Wednesday, April 17, 2013

बंगलादेशी जनउभार और भारत की मुर्दाशान्ति

- किशोर झा

सन २०११ में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन में उमड़े हजारों लोगों की तस्वीरें आज भी ज़ेहन में ताज़ा है। उन तस्वीरों को टी वी और अख़बारों में इतनी बार देखा था कि चाहें तो भी नहीं भुला सकते। लोग अपने-अपने घरों से निकल कर अन्ना के समर्थन में इक्कठे हो रहे थे और गली मोहल्लों में लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहे थे। इंडिया गेट से अख़बारों और न्यूज़ चैनलों तक पहुँचते पहुँचते सैकडों समर्थकों की ये तादात हजारों और हजारों की संख्या लाखों में पहुँच जाती थी। तमाम समाचार पत्र इसे दूसरे स्वतंत्रता आन्दोलन की संज्ञा दे रहे थे और टी वी देखने वालों को लग रहा था कि हिंदुस्तान किसी बड़े बदलाव की दहलीज़ पर खड़ा है और जल्द ही सूरत बदलने वाली है। घरों में सोयी आवाम अचानक जाग गयी थी और राजनीति को अछूत समझने वाला मध्यम वर्ग राजनैतिक रणनीति का ताना बाना बुन रहा था। यहाँ मैं आंदोलन के राजनितिक चरित्र की बात नहीं कर रहा बल्कि ये याद करने की कोशिश कर रहा हूँ कि उस आंदोलन को उसके चरम तक पहुचाने वाला मीडिया अपने पड़ोस बांग्लादेश में उठ रहे जन सैलाब के जानिब इतना उदासीन क्यों है और कुछ ही महीने पहले बढ़ी आवाम की राजनैतिक चेतना आज कहाँ है?

Candlelight Vigil at Shahbagh
हमारे पडोसी मुल्क बांग्लादेश की अवाम युद्ध अपराधियों और फिरकापरस्त ताकतों के खिलाफ आन्दोलन कर रही है। यह आन्दोलन महज युद्ध अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही के लिए ही नहीं लड़ रहा बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतान्त्रिक समाज के लिए संघर्ष कर रहा है जो मजहबी कठ्मुल्लावादियों को मंजूर नहीं। वहां से मिल रही ख़बरों ( जो की अख़बारों और चैनलों में एकदम नदारद है) के अनुसार लाखों लोग दिन रात शाहबाग चौक पर धरना दिए बैठें है और देश के अन्य भागों में भी लोग इस तरह के प्रदर्शनों में भाग ले रहे हैं। कई राजनैतिक विशेषज्ञ शाहबाग की तुलना तहरीर स्क्वायर से कर रहें है और वहां से आ रही तस्वीरों को देख कर लगता है कि ये तुलना बेवजह नहीं है। हैरानी की बात यह है कि इस आन्दोलन से जुडी ख़बरों के लिए हिन्दुस्तानी मीडिया के पास कोई जगह नहीं है। अमेरिका के चुनावों से काफी पहले हर हिन्दुस्तानी को ये पता होता है कि अमरीकी राजनीति में क्या खिचड़ी पक रही है। कौन से स्टेट में रिपब्लिकन्स आगे है और किसमे डेमोक्रेट्स। सट्टेबाज़ किस पर दाव लगा रहें है इसका सीधा प्रसारण चौबीस घंटे होता है पर पडोस में हो रहे इतने बड़े आंदोलन की हमारे देश की आवाम को इत्तेला तक नहीं है। पिछले दो महीनों में हिन्दुस्तान का मीडिया अपनी बहस और कवरेज नरेंद्र मोदी और राहुल के इर्द गिर्द घूमा रहें हैं या इस गम में मातम मना रहें है कि आखिर शेयर बाज़ार इतना नीचे क्यों आ गया है या सोने के भाव गर्दिश में क्यों है। बांग्लादेश की घटनाएँ किसी “ न्यूज़ एट नाइन” या “ बिग फाईट” का हिस्सा नहीं बन पाए। सुना है आन्दोलन के पहले महीने में “हिंदू” को छोड के किसी हिन्दुस्तानी अखबार का संवाददाता ढाका में मौजूद नहीं था और उसके बाद भी इस आंदोलन की खबर ढूंढे नहीं मिलती। अन्ना आन्दोलन के समय का राजनैतिक तौर पर सजग समाज आज कहाँ चला गया? अमेरिका में अगला प्रेसिडेंट कौन होगा पर एडिटोरियल लिखने वाले अख़बारों को क्या हुआ? क्यों पडोस में हो रही घटनाएँ उनका ध्यान खीचने में नाकामयाब हैं ?


