जावेद अनीस
स्टार्टर
2014 का चुनाव कई मामलों में गेम-चेंजर रहा है, यह एक विचारधारा की जीत है। पहली बार कम से कम अगले 5 सालों तक देश की बागडोर पूरी तरह से एक संघ प्रचारक के हाथों में रहने वाली है। नरेंद्र मोदी को भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद सासंदों को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि “इस चुनाव में भाजपा को मिली जीत ऐतिहासिक है... और इस जीत के बाद हम देश में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाने में सक्षम होंगें।” निःसंदेह इस बार के चुनाव परिणाम अपने साथ ऐसे बदलाव लेकर आया है जो भारत में नये युग के वाहक होंगें। स्वामी रामदेव के शब्दों में कहें तो यह “व्यवस्था परिवर्तन” है। इस बात को लेकर जहाँ एक तरफ देश की एक बड़े तबके में भविष्य को लेकर बहुत उत्साह नज़र आ रहा है, वहीँ दूसरी ओर ऐसे लोगों/तबकों की तादाद भी कम नहीं है जो आशंकित है और जिनका मानना है कि यह राजनीतिक बदलाव आम नहीं बल्कि एक विचारधारा की जीत है जिसका सीधा टकराव भारत की बहुलतावादी स्वरूप से है । यह चिंता भी जताई जा रही है कि इस देश में चीजें अब पहले जैसी नहीं रहेंगी और बहुत कुछ विपरीत दिशा में बदलेगा।
जो लोग ऐसा नहीं मानते हैं उनके लिए एक कहानी है, जिसे पुरानी पीढ़ी की दादी,नानियाँ अपने पोते-पोतियों को सुनाया करती थीं, कहानी में एक अत्याचारी विलेन होता है जो ज्यादातर राक्षस या बुरा राजा होता है, इस विलेन के जुल्म और सितम से आम जनता बहुत त्रस्त होती है, जनता को मुक्ति दिलाने के लिए हीरो की इंट्री होती है , जो की कोई सुन्दर और बहादुर राजकुमार होता है, हीरो अत्याचारी विलेन को पराजित करके उसके प्राण लेने की कोशिश करता है लेकिन हैरतअंगेज रूप से वह मरता नहीं है , तब कोई नजूमी या साधू हीरो को बताता हैं कि दरअसल विलेन के प्राण किसी ख़ास परिंदे में कैद हैं । मोदी और संघ के मामले में भी यही बात लागु होती है , मोदी के प्राण भी संघ में कैद हैं ।
भविष्य में कितने अच्छे या बुरे दिन आने वाले हैं इसको लेकर काफी बातें हो रही हैं। लेकिन इसके साथ इस बात को भी समझने की जरूरत है कि आखिर एक ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तिओं को इस देश की राजसत्ता तक पहुचने का मौका कैसे मिल गया जिन पर दक्षिणपंथी और पुरातनपंथी होने का लेबल लगा है ? आखिर इस बार ऐसा क्या हो गया कि मुल्क की उभरती युवा पीढ़ी और मध्यवर्ग को संघ का एक 64 वर्षीय अधेड़ प्रचारक सपने बेचने में कामयाब हो गया? जबकि उसके बरक्श “कट्टर सोच नहीं युवा जोश” की बात करने वाला एक युवा नेता पूरी तरह से नाकाम साबित हुआ है।
पिछले कुछ दशकों से विश्लेषक भारतीय राजनीति का जाति,धर्म और क्षेत्र के आधार पर आधारित आकलन करते आये है। मोदी की मौजूदा जीत विश्लेषण के इस फ्रेमवर्क से बाहर जान पड़ता है, चुनाव नतीजे के दिन राजनीति विज्ञानी हिलाल अहमद ने किसी चैनल पर चर्चा के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा था कि इस चुनाव में विजेता पार्टी और उसके साथी संगठनों द्वारा जो प्रक्रिया चलायी गयी है और जिस तरह के नतीजे आये हैं वे अभूतपूर्व हैं उनको समझने के लिए हमारे पास अभी “टूल” ही नही है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता कि वाहक मानी जाने वाली वामपंथी ताकतें भी समय की नब्ज को पहचानने और बदलाव की आकांक्षा को संबोंधित करने में नाकाम साबित हुई है। यहीं नहीं इतना सब हो जाने के बाद भी वे अभी भी "जोड़" के फार्मूले से "घटाव" का सवाल हल निकलने में मशगूल नज़र आ रही हैं। जाहिर सी बात है कि ऐसा करने से जवाब का गलत आना तय है ! शायद वामपंथ द्वारा बार-बार दुहराए जाने वाले एतिहासिक गलतियों की वजह भी यही है, लेकिन हैरत तो इस बात की होती है कि एक प्रतिगामी विचारधारा समय के हिसाब से अपनी मूल विचारधारा से समझौता किये बगैर अपने राजनीति में बदलाव करती है और अपने लिए नयी रणनीतियां बनाने में कामयाब होती है। समाज और राजनीति विज्ञान के आलिम इसका गहराई से विश्लेषण कर रहे होगें। समाज का एक तालिबइल्म होने के नाते मुझे फौरी तौर पर कुछ मोटी बातें समझ में आ रही है जिन्हें साँझा कर रहा हूँ।
जो समझा वही सिकंदर
चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस पार्टी ने अपनी उपलब्धियों को लेकर “भारत निर्माण” सीरीज के विज्ञापन जारी किये थे जिसमें तत्कालीन सरकार द्वारा 10 साल पहले के भारत को मौजूदा समय से तुलना करके समझाने की कोशिश की गयी थी, कि देश में विकास और बदलाव हुआ है और चीजें पहले से बेहतर हुई हैं। निश्चित रूप से तथ्य इस बात के गवाह हैं कि यूपीए के पिछले दस सालों के कार्यकाल में काफी कुछ बदला है। इस दौरान भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बना है, यही दस साल सबसे तेज विकास दर के साल रहे हैं।
लेकिन इन्हीं दस सालों में और भी बहुत कुछ बदला है, इस दौरान मध्य वर्ग का दायरा बढ़ा है, बड़ी संख्या में एक नयी पीढ़ी सामने आई है जिसने पहली बार वोट दिया है। इन्हीं दस सालों में ही सूचना स्रोतों की बाढ़ सी आ गयी है। अभूतपूर्व रूप से जनता के पास दुनिया भर की सूचना आदान–प्रदान करने वाली विभिन्न तकनीकों की रीच बढ़ी है, टी.वी. चैनलों सोशल–मीडिया, इन्टरनेट, मोबाइल, व्हाट्स -अप जैसे जनमाध्यमों की पैठ कस्बों को पार करते हुए गाँवों तक हुई है, जिसके नतीजे में जनता का मानस और अपने आसपास की चीजों को देखने का नजरिया भी बदला है। जनता अब पहले से ज्यादा “कम्यूनिकेटिव” हो गयी है। अब वह अपने नेता से “साइलन्स” नहीं “कम्युनिकेशन” की उम्मीद करने लगी है, भले ही इस “कम्युनिकेशन” में उसकी भूमिका “रिसीवर” तक ही सीमित रहे। विडंबना है कि इन सब बदलावों की वाहक रही कांग्रेस पार्टी ही इसे समझने में चूक कर बैठी।
