Thursday, July 10, 2014

पर्सनल लॉ : महिलाओं के नागरिक अधिकार का सवाल

-जावेद अनीस

यहाँ अभी भी यह कहावत चलती है कि हव्वा आदम के पसली से निकली है, दुर्भाग्य से यह केवल कहावत नहीं है बल्कि इस कहावत को जिया भी जा रहा है। जमीला (बदला हुआ नाम) की शादी 20 साल के उम्र में हो गयी थी। शिक्षा के नाम पर केवल उर्दू और अरबी पढ़ सकने वाली और ताउम्र परदे में रही जमीला पे उस समय पहाड़ टूट पड़ा जब उसने सुना कि शादी के 25 साल बाद उसका पति उसको तलाक देकर अपनी से लगभग आधी उम्र के दूसरी लड़की के साथ शादी करने जा रहा है, वजह बताई जा रही है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी दोनों को कोई औलाद नहीं है। जमीला का कहना है कि कुछ समय पहले डाक्टरों को दिखने पर पता चला था कि कमी उसमें नहीं बल्कि उसके शौहर में है, लेकिन शौहर इसे मानने से इंकार करते हुए इलाज कराने से भी मना कर दिया। अब जमीला के सामने परेशानी यह है कि वह अपनी आगे की जिंदगी कैसी काटेगी पति तो उसे 25 साल बाद छोड़ ही रहा है साथ ही साथ किसी भी तरह के गुजरा भत्ता देने से भी इन्कार कर रहा है। इस समाज में 45 साल की महिला के लिए दूसरी शादी भी इतनी आसन नहीं है। दूसरी तरफ पर्सनल लॉ के वजह से भारत का नागरिक कानून भी उसकी पहुँच में नहीं है। यह एक अकेले जमीला की कहानी नहीं है, भारतीय मुस्लिम समाज में लाखों जमीलायें है।

दूसरी तरफ हव्वा को आदम के पसली मानाने वाला मर्द द्वारा नशे,सनक, और गुस्से में आकर तलाक दे देना भी आम है, तलाक देते ही बीवी उसके लिए “हराम” हो जाती है, बाद में शांत होने पर जब वह बीबी को फिर से वापस पाना चाहता हे तो वह उसे तब तक नहीं पा सकता जबतक बीवी कम से कम एक रात के लिए किसी दूसरे मर्द से निकाह न कर ले। यह निकाह ज्यादातर उसके पति के भाई या नजदीकी रिश्तेदार से होता है। दूसरे शौहर से तलाक के बाद उसको अपने पहले पति से दोबारा निकाह करना पड़ता है। इस पूरी प्रक्रिया को “हलाला” कहा जाता है। इस तरह से हम देखते है कि मर्द को बड़ी छूट मिली हुई है, उसने जब चाह तलाक दे दिया और जब चाह हलाला करवा लिया उसके किये की तो कोई सजा नहीं है उलटे इसका खामियाजा औरत को भुगतना पड़ता है। “हलाला” के इस पूरी प्रक्रिया में औरत को जिस दौर से गुजरना पड़ता है वह बहुत ही अमानवीय और मध्ययुगीन है।

यह सब कुछ पर्सनल लॉ के नाम पर हो रहा रहा है जो एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष भारत में मुस्लिम महिलाओं को एक नागरिक के रूप में मिले अधिकारों को नकारता है। अगर हम इसी देश में ही अलग अलग समुदायों के औरतों के लिए बने कानूनों को देखें तो इसमें भारी अंतर पाते हैं - मुस्लिम कानून में पुरुष को कई पत्नियां रखने का हक है जबकि हिन्दू, ईसाई व पारसी एक ही पत्नी रख सकते हैं। मुस्लिम लॉ में तलाक के लिए अदालत जाने की जरूरत नहीं है जबकि बाकी धर्म के लोगों को अदालत में खास कारणों से ही तलाक मिल सकता है। मुस्लिम लॉ में पत्नी को कभी भी बिना कारण तलाक दिया जा सकता है, पर ऐसा बाकी धर्मो के मानने वाली स्त्रियों के साथ नहीं किया जा सकता है। 

