-सुभाष गाताडे
जुल्म , तशद्दुद , झूठ ,बग़ावत , आगजनी ,खूं , कर्फ्यू ,फायर .... हमने इन्हें बिरसे में दिए हैं ,ये बच्चे ,क्या देंगे हमको ???
(कविता: बच्चे - मुसाफ़िर पालनपुरी, ‘कुछ तो कहो यारों !’ सम्पादन, आयशा खान )
I
नूरा कुश्ती की समाप्ति के बाद
सियासत में आपसी सत्तासंघर्ष अक्सर व्यक्तियों के इर्दगिर्द सिमटते दिखते हैं।
भाजपा के अन्दर भी मोदी बनाम आडवाणी का जो संक्षिप्त सा विवाद खड़ा हुआ दिखता था, उस पर अब आधिकारिक तौर पर पटाक्षेप हो चुका है। अब कमसे कम भाजपा के अन्दर नमो नाम का गुणगान शुरू हो चुका है। मालूम हो कि मुल्क की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने 2014 के आसन्न चुनावों के मद्देनज़र गुजरात के मुख्यमंत्री जनाब नरेन्द्र मोदी को चुनावी अभियान समिति का मुखिया बना कर एक तरह से अपना बिगुल फूंका है।
यह अलग बात है कि खुद भाजपा अपने अन्दर की तमाम दरारों को पाटने में बुरी तरह असफल हुई दिखती है। फिर चाहे जनाब आडवाणी के इस्तीफे का प्रसंग हो, मोदी की इस ‘ताजपोशी’ के वक्त़ गोवा की बैठक में तमाम अन्य वरिष्ठ नेताओं की गैरमौजूदगी का मसला हो, या सत्रह साल से गठबन्धन में साथ रहे जनता दल यू की बिदाई हो। नीतिश कुमार के खिलाफ विश्वासमत को लेकर वोट डालने के बजाय सदन का बहिष्कार करके उसने फिलवक्त अपनी लाज बचा ली है, मगर दरारें अधिक स्पष्ट हुई है ; क्योंकि उसे डर था कि भाजपा के अपने विधायक नीतिश का साथ दे सकते हैं।
वैसे इस पूरी आपाधापी में इस खेल के असली विजेता की तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान गया है, वही जिसने न केवल कोपभवन में पहुंचे आडवाणी को ‘सलाह’ दी की, वह अपना इस्तीफा वापस ले, वही जिसने पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेताओं की असहमति, विरोध, नाराजगी को किनारे लगाते हुए यशस्वी कहे जानेवाले मुख्यमंत्री मोदी को इस अहम जिम्मेदारी सौंपने में अहम भूमिका निभायी, वही जो विगत कई सालों से इस कोशिश में मुब्तिला था कि पार्टी का नियंत्राण उसके विश्वासपात्रों के हाथ में रहे।
दुनिया के इतिहास में ऐसी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है जबकि अपने आप को सांस्कृतिक कहलाने वाला एक संगठन - जिसकी जनता के प्रति प्रत्यक्ष कोई जवाबदेही नहीं हो - वह एक ऐसे संगठन को निर्देश देता फिरे, जिसे अपनी वैधता जनता से हासिल करनी होती है ; नियत समय में चुनावों में उतरना होता हो। 2005 का वह प्रसंग कौन भूल सकता है, जब अपनी पार्टी को दो सीटों से सत्ताधारी पार्टी बनाने की नीति के शिल्पकार कहे जानेवाले आडवाणी पाकिस्तान यात्रा से लौटे थे, जहां जिन्ना को लेकर उन्होंने दिए बयानों से विवाद खड़ा हुआ था और पार्टी के अध्यक्षपद से अब उनकी छुट्टी की ‘सलाह’ के साथ उनसे उम्र में लगभग तीस साल छोटे (इस वक्त संघ के सुप्रीमो) पहुंचे थे और ‘लौहपुरूष’ के तौर पर अपने अनुयायियों में शुमार किए जाने वाले आडवाणी ने भी बिना किसी हिलाहवाली के पदत्याग किया था।
फिलवक्त आक्रामक हिन्दुत्व के प्रतीक समझे जा रहे जनाब मोदी के पीछे संघ खड़ा है। स्पष्ट है कि मोदी की निरंकुश कही जाने वाली शैली को लेकर उसे कोई गुरेज नहीं है, न वह गौर करना चाहता है कि किस तरह मोदी ने संघ-भाजपा के संगठन में -कमसे कम सूबे के स्तर पर - उन तमाम लोगों को हाशिये पर डाला है, जिनसे उनकी बनती नहीं थी ; संजय जोशी जैसे प्रचारक की किस तरह दुर्गत करायी या किस तरह संघ के तमाम आनुषंगिक संगठनों को असरहीन बना दिया, राज्य में संगठन का ‘मोदीकरण’ किया है।