वहीँ मनमोहन सरकार का काल (विशेषकर उनका दूसरा कार्यकाल) गैर-जवाबदेही, निराशा, दंभ और निक्कमेपन का दौर साबित हुआ है। इस दौरान भ्रष्टाचार के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले गये, मंहगाई हर रोज नए मुकाम तय कर रही थी, ऊपर से तत्कालीन हुक्मरान इस पर मरहम लगाने के बजाये अजीबोगरीब बयान दे कर जले पर नमक छिड़क रहे थे, जनता के बीच नेतृत्व को लेकर चिढ़ और भ्रम बना हुआ था। इसका परिणाम यह हुआ की जनता इस सरकार को बोझ मानने लगी और किसी ऐसी विकल्प के तलाश में थी जो उन्हें इस सरकार से मुक्ति दिखा सके। जनता में गुस्सा किस कदर था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आखिर के तीन वर्षों में मनमोहन सरकार के खिलाफ देश भर में अभूतपूर्व जन-आन्दोलन हुए जिसमें बड़ी संख्या में लोग भ्रष्ट्राचार, महंगाई और सुरक्षा को लेकर सड़कों पर उतर आये। लेकिन इसको लेकर भी मनमोहन सरकार और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व का रवैया, ठंढा और दंभी ही रहा।
पूंजी और फ्री- इकॉनमी की पैरोकार कॉर्पोरेट जगत को भी सरकार में दो पॉवर सेन्टर रास नहीं आ रहा था, जहाँ एक तरफ मनमोहन सिंह और उनकी सरकार कॉर्पोरेट के अपेक्षाओं के अनरूप आर्थिक एवं कारोबार संबंधी नीतिगत फैसले नहीं ले पा रही थी, वहीँ सोनिया गाँधी और उनकी राष्ट्रीय सलाहकार समीति सामाजिक क्षेत्रों में खर्चा (जिसे कॉर्पोरेट खैरात कहता था) बढ़ाने के लिए नयी- नयी अधिकार आधारित योजनायें ला रही थी। सत्ताधारी दल के “भविष्य के नेता” भी दस सालों से धक्का लगाये जाने के बावजूद जनता को प्रभावित करने में लगातार नाकामयाब हो रहे थे, वे स्वाभाविक नहीं बल्कि थोपे हुए नेता लग रहे थे, जैसे मनमोहन सिंह थे, युवा होने के बावजूद वे युवा पीढ़ी को प्रभावित ही नहीं कर पा रहे थे और ना ही उनकी उम्मीदों को स्वर दे पा रहे थे, अब तो उनकी क्षमताओं पर सवाल उठने लगे थे,लोगों का उनपर भरोसा ही नहीं जम पा रहा था। पूरे चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने बार-बार “देने वाले” की भाषा में बात की। राहुल ज्यादा समय अतीत की बात करते रहे जबकि लोग उनसे भविष्य के बारे में सुनना चाहते थे, अगर भविष्य को लेकर उन्होंने कुछ बातें की भी तो वे जनता के मूड के खिलाफ थी। जब जनता एक मजूबत नेता की जरूरत फील कर रही थी तो राहुल सिस्टम खोलने की बात कर रहे थे। कई बार तो उनके द्वारा कही गयी बातें उन्हीं के खिलाफ जा रही थी।
दूसरी तरफ वे “कम्यूनिकेटिव” तो बिलकुल भी नहीं थे। शायद आज भी फेसबुक और ट्विटर जैसे लोकप्रिय सोशल मीडिया साइट्स पर उनका कोई ऑफिसियल प्रोफाइल नहीं है, दस साल में उन्होंने जब पहली बार अपना पहला टीवी इंटरव्यू अर्नव गव्सवामी जैसे तेज़ तर्रार पत्रकार को दिया तो वह पूरी तरह से डिजास्टर साबित हुआ, जिन भी लोगों ने यह इंटरव्यू देखा, सुना, उसपर इसका विपरीत प्रभाव बना, कुल मिलकर एक नेता के तौर पर वे बेअसर साबित हुए। जनता एक और मनमोहन सिंह के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हुई।
इसी तरह राहुल कॉर्पोरेट जगत में भी खुद को लेकर विश्वास नहीं जगा पाए। वे बार बार सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार समीति के सोशल एजेंडे पर ही बात करते रहे, जिसे कॉर्पोरेट जगत फिजूलखर्ची मानता है। वे कॉर्पोरेट के सामने कुछ नया और मनमोहन सिंह से ज्यादा पेश ही नहीं कर सके। दूसरी तरफ भाजपा का एक सूबाई क्षत्रप पिछले दस सालों से कॉर्पोरेट का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था, गुजरात में उसने एक तरह से उद्योगपतियों के लिए कालीन बिछा रखी थी, अंततः नरेन्द्र मोदी नाम का यह शख्स पूंजीपतियों को यह भरोसा देने में कामयाब हो गया कि वह दिल्ली में उनके लिए कांग्रेस और थर्ड- फ्रंट से ज्यादा मुफीद साबित होंगें।
ऐसे में किसी को बदलाव का वाहक तो बनाना ही था क्योंकि सत्ता और बदलाव की राजनीति में वही ताकतें कामयाब हो पाती है जो समय रहते जनता की नब्ज और बदलाव को लेकर उसकी आकांक्षा को समझ पाती हैं और बदलाव का वाहक भी बनती हैं, 2014 के सन्दर्भ में यह काम संघ और मोदी ने कर दिखया है। मोदी और मोहन भागवत की जोड़ी ने न केवल समय की गति को पहचाना, जरूरत के हिसाब से अपने को बदला भी, संघ परिवार ने “रणनीति” के तहत जनता के मुद्दों महंगाई, सुशासन, भ्रष्टाचार को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया और अपने सांस्क्रतिक राष्ट्रवाद के वास्तविक एजेंडे को कुछ समय के लिए ऐसे परदे के पीछे डाल दिया हैं, जहाँ से वह केवल उसके कैडर और समर्थकों को ही नज़र आ सके।
संघ परिवार की इस कामयाबी को देख कर यह समझना भूल होगी कि जिन लोगों ने उन्हें वोट दिया है उनमें से सभी संघ परिवार के वास्तविक एजेंडे के समर्थन में आ गये हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी समाज में जनता का एक सबसे बड़ा हिस्सा विचारधारा को लेकर नहीं बल्कि अपनी रोजमर्रा की मुद्दों पर बदलाव के लिए तैयार होती है,विचारधारा के नाम पर तो बहुत कम लोग लामबंद होते हैं और इनमें भी ज्यादातर लोग संगठन और पार्टी के कैडर ही होते हैं।
हमें इस बात इतमिनान रखना होगा कि,जनता पतित नहीं हुई है और यह भी समझना होगा कि यह एक प्रतिगामी विचारधरा के रणनीति की विजय है, वोट देने वाली जनता ने तो मोदी को एक विकल्प के रूप इस आशा के साथ चुना है कि आने वाले दिनों में नयी सरकार ऐसा कुछ काम करेगी जिससे उसके जीवन में सकारात्मक बदलाव आएगा, उसकी परेशान कुछ कम होगी। चुनावी राजनीति में इस बार संघ परिवार ने अपने समय को पहचाना इसलिए आज उसका एक प्रचारक सिकंदर बन गया है।
गलतियां जो अवसर साबित हुईं
