“क्रांतियाँ सपनों को हक़ीकत का जामा पहनाती है, मगर यथार्थ का प्रवाह अक्सर सपनों के पीछे रहता है...”
पर आज हम जिस क्रांति के लिये ज़मीन तैयार करने जा रहे हैं, वह ज़मीन इतनी उबड़ख़ाबड़ है कि पैर बड़ी मुश्किल से ठहर पाते हैं। वह ज़मीन इतनी सारी दरारों से कटी-फ़टी हुई है कि हमें लंबे अर्से तक मशक्कत करनी होगी। देखिये, कितनी सारी चुनौतियाँ हैं हमारे सामने?
सब से पहले तो हमें जिस तरह की राजकीय आज़ादी मिली है, उस से तो लग रहा है कि हमारा यथार्थ तों हमारे सपनों के पिछे रैंग रहा है! पहला सवाल तो ये ही उठ रहा है कि क्या ‘प्रजा’ में से हम ‘नागरिक’ बन पाये हैं इन पैंसठ सालों में? प्रजा में से ‘नागरिक’ बनना सिर्फ़ एक राजकीय परिघटना नहीं है- यह एक सांस्कृतिक घटना है, जो अपनेआप नहीं घटती है। वह हमारे नेष्ठिक प्रयासों की पैदाईष होती है, और दूसरी ओर यह घटना ‘राजनैतिक इच्छाशक्ति ’ से संभव होती है।
सरूप ध्रुव का वक्तव्य
आज हमारे आगे जो चुनौतियाँ हैं, वे सांस्कृतिक हैं; और उनसे मुठभेड़ करने पर ही हम नये समाज के सपनों को यथार्थ मे बदल सकते हैं। इन सांस्कृतिक चुनौतियों को आर्थिक और राजनैतिक भूमिका के साथ साथ रखने पर ही उन से संघर्ष की व्यूहरचनाएं तैयार हो पायेगी।
वैसे देखा जाये तो हमें जिस तरह का बुर्जुआ प्रजातंत्र और उस का संविधान प्राप्त हुआ है, उस के साथ भी हमें यह सांस्कृतिक बदलाव की प्रक्रिया करनी पडे़गी। अफ़सोस की बात यह है कि ना तो हमारा प्रजातंत्र ही समाज के निम्न स्तरों तक पहूंच पाया है और ना तो हमारा संविधान उसकी प्रचारित ख़ूबीयों पर ख़रा उतर पाया है! क्योंकि हमारा प्रजातंत्र और हमारे संविधान के बीच कई सारे विरोधाभास हैं। यूँ देखा जाये तो, प्रजा को नागरकित्व देनेवाला यह संविधान एक हाथ से हमें कई सारे अधिकार दे रहा है पर उधर, प्रजातंत्र के चरित्र को देखेंगें तो वही अधिकार वह छीन रहा है! कहीं कहीं तो ख़ुद हमें भी उन अधिकारों को पाने की ललक से ज़्यादा, उनका बलिदान दे देने तक की पारंपरिक त्यागभावना का मिथ्याभिमान भी रहता है।
इस विरोधाभास से एक तथ्य तो ज़रूर सामने आता है कि हमें ‘नागरिकता’ की सजगता देनेवाला संविधान ‘आधुनिक’(मोडर्न) है और अधिकार से ज़्यादा बलिदान की जो भावना है वह ‘पूर्व आधुनिक’(प्री-मोडर्न) है। मतलब की यह एक बहुत ही गहरा सांस्कृतिक तनाव है जो जर्जर होने पर भी हमारे विचारों में, व्यवहारों मे और अनेक तरह की अभिव्यक्तिओं में जीवित है। क्या ऐसा नहीं लगता कि क्रांतिकारी खे़में मे इस तनाव को निर्मूल करने की चुनौति उठाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये?