संघ परिवार के हिसाब से देखें तो 2001 में केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटा कर मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी उपलब्धियां बहुत हैं। कहॉं तो 2001 के उस उत्तरार्द्ध में भाजपा की सत्ता पर पकड़ ढिली पड़ रही थी, वह कई नगरपालिकाओं के चुनाव हार रही थी और फिर गोधरा काण्ड के नाम पर प्रायोजित किए गए दंगों ने भाजपा की किस्मत इस कदर चमकी कि बाकी सभी पार्टियों को लगातार हाशिये पर डाल कर वह जीत की हैट्रिक वहां कायम कर सकी है। यह अलग बात है कि आज़ाद भारत में मुसलमानों के सबसे बड़े जनसंहार में राज्य सरकार की संलिप्तता या उसकी अकर्मण्यता के चलते देश विदेश में उसने इतनी बदनामी झेली है कि आज भी पश्चिम के कई अहम मुल्कों में संघ के इस लाड़ले मुख्यमंत्री का प्रवेश वर्जित है।
स्पष्ट है कि भाजपा के अन्दर अटल-आडवाणी दौर की समाप्ति के बाद मोदीयुग की शुरूआत की अहमियत महज उसके अल्पसंख्यक विरोध तक सीमित नहीं है, मोदी का शासन बड़े पूंजीपतियों एवं कारोबारियों के लिए उपलब्ध की जा रही तमाम सेवाओं के लिए भी चर्चित है। तमाम बड़े घरानों को गुजरात में अतिरिक्त फायदा मुहैया कराया गया है, जमीन तथा अन्य सभी संसाधनों को उनकी सेवा में समर्पित किया गया है। चन्द माह पहले आयी कन्ट्रोलर एण्ड आडिटर जनरल की रिपोर्ट ने कार्पोरेट समूहों को दिखायी गयी इसी ‘गैरवाजिब’ दरियादिली के लिए उसकी तीखी आलोचना की थी (CAG indicts Narender Modi Govt for 'undue' favours to corporates, PTI Apr 4, 2013, 05.52 AM IST) अपनी रिपोर्ट में कैग ने बताया था कि किस तरह गुजरात सरकार एंव राज्य सार्वजनिक क्षेत्र निगमों को इसके चलते 580 करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ा। फिर चाहे जमीन देने के नियमों को ठेंगा दिखाते हुए फोर्ड इण्डिया एवं लार्सन एण्ड टुब्रो को दी गयी जमीन हो या दोनों अम्बानी बन्धुओं, एस्सार स्टील और अडानी पावर लिमिटेड जैसी कम्पनियों को पहुंचाया गया फायदा हो। कुल मिला कर, जनाब मोदी कट्टर हिन्दुत्व और बड़ी पूंजी के इस खतरनाक संयोग की नुमाइन्दगी करते हैं। और आए दिन ‘स्वदेशी’ का राग अलापनेवाले संघ को निश्चित ही उससे गुरेज नहीं है।
आई आई टी बम्बई में अपने हालिया व्याख्यान में अमर्त्य सेन ने आर्थिक बढ़ोत्तरी के मोदी के दावों के खोखलेपन को उजागर किया था और बताया था कि उत्तराखण्ड, बिहार एवं महाराष्ट्र जैसे राज्य उससे आगे हैं। सामाजिक सूचकांकों - प्रति व्यक्ति आय, गरीबी रेखा के नीचे आबादी का प्रतिशत, बाल मृत्यु दर आदि मामलों में - गुजरात हिमाचल, तमिल नाडु और केरल से पीछे है। ‘विकास पुरूष’ के तौर पर मोदी की नयी छवि गढ़ने में मुब्तिला लोग आखिर इस बात पर क्यों गौर करना चाहंगे कि उसी गुजरात में आबादी का 32 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है और प्रति एक हजार बच्चों में 61 बच्चे पांच साल की कम उम्र में मरने के लिए अभिशप्त है।
इन दिनों मोदी भले संघ के आंखों की पुतली बने हों, मगर अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब यही दर्जा आडवाणी को हासिल था, जो अटल बिहारी वाजपेयी के बरअक्स संघ के आदर्श स्वयंसेवक में शुमार किए जाते थे। इस बात को कैसे कोई भूल सकता है कि अस्सी एवं नब्बे के दशक में वह आडवाणी ही थे जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस आन्दोलन की अगुआई की थी और धर्मनिरपेक्षता को लेकर जारी विमर्श को एक ऐसी दिशा दी थी कि ‘अल्पसंख्यक विरोध’ मुख्यधारा में लोकप्रिय हुआ था। अपने आलेख ‘बिंग क्लीअर अबाउट आडवाणी’ में चर्चित पत्राकार सुश्री ज्योति पुनवानी लिखती हैं। "तब तक जारी राजनीति में फिर भी एक लक्ष्मण रेखा का पालन किया जाता था, एक वंचित अल्पमत के तौर पर मुसलमानों की वास्तविकता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं उठाता था। मगर आडवाणी ने मुस्लिमविरोध को लोकप्रियता दिलायी। ‘मुसलमानों का तुष्टीकरण’ कांग्रेस के लिए स्वीकृत गाली बनी.. यह आडवाणी का ही कमाल था कि देश का वातावरण कलुषित हुआ।..संघ हमेशा ही जहर उगलता रहता था, मगर अंग्रेजी प्रेस उसकी उपेक्षा करता था। शाहबानो के मसले ने हवा बदल दी, मगर हिन्दुराष्ट्र की उनकी संकल्पना के साथ आडवाणी नहीं होते, जहां अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक थे, तब तक इन विचारों की इतनी स्वीकार्यता नहीं बनती। 92-93 के मुंबई दंगों में जांच करनेवाले श्रीकृष्ण आयोग ने आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक यात्रा को ही देश के वातावरण को कलुषित करने का जिम्मेदार माना था।’ यह अकारण नहीं था कि 1984 में दो सीटों तक सिमटी भाजपा 1989 के चुनावों में 89 सीटें हासिल कर सकी थी और नब्बे के दशक के उत्तरार्द्धै में आजादी के बाद पहली दफा सत्ता के गलियारों तक पहुंची थी।