शुक्र है बांग्लादेशी ब्लॉगर्स का और उन ब्लॉग्स के आधार पर कुछ जनवादी लेखकों द्वारा सोशल साइट पर किये गए अपडेट्स का कि हमें हिंदुस्तान में शाहबाग आंदोलन की कुछ खबरें मिल सकी। लेकिन दुनिया को शाहबाग आन्दोलन की खबर देने की कीमत ब्लॉगर अहमद रजिब हैदर को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के खिलाफ लिखने और युद्ध अपराधियों को कड़ी सजा की हिमायत करने के कारण उनकी हत्या कर दी गयी और अन्य चार ब्लॉगर जेल की सलाखों के पीछे हैं। 

१९७१ में बंगलादेश के मुक्ति संघर्ष में भारत की अहम भूमिका रही थी और हम अक्सर इस बात पर अपनी पीठ भी ठोंकते रहते है। लेकिन आज भारत इस कदर कूटनीतिक चुप्पी साधे बैठा है की मानो कि उसके पूर्व में कोई देश हो ही ना। भारत की तरफ से बांग्लादेश की उथल पुथल पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी है। विदेश मंत्री पर थोड़ा दवाब डाल के पूछोगे तो वो कहेंगे कि “यह उनका अंदरूनी मामला है और भारत किसी के अंदरूनी मामलों में दखल देना उचित नहीं समझता”। १९७१ में बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करते वक़्त ये अन्दरूनी मामला नहीं था लेकिन आज है। हैरानी की बात यह है कि प्रगतिशील और जनवादी खेमे में भी इस आन्दोलन को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती। वामपंथी पार्टियों की चुप्पी चुभने वाली है।  भारत का प्रगतिशीत तबका इस सवाल से मुंह नहीं मोड़ सकता और उसे तारीख को जवाब देना होगा कि वो बांग्लादेशी तहरीक के साथ एकजुटता क्यों नहीं जता सका। किसी पार्टी या संगठन ने बांग्लादेश के जन आन्दोलन के समर्थन में कोई रैली, धरना या प्रदर्शन नहीं किया ( कुछ अपवादों को छोड के)। हां, कोलकता में दर्जन भर मुस्लिम संगठनों के लाखों समर्थकों ने शहीद मीनार पर प्रदर्शन जरूर किया था। लेकिन शाहबाग आन्दोलन के समर्थन में नहीं बल्कि उन युद्ध अपराधियों के समर्थन में जिन्हें युद्ध अपराधों के लिए सजा सुनाई गयी है। सुनने में आया है कि पाकिस्तान में भी इसी तरह के प्रदर्शन हुए जिसमे युद्ध अपराधियों को रिहा करने की मांग की गयी है। ये भी खबर है कि कुछ इस्लामी देशों की सरकारों ने भी युद्ध अपराधियों को रिहा करने की इल्तिजा की है। दुनिया की जनवादी ताकतें एक हो ना हो पर दुनिया भर की फिरकापरस्त ताकतें एक साथ खड़ी हैं।

शाहबाग आन्दोलन धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों में यकीन करने वाला एक ऐसा आन्दोलन है जो १९७१ के युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों को कड़ी से कड़ी सजा कि मांग कर रहा है। साथ ही उसके लिए जिम्मेदार जमात ए इस्लामी पर पाबन्दी लगाने कि मांग कर रहा है। १९७१ में बांग्लादेश की आज़ादी के आन्दोलन के समय जमात ए इस्लामी जैसे संगठनो ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था और बांग्लादेश में हुए नरसंहार में बराबर के भागीदार बने थे। इस नरसंहार में लगभग 3 से 5 लाख मुक्ति संघर्ष के समर्थकों की हत्या की गयी थी। हांलाकि इस संख्या पर विवाद है पर इस बात पर कोई दो राय नहीं की हजारों की संख्या में लोगों को मारा गया था। आज भी बांग्लादेश में सामूहिक कब्रगाह मिल रहें है जहाँ नरसंहार के बाद लोगों को दफनाया गया था। इसके अलावा पाकिस्तानी सेना पर हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार का आरोप है और एक घटना में तो पाकिस्तानी सेना ने ढाका विश्वविद्यालय और घरों से ५०० से अधिक महिलाओं को अगवा करके अपनी छावनी में बंधक बना कर रखा था और कई दिनों तक उनके साथ बलात्कार किया था। बाग्लादेश की फिरकापरस्त ताकतें नहीं चाहती थी कि उनका देश इस्लामी राज्य पाकिस्तान से आजाद हो कर धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक राज्य बने। वो अखंड पाकिस्तान के हिमायती थे और आज़ाद बांग्लादेश के विरोधी। इसी कारण उन्होंने पाकिस्तानी सेना और फिरकापरस्त ताकतों का साथ दिया और इस नरसंहार का हिस्सेदार बने।