इन तनाव के कुछ दीगर दृष्टान्त हैं: एक तो हमारी वर्णव्यवस्था जात-पाँत की सडाँध को जड़ीभूत करनेवाले, हमारे तथाकथित प्रजातांत्रिक चुनाव। दूसरे हैं, हमारे धर्माधारित ‘पर्सनल लॉज़ ’ -जिन्हें ‘पारिवारिक कानून’ भी कहा जाता है। अब एक ओर हमारे परिवारों का जो पिछड़ा हुआ चरित्र है, उस में भला ‘कानून’, नक्कारखाने में तूती जैसा है; वरना जाति-पंचायतों और खाप पंचायतो की विभिशिकाएं कब की मिट चुकी होतीं! दूसरी तरफ, हजारो जाति-ज्ञातियाँ, प्रादेषिकता, भाषाई ईकाईयां, वंषवाद आदि हमारे चुनावों का ‘स्थायी भाव’ बन गया है। सत्ता का पूरा परिदृष्य ही पूर्व आधुनिक है। इन संकुचितताओं में से आनेवाले लोग, हमारे आधुनिक संविधान का अमल भला, क्यों कर करेंगें? कैसे करवायेंगें?
फिर हमारे वे पारिवारिक अधिकार; जैसे शादी, तलाक, बच्चा गोद लेने का हक, संपत्ति पर महिलाओं के हक़... आदि धर्माधारित है। मतलब कि इस देश के बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित और महिलाएँ, सब को अपने अपने धर्मो से मिली हुई ‘आज्ञाओं‘ को कानून के नाम पर पालन करना होता है। वहाँ भला ‘अधिकार’ कितने बच पायेंगें? तिस पर ‘दलितो’ को हिन्दू कोड़ बिल लागू होना अपने आप में एक विरोधाभास है! और भला, ऐसा कौन सा धर्म है जो महिलाओं को सही अर्थों में न्याय और अधिकार देना चाहता है?! वरना शाहबानों को जूझना पड़ता?! ये ही तो हमारा सांस्कृतिक दारिद्रय है कि महिलाओं और दलितों के संदर्भ में हमारा नज़रिया, हमारे अभिप्राय, हमारी भाषा और हमारा बर्ताव.... खतरनाक़ ढंग से पूर्व आधुनिक है -और उन शोषित -वंचित समुदायों की ख़ुद की मानसिकता भी पिछड़ी हुई है -बलिदानवाली, समर्पणवाली है!
कुल मिलाकर हम आज़ादी के पैंसठ साल के बाद भी पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद के चंगूल से मुक्त नहीं हैं और हमारा संविधान; जिसने हमें स्वतंत्रता-समानता और बन्धुता के साथ साथ और भी कई सारे वचन दिये थे वह पूरा कर नहीं पाया है और पूरा करने की मंशा भी दिखा नहीं पाया है! इन वंचनाओं को पर्दाफाश कर के, हम आधुनिकता के उन सारे मूल्यों को आत्मसात् करना चाहते हैं।... पर कब? और अलबत्ता, कैसे?