वर्ष 2002 में जबकि दंगों में प्रदर्शित अकर्मण्यता/संलिप्तता के आरोपों के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जनाब मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी, मोदी को पद से हटाने की भी मांग की थी। उन्हीं दिनों जनाब आडवाणी अपने इस ‘शिष्य’ के जबरदस्त हिमायती के तौर पर सामने आए थे। वक्त का फेर देखिए, जिस शख्स को उन्होंने राजनीति में आगे बढ़ाया था वह पार्टी के केन्द्र में है और उनकी तमाम शिकायतों को दरकिनार करते हुए उन्हें वानपस्थाश्रम या संन्यासाश्रम अपनाने की सलाह दी जा रही है।
वैसे ‘गुरू’ एवं ‘शिष्य’ की इस टकराहट को एक किस्म की नूराकुश्ती के तौर पर भी सम्बोधित किया जा सकता है क्योंकि दोनों में से किसी ने हिन्दुराष्ट्र निर्माण की परियोजना को - जो एक समावेशी, सहिष्णु, प्रगतिउन्मुख, धर्मनिरपेक्ष मुल्क के बुनियादी स्वरूप को आमूलचूल बदलना चाहती है - (जिसकी थोड़ी झलक हम जनाब आडवाणी की अगुआई में चले बाबरी मस्जिद विध्वंस आन्दोलन के बाद पूरे मुल्क में हुए साम्प्रदायिक दंगों एवं हजारों बेगुनाहों की मौत में देख चुके हैं या 2002 में गुजरात जनसंहार - जिसे ‘परिवारजनों’ ने ‘सफल प्रयोग’ घोषित किया था - में देख चुके हैं) को प्रश्नांकित नहीं किया है। भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘मुखपत्र’ आर्गनायजर के हिसाब से 2014 की अहमियत भारत की राजनीति में उसी किस्म की होनेवाली है जैसी 1757 की प्लासी की लड़ाई की थी या 1857 के महासमर की थी। प्रश्न उठता है कि ‘विकासपुरूष’ मोदी की अगुआई में क्या संघ-भाजपा वाकई कोई करिश्मा कर सकेंगे या 2014 भी 2004 की एक और पुनरावृत्ति साबित होगा ?
स्पष्ट है कि भाजपा के अन्दर अटल-आडवाणी दौर की समाप्ति के बाद मोदीयुग की शुरूआत की अहमियत महज उसके अल्पसंख्यक विरोध तक सीमित नहीं है, मोदी का शासन बड़े पूंजीपतियों एवं कारोबारियों के लिए उपलब्ध की जा रही तमाम सेवाओं के लिए भी चर्चित है। तमाम बड़े घरानों को गुजरात में अतिरिक्त फायदा मुहैया कराया गया है, जमीन तथा अन्य सभी संसाधनों को उनकी सेवा में समर्पित किया गया है। चन्द माह पहले आयी कन्ट्रोलर एण्ड आडिटर जनरल की रिपोर्ट ने कार्पोरेट समूहों को दिखायी गयी इसी ‘गैरवाजिब’ दरियादिली के लिए उसकी तीखी आलोचना की थी (CAG indicts Narender Modi Govt for 'undue' favours to corporates, PTI Apr 4, 2013, 05.52 AM IST) अपनी रिपोर्ट में कैग ने बताया था कि किस तरह गुजरात सरकार एंव राज्य सार्वजनिक क्षेत्र निगमों को इसके चलते 580 करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ा। फिर चाहे जमीन देने के नियमों को ठेंगा दिखाते हुए फोर्ड इण्डिया एवं लार्सन एण्ड टुब्रो को दी गयी जमीन हो या दोनों अम्बानी बन्धुओं, एस्सार स्टील और अडानी पावर लिमिटेड जैसी कम्पनियों को पहुंचाया गया फायदा हो। कुल मिला कर, जनाब मोदी कट्टर हिन्दुत्व और बड़ी पूंजी के इस खतरनाक संयोग की नुमाइन्दगी करते हैं। और आए दिन ‘स्वदेशी’ का राग अलापनेवाले संघ को निश्चित ही उससे गुरेज नहीं है।
