी दल ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के झंडे तले राजनीति कर रहा है. ऐसे में संस्कृति और राजनीति के अंतर्संबंधों पर फिर से विचार करना और उसकी चुनौतियों को रेखांकित करना और जन संस्कृति के विकास की रणनीतियों पर चर्चा वक्त की ज़रुरत है.

सन्धान व्याख्यानमाला के बारे में

“सन्धान व्याख्यानमाला” का प्रस्ताव यूँ है कि हिन्दी सभ्यता-संस्कृति-समाज को लेकर हिंदी भाषा में विचार की अलग से आवश्यकता है. हिन्दी में विचार अनिवार्यतः साहित्य से जुड़ा है और हिन्दी मनीषा के निर्माण में साहित्यिक मनीषियों की अग्रणी भूमिका है. हम हिन्दी साहित्य-जगत के प्रचलित विमर्शों-विवादों से थोड़ा अलग हटकर साहित्य के बुनियादी मसलों से शुरुआत करना चाहते हैं. प्रगतिशील बिरादरी का हिस्सा होते हुए भी हम यह नहीं मानते कि साहित्य की भूमिका क्रान्तियों, आन्दोलनों और ऐतिहासिक शक्तियों के चारण मात्र की है. हम यह नहीं मानते कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता साहित्य की उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो सकता है. हम अधिक बुनियादी सवालों से शुरू करना चाहते हैं, भले ही वे पुराने सुनायी पड़ें. मसलन, साहित्य कहाँ से आता है – ऐसा क्यों है कि मानव सभ्यता के सभी ज्ञात उदाहरणों में साहित्य न केवल पाया जाता है बल्कि ख़ासकर सभ्यताओं के शैशव काल में, और अनिवार्यतः बाद में भी, उन सभ्यताओं के निर्माण और विकास में महती भूमिका निभाता है. साहित्य के लोकमानस में पैठने की प्रक्रियाएँ और कालावधियाँ कैसे निर्धारित होती हैं? क्या शेक्सपियर के इंग्लिश लोकमानस में पैठने की प्रक्रिया वही है जो तुलसीदास के हिन्दी लोकमानस में पैठने की? निराला या मुक्तिबोध के लोकमानस में संश्लेष के रास्ते में क्या बाधाएँ हैं और उसकी क्या कालावधि होगी? इत्यादि. हमारा मानना है कि “जनपक्षधर बनाम कलावादी” तथा अन्य ऐसी बहसें साहित्य के अंतस्तल पर और उसकी युगीन भूमिका पर सम्यक प्रकाश नहीं डाल पातीं हैं. बुनियादी और दार्शनिक प्रश्न संस्कृतियों और सभ्यताओं पर विचार के लिए अनिवार्य हैं. इस व्याख्यानमाला में हम विचार-वर्णक्रम के विविध आधुनिक एवं प्रगतिशील प्रतिनिधियों को आमन्त्रित करेंगे. ज़रूरी नहीं है कि वक्ताओं के विचार हमारे अपने विचारों से मेल खाते हों. हमारी मंशा गम्भीर विमर्श और बहस-मुबाहिसे की है.