लेकिन यह सब कुछ हमेशा से ऐसा नहीं था, आजादी के समय इन स्त्रियों की स्थिति विपरीत थी, तब हिंदू समाज में पुरूषों को एक से ज्यादा शादी करने की छूट थी, तलाक का अधिकार नहीं था, विधवाओं को दोबारा शादी करने की आज़ादी नहीं थी और उन्हें संपत्ति से भी वंचित रखा गया था। इन सब में बदलाव “हिंदू कोड बिल” की वजह से संभव हो सका। समाज की इन रुढ़िवादी परंपराओं को तोड़ने के लिए बाबा साहेब अम्बेडकर और जवाहरलाल नेहरु जैसे नेता आगे आये जिन्होंने हिंदूवादी संगठनों के तमाम विरोधों के दरकिनार करते हुए इसकी पुरजोर वकालत की थी। आज हमारे देश में हिंदू समाज कि महिलाओं को लेकर जितना लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार मिले हुए है उसके पीछे वही कानून हैं जिन्हें बनवाने में नेहरू और अम्बेडकर ने मुख्य भूमिका अदा की थी। मनुस्मृति के नियमो से चलने वाले समाज को इन्ही के प्रयासों से 1955 में “हिंदू मैरिज एक्ट” मिला जिसके तहत तलाक को कानूनी दर्जा मिल सका, जातियों से जकड़े समाज में विभिन्न जातियों के स्त्री-पुरषों को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार मिल सका और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसी कड़ी में 1956 में “हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम”, “हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम” और “हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता” जैसे कानून लागू हुए। ये सभी कानून पहली बार महिलाओं को एक नागरिक का दर्जा दे रहे थे। इन कानूनों का लाभ हिंदुओं के अलावा सिखों, बौद्ध और जैन धर्म की स्त्रियों को भी मिला।

उस समय हिन्दू कोड बिल पर चले बहस के दौरान यह सवाल भी उठाया गया था कि यह कानून सिर्फ हिंदुओं के लिए क्यों लाया गया है, बहुविवाह की परंपरा तो दूसरे धर्मों में भी है सवाल यह भी उठा कि सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होने वाला “इंडियन सिविल कोड” क्यूँ नहीं लाया गया ?

इंडियन सिविल कोड को लेकर नेहरु और अम्बेडकर सहमत थे लेकिन इनका मानना था कि अभी -अभी देश का बंटवारा हुआ है इसलिए यह सही वक्त नहीं है। “इंडियन सिविल कोड” को जोर जबरदस्ती या दबाव दे कर लागू करना ठीक नहीं होगा, इसलिए यह फैसला किया गया कि पहले हिन्दू समाज में इसे लागू किया जाए फिर धीरे धीरे बाकि दूसरे समुदायों को विश्वास में लेते हुए उनके यहाँ भी लागू किया जा सकता है।

शायद यही वजह है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि ‘भारत के समस्त राज्यक्षेत्रों में नागरिकों के लिए राज्य एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा’। लेकिन हकीकत में हम देखते हैं सार्वजनिक दायरे के लिए नियम बने किन्तु निजी दायरे खासकर औरतों को प्रभावित करनेवाले कानूनों को पर्सनल लॉ के तहत समुदाय के नियंत्रण में छोड़ दिया गया। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर अपराधिक मामलों, जायदाद जैसे मामलों में शरियत के जगह समान नागरिक कानूनों को अपनाया जा सकता है तो मुस्लिम औरतों को प्रभावित करनेवाले संपत्ति, विवाह, तलाक जैसे मसालों में ऐसा क्यूँ नहीं हो सकता है ? 

ऐसा हो सकता था, अगर हमारी सरकारों ने इसके लिए माहौल बनाने की जगह मिले मौकों को गवाया न होता, शाहबानो केस के फैसले के बाद बदलाव की उम्मीद बंधी थी। मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली पांच बच्चों की मां शाहबानो को भोपाल की एक स्थानीय अदालत ने गुजारा भत्ता देने का फैसला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को उचित ठहराया था, लेकिन 1973 में बने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा इस फैसले को मुस्लिम समुदाय के पारिवारिक और धार्मिक मामलों में अदालत का दख़ल बताते हुए पुरज़ोर विरोध किया गया और तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने दबाव में कानून बदलकर मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए “मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986” पारित कर दिया। इस तरह से हम देखते हैं कि अदालत का एक फैसला जो मुस्लिम स्त्रियों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता था, उसको लेकर वोट बैंक के चक्कर में एक “लोकतान्त्रिक” और “धर्मनिरपेक्ष” सरकार द्वारा ही प्रतिकियावादी रवैया अपनाया गया।

भारतीय जनता पार्टी द्वारा पूरे बहुमत से सरकार बना लेने के बाद यूनिफार्म सिविल कोड का मसला एक बार फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है। नयी सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह द्वारा समान नागरिक संहिता के मसले पर खुली बहस की वकालत की गयी है,बाद में जस्टिस मार्कंडेय काटजू जैसी शख्सियत ने भी समान नागरिक संहिता का समर्थन किया है। 