आई आई टी बम्बई में अपने हालिया व्याख्यान में अमर्त्य सेन ने आर्थिक बढ़ोत्तरी के मोदी के दावों के खोखलेपन को उजागर किया था और बताया था कि उत्तराखण्ड, बिहार एवं महाराष्ट्र जैसे राज्य उससे आगे हैं। सामाजिक सूचकांकों - प्रति व्यक्ति आय, गरीबी रेखा के नीचे आबादी का प्रतिशत, बाल मृत्यु दर आदि मामलों में - गुजरात हिमाचल, तमिल नाडु और केरल से पीछे है। ‘विकास पुरूष’ के तौर पर मोदी की नयी छवि गढ़ने में मुब्तिला लोग आखिर इस बात पर क्यों गौर करना चाहंगे कि उसी गुजरात में आबादी का 32 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है और प्रति एक हजार बच्चों में 61 बच्चे पांच साल की कम उम्र में मरने के लिए अभिशप्त है।
इन दिनों मोदी भले संघ के आंखों की पुतली बने हों, मगर अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब यही दर्जा आडवाणी को हासिल था, जो अटल बिहारी वाजपेयी के बरअक्स संघ के आदर्श स्वयंसेवक में शुमार किए जाते थे। इस बात को कैसे कोई भूल सकता है कि अस्सी एवं नब्बे के दशक में वह आडवाणी ही थे जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस आन्दोलन की अगुआई की थी और धर्मनिरपेक्षता को लेकर जारी विमर्श को एक ऐसी दिशा दी थी कि ‘अल्पसंख्यक विरोध’ मुख्यधारा में लोकप्रिय हुआ था। अपने आलेख ‘बिंग क्लीअर अबाउट आडवाणी’ में चर्चित पत्राकार सुश्री ज्योति पुनवानी लिखती हैं। "तब तक जारी राजनीति में फिर भी एक लक्ष्मण रेखा का पालन किया जाता था, एक वंचित अल्पमत के तौर पर मुसलमानों की वास्तविकता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं उठाता था। मगर आडवाणी ने मुस्लिमविरोध को लोकप्रियता दिलायी। ‘मुसलमानों का तुष्टीकरण’ कांग्रेस के लिए स्वीकृत गाली बनी.. यह आडवाणी का ही कमाल था कि देश का वातावरण कलुषित हुआ।..संघ हमेशा ही जहर उगलता रहता था, मगर अंग्रेजी प्रेस उसकी उपेक्षा करता था। शाहबानो के मसले ने हवा बदल दी, मगर हिन्दुराष्ट्र की उनकी संकल्पना के साथ आडवाणी नहीं होते, जहां अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक थे, तब तक इन विचारों की इतनी स्वीकार्यता नहीं बनती। 92-93 के मुंबई दंगों में जांच करनेवाले श्रीकृष्ण आयोग ने आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक यात्रा को ही देश के वातावरण को कलुषित करने का जिम्मेदार माना था।’ यह अकारण नहीं था कि 1984 में दो सीटों तक सिमटी भाजपा 1989 के चुनावों में 89 सीटें हासिल कर सकी थी और नब्बे के दशक के उत्तरार्द्धै में आजादी के बाद पहली दफा सत्ता के गलियारों तक पहुंची थी।
वर्ष 2002 में जबकि दंगों में प्रदर्शित अकर्मण्यता/संलिप्तता के आरोपों के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने जनाब मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी, मोदी को पद से हटाने की भी मांग की थी। उन्हीं दिनों जनाब आडवाणी अपने इस ‘शिष्य’ के जबरदस्त हिमायती के तौर पर सामने आए थे। वक्त का फेर देखिए, जिस शख्स को उन्होंने राजनीति में आगे बढ़ाया था वह पार्टी के केन्द्र में है और उनकी तमाम शिकायतों को दरकिनार करते हुए उन्हें वानपस्थाश्रम या संन्यासाश्रम अपनाने की सलाह दी जा रही है।
वैसे ‘गुरू’ एवं ‘शिष्य’ की इस टकराहट को एक किस्म की नूराकुश्ती के तौर पर भी सम्बोधित किया जा सकता है क्योंकि दोनों में से किसी ने हिन्दुराष्ट्र निर्माण की परियोजना को - जो एक समावेशी, सहिष्णु, प्रगतिउन्मुख, धर्मनिरपेक्ष मुल्क के बुनियादी स्वरूप को आमूलचूल बदलना चाहती है - (जिसकी थोड़ी झलक हम जनाब आडवाणी की अगुआई में चले बाबरी मस्जिद विध्वंस आन्दोलन के बाद पूरे मुल्क में हुए साम्प्रदायिक दंगों एवं हजारों बेगुनाहों की मौत में देख चुके हैं या 2002 में गुजरात जनसंहार - जिसे ‘परिवारजनों’ ने ‘सफल प्रयोग’ घोषित किया था - में देख चुके हैं) को प्रश्नांकित नहीं किया है। भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘मुखपत्र’ आर्गनायजर के हिसाब से 2014 की अहमियत भारत की राजनीति में उसी किस्म की होनेवाली है जैसी 1757 की प्लासी की लड़ाई की थी या 1857 के महासमर की थी। प्रश्न उठता है कि ‘विकासपुरूष’ मोदी की अगुआई में क्या संघ-भाजपा वाकई कोई करिश्मा कर सकेंगे या 2014 भी 2004 की एक और पुनरावृत्ति साबित होगा ?