सच तो यह है कि आजकल हम, सांस्कृतिक आपातकाल में जी रहे हैं। हमारे यहां राज्य(स्टेट) और धर्म/धार्मिकता, व्यक्ति और धर्म/धार्मिकता और समुदाय के बीच के रिशतो को तय कर पाने में हमारा प्रजातांत्रिक राज्यतंत्र विफल रहा है। संविधान में वर्णित ‘धर्मनिरपेक्षता’ तो दूर की बात है; सामान्य और लोकप्रिय(पोपुलिस्ट) सर्वधर्मसम्भाव वाली पूर्व आधुनिक शर्त भी यह राज्यतंत्र निभा नहीं रहा है। ऐसा तो नहीं है कि हमारा ‘राज्य’ यह फ़र्क समझ नहीं रहा है! पर लगता है कि यह रिश्ता तय ना करने में उस का हित है, स्वार्थ है- आस्तित्व की सुरक्षा का सवाल है! क्यों कि धर्म-समुदाय और व्यक्ति के बीच की तंगदिलियां राज्य की कई कमियों को छिपाकर रखती है।
ये ही तंगदिलियां फ़ासिज़्म को जन्म देती हैं; जिन्हें दूसरों से (अदर ) हमेंशा ख़तरा महसूस होता रहता है। क्योंकि ऐसे फ़ासीवादियों/फ़ासीवाद को अपना ही जडसूत्रवादी(डोग्मेटिक) सूत्रसंचार चाहिये होता है। राज्य जब फ़ासिस्ट हो जाता है, तब मुकर जाता है प्रजातांत्रिकता से और पल्ला झाड देता है देश की सुरक्षा के नाम पर। ऐसी ही - इनकी ‘सुरक्षा’ दमनकारी-हिंसक कानूनों को जन्म देती है -POTA, AFSPA आदि। और ऐसी सरकारें किसी बाहरी आतंक के नाम पर प्रजा की साँसों को उपर की उपर, नीचे की नीचे रखती हैं। जिससे अपने अपने कैंचूल में बन्द फ़न्डामेन्टलीस्ट ताक़तों को उभरने का मौक़ा मिलता हे। जो प्रजा की मानसिकता पर हावी हो जाती है। सुरक्षा के नाम पर हरदम मिलनेवाली असुरक्षा जैसे देश का चरित्र बन रही है; जो कुछ प्रजा विषेश के बारे में अनचाहे पूर्वाग्रह (स्टीग्मा) को काई की तरह जमा कर देती है -वह चाहे कशमीर हो या पूर्वोत्तर के राज्य हों या तथाकथित नक्सल प्रभावित राज्य हो। तो दूसरी ओर गुजरात जैसे तथाकथित विकसित राज्य हो सकते हैं जहां पर अनकहे आपातकाल से ग्रस्त समाज हों.... कई मायनों में हम पूर्व आधुनिक आतंकित माहौल में जी रहे हैं। कहना चाहिये कि यह तीन स्तरोंवाला आतंकवाद हैः
1) राज्य का
2) धर्मों के कट्टरपंथी-कठमुल्लाओं का, और
3) बाज़ार का आतंकवाद।
यह स्थिति उपर उपर से चाहे राजनैतिक दिखें, पर है तो यह सांस्कृतिक आपातकाल।
यह धार्मिक कठमुल्लापन हमें आचार-व्यवहार में तो हिंसक अनुभव देता ही है; जिसका ब्यौरा दिया जा सकता है; पर पिछले पच्चीस-तीस सालों में, गुज़रे हुए घटनाक्रम की फ़ेहरीस्त लंबी हो जायेगी। मुख़्तसर यह कि यहाँ पर कलमबंदी हो चली है, जुबानबंदी हो चली है, और यहां तक कि विचारबंदी भी बिना किसी रोकटोक के हमारे कला-साहित्य-सिनेमा-शिक्षा जैसे क्षे़त्रो में अपना जाल बिछा चूकी है। यह मकड़ी के जाल जैसी मेनिफोल्ड -बहुआयामी सेन्सरशिप ने मौलिक अधिकार पर तो छापा मारा ही है पर स्वतंत्रता की मूल भावना पर भी चोट पहूँचाई है।
