- अंजलि सिन्हा
I
नए साल के इन्तज़ार में बीते साल की रात इस बार अलग ढंग से बीती। राजधानी में कई जगहों पर लोग एकत्रित होकर नए साल का स्वागत मानो इस संकल्प के साथ कर रहे थे कि अब और अत्याचार नहीं। यह अच्छी बात है कि एक आम लड़की ने सभी को सोचने के लिए और अपनी प्रतिबद्धता जताने के लिए प्रेरित किया है। वह लड़की जिसे लोगों ने ‘निर्भया’, ‘दामिनी’, ‘अमानत’, ‘ज्योति’ ऐसे कई नामों से पुकारा - उसकी जीने की जीजीविषा सुस्त पड़ी तरूणाई को अन्दर तक झकझोर गयी।
किसी राजनेता ने ठीक ही कहा है कि यह आज़ाद भारत के इतिहास में पहली दफा था कि महिलाओं के साथ अत्याचार के मसले पर इतनी बड़ी तादाद में युवा उतरे। इतनाही नहीं सरकार को भी इस मामले में कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा और न केवल कानून में जरूरी सुधार लाने की बात करनी पड़ी बल्कि न्यायप्रणाली को अधिक चुस्त करने, फास्ट ट्रैक अदालतें स्थापित करने जैसे पहले किए गए निर्णयों को अमली जामा पहनाने की बात करनी पड़ी। निश्चित ही यह अभी परखा जाना है कि इस जनाक्रोश के दबाव में सरकार ने जो वादे महिलाओं की सुरक्षा को लेकर किए हैं, वह कितने लागू होंगे।
अभी तक की सरकारी लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का उन्हें एहसास कराना तथा त्वरित कार्रवाई के लिए बाध्य किया जाना जनता की जिम्मेदारी है तो दूसरी तरफ हर इन्सान, हर परिवार और पूरे समाज को यह जवाब देना है कि ऐसे पुरूषों की ऐसी मानसिकता बनी क्यों है ? वे अपने पूरे होशो हवास में जानबूझकर वहशी व्यवहार करते हैं, उनके लिए तो जो कुछ बोला जाए वह कम है। लेकिन हम यहभी पाते हैं कि अपराधी सिर्फ वही नहीं है। जिन्होंने इस हद तक उतर कर घृणित अपराध नहीं किया उनमें भी औरत के प्रति सम्मानजनक नज़रिया विकसित नहीं हुआ है और वे सभी मिल कर भी स्त्रीद्रोही वातावरण तैयार करते हैं जिसमें बड़े अपराधों को अंजाम देने की हिम्मत अपराधी जुटा लेते हैं। हमारे समाज में छींटाकशीं, भद्दे मज़ाक, अश्लील व्यवहार आदि की गिनती नहीं की जा सकती है। यहां तक कि हमारी दैनंदिन संस्कृति में या त्यौहारों-उत्सवों में प्रगट या प्रच्छन्न रूप में नारीविरोध, नारीअपमान इतने गहरे में रचा बसा होता है कि वह सामान्यबोध का हिस्सा बन जाता है।
जिन्दगी और मौत के बीच 13 दिन जूझती रही उस निर्दोष लड़की ने - जो हममें से एक थी, और अपने कैरिअर को लेकर भी उसके अपने विचार थे - इस बीच हमें और भी बहुत कुछ एहसास कराया है। एक दूसरे से अनजान अपरिचित लोग इस अन्याय के खिलाफ एकजुट हुए हैं। बड़े बड़े प्रदर्शनों के साथ ही जिसमें हर उम्र के लोग शामिल हुए, महिलाओं के साथ साथ पुरूषों की भी बड़ी संख्या सड़कों पर उतरी वही गली मुहल्लों में भी यह आवाज़ पहुंची, वहां पर भी जुलूस निकले। यहां तक कि पांच-दस छात्र- छात्राओं के समूह भी जुलूस की शक्ल में न्याय की मांग करते हुए सड़कों पर देखे गए।