II
नमो: असली फेकू : एक इलाकाई नेता की मुल्की हसरतें
मोदी की इस ‘ताज़पोशी’ के पहले सम्पन्न कर्नाटक चुनाव को उनके इस जादू का लिटमस टेस्ट माना जा सकता है। नतीजों ने उजागर कर दिया है कि वह इस टेस्ट में बुरी तरह फेल हो गए। वैसे जनाब मोदी को जबसे कार्पोरेट सम्राटों एवं गेरूआधारी स्वामियों के एक हिस्से ने - जिनमें शामिल सभी किसी न किसी विवादों में लिप्त बताए जाते हैं - प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे लायक व्यक्ति घोषित किया है, उसके बाद यह पहला मौका था कि उनकी इस कथित लियाकत का इम्तिहान होता।
मालूम हो कि कर्नाटक चुनाव में मोदी की तीन रैली उन जगहों पर रखी गयी थीं जो भाजपा का मजबूत गढ़ हुआ करते थे। पहली रैली बंगलुरू में थी, जहां कुल 28 सीटें हैं, जिनमें से 17 भाजपा ने पिछले चुनाव में जीती थीं, इस बार दहाई भी पार नहीं हो सका। दो अन्य सभाए कोस्टल कर्नाटक में हुई, जिनमें से एक उड़ुपी और दूसरी बेलगाम में हुई। दक्षिण कन्नड जिले की कुल 8 में से एक भी सीट भाजपा के खाते में नहीं आयी और उडुपी की पांच में से भाजपा को महज एक पर कामयाबी मिली अर्थात 13 सीटों में से महज एक सीट भाजपा के खाते में। यह थी स्टार प्रचारक की उपलब्धि। गौरतलब था कि सभाओं में लोग काफी आए थे, कई जगहों पर स्थानीय नेताओं को बोलने तक नहीं दिया था, मगर जब वोट डालने की बारी आयी, तो भाजपा का डिब्बा गोल करने में लोगों ने संकोच नहीं किया। यही किस्सा हिमाचल प्रदेश में दोहराया गया था। रैली में भीड जबरदस्त मगर वोटिंग में नदारद।
कार्पोरेट जगत के एक हिस्से या मीडिया का उनके प्रति सम्मोहन देखिए कि कर्नाटक की शिकस्त को किसी ने मोदी की शिकस्त नहीं कहा था। कल्पना करें कि अगर उलटा हुआ होता अर्थात किसी करिश्मे से भाजपा जीत जाती तो वही मीडिया मोदी की ताजपोशी करा देता, जिसकी वजह भी समझ में आती है ; मोदी ने अपने मुख्यमंत्री पद काल में कार्पोरेट घरानों केा जबरदस्त छूट दी है। इतनाही नहीं वहां अपने बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्षरत टेªड यूनियनों पर भी काफी अंकुश रखे हैं।
वैसे क्या यह पहली दफा था कि अपने राज्य के बाहर मोदी चूके हुए कारतूस की तरह नज़र आए थे। उल्टे इसके पहले का रेकार्ड भी देखें तो जब जब वह गुजरात के बाहर गए हैं या पार्टी ने उन्हें इसका जिम्मा सौंपा है, वह बिल्कुल प्रभावहीन नज़र आए हैं। गुजरात के पहले पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें महाराष्ट्र, गोवा, दमन-दीव की जिम्मेदारी दी गई थी; भाजपा को यहां उम्मीद के हिसाब से सफलता नहीं मिली। खुद गुजरात के अन्दर भी 2009 के चुनाव में कांग्रेस की तुलना में भाजपा महज दो सीटों पर आगे थी। गुजरात की तुलना में मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में - जहां मोदी नहीं गए - वहां पार्टी को बेहतर सफलता मिली थी।
पिछले साल उत्तराखण्ड के चुनाव को भी देखें, जब मोदी ने केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति अपनी असहमति प्रगट करने के लिए, कोई बहाना बना कर चुनाव में न जाने का निर्णय लिया था। मोदी की अनुपस्थिति के बावजूद भाजपा ने कांग्रेस को कांटे की टक्कर दी और वह महज दो सीटों से कांग्रेस से पिछड़ गयी। ऐसा नहीं कि पांच साल पार्टी की हालत वहां बहुत बेहतर थी। इस अन्तराल में उसे तीन बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे। जानकार बता सकते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में बिहार ने भाजपा को काफी सीटें दिलायी हैं। यहां मोदी चुनाव प्रचार में नहीं गए थे, दरअसल उन्हें बुलाया नहीं गया था। एक तो नीतिश कुमार के मोदी विरोध के प्रति भाजपा सचेत थी, दूसरे, इन्हीं चुनावों की तैयारी के दौरान खुद सुषमा स्वराज्य ने यह कह कर सभी को चौका दिया था कि ‘मोदी का मैजिक हर जगह नहीं चलता है।’