दरअसल यह मुद्दा हमेशा से बीजेपी और संघ परिवार के करीब रहा है। भारतीय जनता पार्टी लम्बे समय से समान नागरिक संहिता की वकालत करती रही है। इस लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इसे अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा जैसी पार्टियाँ इस संवेदनशील मुद्दे का इस्तेमाल हिन्दू “वोट बैंक” को साधने के लिए करती रही हैं। इसके बहाने वे मुस्लिम समुदाय को अपने निशाने पे लेती रही हैं जो की और भी खतरनाक है। इस बहाने बहुसंख्यक दक्षिणपंथी ताकतें समाज में यह “अफवाह” फैलाती नज़र आ रही हैं कि इस देश में मुस्लिम समुदाय को एक से अधिक शादी करने की छूट की वजह से उनकी आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और वे जल्दी ही बहुसंख्यक बन जायेंगें। जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकंडे कुछ और ही दास्तान बयां कर रहे हैं, इसके मुताबिक 5.8 फीसदी हिंदू पुरुषों की एक से अधिक पत्नियां हैं, वही सिर्फ 5.73 फीसदी मुस्लिम पुरुषों की एक से अधिक पत्नियां हैं। प्रजनन दर के बढ़ने का सम्बन्ध भी धर्म से नहीं वरन निर्धनता और अशिक्षा से है। 

इस बात में कोई शक नहीं है कि मुसलमान पुरुषों को तीन बार तलाक कह कर आसानी से तलाक लेने और एक साथ चार पत्नियां की छूट बंद होनी चाहिए। मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव खत्म हो और उन्हें देश के दूसरे समुदायों के महिलाओं की तरह ही नागरिक अधिकार मिलना चाहिए। इसके लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है।

लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यह एक संवेदनशील मुद्दा है। भारत जैसे बहुलतावादी मुल्क में कोई कानून बनाने और उसे लागू करते समय संवेदनशीलता एवं सावधानी बरते जाने की जरूरत है, किसी भी कानून को एकतरफा ढंग से थोपा नहीं जा सकता है, बल्कि जैसा नेहरु और आंबेडकर का मानना था, इसके लिए सबसे पहले जरूरी माहौल तैयार किये जाने की जरूरत है। दुर्भाग्य से इस देश में बाद के हुक्मरानों ने इस दिशा में कोई काम ही नहीं किया है। इसके बरअक्स हमारी सियासी जमातों ने इस मसले को भावनात्मक और ज्यादा संवेनशील बनाये रखने में मदद की है, ऐसा जानबूझ कर किया गया है ताकि मुस्लिम समुदाय इन संवेदनशील मुद्दों में उलझ कर वोट बैंक बना रहे उसके वास्तविक मुद्दे और समस्याएँ हाशिये पर ही रहें और उन्हें इस समुदाय के उत्थान और विकास के लिए कोई गम्भीर प्रयास न करना पड़ें। समान नागरिक संहिता का मसला मुसलमानों की आर्थिक तंगी और शैक्षिक पिछड़ापन से भी जुड़ा हुआ है। नई सरकार और राजनीतिक पार्टियों को इन मसलों को भी बहस के दायरे में लाना होगा।

मुस्लिम समाज, सुधारों की इस बहस को अकेले सरकारों, सियासी दलों और दानिशवरों के ऊपर नहीं छोड़ सकता है बल्कि इसके लिए समुदाय विशेषकर महिलाओं को भी पूरे ताकत के साथ सामने आना होगा, तभी मुस्लिम उलेमा और नेता उनके इन मसलों पर विचार करने को तैयार होंगें। सावर्जनिक जीवन में धर्म का घालमेल कितना खतरनाक हो सकता है यह कोई पडोसी देश “पाकिस्तान” से पूछे जहाँ “महवश बादर” जैसी युवा महिला यह लिखने को मजबूर हैं कि “जिन्ना ने गलती की और मुझे शर्म है कि मैं एक पाकिस्तानी हूं”। भारतीय मुस्लिमों को यह बात याद रखनी होगी कि उन्होंने धर्म के नाम पर बनाये गए पाकिस्तान के विचार को नकार कर अपनी मर्जी से “सेक्युलर भारत” को चुना है। मुस्लिम समुदाय को बिना किसी दबाव के अपनी महिलाओं के बुनियादी नागरिक अधिकार देने का मौका और माहौल देने के लिए खुद ही पहल करनी होगी । सरकार, सियासी और समाजी जमातें और दानिशवर समुदाय को तालीम हासिल करने, अवसरों को प्राप्ति करने तथा वैज्ञानिक सोच बढाने में सहयोग देकर मदद जरुर कर सकते हैं।

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पहले यह लेख समयांतर ( जुलाई 2014) में प्रकाशित हुआ है 

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं और भोपाल में रहते हैं anisjaved@gmail.com

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