यहाँ पर राज्य की भूमिका क्या हो सकती है इस की कोई दुविधा नहीं होनी चाहिये, पर हक़ीकत में राज्य तो वह तीन बन्दरों वाला खि़लौना बन कर बैठा है जो धार्मिक कट्टरपन के मुद्दों पर न कुछ सुनता है -न देखता है -न बोलता है! यह सांस्कृतिक पराधीनता है -लाचारी है जो गंदगी को गलीचे के तले छिपाना चाहती है! राज्य अपने निहित स्वार्थ के चलते प्रजा को स्वाधीनता और आधुनिकता के सारे मूल्यों से दूर दूर ही रख रहा है।
फ़ासिस्ट राज्य को या सांस्कृतिक फ़ासीज्म का विरोध नहीं करनेवाले राज्य को 'others' (किसी दूसरे के साथ एक) का तनाव पसंद है; उसी तरह ‘पहचानों की भिन्नता’ को बनाये रखना भी राज्य का अपनेआप चुना हुआ चरित्र है। बाह्मणवाद या जैण्डर से यह थोड़ा अलग है। समाज के शोषित समुदाय, धर्म-संप्रदाय अपनी अपनी पहचानों को गर्व-गौरव का मुद्दा बनाकर, ‘जैसे थे’ स्थिति(स्टेटस्को) को ज़रा अलग ढंग में बरक़रार रखते है। पहचानें संस्कृति और समाज के, भाषा और प्रदेष के संकीर्ण दायरों में पनपतीं हैं। और हमारे जैसा पिछड़ा हुआ प्रजातंत्र अपने निहित स्वार्थ से ‘पहचानों’ की सोच को हवा देने का काम कर रहा हैं। जन आंदोलनों के अभाव में पनपी NGO's / संस्थाएँ पहचानों को आँच न आये उसी तरह उनके वृद्धि और तथाकथित विकास का काम करती रहेती हैं। शायद यह वृद्धि या विकास तो उनके अपने अनुपात में होता होगा पर इस तरह की सोच और कार्यप्रणाली के चलते न तो जनआंदोलनोंवाली शिधत पैदा होती है और न तो सर्वहाराओं में एकत्व की भावना ही जनमती है! क्योंकि आखि़रकार पहचानों की जड़ें पूर्वआधुनिक सोच में है और हरेक उस पहचान ने अपने अपने others (इतर) सदियों से नियुक्त कर रखे हैं।
इस सोच और कार्यप्रणाली ने पहचान की राजनीति का जो रूप रचा है उसने हमारे प्रजातंत्र को सदियों पिछे ढ़केल दिया है। पहचानों की राजनीति धिक्कार और हिंसाचार पर चल रही है और नवाचार और आधुनिकता के मूल्यों को भी समाज से दूर ढ़केल दिया है। अफ़सोस की बात यह है कि, बाज़ार और राज्य हमारे इस पूर्व-आधुनिकता और अनुआधुनिकता के विचित्र मिश्रण से रंजित समाजिक ढाँचों में परिवर्तन लाने में असमर्थ रहे हैं। क्योंकि ये मसले सांस्कृतिक हैं, उनके साथ संघर्ष के लिये नई व्यूहरचना चाहिए; सिर्फ़ कुछ कानून बदलने से या नये कानून डाल देने से यह स्थितियाँ नहीं बदलनेवाली।
कहा जाता है कि पूंजीवाद के लिये समानता ज़रूरी है। कुछ हद तक यह बात ठीक भी है। पर हमारे देश के पूंजीवाद ने हमारा जीवनस्तर शायद कुछ उपर उठाया है, हमारे मध्यमवर्ग की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की है पर उस के चलते हमारी मानसिकता बहुत ज़्यादा नहीं बदली है। बल्कि, हमारे देश के पूंजीवाद ने हमारे सांस्कृतिक पिछडेपन के कैंचूल में चालाकी से प्रवेष कर लिया है और उसी