2011 मे सम्पन्न असम चुनावों में भी मोदी की मौजूदगी ने पार्टी को नए रसातल तक पहुंचा दिया था। कहां तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष ने असम में अपने बलबूते सरकार बनाने का सपना देखा था (पंजाब केसरी, 16 मई 2011) और कहां तो आलम था कि उसकी सीटें पहले से आधी (अब 5सीटें )हो चुकी थीं। यह शायद संघ के एजेण्डा का ही प्रभाव था कि असम में ऐसे ही लोगों को चुनाव प्रभारी के तौर पर या स्टार प्रचारक के तौर भेजा गया जिनकी छवि मॉडरेट किस्म की नहीं बल्कि उग्र हिन्दुत्व की रही है। स्पष्ट था कि संघ भाजपा की पूरी कोशिश थी कि सूबा असम में साम्प्प्रदायिक सदभाव की राजनीति पलीता लगा दिया जाए ताकि होने वाला ध्रा्रुवीकरण उसके फायदे में रहे। चुनाव में स्टार कम्पेनर के तौर पर हिन्दुत्व के पोस्टर ब्वॉय नरेन्द्र मोदी की डयूटी लगा दी गयी थी, जिन्होंने कई स्थानों पर सभाओं को सम्बोधित किया था। मोदी की इस असफलता बरबस ने 2007 के उत्तर प्रदेश चुनावों की याद ताजा कर दी थी, जिसमें उन्हें स्टार प्रचारक के तौर पर उतारा गया था। याद रहे कि यह वही चुनाव थे जब भाजपा के चौथे नम्बर पर पहुंची थी। और वे अधिकतर स्थान जहां मोदी ने अपनी तकरीर दी थी, वहां पर भाजपा को शिकस्त मिली थी।
सोशल नेटवर्क पर बहुत सक्रिय रहनेवाले मोदी के मुरीद कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए ‘पप्पू’ नाम का इस्तेमाल करते हैं और कांग्रेस के हिमायती मोदी के लिए ‘फेंकू’ शब्द का प्रयोग करते हैं। गुजरात के बाहर मोदी के जादू की वास्तविकता के मद्देनज़र उनका यह नामकरण ‘फेंकू’ कितना मुफीद जान पड़ता है।
इधर बीच उनके नए पुराने मुरीदों की तरफ से एक और शिगूफा छोड़ा गया है कि उन्हें घांची नामक पिछड़ी जाति में जनमा बता कर सामाजिक न्याय के एजेण्डे पर भी अपना हक जताया जाए। यह अलग बात है कि जनाब मोदी किस कदर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मनुवादी चिन्तन के वाहक एवं हिमायती है, यह बार बार उजागर होता रहता है।
III
मोदी की सोशल इंजिनीयरिंग: मिथक एवम यथार्थ
अस्पृश्यता की प्रणाली हिन्दुओं के लिए सोने की खान है। इस व्यवस्था के तहत 24 करोड़ हिन्दुओं का मैला ढोने और सफाई करने के लिए 6 करोड अस्पृश्यों को तैनात किया जाता है, जिन्होंने ऐसा गन्दा काम करने से उनका धर्म रोकता है। मगर चूंकि यह गन्दा काम किया ही जाना है और फिर उसके लिए अस्पृश्यों से बेहतर कौन होगा ?
- डा अम्बेडकर
वर्णाश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत दलितों को उच्चवर्णीय हिन्दुओं का मैला ढोने और उन्हें ताउम्र सफाई करने के लिए मजबूर करने वाली सामाजिक प्रणाली को बेपर्द करनेवाले डा अम्बेडकर के उपरोक्त वक्तव्य की प्रासंगिकता पिछले दिनों नए सिरेसे सूबा गुजरात में जान पड़ी, जब सामाजिक समरसता के नाम पर मोदी सरकार ने कुछ समय पहले अपने बजट में सफाई कर्मचारियों के लिए एक नयी योजना का ऐलान किया। इसके अन्तर्गत बजट में लगभग 22.50 लाख रूपयों का प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि सफाई कर्मचारियों को कर्मकाण्ड का प्रशिक्षण दिया जा सके। गौरतलब था कि जिन दिनों गुजरात सरकार इस योजना का ऐलान कर रही थी, उन्ही दिनों सूबे की हुकूमत के दलितद्रोही रवैये को उजागर करती दो घटनाएं सामने आयीं थीं। पहली थी अहमदाबाद से महज सौ किलोमीटर दूर धान्डुका तहसील के गलसाना ग्राम के पांच सौ दलितों पर कई माह से जारी सामाजिक बहिष्कार की ख़बर। गांव के उंची जातियों ने गांव में बने पांच मन्दिरों में से किसी में भी दलितों के प्रवेश पर पाबन्दी लगा रखी है। राज्य के सामाजिक न्याय महकमे के अधिकारियों द्वारा पिछले दिनों किए गए गांव के दौरे के बाद उनकी पूरी कोशिश इस मामले को दबाने को लेकर थी। दूसरी ख़बर थी थानगढ़ में दलितों के कतलेआम के दोषी पुलिसकर्मियों की चार माह बाद गिरफ्तारी।
मालूम हो कि सितम्बर माह में गुजरात के सुरेन्द्रनगर के थानगढ़ में पुलिस द्वारा दलितों पर तब गोलीचालन किया गया था, जब वह इलाके में थानगढ नगरपालिका द्वारा आयोजित मेले में स्टाल्स की नीलामी में उनके साथ हुए भेदभाव का विरोध कर रहे थे। इलाके की पिछड़ी जाति भारवाडों द्वारा जब एक दलित युवक की पिटाई की गयी जिसको लेकर उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज की थी। इस शिकायत पर कार्रवाई करने के बजाय पुलिस ने टालमटोल का रवैया अख्तियार किया था और जब दलित उग्र हो उठे तो उन्हें गोलियों से भुना गया था, जिसमें तीन दलित युवाओं की मौत हुई थी। याद रहे दलितों के इस संहार को अंजाम देनेवाले सबइन्स्पेक्टर के पी जाडेजा को बचाने की पुलिस महकमे ने पूरी कोशिश की थी, दलितों पर दंगा करने के केस भी फाइल किए गए थे, अन्ततः जब दलितों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तभी चार माह से फरार चल रहे तीनों पुलिसकर्मी सलाखों के पीछे भेजे जा सके थे।