निश्चित ही बढ़ता असुरक्षित वातावरण अब सभी के सरोकार का मुद्दा बन गया है। लगातार विरोध प्रदर्शनों में भागते भागते थक कर चूर हो चुके युवाओं का हौंसला देख कर यही लगा कि अब बहुत कुछ अच्छा भी होनेवाला है, वे अपने हकों के प्रति जागरूक हैं और अमन तथा इन्साफ की दुनिया बनाने में उनकी अच्छी भूमिका बनेगी। यह पूरा जनप्रतिरोध अपने परिवेश को लेकर एक तार्किक और जवाबदेह नज़रिया विकसित करने में मदद करेगा।
सड़क से लेकर सत्ता के गलियारों तक पहुंची इस सरगर्मी के दौरान कुछ लोग यह कहते भी पाए गए कि धीरे-धीरे यह आन्दोलन और जनाक्रोश भी थम जाएगा। दरअसल थमता तो हर आन्दोलन है लेकिन उनमें से सभी रूकता नहीं है वह दूसरे रूप में जारी रहता है। दूसरी बात हर उभार समाज पर अपना असर भी छोड़ता है। 70 के दशक के उत्तरार्द्ध में जब मथुरा बलात्कार काण्ड के खिलाफ महिलाओं का व्यापक आन्दोलन खड़ा हुआ, यौन अत्याचार के लिए स्त्रियों के ‘चऱित्र’ पर ही लांछन लगाने के सिलसिले पर प्रश्न उठे, तो उसने महिलाओं के लिए जगह भी बनायी। याद रहे कि आदिवासी युवती मथुरा के साथ पुलिस कस्टडी में हुए अत्याचार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने विवादास्पद टिप्पणी की थी और अत्याचारी पुलिसकर्मियों को इस आधार पर छोड़ दिया था कि मथुरा ‘संदिग्ध चरित्र’ की युवती थी। इसी फैसले का विरोध करते हुए कुछ न्यायविदों एवं महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के नाम खुला खत लिखा था। यहीं से एक तरह से आन्दोलन की नींव पड़ी थी।
ऐसा नहीं कह सकते कि बलात्कार कानूनों में जरूरी संशोधन के लिए प्रेरित करनेवाले इस आन्दोलन के तीन दशक बाद आज भी पुलिसिया व्यवहार या न्यायपालिका की बहसों में स्त्रियों के चरित्र को प्रश्नांकित करने की कोशिश नहीं होती, मगर अब ऐसा होने पर विरोध भी उतना ही होता है। अब कोई राजनेता या अधिकारी स्त्री के विरोध में बयानबाजी करने के पहले दस बार सोचता है और अगर अपने पुरूष प्रधान चिन्तन के अन्तर्गत बयान देता भी है तो अच्छी भली भद्द पिटती है उसकी। अभी हमारे सामने ही राष्ट्रपति के बेटे अपने नारी विरोधी बयान को लेकर तीखी आलोचना का शिकार हुए तथा उन्हें माफी मांगनी पड़ी और लड़कियों को स्कर्ट पहनने से मना करनेवाले भाजपा विधायक को लड़कियों के घेराव का सामना करना पड़ा।
यह भी विचारणीय है कि जब कोई किसी अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होता है तो बाद में उसे अन्य दूसरे अन्याय भी दिखने लगते हैं और इस रूप में समाज को आगे ले जानेवाली ताकतें आपस में नयी मजबूती ग्रहण करती जाती हैं। समाज की अग्रगति उन निराशावादियों से तय नहीं होती जिन्हें हर प्रयास में खोट नज़र आती है।
मुआवजा या न्याय !
इस आन्दोलन ने कई नए सवालों को उछाला है या कुछ पुराने मसले भी फिर सतह पर आते दिखे हैं। बलात्कार पीड़ितों को नगद मुआवजा देने का मुद्दा ऐसा ही एक मसला है। दिल्ली गैंगरेप की पीड़िता के लिए दिल्ली सरकार ने 15 लाख और उत्तर प्रदेश सरकार ने भी पीड़िता के परिजनों को 20 लाख रूपए देने की घोषणा की है। सवाल यह उठता है कि सरकारी स्तर पर मुआवजे की नीति का विश्लेषण कैसे किया जाए ?