सन २००८ के चुनावों के दौरान अवामी लीग ने वादा किया था कि वह युद्ध अपराधियों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (International crime tribunal) का गठन करेगी और युद्ध अपराधियों के खिलाफ केस चलाएगी, जिसकी मांग सालों से चली आ रही थी। चुनाव जीतने के बाद सन २००९ में अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण ( ICT) की स्थापना हुई और उन अपराधियों के खिलाफ केस शुरू हुआ जो युद्ध अपराधों में शामिल थे। फरवरी २०१३ में युद्ध अपरधियों के खिलाफ सजा सुनाई गयी जिसमे जमाते इस्लामी के नेता हुसैन सैयदी भी शामिल थे। दो हफ्ते बाद एक और जमाते इस्लामी नेता, अब्दुल कादिर मुल्लाह, को सजा सुनाई गयी. इसके जवाब में जमाते इस्लामी के छात्र संगठन ‘शिबिर’ ने इस निर्णय की मुखालफत में जो कहर बरपाया उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलेगी। हिंसा के इस तांडव में एक ही दिन में ३५ लोग मारे गए। दक्षिणी बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के घरों और मंदिरों पर भी हमला बोला गया। इसके साथ ही ढाका के शाहबाग इलाके में जमाते इस्लामी नेताओं के खिलाफ और युद्ध अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग करते हुए शाहबाग आन्दोलन शुरू हुआ जो कई पूर्णत: अहिंसक था। तब से लेकर आज तक ये आन्दोलन जारी है और फिरकापरस्तों के खिलाफ लड़ रहा है।

आज भी जमात ए इस्लामी के समर्थक शाहबाग आन्दोलन के खिलाफ यह दुष्प्रचार कर रहें हैं कि ये आंदोलन नास्तिक युवाओं द्वारा चलाया जा रहा है जो इस्लाम विरोधी है। सच्चाई ये है कि इस आन्दोलन में हर तबके और उम्र के लाखों लोग शामिल हैं। ढाका के शाहबाग इलाके से शुरू हुए इस आन्दोलन के समर्थक देश के कोने कोने में है। इस्लाम में तहे दिल से यकीन करने वाले मुस्लिम भी इसका भाग हैं लेकिन वो जमाते इस्लाम जैसे संगठनों और धर्म पर आधारित राज्य का विरोध करते हैं। ये आन्दोलन न केवल युद्ध अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा की मांग कर रहा है बल्कि जमात ए इस्लामी जैसे दक्षिणपंथी संगठनों पर पाबन्दी की मांग भी कर रहा है। इस आन्दोलन की अपराधियों को फांसी पर चढाने की मांग पर मतभेद हो सकते हैं पर आन्दोलन के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर शक की गुंजाईश नहीं है। 

हिदुस्तानी मीडिया की आन्दोलन के प्रति उदासीनता और हिन्दुस्तानी जनवादी ताकतों का आन्दोलन के समर्थन में ना आना हैरानी के साथ साथ चिंता का विषय भी है। खासकर जब दुनिया भर में कठमुल्लावादी राजनीति हावी हो रही है। मीडिया की बात समझ में आती की इस आन्दोलन को कवर करने से उसके आर्थिक हितों की पूर्ति नहीं होती पर प्रगतिशील ताकतों की क्या मजबूरी है। शाहबाग आन्दोलन के समर्थन में कुछ इक्का दुक्का प्रदर्शन तो हुए हैं पर उनका अस्तित्व समुद्र में बारिश की बूँद सा है। आज बांग्लादेश के लोग नया वर्ष मना रहें है, आओ मिलकर उन्हें शुभकामनाएं दें कि उन्हें उनके मकसद में कामयाबी मिले और धर्मनिरपेक्ष और तरक्की पसंद लोगों की जीत हो। साथ ही हम हिन्दुस्तानी ये संकल्प ले कि बांग्लादेश के जनवादी आन्दोलन के प्रति जितना हो सके उतना समर्थन जुटाएँगे। शाहबाग आन्दोलन में जुटे लोगों को सलाम। 
**********
किशोर झा डेवलेपमेंट प्रोफेश्नल हैं और पिछले 20 साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

1 comments:

Yogender Dutt said...

बहुत बढ़िया और ज़रूरी लेख है कामरेड।
लेकिन जब आपको लगता है की ये मसला अख़बारों में भी आना चाहिए तो वहां भी भेज कर देख लेते शायद कहीं छप जाता और ज्यादा लोगों तक पहुँच पाता।

बस एक शब्द मुझे ज़रा खटका - नरसंहार। ये हिंदी में आमतौर पे इस्तेमाल होता है लेकिन अगर इसकी जगह जनसंहार लिखा जाये तो बेहतर रहेगा। 'नरसंहार' में नर ही नहीं बल्कि नारियां भी मारी जाती हैं इसलिए जनसंहार बेहतर शब्द है।
-- योगेंदर

Post a Comment