ज्यादा नहीं सिर्फ तीन साल पीछे मुड़ कर देखें तो कई ऐसी बड़ी घटनाये हुई है जो इस पूरी कहानी की एक सिलसिलेवार पटकथा सरीखी दिखाई पड़ती है, फिर चाहे वह जनलोकपाल आन्दोलन हो या दिल्ली में निर्भया काण्ड के बाद का आन्दोलन। हालांकि इन दोनों आन्दोलनों का केंद्र दिल्ली रहा है लेकिन इसका असर पूरे मुल्क में हुआ। दिलचस्प बात यह है कि ये आन्दोलन किसी राजनीतिक दल के सीधी अगुआई में नहीं हुए और ना ही इसमें उनका नेतृत्व और भागेदारी थी। जनता का गुस्सा कांग्रेस सरकार के खिलाफ तो था ही लेकिन एक तरह से इसके दायरे में मुख्यधारा की सभी राजनीतिक शक्तियां शामिल थीं। माहौल बड़ा गैर राजनीतिक सा बन गया था जिसमें एक तरफ जनता थी तो दूसरी तरफ मुख्यधारा की राजनीतिक ताकतें। मजेदार बात तो यह है कि दिल्ली की चौकड़ी के नेतृत्व में भाजपा जैसी प्रमुख दल को यह सूझ ही नहीं रहा था कि वह इसको किस तरह से रिस्पांस करे, दूसरे दलों का भी कबोबेश यही हाल था।
अप्रैल 2011 में समाजसेवी अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल की अगुवाई में दिल्ली के जंतर- मंतर पर उस दौरान हुए बड़े–बड़े घोटालों के पृष्टभूमि में यह आंदोलन हुआ। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर किया गया यह आन्दोलन एक मजबूत जनलोकपाल की मांग को लेकर शुरू हुआ था, जल्दी ही इसका प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और देश भर से लोग इसके समर्थन में सड़कों पर भी उतरने लगे। इस आन्दोलन को मीडिया का भी भरपूर समर्थन रहा। मीडिया के एक वर्ग द्वारा इसकी तुलना इजिप्ट के तहरीर चौक क्रांति से की गयी। भारत में पहली बार किसी आन्दोलन के लिए सोशल नेटवर्किंग मीडिया की इस्तेमाल इतने बड़े पैमाने पर हुआ। यह एक तरह से पहला अलार्म था जो बता रहा था कि जनता में केन्द्र की सरकार और राजनेताओं के खिलाफ गुस्सा उबल रहा है,लम्बे समय बाद देश का मध्यवर्ग सड़क पर आया था। इस पूरे आन्दोलन के दौरान मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार का रवैया नकारात्मक रहा तथा उन्होंने इसकी उपेक्षा की, सरकार के वजीर भी इसका मजाक उड़ाते नज़र आये। भाजपा और देश की दूसरी राजनेतिक दलों का नजरिया भी इस आन्दोलन के प्रति उदासीनता भरा रहा। बड़बोले नेताओं द्वारा “इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन” के खिलाफ अनाप शनाप बयान देकर आंदोलन को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हवा ही दी गयी। यह आन्दोलन नवम्बर 2012 में अरविन्द केजरीवाल द्वारा एक नयी पार्टी बनाये जाने तक चलती रही, बाद में इसी आन्दोलन के गर्भ से निकली “आम आदमी पार्टी” दिल्ली में सरकार बनाने में कामयाब हो गई। इस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ना केवल इस आन्दोलन को अपना समर्थन दिया बल्कि उसके स्वयंसेवक बड़े पैमाने पर इसमें भागादरी भी कर रहे थे।
दूसरा बड़ा अलार्म 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में चलती बस में एक लड़की के साथ हुये सामूहिक बलात्कार के विरोध में बाहर आया जन-सैलाब था। इस घटना ने एक तरह से देश की मानस को झकझोर दिया था और बड़ी संख्या में देश के युवाओ को इसके विरोध में सड़क पर उतर दिया। देश के सभी प्रांतो और शहरो में इस काण्ड को लेकर विरोध देखने को मिला। ख़ास बात ये थी कि इस आन्दोलन का कोई एक नेता नहीं था और इसमें अलग–अलग विचारधारा के लोग शामिल थे, यह आन्दोलन प्रमुख रूप से तत्कालीन कांग्रेस की कमजोरियों के खिलाफ था।
इन दोनों आन्दोलनों में जिस तरह से जनता का गुस्सा निकल कर आ रहा था वो इस बात की तरह इशारा था कि जनता विकल्प की तलाश में है, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और उसने अपना खेल पूराने पिच पर ही जारी रखने का निर्णय लिया । लगभग 129 साल पुरानी सत्ताधारी दल जमीनी हकीकत से कितनी दूर थी इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इतना सब होने के बावजूद भी चुनाव के दौरान वह अभी भी मुसलमानों का वोट पाने के लिए “शाही इमाम” के फतवे और जाटों के वोट के लिए उन्हें आरक्षण देने का दांव चल रही थी। मुसलमानों ने तो वैसे भी शाही इमाम के आदेश पर कभी वोट नहीं डाला था लेकिन जाटों ने आरक्षण मिलने के बाद भी कांग्रेस को तो दूर उसके सहयोगी और खुद को जाटों का “चौधरी” मानने वाले अजीत सिंह को भी इस “एहसान का बदला” देने के बजाये भाजपा के साथ जाना ज्यादा मुनासिब समझा।
कांग्रेस की तरह दूसरे गैर भाजपाई दल भी जनता की मिजाज को समझने में नाकाम रहे। वामपंथियों द्वारा एक बार फिर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद शुरू की गयी, अवसरवादी पार्टियों और नेताओं के बोझ से दबे इस मोर्चे में विचारधारा के नाम पर वही “चुनावी धर्मनिरपेक्षता” का रामबाण था, इस कुनबे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में साम्प्रदायिकता के खिलाफ संयुक्ति सम्मलेन से अपना आगाज किया। मंच के प्रमुख सितारों में मुलायाम सिंह यादव भी शामिल थे, जिनपर 2002 के गुजरात दंगों के बाद मुजफ्फरनगर में होने वाले सबसे बड़े दंगे का दाग है, खैर इस सम्मलेन के बाद तीसरा मोर्चा पटल से अदृश्य सा हो गया।
अरविन्द केजरीवाल ने परिस्थितियों को समझते हुए विकल्प पेश करने की कोशिश तो की लेकिन उनकी विचारधाराविहीन राजनीति,कमजोर सांगठनिक दांचा,एक साथ पूरे मुल्क में छा जाने की जल्दबाजी जैसी कमजोरियां थी जिसने एक सीमा के बाद उनके लिए रूकावट का काम किया।
इस उठापठक के बीच प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का व्यवहार विपक्षी पार्टी के बजाये सत्ताधारी दल की तरह ज्यादा था, जनवरी 2013 तक तो पार्टी की यह हालत थी कि उसके तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद इस्तीफ़ा दे रहे थे, दूसरी तरफ इसके लीडरान आपस में यह तय करने में ही व्यस्त थे कि पार्टी की तरफ से प्रधानमत्री कौन होगा, लेकिन भाजपा “पार्टी विथ डिफरेन्स” ऐसे ही नहीं है उसके पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, इस दौर में संघ भी एक मुश्किल दौर से गुजर रहा था, तमाम कोशिशों के बाद भी संघ का विस्तार रुका हुआ था, उसकी शाखाओं में नये स्वयंसेवकों की आमद घट रही थी, कई शाखाये बंद हो रही थी, “भगवा आतंकवाद” की लौ सरसंघचालक तक पहुचने लगी थी।