दरअसल भारत में यह अत्यन्त जटिल रूप में पेश हुआ है। बलात्कार पीड़ितों को मुआवजा देने या नहीं देने की बात पर दोनों ही पक्षों में मजबूत तर्क दिए गए हैं तथा दुनिया भर में ऐसे पीड़ितों की स्थिति का जायजा लिया गया है। कुछ लोगों की राय है कि मुआवजा एक तरह से स्वीकार करना है कि पीड़िता का नुकसान हुआ है और उसकी भरपाई होनी चाहिए। भरपाई सरकार के कोष से हो या आरोपियों के जुर्माने की राशि से हो यहभी चर्चा का विषय रहा है। कई मामलों में कोर्ट ने आरोपियों के लिए तय किया गया जुर्माना राशि को पीड़िता को देने का निर्देश भी दिया है तो सरकार ने अपने कोष से भी मुआवजा देने की घोषणा की है।
हालाकि नगद मुआवजे के रूप में क्षतिपूर्ति का अलग महत्व भी देखा जा सकता है। पश्चिमी देशों में इसे हीलिंग प्रोसेस अर्थात घाव भरने की प्रक्रिया का पहला कदम समझा जाता है। इसमें राज्य द्वारा यह स्वीकृति भी निहित होती है कि पीड़िता के साथ हिंसा हुई। जब अपराध को राज्य/समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है तो यह पीड़िता के मानसिक तौर पर भी नया पन्ना पलटने के लिए प्रेरित करता है।
हाल में गुजरात हाईकोर्ट ने एक केस के सन्दर्भ में सरकार से पूछा कि बलात्कार पीड़ित के मुआवजे के लिए सरकार ने क्या किया है ? कुछ राज्य सरकारों ने जैसे बिहार, पंजाब की सरकार ने किस चोट पर कितना मुआवजा सरकार देगी इसके रेट भी तय किए हैं जैसे दुर्घटना में मृत व्यक्ति को कितना मिलेगा, घायल व्यक्ति को कितना मिलेगा या अत्याचार झेली पीड़िता को कितना मिलेगा आदि। ज्ञात हो कि 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग से कहा था कि वह बलात्कार पीड़िता को मुआवजे को लेकर योजना तैयार करे। उसने एक बोर्ड के गठन के लिए भी कहा था जो यह तय करेगा कि किसे कितनी राशि दी जाए। महिला आयोग ने 2005 में इस सलाह पर एक मसविदा तैयार किया जिसे ‘‘स्कीम फार रीलीफ एण्ड रिहैबिलिटेशन आफ विक्टिम्स आफ रेप 2005’’ नाम दिया, लेकिन इस ड्राफ्ट को अन्तिम रूप 2011 में दिया जा सका।
अगर हम नीतिगत तौर पर देखें तो मुआवजे की घोषणा या तो प्राकृतिक आपदा के समय की जाती है या किसी ऐसी दुर्घटना में की जाती है जिसमें जानमाल की हानि होती है। हमारे समाज में बलात्कार को ‘‘इज्जत’’ लुट जाने जैसे पर्यायवाची शब्द का इस्तेमाल भी होता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बलात्कार के मामले में मुआवजा दिला कर कहीं न कहीं हम इसी समझदारी को पुष्ट करते हैं। इससे बचने के लिए ‘सहेली’ जैसे महिला अधिकारों के लिए सक्रिय संगठन मानते हैं कि इसे मुआवजा/कम्पनसेशन नहीं बल्कि ‘पेयिंग डैमेजेस’’ के तौर पर सम्बोधित किया जाए।
यूं तो आर्थिक सहायता की बात गलत प्रतीत नहीं होती और किसी पीड़ित व्यक्ति को सहायता मिले तो इससे कोई क्यों इन्कार करेगा, लेकिन हमारे समाज का जैसा वातावरण है उसमें उसका गहराई से विश्लेषण करना जरूरी है तथा उसके दूरगामी प्रभाव को देखना आवश्यक है। यदि पीछे की घटनाओं की ओर नजर दौड़ाये तो हम देखते हैं कि हमारे समाज में बलात्कार पीड़ित को देखने का नज़रिया पीड़ित को कटघरे में खड़ा करने वाला होता है। मसलन वह फलॉं समय में फलॉं जगह पर अकेले क्यों गयी ,घटना के समय अपने बचाव के लिये उसने क्या किया, उसे