- किशोर झा
कार्टून: साभार जनसत्ता |
पिछले महीने एक जाने माने पत्रकार स्वामीनाथन एस अन्कलेसरिया का आर्थिक विकास और खाद्य सुरक्षा पर एक लेख पढ़ने को मिला। लेखक आर्थिक मामलों के प्रख्यात पत्रकार है और बहुत से प्रतिष्ठित और अग्रणी अख़बारों के संपादक रह चुके है। इनका मशहूर कालम “स्वमिनोमिक्स” हर हफ्ते देश के जाने माने अखबार में छपता है जिसमे देश की अर्थव्यवस्था से जुड़े मामलों की बारीकी से जाँच पड़ताल की जाती है। इस लेख में वह पाठकों को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि गरीबी रेखा से नीचे रह रही आवाम को भूखमरी से बचाने के लिए फ़ूड सिक्योरीटी बिल जैसे कार्यक्रम की नहीं बल्कि तेज आर्थिक विकास की जरूरत है।
स्वामीनाथन इस लेख में एक अन्य लेख के खिलाफ तर्क दे रहे थे जिसमे अमृत्य सेन ने कहा था कि संसद में फ़ूड सिक्योरिटी बिल पास ना होने के कारण हर रोज कितनी मौतें हो रही हैं। स्वामीनाथन के अनुसार इस तरह की गणनाए बेमानी है और फ़ूड सिक्योरिटी बिल जैसे कानूनों की जगह भारत अगर आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की नीतियों की गति तेज करे तो आर्थिक विकास तेजी से होगा और भूखमरी की दर में गिरावट आएगी। उनके हिसाब से गरीबी और भुखमरी के लिए जिम्मेदार आर्थिक सुधारों की गति में बाधा पहुंचा रहे लोग हैं, न की फ़ूड सिक्योरिटी बिल को पास करने में देरी कर रही संसद।
स्वामीनाथन के अनुसार भारत में आर्थिक सुधार बहुत देर से शुरू हुए जिसके कारण आर्थिक विकास बहुत धीमा रहा. उनकी माने तो आर्थिक सुधारों में हुई देरी का मुख्य कारण नेहरु की समाजवादी विचारधारा पर आधारित अर्थव्यवस्था थी जिसने भारत के आर्थिक विकास में बाधा पहुंचाई। वह आगे लिखते है कि अगर आर्थिक सुधार 1991की जगह 1971 में शुरू हुए होते तो उन बहुत से लोगों को भुखमरी से बचाया जा सकता था जो इन दो दशकों में गरीबी और भूख के कारण मारे गए।
स्वामीनाथन के अनुसार तेज आर्थिक विकास दर और घटती गरीबी में सीधा सम्बन्ध है और अगर विकास की दर तेज होगी तो गरीबी भी कम होगी और भूखमरी भी। इस तर्क का आधार मनमोहन सिंह द्वारा 90 के दशक में दिए गए “ट्रिकल डाउन सिद्धांत” में है। इस सिद्धांत के अनुसार जब विकास की दर तेज होगी और देश में समृद्धि आएगी तो इसका फायदा “छन छन” के गरीबों तक भी पहुंचेगा और गरीबी कम करने में कारगर होगा।
आर्थिक सुधारों को शुरू हुए तीन दशकों से ज्यादा हो चुके हैं जिसमे भारत ने 5.7 % से 10.5% की दर से विकास किया है[1] और 1991 और 2011 के बीच भारत का औद्योदिक उत्पादन तिगुने से भी ज्यादा हो चूका है।[2] पूरी दुनिया में एक उभरती और मजबूत अर्थव्यवस्था के तौर पर उसकी साख बढ़ी है और राजनैतिक तौर पर उसकी ताकत भी। भारतीय अर्थव्यवस्था के दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की की गाथाएँ दुनिया भर में गाई जा रही हैं। आइये थोड़ी जांच पड़ताल करें कि आखिर इस आर्थिक विकास और समृधि का कितना भाग “ छन छन" कर गरीबों तक पहुंचा है और आज भूखमरी का क्या आलम है।