संघ को यह एक अवसर नजर आया, कह सकते है कि उसने बाकियों से ज्यादा जनता के बीच बदलाव की चाहत और मौजूदा सरकार के खिलाफ उबाल को समझा, इसके बाद हम देखते हैं कि परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने किस तरह हालात को काबू में करने के लिए कमान अपने हाथ में लेते है, यह पहली बार था जब संघ इतने खुले तौर पर भाजपा को अपने हिसाब से हांक रहा था ताकि इस अवसर को अपने पक्ष में मोड़ा जा सके। अगर संघ के मुखिया मोहन भागवत को अभी तक का सबसे ज्यादा व्यवाहरिक नजरिया रखने वाला सरसंघचालक कहा जाये तो गलत नहीं होगा, उन्होंने अपनी मूल विचारधारा से समझोता किये बिना वक्त और जरूरत के हिसाब से अपने आप को लचीला बनाया। संघ ने पार्टी में चौकड़ी को ठिकाने लगते हुए यह साफ़ कर दिया कि असली बॉस कौन है, इस बार संघ ने दावं पर अपने तुरुप के पत्ते नरेंद्र मोदी को लगाया, मोदी गुजरात के सूबेदार के तौर पर अपनी छवि हिंदुत्व के “पोस्टर बोय” के साथ “विकास पुरुष” के रूप में गढ़ने में पहले ही काफी हद तक कामयाब हो चुने थे, देश के शीर्ष उद्योगपति तो पहले से ही गुजारत में अपना “विकास” होता देख कर प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी वकालत कर ही रहे थे।
इस प्रकार संघ ने सामने आये अवसर को न सिर्फ पहचाना बल्कि अपने पुराने खोल से बाहर निकल कर इसके लिए नयी रणनीति बनायीं,जिसके तहत विकास,सुशासन के नाम पर नए नारे गढ़े गये और जातीय ध्रुवीकरण को सांधने के लिए हिन्दुत्व और जाति के फर्क को कम किया गया, विवादित समझने जाने वाले एजेंडों को परदे के पीछे रखा गया लेकिन बीच–बीच में अमित शाह और गिरिराज सिंह जैसे सिपहसालारों ने इस बात का पूरा ध्यान रखा की इसकी पूरी तरह से परदेदारी भी न हो।
जीत की पटकथा और “मोदित्व” का निर्माण
2014 का चुनाव भाजपा ने नहीं मोदी, संघ और कार्पोरेट्स की तिकड़ी द्वारा लड़ा गया, इस तरह का खर्चीला और आक्रमक चुनाव प्रचार पहले कभी नहीं देखा गया था, एक तरफ तो मोदी के साथ व्यवसायी वर्ग की झोली थी तो दूसरी तरफ संघ परिवार का कैडर, जरूरत तत्कालीन सरकार के प्रति जनता में व्याप्त गुस्से को भुनाने और नए नवेले युवा वर्ग की आशाओं को पंख देने की थी।
मोदी द्वारा अपनाया गया प्रचार का तरीका भी बिलकुल नया था, जो किसी पार्टी की नहीं बल्कि एक व्यक्ति की बात कर रहा था, ऐसा व्यक्ति जो बहुत मजबूत है और जिस के पास हर मर्ज की दवा उपलब्ध है, नयी मीडिया का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा जिसका मोदी और उनके टीम द्वारा उपयोग ना किया गया हो, फिर चाहे बात थ्रीडी रैलियों की हो या टीवी पर क्रिकेट मैच में ब्रेक के दौरान विज्ञापन हो।
हम पहले ही देख चुके हैं कि मुज़फ्फरनगर के दंगों में पहली बार सोशल मीडिया और मोबाइल का बहुत ही व्यापक उपयोग किया गया। इस चुनाव में भी सोशल मीडिया, मोबाइल, व्हाट्स-अप आदि माध्यमों का उपयोग “कम्युनल मोबलाइजेशन” के लिए किया गया,फेसबुक पर ऐसे प्रोफाइल और पेज हजारों के संख्या में मिल जायेंगें तो यह काम बहुत ही मुस्तेदी और प्रोफेशनल तरीके से कर रहे थे।
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बात करें तो इस बार उसका पूरा जोर अपने चुनावी संगठन को सत्ता में लाना था, वस्तुतः संघ का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं है बल्कि वह इसके माध्यम से अपने एकात्मवादी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहता है। इस चुनाव में के लिए संघ ने अपने लिए दो कार्यक्रम तय किये,पहला हर बूथ पर दस से बीस स्वयंसेवकों की तैनाती और दूसरी ज्यादा से ज्यादा वोटरों (हिन्दू वोटरों पढें) को मतदान के लिए बाहर निकलना, इसकेसाथ ही स्वयंसेवक बीजेपी के उम्मीदवारों को फीडबैक भी दे रहे थे कि उन्हे अपने क्षेत्रो में किस तरह की और कैसी चुनावी रणनीति बनानी है। यही नहीं संघ ने तो स्वदेशी जागरण मंच, किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ आदि को परे रख कर मोदी के विकास मॉडल को हरी झंडी भी दे दी, कुल मिलकर इस चुनाव में बीजेपी से कही ज्यादा सक्रिय आरएसएस नज़र आया।
अब बात मोदी की, पूरे चुनाव प्रचार की जिसके दौरान वे अपने अन्य प्रतियोगियों से बहुत आगे थे तो इसमें उनकी उस टीम का बहुत बड़ा हाथ है जिसके द्वारा तकनीकी और सभी आधुनिक प्रचार रणनीति का जोरदार उपयोग किया। इसे भाजपा की जगह मोदी की टीम कहना ज्यादा सही रहेगा, इस टीम में प्रोफेशनल थे जो सीधे मोदी के लिए काम कर रहे थे। प्रोफेशनल की इस टीम ने संघ के स्वयंसेवकों के साथ मिल कर पूरे देश में मोदी वेब पैदा कर दिया, “अच्छे दिन आने वाले हैं” के जरिये अच्छे दिनों के उम्मीद का सपना दिखाया गया, यह गीत बच्चे–बच्चे की जुबान पर चढ़ गया, “अब की बार मोदी सरकार” एक नारा सा बन गया, हर तरह से मोदी को एक “प्रोडक्ट” के रूप में पेश किया गया। खुद मोदी पूरे देश में घूमे और सब से ज्यादा सभाओं को संबोंधित किया और अपने आप को पूरे देश के नेता के तौर पर प्रस्तुत किया। इस दौरान एक खास बात और नोट करने लायक है कि मोदी 125 करोड़ भारतीयों और “सबका साथ सबका विकास” की बात कर रहे है जो सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन अगर बारीकी से देखें तो यह भारत की विविधता को नकारता है और जाति, मजहब, वर्ग, लिंग क्षेत्र के आधार पर देश में मौजूद वाजिब मसलों और सवालों को इग्नोर करता है जो कि संघ परिवार द्वारा भारत की विविधता को नकारने वाले एजेंडे से भी मेल खाती है।