बचाव करते समय चोट लगने का सबूत है या नहीं, बलात्कारी को वह पहले से जानती थी या नहीं आदि। इसी के साथ पीड़िताओं पर यह आरोप भी लगता रहा है कि उन्होंने अपने निजी फायदा या आर्थिक लाभ के लिये आरोप लगाया है। मेड़िकल परीक्षणों को भी प्रभावित करने के प्रयास होते है जिसमें कपड़ों को बदल देना, लेटलतीफी आदि कई हथकण्डे रहते हैं। कई बार ड़रा-धमका कर तथा आर्थिक लाभ का लालच देकर बयान पलटवा दिया जाता है। ऐसे में आर्थिक सहायता की बात का सहारा लेकर केस को कमजोर करने का प्रयास होगा। यह भी साबित करने की कोशिश होगी कि लाभ के लिये सम्बन्ध बनाकर कोर्ट को गुमराह किया जा रहा है। राजस्थान के चर्चित भंवरी देवी बलात्कार काण्ड में सारे सबूतों के बाद भी चारों बलात्कारियों को सजा नहीं हो पायी है। यह भी कहा गया कि भंवरी ने अपने प्रचार तथा फायदे के लिये यह सब किया।
भारत में महिला अधिकारों के लिए काम करनेवाले कार्यकर्ताओं ने यहभी पाया है कि एक बार पीड़ित को मुआवजा मिल जाने के बाद पुलिस की भी उस केस को लड़ने में रूचि नहीं रहती है। समाज के एक हिस्से में भी यह धारणा बलवती होती है कि अब इसे मुआवजा मिल गया है तो उसे बोलने की क्या जरूरत है ?
यहां गुजरात के पाटन की घटना पर भी गौर करना चाहिये। अपने ही शिक्षकों द्वारा सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई उपरोक्त छात्रा ने अपने मॉं बाप के साथ जाने से इन्कार कर दिया और एक स्वयंसेवी संस्था के निगरानी में उसे नारी निकेतन भेज दिया गया क्योंकि उसका अपना पिता सरकार द्वारा प्राप्त मुआवजे की राशि लेकर केस वापस लेने के लिये अपनी बेटी पर दबाव बना रहा था।
हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के पूर्वराष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने सामूहिक बलात्कार की पीड़ित मुख्तरन माई के लिये खुलेआम टिप्पणी की थी कि मुख्तरन ने विदेशयात्रा के लिये ऐसा आरेाप गढ़ा है। इन सबके मद्देनजर देखें तो आर्थिक लाभ के शोरगुल में कहीं न्याय पाने के मामले को गौण न बना दिया जाए। सबसे जरूरी और प्राथमिक मुद्दा है दोषी को सजा मिले। केस की सुनवाई त्वरित( फास्ट ट्रॅक कोर्ट) हो और न्यायिक प्रक्रिया संवेदनशील हो। यदि जर्मन विदेशी महिला के बलात्कार के शिकार होने पर कार्रवाई तुरन्त हो सकती है तो बाकी के मामलें क्यों लटके रहते हैं। पीड़ित के इलाज का, कानूनी कार्रवाई और पुनर्वास में जिन खर्चों की जरूरत हो उसे सरकार खुद वहन करें। लेकिन बलात्कार के बाद आर्थिक सहायता की घोषणा भ्रम पैदा कर देनेवाली होगी। इससे महिलाओं पर अधिक लांछन लगाया जाएगा और न सिर्फ उन पर जो पीड़ित हैं बल्कि उन सब पर भी जो इस अपराध के खिलाफ आवाज उठाती हैं।
हमें यह भी देखना चाहिये कि अन्य गम्भीर अपराधों में भी मुआवजा राशि से मामले को रफा-दफा करने का प्रयास होता है। गुजरात नरसंहार में जो लोग बर्बर ढ़ंग से मारे गये, जिन्होंने अपने आत्मीय जन को हमेशा के लिये खो दिया उनके दोषियों को नहीं पकड़ा गया लेकिन मुआवजे की बात हो रही है। भागलपुर दंगापीड़ितों को अभी तक न्याय नहीं मिला लेकिन उन्हें भी मुआवजा दिया गया। क्या न्याय पाने के सवाल को, इन्साफ हासिल करने के सवाल को मुआवजे की राशि से कभी प्रतिस्थापित किया जा सकता है ?