सफाई कर्मचारियों को कर्मकाण्ड का प्रशिक्षण देने की चर्चा जब चली तब यह बात भी सामने आयी कि आखिर मोदी उन्हें करने पड़ते इस अमानवीय पेशे को लेकर क्या सोचते हैं ? किस तरह उन्होंने इस पेशे का महिमामण्डन किया है ? याद रहे कि वर्ष 2007 में जनाब मोदी की एक किताब ‘कर्मयोग’ का प्रकाशन हुआ था। आई ए एस अधिकारियों के चिन्तन शिविरों में जनाब मोदी द्वारा दिए गए व्याख्यानों का संकलन इसमें किया गया था। यहां उन्होंने दूसरों का मल ढोने, एवं पाखाना साफ करने के वाल्मिकी समुदाय के ‘पेशे’ को ‘‘आध्यात्मिकता के अनुभव’’ के तौर पर सम्बोधित किया था। उनका कहना था कि ‘‘मैं नहीं मानता कि वे इस काम को महज जीवनयापन के लिए कर रहे हैं। अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को नहीं किया होता ..किसी वक्त उन्हें यह प्रबोधन हुआ होगा कि वाल्मिकी समुदाय का काम है कि समूचे समाज की खुशी के लिए काम करना, इस काम को उन्हें भगवान ने सौंपा है ; और सफाई का यह काम आन्तरिक आध्यात्मिक गतिविधि के तौर पर जारी रहना चाहिए। इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि उनके पूर्वजों के पास अन्य कोई उद्यम करने का विकल्प नहीं रहा होगा। ’’गौरतलब है कि जाति प्रथा एवं वर्णाश्रम की अमानवीयता को औचित्य प्रदान करनेवाला उपरोक्त संविधानद्रोही वक्तव्य टाईम्स आफ इण्डिया में नवम्बर मध्य 2007 में प्रकाशित भी हुआ था। यूं तो गुजरात में इस वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, मगर जब तमिलनाडु में यह समाचार छपा तो वहां दलितों ने इस बात के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए जिसमें मैला ढोने को ‘‘आध्यात्मिक अनुभव’’ की संज्ञा दी गयी थी। उन्होंने जगह जगह मोदी के पुतलों का दहन किया। अपनी वर्णमानसिकता के उजागर होने के खतरे को देखते हुए जनाब मोदी ने इस किताब की पांच हजार कापियां बाजार से वापस मंगवा लीं, मगर अपनी राय नहीं बदली।
मोदी सरकार के इस शिगूफे को लेकर मानवाधिकार कर्मियों का वक्तव्य बताता है कि किस तरह दो साल बाद सफाई कर्मचारियों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने सफाई कर्मचारियों के काम को मंदिर के पुरोहित के काम के समकक्ष रखा था। उन्होंने कहा ‘‘जिस तरह पूजा के पहले पुजारी मन्दिर को साफ करता है, आप भी मन्दिर की ही तरह शहर को साफ करते हैं।’’ अपने वक्तव्य में मानवाधिकार कर्मी लिखते हैं कि अगर जनाब मोदी सफाई कर्मचारियों को इतना सम्मान देते हैं तो उन्होंने इस काम को तीन हजार रूपए की मामूली तनखाह पर ठेके पर देना क्यों शुरू किया है ? क्यों नहीं इन ‘पुजारियों’ को स्थायी आधार पर नौकरियां नहीं दी जातीं। अपने मनुवादी चिन्तन को उजागर करनेवाले ऐसे वक्तव्य देने वाले मोदी आखिर कैसे यह समझ पाएंगे कि गटर में काम करनेवाला आदमी किसी आध्यात्मिक कार्य को अंजाम नहीं दे रहा होता, वह अपनी पेट की आग बुझाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाला रहता है।
दलित आदिवासियों पर अत्याचार की रोकथाम के लिए बने प्रभावशाली कानून ‘अनुसूचित जाति और जनजाति(अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अन्तर्गत यह इलाके के पुलिस अधीक्षक की जिम्मेदारी बनती है कि वह अनुसूचित तबके पर हुए अत्याचार की जांच के लिए कमसे कम पुलिस उपाधीक्षक के स्तर के अधिकारी को तैनात करे। दलित-आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में न्याय दिलाने में गुजरात फीसड्डी राज्यों में से एक है, जिसके जड़ में मोदी सरकार की नीतियां एवं चिन्तन साफ झलकता है।
16 अप्रैल 2004 में गुजरात विधानसभा पटल पर जनाब मोदी से यह प्रश्न पूछा गया था कि क्या यह प्रावधान सही है या नहीं ? जनाब मोदी का जवाब सदन को चौंकानेवाला था। उनका कहना था कि ‘‘इस अधिनियम के नियम 7(1) के अन्तर्गत पुलिस उपाधीक्षक स्तर तक के अधिकारी के तैनाती की बात कही गयी है और जिसके लिए पुलिस अधीक्षक की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।’ इसके मायने यही निकलते हैं वह पुलिस सबइन्स्पेक्टर या इन्स्पेक्टर हो सकता है। याद रहे कि इसी लापरवाही के चलते, जिसमें दलित-आदिवासियों पर अत्याचार का मामला पुलिस सबइन्स्पेक्टर को सौंपा गया, तमाम मामले अदालत में खारिज होते हैं। गुजरात के सेन्टर फार सोशल जस्टिस ने 150 ऐसे मामलों का अध्ययन कर बताया था कि ऐसे 95 फीसदी मामलों में अभियुक्त सिर्फ इसी वजह से छूटे हैं क्योंकि अधिकारियों ने मुकदमा दर्ज करने में, जाति प्रमाणपत्रा जमा करने में लापरवाही बरती। कई सारे ऐसे मामलों में जहां अभियुक्तों को भारतीय दण्ड विधान के अन्तर्गत दण्डित किया गया, मगर अत्याचार के मामले में वह बेदाग छूटे।