स्वरूप में वह हमारे दैनंदिन जीवन में आराम से पसर चूका है। वैश्विक बाज़ार, उसके माउथपीस बने मिडिया और इष्तेहारों के जरिये हमारे सांस्कृतिक पिछड़ेपन ने हमें इस बाज़ार का फू़हड़, दक़ियानूसी पर उड़ाउगिर उपभोक्ता तो बना ही लिया है। एक ओर से हमारा बाज़ारग्रस्त मध्यमवर्ग ममुश्ताक है कि वह असंभव चुनिन्दा चीज़ों का चुनाव / चाईस करने पर मुक्त है.... पर सही में देखा जाये तो वह बाज़ार का निशाना बना हुआ है। ईस चालाक बाज़ार ने मध्यमवर्ग की पिछड़ी हुई मानसिकता को भी बेचना शुरू किया है। यहाँ अब करवाचौथ और षष्टि पूजा बिकती हैं, यहां दूध पिनेवाले गणपति और दुर्दषा करने वाले शनिदेव भी बिकते हैं। तो दुर्दषा को तथाकथित निवारण करनेवाले बाबा-बुआ भी बिकाउ ही हैं। कुंभमेला और वेलेन्टाईन डे भी एक साथ बिकते हैं। यहां तक कि अब तो 8 मार्चवाला ‘महिला दिवस’ भी फ़ेयरनेस क्रिम की पर्त-दर-पर्त बिकने लगा है।
अब तो शाति, सुख, मुक्ति जैसे ‘मूल्य’ उँचे मोल पर बिकते हैं - और वह भी केवल शहरों में ही नहीं -गांवों की गलियों तक में रंगीन पोस्टरों में लपेट लपेट कर, धडल्ले से! कभी कभी तो लगता है कि यह बाज़ार और मिड़िया, मिलजुल कर हमारे अग्रवर्ग-मध्यमवर्ग के लिये डिजाईनर ज़िन्दगियों को बनाते हैं, बेचते हैं और हम बड़े चाव से उन डिजानर ज़िन्दगियाँ पहन कर ईतराते फिरते हैं! दरअसल ये पहनावे तो उस राजा की पोशाक की तरह है, जो कभी थी ही नहीं!
बहरहाल, क्या इस भ्रामक इन्द्रजाल को तोड़नेवाला कोई नहीं है?! कम से कम, ‘राज्य’ ने तो कब से अपने हाथ खींच लिये हैं। ईधर मध्यम वर्ग; जिस की ओर हम परिवर्तन के अग्रदूत बनने की उम्मीद रख रहे हैं वह तो खुद या तो जाल में फँसा हुआ है या फिर जाल को बुननेवालों में शामिल है। तो फ़िर? क्या पूंजीवाद और पूर्व आधुनिकता के इस दोगले/दोमुंहे प्रभाव को कुचलनेवाली आधुनिकता का पुरस्कार यहाँ कभी नहीं हो सकता हैं? शक़ मज़बूत बनता हैः जब पूर्व आधुनिकता के सारे शस्त्र सजा कर, अनुआधुनिकता की सोच और उस सोच के पुरस्कर्ता आधुनिकता के विरोध में उठ खड़े हो चले हैं -वह आधुनिकता, जिसका सही- उन्नत रूप अभी तक हमें देखना ही बाक़ी है। कैसे उठायेंगें यह चुनौती जो वैचारिक भी है और सांस्कृतिक भी!?
पूर्वआधुनिकता के मूल्य और नये समाज की स्थापना को दूर ढकेलनेवाली यह अनुआधुनिकतावादी सोच और कार्यप्रणालि लेकर हमारे सामने कौन कौन आ रहा है -ज़रा देखें.... यहाँ उद्योगविरोधी, यंत्रविरोधी, खेतीहर और कारीगर समाज के पुरस्कर्ता गाँधीवादी हैं, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधूंध षोशण के शिकार बने हुए लोग हैं, वैश्विक पूंजीवाद के भयावह चेहरे का अध्ययन करनेवाले विद्वद्जन भी हैं और युरोप-अमरिका की आधुनिकता का केवल सीमित और युद्धखोर रूप देख कर भड़कनेवाले विश्विशांतिप्रेमी भी हैं। हमें यह कहने से हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये कि आधुनिकता का इनका खंडदर्षन/अपूर्ण दर्षन है; और भारत के संदर्भ में अधपका चिंतन है।
