Tuesday, July 22, 2014

शरियत पर अदालत का फैसला- सुधार की दिशा में बढ़ा एक कदम

-जावेद अनीस

BMMA rally in Cuttuck, Odisha 
2005 की बात है, 28 वर्षीय इमराना के साथ उसके ससुर ने बलात्कार किया, जब यह मामला शरियत अदालत के पास पहुंचा तो उन्होंने फतवा जारी करते हुए कहा, चूंकि इमराना के ससुर ने उससे शारीरिक संबंध स्थापित कर लिए हैं, लिहाजा वह ससुर को अपना पति माने और पति को पुत्र। शरीयत अदालतों द्वारा दिए गये अनाप –शनाप फैसलों का यह महज एक उदाहरण है, इमराना मामले को आधार बना कर दिल्ली के एक वकील द्वारा 2005 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर शरीयत अदालतों पर पाबंदी व फतवों पर रोक लगाने की मांग की गयी थी। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और दारूल उलूम देवबंद द्वारा याचिका के विरोध में दलीलें दी गयीं , सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ने दलील दी कि “शरयी अदालतें” गैरकानूनी रूप से देश में समानान्तर न्याय व्यवस्था चला रही हैं जिसके तहत दारूल कज़़ा और दारूल इफ्ता देश के करीब 60 जिलों में काम कर रही हैं। इनके फैसलों/फतवे से मौलिक अधिकार नियंत्रित किए जा रहे हैं, जो कि नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में दखल है। इसपर पर्सनल ला बोर्ड और दारूल उलूम देवबंद ने दलील दिया कि शरीयी अदालतें समानान्तर न्याय व्यवस्था नहीं चला रही हैं बल्कि ये आपसी झगड़ों को अदालत के बाहर निपटा कर अदालतों में मुकदमों का बोझ कम करती हैं और फतवे बाध्यकारी नहीं मात्र सलाह होते हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बीते सात जुलाई को अपना फैसला सुनाया गया, इस फैसले के दो पहलू है जिसे समझना जरूरी है, जहाँ एक तरफ कोर्ट ने शरीयत अदालतों पर कोई पाबंदी नहीं लगाई है , तो दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट किया है कि शरीयत अदालतों की कोई कानूनी दर्जा नहीं है।

देश की सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि शरीयी अदालतों को किसी भी तरह की कानूनी मान्यता नहीं है और इनके द्वारा जारी किए गए आदेश या फतवों को मानना जरूरी नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि दारुल कजा को तब तक किसी व्यक्ति के अधिकारों के बारे में फैसला नहीं करना चाहिए, जब तक वह खुद इसके लिए संपर्क नहीं करता है, और उन्हें ऐसे व्यक्ति के खिलाफ फतवा या आदेश भी जारी नहीं करना चाहिए जो उसके समक्ष नहीं हों ।

फैसले का दूसरा पहलू यह है कि, कोर्ट ने शरीयत अदालत के फैसलों को ना तो गैरकानूनी करार दिया है और न ही उनपर किसी तरह की रोक लगायी है, सुप्रीम कोर्ट ने तो याचिकाकर्ता द्वारा ,शरीयत अदालतों दारुल कजा, दारुल इफ्ता और दारुल निजाम को बंद कराने की मांग को खारिज करते हुए कहा है कि ये अदालतें देश में समानांतर कानूनी प्रणाली नहीं हैं, बल्कि एक सलाहकार निकाय हैं जो मुसलमानों के निजी पारिवारिक मसलों का निपटारा करते हैं, इसलिए इन्हें चलने देने में कोई हर्ज नहीं है।

दरअसल कोर्ट का यह फैसला शरीयत बनाम भारतीय संविधान द्वारा अपने सभी नागरिकों को दिए गये अधिकारों के पुरानी बहस की एक कड़ी दिखाई पड़ती है, शरीयत को खुदा का कानून माना जाता है, भारत में मुसलमानों के कई मामलों में "मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937 लागू है जो उनके लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ को निर्देशित करता है इसमें शादी, महर (दहेज), तलाक, रखरखाव, उपहार, वक्फ, चाह और विरासत जैसे महतवपूर्ण मसले शामिल है, यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि है कि “शरीयत” को कैसे परिभाषित और लागू किया जाए इसको लेकर एक राय नहीं है, सुन्नी समुदाय में इसको लेकर चार और शिया समुदाय में दो अलग- अलग नज़रिए हैं. इसके आलावा विभिन्न मुल्कों , समुदायों और संस्कृतियों में भी “शरीया कानून” को अलग-अलग ढंगों से देखा और समझा जाता है !
शरीयत के बरअक्स भारतीय संविधान हैं जो बिना धर्म का विचार किए सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है, नतीजे में हमें टकराव देखने को मिलता है, इसका सबसे बड़ा उदहारण शाहबानो केस है, जिन्हें 70 साल की उम्र में पति द्वारा तलाक दे दिया गया था,उनकी फरियाद पर अदालत ने उन्हें गुजारा भत्ता देने का फैसला किया, मुस्लिम संगठनों और उलेमाओं ने इसे अपने धार्मिक कानून में हस्तक्षेप बताते हुए कड़ा विरोध किया। तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार ने दबाव में कानून बदलकर मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए “मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986” पारित कर दिया।
 