मोदी की प्रोफेशनल टीम को देखें तो हैरत होती है, यह “ऐडवर्टाइजिंग प्रोफेशनल” की टीम थी इस टीम में देश के सबसे चर्चित ऐड गुरु शामिल थे। जाने-माने गीतकार प्रसून जोशी और मीडिया प्लानिंग हस्ती सैम बलसारा, ओगिल्वी ऐंड माथ़र(O&M) के चेयरमैन पीयूष पांडे और सिंगापूर की एडिक्शन स्पेशलिस्ट स्मिता बरुआ जैसे नाम इस हाई प्रोफाइल टीम का हिस्सा थीं, क्रिएटिव विज्ञापन दुनिया की इन हस्तियों के जिम्मे मोदी की इमेज को प्रिंट,विजुअल समेत सभी माध्यमों में चमकाने का था। इस टीम ने मोदी का चेहरा ऐसा असरदार कैंपेन चलाया कि “अच्छे दिन आने वाले है” का नारा लोगों के दिलों–दिमाग पर छा गया था, लोग मोदी और अच्छे दिन को एक साथ जोड़ने लगे थे।
टीम में से चंद नामों पर नज़र डालें तो पहला महत्वपूर्ण नाम ओगिल्वी ऐंड माथ़र(O&M) ऐग्जेक्युटिव चेयरमैन पियूष पांडे का आता है, ये वही पीयूष पांडे हैं जिन्होंने वोडाफोन के “जू –जू एड” और “फेविकोल” के मशहूर एड बनाये हैं, इन्होने ही “अबकी बार मोदी सरकार” का नारा लिखा था, हाल ही में एक टी. वी. चैनल के साथ बात करते हुए पीयूष पांडे बताते हैं कि “हमारी टीम ने मोदी जी के लिए 50 दिनों तक काम किया, हमने 200 से ज्यादा टीवी एड और 100 से ज्यादा रेडियो एड बनाये, हर रात सौ से ज्यादा प्रिंट एड निकला गया” ये पीयूष ही थे जिनकी टीम ने किसी राजनीतिक पार्टी के लिए पहली बार “स्पोर्ट चैनल” को कैम्पेन का हिस्सा बनाया और नतीजे के तौर पर हम ने आईसीसी ट्वेंटी -20 मैचों के दौरान वोडाफोन के जू–जू एड के तर्ज़ पर भाजपा का “पोलिटिकल एनीमेशन एड” देखा था। इसके पीछे की सोच को लेकर पीयूष पांडे ने बताया कि -“स्पोर्ट चैनल पर जब लोग मैच देखते हैं तो उस समय उनका उत्साह कुछ और होता है और उसके बीच में घुस के अगर सिरियस मेसेज दूंगा तो एक तरह से मैं उनके मूड को डिस्टर्व करूंगा, इसलिए हमने एनीमेशन बनाया” जो उस समय के मूड के हिसाब से था।
इकोनॉमिस्ट टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार अच्छे दिन के उम्मीद को लोगों तक पहुचाने के लिए भी कैडर के साथ प्रोफेशनल्स की सेवा ली गयी पार्टी के कैम्पेन की जिम्मेदारी के लिए सिंगापुर से स्मिता बरुआ को बुलाया गया, जिस प्रोफेशन की वजह से उनका चुनाव किया गया वह दंग कर देने वाला है, स्मिता बरुआ “एडिक्शन स्पेशलिस्ट” हैं,शायद देश के घर–घर में मोदी और भाजपा का नशा पहुचाने के लिए उनका चुनाव किया गया।
मोदी के टीम द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में कैम्पेन के लिए अलग रणनीति बनायीं गयी, गावों में जाति के आधार पर विभाजन ज्यादा स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, पहली कोशिश इस विभाजन को मोदी के हक़ में मोड़ना था, अगर हम केवल यू.पी. की बात करें तो यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 400 वैन तैयार किये गये थे जिसमें मोदी के वीडियो के संदेशों के साथ-साथ अच्छे दिन आने वाले हैं की धुन का भी इन्तेजाम था, यह 400 वैन उत्तर प्रदेश के गावं –गावं घूमे. नज़र रखने के लिए इन गाड़ियों को जी.पी.एस. से लैस किया गया था ताकि कंट्रोल रूम को पता चलता रहे कि गाड़ी कहाँ पर है और किसी एक जगह पर ज्यादा देर तक न रुके।
नौकरशाही डॉट इन नामक वेबसाइट के अनुसार – मोदी के जीत में सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही, इसके लिए बाकायदा एक लाख सोशल मीडिया कम्पेनर्स हायर किया गया था, इन एक लाख प्रोफेशनलों की नियुक्ति के लिए सिटिजेन फॉर अकाउंटेबुल गर्वनेंस ( सीएजी) की सेवा ली गयी थी, सीएजी ने एक लाख सोशल मीडिया प्रोफेशनल्स की नियुक्ति के लिए बाकायदा ऑनलाइन विज्ञापन जारी किया था. ये नियुक्तियां मार्च से मई यानी तीन महीने के लिए की गयी थीं. इस विज्ञापन में कहा गया था कि उसे एक लाख “हाईली मोटिवेटेड प्रोफेशनल्स” की जरूरत है जो भारतीय जनता पार्टी, खासकर नरेंद्र मोदी के पक्ष में सोशल मीडिया कम्पेन टीम के लिए काम कर सकें. इन प्रोफेशनल्स ने तीन महीने तक इस काम के लिए फुल टाइम समय दिया और बदले में उन्हें मानदेय भी देने की घोषणा की गयी थी. इस लाख युवा प्रोफेशनल्स ने सोशल मीडिया में नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में काम किया।
चंद दिनों पहले किरण बेदी ने मोदी की तुलना गाँधी जी से करते हुए उन्हें “महात्मा मोदी” का खिताब दिया था, मोदी के महात्मा गाँधी होने की बात हास्यास्पद है लेकिन आधुनिक भारत के राजनीति में गाँधीजी के बाद शायद मोदी ऐसे दूसरे नेता होंगे जिन्होंने इतनी बारीकी से प्रतीकों की राजनीति की है, प्रतीकों की राजनीति में तो वो कई बार नए कीर्तमान बनाते नज़र आते हैं, मोदी प्रतीकों की राजनीति केवल चुनाव अभियान के दौरान ही नहीं बल्कि सत्ता में आने के बाद भी कर रहें है, अगर इसी चुनाव को ही देखें तो चुनाव अभियान के दौरान “लौह पुरुष” सरदार पटेल की प्रतिमा स्टेचयू ऑफ लिबर्टी से ढ़ाई गुना ऊँची बनाने के लिए पूरे भारत के गाँव में रहने वाले किसानों से खेती करने के पुराने और बेकार हो चुके लोहे के औजारों का संग्रह करने का अभियान चलाया गया। इसी तरह से नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान में जुडी संस्था 'सिटिज़न्स फॉर एकाउंबिलिटी एंड गर्वनेंस' द्वारा भारत के 500 से ज़्यादा शहरों में “चाय पे चर्चा” अभियान चलाया गया जिसमें “दिल्ली के शहजादे” के बरअक्स मोदी की एक आम चाय वाले की छवि पेश की गयी थी, इसी तरह से मोदी ने चुनाव लड़ने के लिए प्रतीकात्मक रूप से हिन्दू धार्मिक और गंगा घाट के लिए मशहूर नगरी वाराणसी का चयन लोक सभा चुनाव लड़ने के लिए किया। दिल्ली जीत लेने के बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं है, जीत के तुरंत बाद वे काशी जाते है और गंगा आरती में भाग लेते है जिसका मीडिया द्वारा घंटों तक राष्ट्रीय प्रसारण किया जाता है, संसद में पहली बार प्रवेश करने से पहले उसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर ''लोकतंत्र के मंदिर'' के प्रति सम्मान जताते हैं, इसका प्रभाव जानने के लिए एक उदाहरण ही काफी है, कुछ “पढ़े लिखे मुस्लिम दोस्तों” ने खुश होकर इस माथा टेकने की अदा को सुजूद (नमाज के दौरान सर को जमीन पर रखना) की संज्ञा दे डाली।