III
अश्लीलता का कारोबार अर्थात किसे भाते हैं हनीसिंह के गाने ?
हनी सिंह का नए सिरेसे सूर्खियों में आना इस आन्दोलन के चलते ही मुमकिन हुआ है। यूँ तो उनकी शोहरत पहले से रही है कि वे ऐसे अकेले गायक हैं जिनके एक गाने पर संगीतकार 70 लाख रूपए तक देने को तैयार होते हैं या यूटयूब पर डाउनलोड होने वाले हिन्दी-पंजाबी गीतों में भी वे आगे रहते हैं। इस बार यह सूर्खियां उनके इर्दगिर्द खड़े विवादों के चलते हैं। यह विवाद इस कदर बढ़ा दिखता है कि उनके गानों को लेकर उनके खिलाफ केस दायर हुए हैं, नए साल की पूर्वसंध्या पर गुड़गांव के ब्रिस्टल होटल में आयोजित उनके कार्यक्रम को जनदबाव के चलते रद्द करना पड़ा है या उनके इन गानों पर पाबन्दी लगाने के लिए सोशल मीडिया पर मुहिम भी चलती दिखती है। वजह यही बतायी जा रही है कि उन्होंने बेहद अश्लील तथा महिलाओं को अपमानित करनेवाले, उनके खिलाफ हिंसा को बढ़ावा देनेवाले गाने गाए हैं। वैसे उन्होंने बाद में यह कह कर अपना पल्ला झाड़ने का प्रयास किया है कि ये गीत उनके लिखे नहीं है, लेकिन लिखा भले न हो मगर गाया तो उन्होंने ही है। इनमें से एक गाने ‘बलात्कारी’ में वह बाकायदा किसी अनजान युवती के साथ जबरन बनाए गए रिश्ते को सुनाते हैं और अपने आप को रेपिस्ट कह कर खुद की तारीफ बयां करते हैं।
वैसे हनीसिंह का मामला इतना उजागर होने से पहले पता चला है कि पंजाब के कुछ महिला तथा प्रगतिशील संगठनों ने भद्दे गानों को गानेवाले तथा ऐसे कुछ बैण्डस के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। उनकी इस मुहिम का असर इतना हुआ है कि जालन्धर जैसी जगहों पर इन गीतों को बेचनेवालों को अपनी दुकान समेटनी पड़ी है। समय समय पर विरोध होता रहा है लेकिन बड़े पैमाने पर इसका आनन्द उठानेवाले मौजूद हैं यानि इन गानों का अपना मार्केट है इसलिए वह पेश होता रहता है।
इस बीच यह मुद्दा फिर से इसलिए उठा है क्योंकि बलात्कार के खिलाफ देश भर में आक्रोश फूटा है। इसी के साथ देश भर में महिलाओं के बीच होनेवाली यौन हिंसा सभी की चिन्ता का विषय बनी है। लोग तरह तरह से इसका विश्लेषण कर रहे हैं तथा कारणों पर अपनी समझदारी को साझा कर रहे है कि आखिर इतने बड़े पैमाने पर विभिन्न स्तरों पर हमारे समाज में महिलाओं के साथ हिंसा क्यों होती है? मुद्दा महज कुछ हजार बलात्कारियों का नहीं है और अभी तक अनसुलझे एक लाख से अधिक मामलों का नहीं है - जिनको लेकर महिला संगठनों ने आवाज़ उठायी है - बल्कि हर जगह चाहे वह सार्वजनिक स्थल हो या निजी दायरा हो औरत को भोग की वस्तु समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि इन बलात्कारों की तुलना में कई गुना अधिक वह हिंसा होती है जो मुद्दा भी नहीं बन पाती, जैसे छिंटाकशीं, फिकरेबाजी, घूरना तथा भद्दा अनचाहा स्पर्श करना आदि। इसमें दूसरे प्रकार से महिलाओं को चोट पहुंचायी जाती है। इस प्रकार यौन हिंसा जिसे हल्के रूप में छेड़छाड़ कहा जाता है कि घटनाएं जितनी दर्ज होती है उससे कई गुना अधिक घटती हैं। आखिर रोज ब रोज कोई कितनी शिकायत करते फिरेगा।