हाल ही में इसी तह से एक और टकराव देखने को मिला है, सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी एक बच्चे को गोद लेना चाहती थी, लेकिन मुस्लिम पसर्नल लॉ इसमें बाधक बन रहा था, इसलिए 2005 में उन्होंने एक याचिका दाखिल किया जिसमें सभी धर्में और जातियों के लोगों को बच्चा गोद लेने का हक दिए जाने की मांग की गई थी। इसी वर्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर यह फैसला दिया गया कि अन्य किसी समुदाय के व्यक्ति की तरह मुस्लिम समुदाय का कोई भी व्यक्ति अगर चाहे तो जुवेनाइल जस्टिस लॉ के तहत किसी बच्चे को गोद ले सकता है। हमेशा कि तरह न्यायालय के इस फैसले का मुस्लिम उलेमाओं और संगठनों द्वारा यह कह कर विरोध किया गया कि यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ में “अनुचित हस्तक्षेप” है कि इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता ।

भारत में अल्पसंख्यकों को अपने धर्म के पालन करने का संवैधानिक अधिकार है जिसकी वजह से मुस्लिम समुदाय पर मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक, निकाह, तलाक और विरासत में शरीयत का कानून लागू होता है इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर देखने को मिलता है हम पाते हैं, यह कानून पुरषों को कई पत्नियां रखने का हक देता है , तलाक के लिए अदालत जाने की जरूरत नहीं पड़ती है, जबकि बाकी धर्म के लोगों को अदालत में खास कारणों से ही तलाक मिल सकता है। इसी का सहारा लेकर पत्नी को कभी भी बिना कारण तलाक दिया जा जाता है ।

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज में इन सब मसलों को लेकर कोई हलचल नहीं है, बदलाव की चाहत एक सीमा तक ही लकिन दिखाई पड़ती है।1999 में मुबंई में 'मुस्ल्मि वीमेंन राइट्स' नेटवर्क की शुरआत हुई थी , 2005 में “भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन” नमक संगठन की शुरूआत हुई। इस संगठन के बैनर तले महिलाये “पर्सनल-लॉ-बोर्ड” में सुधार, पर्दा प्रथा, बहुविवाह और तलाक जैसे संवेदनशील मुद्दों पर काम कर रहे हैं। हाल ही में संगठन द्वारा कुरान आधारित मुस्लिम पारिवारिक कानून के विधिवत होने की मांग को लेकर एक मसौदा पेश किया गया है , इस मसौदे में लड़की की शादी की उम्र 18 और लड़के की 21 करने, जुबानी एकतरफा तलाक और हलाला पर कानूनी पाबंदी लगाने, बहुपत्नीत्व पर रोक लगाने और शादी का पंजीयन कराने जैसे मांगें शामिल की गई हैं। समय और शिक्षा के प्रसार के साथ साथ समुदाय के अन्दर ऐसे लोगों की तादाद भी बढ़ रही है जो बदलाव की चाहत रखते हैं, लकिन मुस्लिम समुदाय पर अभी भी धर्मिक नेतृत्व हावी है जो अपने फतवों व फैसलों के जरिये समुदाय को नियंत्रित करने का प्रयास करता है ।

भारतीय मुसलमान, मुस्लिम निजी कानून को लेकर बेहद संवेदनशील हैं। जब भी इसमें प्रगतिशील संशोधन या सुधार की बात होती है तो मुस्लिम धर्मगुरुओं और पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से तीव्र विरोध किया जाने लगता है । हिंदुस्तान, “दारुल इस्लाम” ( इस्लामी राष्ट्र )नहीं बल्कि ‘‘दारुल अमन” (ऐसा मुल्क जहाँ मुसलमानों के जान-माल की हिफाज़त हो व उनको अपने मज़हब की पाबंदी की पूरी आजादी हो ) है, लकिन इसका मतलब यह नहीं है कि देश की अदालतें मुसलमानों के बारे में कोई भी फैसला देने से पहले मुस्लिम धर्मगुरुओं या पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठनों से सलाह मशविरा करें।अगर धर्मनिरपेक्ष भारत में सभी के धार्मिक अधिकारों के रक्षा जरूरी है तो इसके साथ यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि बिना किसी भेद भाव के देश के सभी नागिरकों को एक व्यक्ति के रूप मिले अधिकारों का हनन ना हो । अगर अपराधिक मामलों और जायदाद जैसे मामलों में शरियत के जगह संविधानिक कानूनों को अपनाया जा सकता है तो मुस्लिम औरतों को प्रभावित करनेवाले संपत्ति, विवाह, तलाक जैसे मसालों में ऐसा क्यूँ नहीं हो सकता है ?

अदालत का इस फैसले इसी सफर बढ़या गया एक छोटा सा कदम माना जा सकता है।
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लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं और भोपाल में रहते हैं anisjaved@gmail.com

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