पर ये जिस ज़िद से आधुनिकता का विरोध कर रहे हैं उससे एक दूसरे ख़ेमे को बढ़ावा मिल रहा है, जो जानबूझ कर पूर्वआधुनिकता के अंधकार को बरकरार रखकर, लोगों की आँखों पर पुरातनपंथी सांस्कृतिक मूल्यों की पट्टी बाँध कर, अपना वर्चस्व जमाये रख कर नवोदय के प्रकाश से देश को दूर रखना चाहते हैं। और इनके रवैये ख़तरनाक है। ये लोग धर्मनरिपेक्षता का छेद उड़ानेवाले हैं, वैज्ञानिक अभिगम को जड़वाद कहनेवाले हैं, बुद्धिनिष्ठा को वितंडा कहनेवाले हैं और व्यक्तिमत्ता को पाप समझनेवाले लोग हैं। इनकी व्यूहरचनाएँ हिंसक है। ये मानसिकताओं में ज़हर घोलनेवाले हैं और इतिहास पर मिथ्याभिमान करनेवाले ये लोग इतिहास में तोड़मरोड़ करनेवाले हैं और पुराकल्पनों को इतिहास का रूप देनेवाले हैं। बहुत अजीब है ये जुडाव..... पूर्व आधुनिक और आधुनिकोत्तर सोच प्रक्रिया और कार्यप्रणालियों के बिच पिसा हुआ समाज और कहीं दूर .... बीसवें शतक में ही छोड़ दिया गया ‘रेनेसां’ -नवजागरण और नवोदय का कार्यभार।
पर आश्चर्य तो इस बात का है कि वामपंथ ने इस विरोधाभासी -वैचित्र्य को समझ कर उसके साथ संघर्ष करने को प्राथमिकता क्यों नहीं दी होगी? पहचानों की राजनीति जब आज प्रजातंत्र को तोड़ने बैठी है, समाजवाद का माख़ौल उड़ा रही है; तब भी वामपंथ ने पहचान की राजनीति को चेतावनी के रूप में गंभीरता पूर्वक क्यों नहीं लिया होगा? जिन्हें हम ‘सर्वहारा’ कहते हैं; उनकी संस्कृति भी तो पिछड़ी हुई है। वे भी तो जात-पाँत-धर्म-संप्रदाय-भाषा -प्रदेश की भिन्नताओं के नकारात्मक प्रयोगों के भँवर में फंसे हुए हैं। वामपंथीओ ने आधुनिकता के मूल्यों का सिंचन कर के सर्वहाराओ की सूखी ज़िन्दगियाँ को हरीभरी बनाने का कार्यभार हाथ पर क्यों नहीं लिया होगा? वामपंथ को उजागर करने थे ये मूल्य.... जैसे कि, केवल विज्ञानवाद(सायन्टीसीझम) नहीं पर वैज्ञानिक अभिगम और जीवन के रहस्यों का खुलासा, वितंडावादी नास्तिकता नहीं, पर सृश्टि में किस भी तथाकथित दैवी हस्तक्षेप का तर्कसंगत(तार्किक) इन्कार, भीड़भरी समुदायिकता को ही ‘प्रजा’ मान लेने के भोलेपन से मुक्ति, व्यक्ति का महत्व और समश्टि के साथ व्यक्ति का सकारात्मक जुड़ाव, व्यक्ति की चेतना का विस्तार और इस के चलते समश्टि का उन्नत-जागृत उर्जासंचार..... यह है आधुनिकता का वह मानववादी-सकारात्मक स्वरूप, जिस के निर्माण और प्रसार के लिये वामपंथो पर दुनिया को कई अपेक्षाएँ होनी चाहिए। और इसे कार्यान्वित करना शायद मुश्किल होगा; पर नामुमकिन तो नहीं है।