योजना आयोग के मानदंडो के हिसाब से शहरी क्षेत्र में वो लोग जिनके पास प्रतिदिन 2100 कैलोरी पाने लायक संसाधन ना हो वो गरीबो की श्रेणी में आते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में ये मानदंड 2200 कैलोरी का है। अगर हम 2100 कैलोरी के मानदंड के आधार पर पिछले तीन दशको का विश्लेषण करे तो पता चलता है कि शहरी जनसँख्या का वो हिस्सा जिनके पास 2100 कैलोरी पाने के साधन नहीं है लगातार बढ़ता ही गया है। 1983-84 में देश कि 58.5% जनता के पास 2100 कैलोरी प्राप्त करने के साधन नहीं थे। अगले दशक में यह स्थिति कुछ सुधरी और ये प्रतिशत 1993-94 में 57% हो गया। लेकिन उसके बाद इस स्थिति में लगातार गिरावट आई है और 2003-04 में ये आंकड़ा 64% पहुँच गया और 2009-10 में 73% तक जा पहुंचा। मतलब ये कि शहरी आवाम के मात्र 27 % के पास इतनी आमदनी है जोकि अपना पेट भरने और अपने पोषण का ख्याल रख सके। अगर हम ग्रामीण आबादी की बात करें तो 1993-94 में ये आंकड़ा 56% था जो 2009-10 में 76% तक जा पहुंचा।[3]
योजना आयोग लगातार दावा कर रहा कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के प्रतिशत में कमी आई है पर अगर उसी के मानदंडो और परिभाषा के अनुसार विश्लेषण करें तो एक अलग ही तस्वीर उभर कर आती है। आज भी हमारे देश में आबादी के 80% हिस्से की आमदनी देश की औसत आमदनी से नीचे है। अनाज और दालों की प्रति व्यक्ति/ प्रति दिन खपत 1991 में 510 ग्राम थी जो 2008 में 436 ग्राम रह गयी है।[4] अनाज की प्रति व्यक्ति सालाना उपलब्धि 1990 में 177 किलो थी जो 2003 में 155 किलो रह गयी जो की दूसरे विश्वयुद्ध में अनाज की उपलब्धता के आसपास है।[5] जबकि इस दौर में भारत की आर्थिक विकास दर दुनिया के विकसित देशों से कहीं ज्यादा रही है। सामन्यतः विकसित पश्चिमी देशों में विकास दर बढ़ने के साथ साथ प्रति व्यक्ति अनाज की खपत में भी बढ़ोत्तरी हुई है पर भारत में पिछले 2-3 दशकों में जबदस्त आर्थिक विकास के बावजूद प्रति व्यक्ति अनाज की खपत लगभग वहीँ है जहाँ आज़ादी के समय थी।
भारत में मौजूदा कृषि संकट भी बाज़ार आधारित कृषि और उदारीकरण के दौर में कृषि क्षेत्र में किये गए बदलावों का ही परिणाम है। साथ ही यह संकट खाद्य असुरक्षा के कारणों में से एक है। 1995 से 2011 के बीच 2,70,740 किसानो ने आत्महत्या की और 2001 के बाद लगभग रोज 46 किसान आत्महत्या कर रहें हैं। [6]
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) के मुताबिक 79 देशों के सूचकांक में भारत का स्थान 65वां है और वो अपने पडोसी देशों जैसे पाकिस्तान (57) और श्रीलंका(37)से भी कई स्थान पीछे है। कम वजन के बच्चों के मामले में भारत दुनिया का दूसरा देश है जहाँ पांच साल कम के कम वजन के बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है।[7] नेशनल सेम्पल सर्वे के अनुसार भारत में 50 % से अधिक महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं जबकि विकसित देशों में ये आंकड़ा लगभग 10% है।