अब शायद अगला कदम मोदी को एक मसीहा के तौर स्थापित करने की होने वाली है , सोशल मीडिया पर तो मोदी ब्रिगेड द्वारा इसकी शुरुआत भी की जा चुकी है, एक नमूना देखें
॥ नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी ॥
450 साल पहले कर दी थी मोदी युग की भविष्यवाणी, फ्रांस के भविष्यवक्ता “नास्त्रेदमस” की “सेन्चुरी ग्रंथ” मे फ्रेंच भाषा मे लिखा हैं कि 2014 से लेकर 2026 तक भारत का नेतृत्व एक ऐसा आदमी करेगा जिससे लोग शुरू में नफरत करेंगे मगर इसके बाद देश की जनता उससे इतना प्यार करेंगी कि वह 20 साल तक देश कीदशा और दिशा बदलने में जुटा रहेगा यह भविष्य वाणी सन् 1555 की हैं यह फ्रेंच भाषा मे लिखा गया हैं जिसका अनुवाद मराठी भाषा में महाराष्ट्र के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डाँ.श्री रामचंद्रजी जोशी ने किया हैं। जिसके पृष्ठ 32-33 पर स्पष्ट लिखा है ठहरो राम राज्य आ रहा हैं, एक अधेड़ उम्र का अजोड़ महासत्ता अधिकारी भारत ही नहीं सारी पृथ्वी पर स्वर्ण युग लायेगा। जो अपने सनातन धर्म का पुनउत्थान करके भारतको सर्व श्रेष्ठ हिन्दू राष्ट्र बनायेगा। चांडाल चौकड़ियों को परास्त कर अपने दम पर सत्ता पे काबिज होगा। उनके नेतृत्व में हिन्दूस्तान न सिर्फ विश्व गुरु बनेगा बल्कि कई देश भारत की शरण मेंआ जायेगे ।{जय जय श्री महागणेश } (भारत अभ्युदय फेसबुक पेज से साभार )
मां और पत्नी का रिश्ता बहुत ही निजी होता है, अगर पत्नी की बात करें तो गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव से पहले नरेन्द्र मोदी के विवाह प्रसंग पर सवाल उठे थे। उस वक्त यूट्यूब पर एक विडियो आया था जिसमें जसोदाबेन मोदी नाम की एक महिला ने दावा किया था कि वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पत्नी हैं, जसोदाबेन के अनुसार दोनों की शादी 1968 में हुई और वे करीब तीन साल साथ रहे।
45 साल बाद पहली बार मोदी ने लोकसभा के लिए नामांकन भरते हुए आधिकारिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि जसोदाबेन उनकी पत्नी हैं, मोदी अभी तक पत्नी के बारे में जानकारी देने वाले कॉलम को खाली छोड़ देते थे। मीडिया में छपी रिपोर्टों के अनुसार जसोदाबेन ने नरेंद्र मोदी के लिए चार दशकों तक व्रत रखा। जसोदाबेन के भाई अशोक मोदी ने बताया कि जसोदा ने अपने पति से दोबारा मिलने की इच्छा में 40 सालों से चावल खाना छोड़ दिया है, अब उनकी तपस्या पूरी हुई उन्होंने जानकारी दी कि मोदी के प्रधानमंत्री बनाने लिए जसोदाबेन व्रत रखने शुरू कर दिए थे।
लेकिन इस पूरे प्रकरण में भी कुल मिलकर मोदी को एक त्यागी पुरुष के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी जिसने देश और समाज की सेवा के लिए अपनी पत्नी और गृह का त्याग कर दिया था और जसोदाबेन को भी उस “ओरिजिनल भारतीय नारी” के रूप में पेश किया गया जिसने त्याग और तपस्या के रास्ते पर चलते हुए इस पवित्र काम में उनका हाथ बताया। परन्तु सवाल ये उठता है कि जब तक वे संघ में थे तो बात अलग थी, परन्तु पिछले करीब 12 सालों से वे गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता सुख भोग रहे थे और इस दौरान नरेंद्र मोदी की पत्नी जसोदाबेन नदारद रही और पति से दोबारा मिलने की इच्छा में त्याग और तपस्या ही करती रहीं। अगले पांच साल वे प्रधानमंत्री होने का सुख भोगने वाले हैं लेकिन क्या इस बार भी जसोदाबेन को त्याग और तपस्या करने लिए अकेला छोड़ दिया जायेगा ?
वही अगर मां की बात करें तो पिछले दो सालो में हम देख रहे हैं कि मोदी अपनी बूढी माँ हीराबेन जो की उनसे अलग और बहुत ही सामान्य परिस्थितयों में रहती है, के साथ उनकी चुनिन्दा मुलाकातें जो बहुत सामान्य होनी चाहिए,कैमरों के चकाचौंध में हो रही हैं और राष्ट्रीय खबर के तौर पर पेश की जा रही है, मुलाकात का दिन और अंदाज़ पुराने सम्राटों की तरह होता है, जैसे एक यौद्धा युद्ध पर जाने से पहले मां का आशीर्वाद लेने आया हो।
इस तरह से अपार धन,श्रेष्ठप्रतिभाओं और प्रतीकों की राजनीति के बल पर मोदी की “लार्जर देन लाईफ” छवि को गढ़ा गया और मोदित्व का निर्माण हुआ जिसके बल पर मोदी और उनके संघ परिवार की नैय्या पार हुई।
भविष्य की चुनौतियाँ और संभावनाएं
तमाम पूर्वानुमानों को धता बताते हुए मोदी को बहुमत मिला है, लेकिन इसके साथ ही उनपर परस्पर विरोधी उम्मीदों का बोझ भी है, एक तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जिसके दर्शन के परिधि से भारत का एक बड़ा तबका बाहर है, संघ की यह विचारधधरा उन सभी मूल्यों के विपरीत है जो आज के भारत की नींव हैं है ,दूसरी तरफ युवाओं और मध्यवर्ग का एक बड़ा तबका ऐसा है जो संघ परिवार का कैडर नहीं है, उसने तो मोदी को विकास,सुशासन और अच्छे दिन आने के आस में वोट दिया है, इस तबके की अपनी उम्मीदें हैं, कॉर्पोरेट्स के तो अपने हित हैं ही, मोदी के लिए इन सब सब के बीच ताल मेल बिठाना उतना आसन भी नहीं होगा
सब से पहले बात संघ की करते हैं संघ के जाने माने चिन्तक एम.जी.वैद्य ने भाजपा के “एतिहिसिक विजय” पर अपने ब्लॉग “भाष्य” पर लिखा है की यह अभूतपूर्व जीत है और इसकी विशेषता यह है कि, इस चुनाव में भाजपा का अपना स्वतंत्र घोषणापत्र था जिसमें अयोध्या में राम-मंदिर, धारा 370, समान नागरिक कानून जैसे विषय समाविष्ट थे, इसलिए इस जनादेश का अर्थ यह है कि इन तीन मुद्दों के संदर्भ में कानून या संविधान की मर्यादा लांघे बिना भाजपा ठोस कदम उठाये..