इसी विचारविमर्श में यह बात भी उभरी है कि इस प्रकार यौन हिंसा की घटनाएं क्या महज कानून व्यवस्था का मसला है और उनके सख्त होने से सारी समस्य क्या हल हो जाएगी ? दरअसल सही मायने में प्रभावी तथा सख्त कानूनी प्रक्रिया की कमी तो है ही और उसे तत्काल दुरूस्त किए जाने की जरूरत है। लेकिन इन नारीविरोधी व्यवहारों तथा घटनाओं को वैधता प्रदान करनेवाला दूसरा स्तर मानसिकता का है। ऐसी सोच जो दूसरों के अधिकारों का हनन करे, उन्हें अपमानित करे और उसे मुसीबत में डाल कर भी आनन्द की अनुभूति महसूस करे। ऐसे लोगों की ऐसी मानसिकता कैसे और कहां तथा किन किन चीजों के प्रभाव में निर्मित होती है ? इस स्त्री विरोधी मानसिकता के निर्माण में किन किन चीजों की भूमिका बनती है। जाहिर है कि सांस्कृतिक माध्यम एक सशक्त हथियार है जो व्यक्ति के अन्दर तक प्रभाव डालता है। हमारे देश में फिल्म और टेलीविजन के लिए तो सेंसर बोर्ड है किन्तु ऐसे एलबम प्रकाशित करने या स्वतंत्रत रूप से गायकी करने पर कोई निगरानी की व्यवस्था नहीं है। और जो मौजूद है वह इतनी ढीलीढाली है कि बहुत हिम्मतवाला व्यक्ति ही ऐसे मामलों को उठा सकता है।
जैसे हनीसिंह पापुलर हो गए हैं वैसे ही पंजाबी हिन्दी, मैथिली, हरियाणवी, भोजपुरी या कई अन्य स्थानीय भाषाओं के गायक चर्चित हुए हैं। दरअसल टेक्नोलोजी के सस्ते होने के चलते आसानी से सीडी या डीवीडी बनाने की हुई व्यवस्था के चलते और ऐसे गानों की ‘मार्केट’ देखते हुए इधर बीच ऐसे कई गायक वहां उभरे हैं। इसीलिए मौजूं मुद्दा यह है कि वे कौन लोग हैं जिन्हें वे अच्छे लगते हैं। यह समझने की जरूरत है कि यहां एक बड़ी संख्या में पुरूष तरह तरह की कुंठाएं पाल कर बड़ा होता है। ऊपर से सभ्य सुसंस्कृत दिखनेवाला भी एक प्रकार की भड़ास अन्दर भरे हुए होता है और मौका मिले तो उसकी कुण्ठा उजागर हो जाती है।
हनीसिंह की बात थोड़ी देर के लिए भूल जाएं, अगर हम जायजा लें हास्य कविता के पाठ का तो हंसी का समा कब अधिक बंधता है, जब किसी प्रकार के यौनिक रिश्तों की बात हो, जब पुरूष के परस्त्री से लुकाछिपी रिश्तों की बात हो, पत्नी की बहन के साथ पति द्वारा की जानेवाली धोखाधड़ी को गाने में परोसा गया हो या स्त्री के शारीरिक सौंदर्य का बयान हों। वाराणसी जिसे भारतीयों का एक हिस्सा ‘पवित्र नगरी’ कहता है, वहां होली के अवसर पर अस्सी घाट पर होनेवाले कवि सम्मेलनों में शिरकत करने पर आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि किसी प्रोफेसर के किसी अन्य स्त्री के साथ रिश्तें या ऐसे ही तमाम फूहड, अश्लील गीतों एवम कविताओं को सुनने के लिए कितने हजार में लोग जुटते हैं। और वहां न पहुंचनेवाले लोगों तक इस ‘मनोरंजन’ को पहुंचाने के लिए दूर दूर तक स्पीकर्स लगाए जाते हैं। पार्टियों में मौजमस्ती के नाम पर जिनमें हनींसिंह मार्का लोग गाने के लिए आमंत्रित होते हैं और इसके लिए उन्हें लाखों का भुगतान होता है या मलाइका और विपाशा के ठुमके देखने सुनने के लिए टिकट खरीद में भीड़ को सम्भालना मुश्किल हो जाता है, यहां तक कि इधर बीच खेल की मार्केटिंग करने के लिए भी चीयरलीडर्स का जलवा बिखेरा जाता है।
कौन है वो लोग जो इस मनोरंजन के लिए नोट फेंकने को तैयार रहते हैं ?