पिछले दिनों जब गुजरात में पंचायत चुनाव सम्पन्न हो रहे थे तो नाथु वाडला नामक गांव सूर्खियों आया, जिसकी आबादी बमुश्किल एक हजार थी। लगभग 100 दलितों की आबादी वाले इस गांव के चुनाव 2001 के जनगणना रिपोर्ट पर आधारित संचालित होनेवाले थे, जिसमें दलितों की आबादी शून्य दिखाई गयी थी। लाजिम था पंचायत में एक भी सीट आरक्षित नहीं रखी गयी थी। इलाके के दलितों ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलन्द की, वह मोदी सरकार के नुमाइन्दों से भी मिले ; मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी कि गांव की दस फीसदी आबादी को अपने जनतांत्रिक अधिकारों से भी वंचित किया जा रहा है। अन्ततः गुजरात की उच्च अदालत ने ‘जनतंत्र के इस माखौल’ के खिलाफ हस्तक्षेप कर चुनाव पर स्थगनादेश जारी किया; तभी प्रक्रिया रूक सकी।
IV
इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त खुद अहमदाबाद में उत्तरी गुजरात के हजारों किसान एकत्रित हैं जो नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित स्पेशल इनवेस्टमेण्ट रिजन योजना का विरोध कर रहे हैं, जो उनके हिसाब से बिना किसी उचित मुआवजे से उनकी अच्छी जमीन उनसे छीन लेगी। (देखें, हिन्दुस्तान टाईम्स, 19 जून 2013)। अहमदाबाद, मेहसाणा एवं सुरेन्द्रनगर जिले के 44 गांवों के किसानों ने इस योजना का विरोध करने के लिए राज्य की राजधानी तक ट्रैक्टर रैली निकाली है, और उनकी मांग है कि परियोजना को तत्काल रद्द कर दिया जाए। इन विरोध प्रदर्शनों की अगुआई पूर्व भाजपा विधायक कनु कलसारिया कर रहे हैं, जो जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता हैं। मीडिया पर नमो नाम का सम्मोहन देखिए कि 10 हजार से अधिक किसानों की इस रैली का समाचार अधिकतर अखबारों से गायब है या अन्दर के पन्ने पर मौजूद है।
ऐसी तमाम मिसालें दी जा सकती हैं। मुमकिन है कि आनेवाले दिनों में बार बार हम ऐसे ही मौनों से रूबरू हों। जैसे मोदी के विश्वासपात्रा अमित शाह को जब यूपी का पार्टी का जिम्मा सौंपा गया तब किसी ने इस बात की चर्चा नहीं की किस तरह मोदी के इस गृहमंत्री को पद छोड़ना पड़ा था, और जेल की हवा खानी पड़ी थी जबकि यह पता चला कि सोहराबुद्दिन शेख की फर्जी मुठभेड़ में इन्होंने भी ‘सलाह’ प्रदान की है। इस डर को मद्देनज़र रखते हुए कि गुजरात में रह कर वह जांच को प्रभावित कर सकते हैं, कई माह तक राज्य में घुसने पर भी अदालत द्वारा पाबन्दी लगायी गयी थी। बहुत कम राज्य ऐसे होंगे जिनके मंत्री इस कदर जेल की हवा खा चुके हैं। इसी तरह जनाब मोदी की बेहद विश्वासपात्रा एक अन्य मंत्री रही हैं डा माया कोडनानी, जो खुद कुख्यात बाबू बजरंगी के साथ इन दिनों सलाखों के पीछे हैं। वजह 2002 के जनसंहार मे नरोदा पाटिया इलाके में हुए हत्याकाण्ड में अपनी संलिप्तता के चलते। पिछले दिनों खुद मोदी की ही सरकार ने इस जोड़ी को मौत की सजा सुनाए जाने की सिफारिश की थी, यह अलग बात है कि ‘परिवारजनों’ के दबाव में बदल दी। फिलवक्त एक तीसरे मंत्री हैं, जिन्हें एक अन्य मामले में दोषी करार दिया गया है और उन्हें भी जल्द ही सलाखों के पीछे भेजा जाएगा।
फिलवक्त जनाब मोदी की पूरी कोशिश इसी बात पर केन्द्रित है कि किस तरह माफी मांगे बिना ही 2002 के दंगों के धब्बों से मुक्ति पानी है और ‘विकास पुरूष’ के तौर पर लोगों के सामने आना है। निश्चित ही यह काम आसान नहीं दिखता। साठ साल से अधिक समय से कायम लोकतंत्रा की तमाम खामियां गिनायी जा सकती हैं, मगर यह बात तो उसके विरोधी भी कह सकते हैं कि उसने लाखों करोड़ो लोगों को जुबां प्रदान की है, सदियों से उत्पीड़ित वंचित तबके हाशिये से केन्द्र की तरफ आते दिख रहे हैं। और यह सभी लोग बार बार सवाल पूछेंगे कि 2002 के पीड़ितों को न्याय मिला या नहीं और उसके कातिलों को सज़ा हुई या नहीं। मोदी एवं उनके ‘परिवारजनों’ को यह समझना ही होगा कि करोड़ों करोड़ जनता शाखाओं में बैठनेवाली स्वयंसेवक नहीं होती, जिनके बारे में हिन्दी के प्रख्यात लेखक हरिशंकर परसाई ने कभी कहा था कि ‘जिनके दिमाग के ताले बन्द कर दिए जाते हैं और चाभी नागपुर के गुरूजी के पास भेजी जाती है।’
Modi playing second fiddle to Advani. Surat Riots, 1992. Photo: Dharmesh Joshi |
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