उन्होंने ब्लॉग पर यह भी बताया कि, “संघ परिवार को दशकों की तैयारी के बाद इस बार जो मौक़ा मिला है उसका पूरा फ़ायदा उठाकर वह लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने की योजना पर काम कर रहा है”।
कुछ महीनों से मैं सोशल मीडिया पर मोदी और संघ समर्थकों की गतिविधियों को फालो कर रहा हूँ , फेसबुक पर प्रोफेशनल्स, मोदी और संघ के अनुयायियों में हजारों की संख्या में प्रोफाइल और पेज बनाये गये हैं, जिसमें ज्यदातर पोस्ट बहुत ही भड़काऊ और आपत्तिजनक होते हैं, इन प्रोफाइल्स में एक ख़ास समानता देखने को मिलती है कई अपडेट (पोस्ट) ऐसे होते हैं जो हुबहू एक साथ कई प्रोफाइल और पेज पर पोस्ट किये जाते है, जिसका मतलब है की इनके बीच आपस में जुडाव है ,नीचे तीन ऐसे दिलचस्प पोस्ट दिए जा रहे है जो कम से कम सोशल मीडिया पर संघ परिवार के कैडर की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व तो करती ही हैं ।
LPG रसोई की सब्सीडी और गाय - स्वदेशी अर्थशास्त्र और पूंजीवाद का दिलचस्प मिक्स्चर
गाय का सबसे बडा दुश्मन LPG रसोई गैस पर दी जाने वाली सब्सीडी है । अगर रसोई गैस ओर दी जाने वाली सब्सीडी हटा दी जाये तो गैस का सिलेंडर १५०० तक पहँच जायेगा जो कि उसकी असली कीमत है । छोटे शहरों में यही सिलेंडर २००० का पडेगा । अगर ऐसा हो गया तो गाँव वाले लोग गोबर गैस सिलेडर पर काम करना चालू कर देंगे । जो की ५००-७०० रूपये का पङता है ।
अगर ५ लाख गाँवो में रसोई गैस चलने लग जाये तो इतना दूध पैदा होगा कि दूध की कीमतें ४०-५० से सीधे १० रूपये लीटर पर आ जायेगी । लोग दूध पर जहाँ १२०० खर्च करते है वहीं ३०० रूपये में काम चल जायेगा । २०० रूपये सिलेंडर पर बढ जायेंगे लेकिन ७०० रूपये दूध के भी बच जायेंगे । हर साल खरबों डॉलर भारत अरब देशों को देता है ताकि वो कच्चा पेट्रोलीयम भारत भेजें जिससे LPG गैस बनती है । ये पैसा भी बचेगा । भारत सरकार जो गैस पर सब्सीडी देता है वो चाईना से तो लाता नहीं है वो पैसा हम और टेक्स के रूप में जमा करते है । तो टेक्स में भी बचत होगी ।
करोडों डालर देश के बाहर , करोडो रूपये का टेक्स और मँहगा दूध , इन सबसे छुटकारा पाया जा सकता है अगर हम गाय माता को हमारे अर्थशास्त्र के मूल में मान लें तो....!! ( साभार मंजीत फेसबुक वाल )
मनुस्मृति विमर्श – मनु स्त्री मुक्ति के सिपाही हैं
मनु को हम कितना कम जानते हैं ! मनु को लेकर बताया गया कि वे स्त्री विरोधी थे ...जबकि मनु को पढ़ते हुए वे स्त्रियों को लेकर बेहद उदार नजर आते हैं. वे स्त्री को अपना पति चुनने का अधिकार देते हैं. मनु लिव इन में रहने का अधिकार स्त्री को देते हैं. जिस बच्चे के नाम के साथ पिता का नाम नहीं जुड़ा, मनु उस बच्चे का अपमान नहीं करते ....मनु संहिता में सेरोगेसि का भी प्रावधान है ....
मनु को हम कितना कम जानते हैं !
इस पोस्ट के समर्थन में एक विडियो भी शेयर किया गया है , जिसे निचे दिए गये लिंक पर जाके देखा जा सकता है
(आशीष कुमार 'अंशु' के फेसबुक वाल से साभार)
हरिजन एक्ट- सवर्णो और पिछड़ो पर दलितोँ की ओर से हंटर है
कल मैने एक पोस्ट डाली थी और ये जानना चाहा था कि हरिजन एक्ट के बारे मे कितने लोग जानते हैँ..?मित्रोँ इस एक्ट का पूरा नाम अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण)अधिनियम, 1989 है ये सेन्ट्रल एक्ट है और ये कांग्रेस सरकार की देन है इसकी विशेषता ये है कि आप दलित आपके साथ कुछ भी नांइसाफी करे आप के द्वारा साधारण धाराओँ मे FIR दर्ज होगी पर आपने यदि कुछ भी बोल तक दिया तो दलित के द्वारा लिखाई गई FIR इस एक्ट के तहत लिखी जायेगी और सप्लीमेँट्री के रूप मे अन्य धारायेँ भी जोड़ दी जायेगीँ और 6 महिने तक जमानत नही होगी..
मतलब यह कि ये एक्ट सवर्णो और पिछड़ो पर दलितोँ की ओर से एक प्रकार का हंटर है जिसका सिर्फ दुरूपयोग हुआ है..और कांग्रेस ने अब इससे भी खतरनाक प्रारूप "साम्प्रदायिक हिँसा बिल" का तैयार किया था जो समस्त हिँदू समुदाय (जिसमे दलित भी शामिल है) पर मुसलमानो के द्वारा हंटर है हाँलाकि अभी पास नही हो पाया है..क्या आप इस बात से सहमत हैँ कि दुरूपयोग के चलते इन दोनो को समाप्त किया जाना चाहिये या अल्ट्रा वायरस घोषित किया जाना चाहिये..???