1991, जब आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ था तब भारत मानव विकास सूचकांक में दुनिया में 123 वें स्थान पर था जो खिसक कर 2011 में 134 वें स्थान पर जा पहुंचा है।[8] 2007 मेंसरकार द्वारा बनायीं गयी अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी के अनुसार भारत की 77 % जनसँख्या 20 रुपया प्रतिदिन या उससे कम पर जीने को मजबूर है।[9] ध्यान रहे ये संख्या आज़ादी के समय देश की जनसँख्या से ढाई गुनी है। हिंदुस्तान में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित लोग रहते हैं। एफसीआई के गोदामो में बेइंतिहा आनाज सड़ रहा है फिर भी रोज 20 करोड लोगभूखे सोते हैं।[10] एक सर्वे के अमुसार भारत की आधी शहरी आबादी झोपड पट्टी में रहती है जो की दुनिया की 33% संख्या से कहीं ज्यादा है।[11]
ये आंकड़े यह दर्शाते हैं कि आर्थिक सुधारों के दौरान हुए आर्थिक विकास का कितना हिस्सा गरीब जनता तक पहुंचा है। इस दौर में एनडीए का उभरता भारत भी शामिल है और यूपीए का अतुल्य भारत भी। तथाकथित आर्थिक सुधारों और उदारीकरण से होने वाले विकास का कितना हिस्सा “छन छन” कर हाशिए पर ज़िंदगी गुजार रही गरीब आवाम तक पहुँचता है यह तो इन आंकडो से स्पष्ट है पर विकास में गरीबों के हिस्से का ये आलम सिर्फ हिंदुस्तान तक ही सीमित नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में यही हाल है। लन्दन में स्थित न्यू इकोनोमिक फाउंडेशन ने विश्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर ये आकलन किया है कि 1990 और 2001 के बीच अगर विश्व की प्रति व्यक्ति आय में $100 की बढोतरी हुई है तो उसका मात्र $0.60 ही उन गरीबों की गरीबी कम करने के काम आया जिनकी आय प्रतिदिन $1 से कम थी। [12]
अव्वल तो “ट्रिकल डाउन” सिद्धांत का आधार बराबरी पर आधारित समाज के सिद्धांत के बिलकुल विपरीत हैं जिसके अनुसार आवाम के एक हिस्से का बचा ख़ुचा आवाम के दूसरे हिस्से की गरीबी कम करने के काम आये। पर सच्चाई यह है कि अगर हम बराबरी के मूल्यों को दरकिनार करके भी इसका आकलन करें तो ये पूरी तरह विफल रहा है।
*Data mentioned in reference 11 and 12 is also taken from the book Churning of the Earth by Asish Kothari and Aseem Shrivastava.
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किशोर झा डेवलेपमेंट प्रोफेश्नल हैं और पिछले 20 साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अपने छात्र जीवन के दिनों मैं प्रगतिशील छात्र संघ के सक्रिय सदस्य थे और फिलहाल न्यू सोशिलिस्ट इनिशिएटिव के साथ जुड़े हुए है।
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[2] Asish Kothari and Aseem Srivastava, Churning of the Earth, Penguin -Viking , 2012
[3] Prabhat Patnayak , in convention on strengthening public health –medical system for people
[4] Economic Survey , government of India, Oxford, 2010
[5] Republic of hunger, Utsa Patnayak, 2004
[6] Farmers’ suicide rates roar above rest , P. Sainath , Hindu. 18th May 2013
[7] Global Hunger Report , 2012
[8] UNDP HDR
[9] Asish Kothari and Aseem Srivastava, Churning of the Earth, Penguin -Viking , 2012
[10] Asish Kothari and Aseem Srivastava, Churning of the Earth, Penguin -Viking , 2012
[11] Mike Devis, Planet of Slums, 2007
[12] Growth isn’t Working, New Economic foundation, 2006
1 comments:
Kishore Bhai
Thanks for the article.
Well reflected and researched !
Siji
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