हमः वाममंथ के विद्वद्जन और कर्मषील, वर्ण और वर्ग के परापूर्ववादी संबंधों के अध्ययन और परिशीलन में तो लगे हैं पर सही में देखा जाये तो हमारे समाजों में पूंजीवाद ने जिस तरह हमारे सांस्कृतिक पिछडे़पन और राजनीति को गठजोड करने पर सफलता प्राप्त कर ली है, वही सचमुच हमारे सामने की सब से बड़ी चुनौती है।
यूँ तो पूरा मामला डेविड और गोलियाथवाला लग रहा है। फिर भी, हमें बाहरी और हमारे भीतर के गोलियाथ का मुकाबला करने का संकल्प तो करना ही होगा। इस संघर्ष के लिये कुछ व्यूहरचनाएं होंगी, कुछ रणनीतियाँ होंगी, जो सबसे पहले तो हमारी संस्कृति के विषय की समझदारी को झकझोर देगी।
1. इन रणनीतिओं में, तैयारीयों में हमारे साथ सिर्फ वे ‘मेहनतकश ’ नहीं होंगें; जिन्हें हम क्लासिकी तौर से ‘मज़दूर’ कहते थे। हमें मेहनतकशों की व्याख्या को विस्तार देना होगा। वे मध्यवर्गीय व्यावसायिक(प्रोफेषनल्स) होंगें, नौकरीपेशा लोग होंगें, कलाकार होंगें, बुद्धिजीवि होंगें, कारीगरों के साथ शिक्षक भी जूटेंगें। अलबत्ता, यह कहना ज़रूरी नहीं कि ये सारे पुरुष भी होंगें और महिलाएँ भी होंगी। थर्ड जेण्डर का शा मिल होना भी स्वाभाविक होगा ।
2. वर्णव्यवस्था, पितृसत्ता और सांप्रदायिकता के सामने की लड़ाई साँझी होंगी।
3. साथ मिलकर हमें अपनी तथाकथित सांस्कृतिक विरासतों का पृथक्करण करना होगा, आलोचना करनी होगी, इनको चुनौती देनी होगी, उन में से उन्नत तत्वों को बचा कर हानीकारक तत्वों को छोड़ देने की निर्ममता बरतनी होगी ।
4. आज मूढ़ समुदायों की भीड़ में, परिवारों के जंगल में, विरासतों के दलदल में ‘व्यक्ति’ खो गई है। उस प्रबुद्ध, मानवतावादी, धर्मनिरपेक्ष, स्वाधीन व्यक्ति को पहचान कर उबार लेना होगा। उसकी स्वायत्तता के मूल्य को पुनःस्थापित करना होगा..... और ऐसी व्यक्तियों के द्वारा -उन्हीं के साथ नये विकल्पों के लिये प्रयास करने होंगे।
5. सांस्कृतिक परिवर्तन की शुरूआत घर से होगी। व्यक्ति और समुदाय के बीच घर्शण होगा। व्यक्तिमत्ता सीना तानकर, सर उठाकर खड़ी रहेगी और ऐसे व्यक्तिओं के साँझे प्रयासों से ‘नकारात्मक समुदायवाद’ को खतम करेंगें। हमें चाहिए होंगें ‘कोमन कॉज़’ लिये हुए नये व्यक्तिओ से रचे गये नये समुदाय, जो पारंपरिक समुदायों से सांस्कृतिक संघर्ष में उतरने का निर्भिक साहस करने को सदैव तत्पर रहेंगें।
6. यह सांस्कृतिक बदलाव का साँझा संघर्ष ही हमें शोषणविहीन, मुक्त और जिम्मेदार समाज की ओर ले जायेगा।
... वैसे ऐसे प्रयास शुरू तो हो गये हैं। नई चेतना की बयार चारों ओर से लहरा तो रही है। ऐसा नहीं है कि केवल ‘हम लोग’ ही इन प्रयासों में जुटे हुए हैं; ज़रा अपने दायरों में से बाहर नज़र डालेंगें तो ऐसे ताज़गीभरे दृष्य हम को भी प्रोत्साहित कर सकते हैं। नवविचारवादी वामपंथी तो सक्रिय हो ही चले हैं पर अब तो आश्चर्य की बात यह भी है कि मध्यमवर्ग भी हज़ारों की संख्या में स्वयंभू इकट्ठा होने की क्षमता दिखा रहा है। हालांकि उनके सपनें छोटे छोटे हैं -उनकी लड़ाईयाँ भी अपने मुद्दों की है फिर भी उनके उत्स और उर्जा को हमारे साथ जोड़ना कुछ नये परिणामों तक ले जा सकता है।