शहरों में, छोटे कस्बो तथा गांवों में सवारियां ढोनेवाले वाहनों में लोकधुन तथा स्थानीय भाषाओं में दोहरे मतलबवाले फूहड गाने कोई भी आसानी से सुन सकता है। जब ऐसे कैसेट या सीडी बजती हैं तो सवारियों तथा ड्राइवर कण्डक्टर के बीच मानों स्वतः ही एक प्रकार का सम्वाद स्थापित हो जाता है और वे उन गानों से चार कदम आगे जाकर आपस में हंसी मज़ाक में जुट जाते हैं। ऐसे मौकों पर हम कितने लोगों की गिनती कर सकते हैं जो यह सब नापसन्द करेंगे ? ड्राइवर या कण्डक्टर पर इन गानों को न बजाने के लिए दबाव डालेंगे !
निश्चित ही ऐसे गीतों, संवादों या चुटकुलों को नहीं सुनने या नहीं देखने का मसला सिर्फ नहीं है। यह सब लोगों की मनःस्थिति को प्रभावित और निर्मित दोनों करता है। ऐसे लोग जरूर अधिक संख्या में मौजूद हैं जिन्हें वह सब देखना सुनना अच्छा लगता है जिनके हवाले से वह सब परोसने वाले कहते हैं कि चाहनेवाले चाहते हैं तभी तो हम परोसते हैं। इसके बावजूद परोसनेवालों पर कोई नियंत्रण आवश्यक है। अनौपचारिक रूप से ही कोई न कोई सीमारेखा खींची जानी चाहिए जो अपने भीतर भी मौजूद हो। इन्स्टिटयूट फार डेवलपमेण्ट एण्ड कम्युनिकेशन के निदेशक तथा विश्लेषक प्रमोदकुमार का यह कथन सही है कि कला की अभिव्यक्ति के नाम पर या हल्का फुल्का मनोरंजन की बात कह कर जो इन संस्कृतियों को चलने देने के पक्ष में होते हैं, वे दरअसल समाज में गहरे पैठी पितृसत्तात्मक सोच एवं कुण्ठाओं को अभिव्यक्त करने की छूट चाहते हैं तथा कुछ लोग इन मानसिकताओं का फायदा उठा कर खुद मालामाल हो जाना चाहते हैं। वे जैसे कुछ वस्तु बेचते हैं, वैसे ही असभ्यता को भी बेचते हैं। उनके इस कारोबार में अबोध अपरिपक्व बालक भी यह सब आत्मसात करते परिपक्व होते हैं। फिर ऐसे लोगों की संख्या क्यों नहीं बढ़े जो राह चलते अपनी इस मानसिकता को अभिव्यक्त कर दें।
Photo: Bonojit Hussain |
अंजलि सिन्हा स्त्री मुक्ति संगठन की कार्यकर्ता है और पिछले तीस सालों से महिला आन्दोलन से जुडी रही है।
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