(भारत अभ्युदय' फेसबुक पेज से साभार )
यह तीनों पोस्ट संघ परिवार के एजेंडों को बहुत ही साफ़ और दिलचस्प तरीके से बयान करते हैं देखना मौंजू होगा की मोदी सरकार कैसे इन अपेक्षाओं के उफान के साथ ताल – मेल बिठाती है !
लेकिन सोशल मीडिया पर एक और ख़ास बात देखने को मिलती है यहाँ दो तरह के मोदी समर्थक नज़र आते हैं पहले संघ परिवार के कैडर या उनकी विचारधारा से प्रभावित लोग है जिनकी बात हम ऊपर कर चुके है, लेकिन एक दूसरा समूह भी है जिसका संघ परिवार से साथ कोई सीधा जुडाव नहीं है जिन्होंने बी.जे.पी. को नहीं मोदी को वोट दिया है, इस समूह ने मोदी को इस लिए चुना है क्योंकि उसे पूरे राजनीतिक परिदृश्य में मोदी के अलावा ऐसी कोई शख्सियत ही नज़र नहीं आया जो उनके हिसाब से सब कुछ ठीक कर सकता हो, मोदी ने उनमें भरोसा जताया ,उनसे उन्ही की भाषा में संवाद किया , और उनकी उम्मीदों को हवा दी . सोशल मीडिया ही नहीं इस तरह के लोग आम जीवन में मिल रहे है जिन्होंने मोदी को चुना है भाजपा और संघ को को नहीं. यह समूह मोदी सरकार से अपने जीवन में बदलाव की उम्मीद करता है और अपेक्षाकृत रूप से यह व्यक्तिगत आजादी और आधुनिक मूल्यों से ज्यादा करीब है ,यह थोडा बेसब्र भी है और जल्दी बदलाव में यकीन करता है ।
जाहिर सी बात है इस समूह की उम्मीदों का टकराव संघ परिवार के कैडर की दक्षिणपंथी एजेंडे से हो सकता है ! मोदी के लिए इस समूह को लम्बे समय तक अपने साथ साधे रख सकने में चुनौतियाँ का सामना करना पड़ सकता है ।
सरमायेदारों (कार्पोरेट ) ने तो नयी सरकार का जोरदार स्वागत किया है ,उनकी उम्मीदें तो पहले से ही उफान पर पर हैं ,अब जबकि उनका फेवरेट “सूबेदार” पूरी बहुमत के साथ दिल्ली में आ चूका है ऐसे में उनकी मोदी सरकार से यही अपेक्षा है कि वह आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिए सबसे पहले “कारोबारी प्रतिकूलताएं” दूर करे, तेजी से आर्थिक एवं कारोबार संबंधी नीतिगत फैसले ले और उन्हें कार्यान्वित करे , सब्सिडी या आर्थिक पुनर्वितरण की नीतियों को सही तरीके से लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाये, बुनियादी क्षेत्र में निवेश को प्राथमिकता दे आदि ।
भारत में पूँजीवाद के मुखर चिन्तक गुरचरन दास मोदी के जीत पर उत्साहित होकर लिखते हैं कि “भारतीयों ने अगस्त 1947 में आजादी और जुलाई 1991 में आर्थिक स्वतंत्रता हासिल की थी तो अब मई 2014 में उन्होंने गरिमा हासिल की है।“ वे आगे लिखते हैं कि मोदी की जीत के बाद से देश दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ नहीं आर्थिक स्तर पर यह दाहिनी ओर झुक गया है, मोदी इसलिए विजयी हुए, क्योंकि अपने लंबे चुनाव अभियान के दौरान वे बताने में कामयाब रहे कि वे आधारभूत ढांचे में निवेश करके और प्रशिक्षण के द्वारा युवाओं का हुनर बढ़ाकर विकास लाएंगे। इसके लिए वे निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए लालफीताशाही पर लगाम लगाएंगे, अनुत्पादक सब्सिडी हटाएंगे! । यहाँ भी हम पाते हैं कि कारोबारी वर्ग के हित अलग है और मोदी के सामने इनके हितों को साध कर रखने की भी चुनौती होगी ।
लेकिन असली चुनौती तो फिलहाल देश के धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी स्वरूप को है, हो सकता है मुल्क के मौजूदा सिस्टम के बाहरी कलपुर्जों में ज्यादा बदलाव न हो और इसके लिए अभी और समय लिया जाये , लेकिन धीरे – धीरे इस सिस्टम के वर्तमान सॉफ्टवेर को बदल का नए सॉफ्टवेर का इन्स्टाल किया जाना तय है, अगर समय रहते इसका इलाज नहीं किया गया यह नए सॉफ्टवेर भारत के वर्तमान स्वरूप के लिए दीमक साबित होने वाले हैं, इसी मलबे की ढेर पर महान हिन्दू राष्ट्र का निर्माण किया जाना है जैसा की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना है । समस्या यह है कि “संघ परिवार” के बरअक्स देश और समाज में कोई विकल्प नहीं दिखाई देता है, मुद्दे आधारित आन्दोलन तो हैं लेकिन ऐसा कोई संगठन नहीं है जो इस स्तर पर समाज के साथ विभिन्न आयामों में सक्रीय हो ।
मोदी की यही चुनौतियां प्रगतिशील और जनपक्षीय ताकतों के लिए एक अवसर हो सकती थीं बशर्ते इन चुनौतियों को लेकर उनकी ठोस तैयारी होती , लेकिन हम देखते हैं कि मौजूदा जनपक्षीय ताकतें बदले हुए हालात में खुद को ढाल पाने में नाकाम साबित हुई हैं, दिक्कत केवल आन्दोलन के बिखराव की नहीं है, फार्मूले पुराने पड़ चुके हैं, और बदली हुई परिस्थिति के हिसाब अपने समय को विश्लेषित करने में उनकी सीमायें बार बार खुल कर सामने आ रही है । यह कई बार साबित हो चूका है कि भारत में मौजूदा वामपंथ के सिद्धान्तिक फ्रेम–वर्क और टूल भी इतिहास के दायरे में कैद हैं, उनकी अपने सीमायें है, या बना ली गयी है। वामपंथ बार बार अपने समय को पढने में नाकाम साबित हुआ है। ऐसे में ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती है ।
फिर विकल्प क्या बचता है ? इतिहास गवाह रहा है कि जब भी मुश्किल समय आया है, और पुरानी ताकतें उनका सामना करने में नाकाम साबित हुई हैं तो इन्ही परिस्थितियों में नयी समभावनाओं का जन्म भी हुआ है उम्मीद कर सकते है कि इस मुश्किल भरे दौर में नयी शक्तियों का उदय होगा जो पहली हुई चूकों का इमानदारी से विश्लेक्षण करेंगीं और उनसे सबक सीख कर समय के साथ कदमताल हुए अपने को नए विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करेंगीं ।
ऐसे समय में अहमद फ़राज़ की ये पंकितियाँ उम्मीदों को बल देती हैं
ख्वाब मरते नहीं,
ख्वाब तो रौशनी हैं, नवा हैं, हवा हैं,
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नही
रौशिनी और नवा और हवा के आलम
मक्तालों में पहुँच कर भी झुकते नहीं।
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लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं और भोपाल में रहते हैं anisjaved@gmail.com
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