यह मध्यमवर्ग कहीं पर भ्रष्टाचार का मुद्दा लिये हुए हैं तो कहीं पर समानता और सलामती के अधिकार की माँग है। 21वीं सदी में भी जात-पाँत के नाम हो रही हिंसा का दृढ प्रतिकार भी है। ... तो कहीं पर धर्मनिरपेक्षता के लिये तत्काल सर्वधर्मसमभाववाला समझौता करते हुए भी अमन-एख़लास और इन्साफ़ की लड़ाई जारी है। वामपंथ अपनी अलग अलग इकाईओं को लेकर भी, क्लासिकल सूत्रों को साथ लेकर के आर्थिक शोषण के सामने अपनी जूझारू मुट्ठी लहराने से थका नहीं है।
फिर भी एक बात दीगर है कि नये समाज के सपने को अगर हकीकत में बदलना है तो उसे आधुनिकता के मूल्यों के रसायण में डूबोना होगा -एसिड़ टेस्ट देना होगा। वैसे संक्रान्ति से क्रान्ति तक पहूंचने के लिए हमारे पास दो विकल्प हैं: एक तो बुर्जुआ-मध्यमवर्गी-सुधारवादी रास्ता। जिस रास्ते से कुछ लोग, सड़ीगली व्यवस्था के भीतर पैंठने की रणनीति अपनाते हैं और अंदर रह कर व्यवस्थाओं को सुधारने की उम्मीद से काम करते हैं। और दूसरा रास्ता है अलबत्ता, सांस्कृतिक क्रान्ति का, जिसमें बहुत सारी उठापटक-उथलपुथल और अराजकता भी हो सकती है। अब हम कौनसा रास्ता चुनते हैं यह भी कोई पूछने की बात है?!
.... आईये
हम एक दूजे के
कंधों से कंधा मिला कर चल निकलते हैं।
माना कि छिल गये हैं हमारे कंधे
एक दूसरे के साथ चलते चलते।
अब न आँसू न ख़ूनः
कोइ मरहम कारगर नहीं बन रहा है
काश ! हमने एकदूजे के पसीने की गंध को
नफ़रत करने की आदत न डाली होती!
फिर भी.....
चलना तो है ही हमें।
देखिये.... दोराहा तो आ चूका।
एक राह जाती है नदी की और.... शांत और पप्रशस्त
वहां ख़डी है नाँव, हमारे जैसे कुछ यात्रिओं को ले कर।
बस, बैठ लो; नाँव ले जायेगी तीर की तरह -सीधे - उस पार।
और वह दूजी राह
जो ले जायेगी समंदर की ओरः
अपने आप गोता लगा लो और
बस! बह जाओ बन कर लहर
और फिर चिलचिलाती धूप से तप कर, उट्ठो
उपर भाप बन कर.... अनचिन्हें.... अदृष्य रह कर।
वहाँ जम कर बन जाओ बादल
और वहाँ से उमड़ कर, बन बारीश
आओ नीचे और छा जाओ
अपनी ही ज़मीन पर पड़ी
उन भयावह दरारों पर, भरसक
भर दो उन दरारों के कण कण को....
और फिर देखना, एक सुबह को
अंकुरित हो उठेंगीं दरारें....
और फिर भरी दोपहरी में नाच उठेंगी फुन्गियाँ...
और शाम होते होते हरी भरी बालियाँ अपने दाने दाने को
खाली करने को तड़पेंगी.....
और फिर रात की थाली के इर्दगिर्द
सारी धरती बैठ जायेगी आल्थी पाल्थी मार कर....
फिर हम सब अपने अपने हिस्से की
रोटी भी खायेंगें
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