-सुभाष गाताडे
कभी कभी वास्तविक जिन्दगी/रियल लाईफ रील लाईफ अर्थात फिल्मी जिन्दगी का अनुकरण करती दिखती है। पिछले दिनों वही नज़ारा हम सबके सामने नमूदार रहा है। ऐसे दृश्य बॉलीवुड की फिल्मों का ही हिस्सा हुआ करते थे जब कोई नामालूम सा नायक अचानक ऐसा कोई कदम उठाता कि लाखों लोग सड़कों पर उतर आते और शैतान/जनता के दुश्मन का खातमा हो जाता है।
अभी उस मुहिम पर पटाक्षेप हो चुका दिखता है, मगर विगत कुछ दिनों से (बकौल 24 Í7 मीडिया) ‘अण्णा की अगस्त क्रान्ति’से या ‘आजादी की दूसरी लड़ाई’ से हम रूबरू रहे हैं जिसमें 74 साल का एक रिटायर्ड फौजी - जिसका नाम चन्द माह पहले तक सूबा महाराष्ट्र तक सीमित था - तमाम लोगों का आयकन/नायक बन कर उभरा है। राजनीति से दूर रहनेवाली युवा पीढ़ी से लेकर गृहिणियों , किशोरों, बुजुर्गों तक, समाज के विभिन्न तबकों को उसकी मराठी मिश्रित हिन्दी में व्यक्तविचारों में उम्मीद की नयी किरण नज़र आ रही है। देश के विभिन्न शहरों, नगरों, कस्बों में उसके समर्थन में जुलूस निकले हैं। और अगर स्वतंत्र स्त्रोतों से आने वाली ख़बरों पर यकीन करें तो यही सुनाई दे रहा है कि हुकूमत की बागडोर सम्भालने वाले लोग इस अलग ढंग की ‘सुनामी’ से निपटने के लिए नये नये फार्मूलों पर सोचते रहे हैं। ताज़ा ख़बर यह भी है कि संसद की बैठक में लोकपाल बिल के विभिन्न मसविदों को लेकर चर्चा शुरू करने का आश्वासन दिया गया है।
अगर हम फिलवक्त इस ‘उभार’ से जुड़े कई विवादास्पद/कम चर्चित पहलुओं पर गौर न करें तबभी यह माननाही पड़ेगा कि भ्रष्टाचार के मसले पर ली गयी इस पहल ने तमाम लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया है। भले ही जनलोकपाल के प्रावधानों से लोग परिचित न हों, मगर उन्हें लगता है कि इस नये नुस्खे से उन्हें उन तमाम दिक्कतों, परेशानियों से निज़ात मिलेगी, जिसका सामना उन्हें आए दिन सरकारी दफ्तरों में करना पड़ता है।
इतना ही नहीं भाजपा संसदीय दल की बैठक में भी कुछ वरिष्ठ सांसदों ने पार्टी के इस मसले पर रूख को ढुलमूल करार दिया है और नेतृत्व को यह कह कर कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि वह जनता के अन्दर उफनते गुस्से को भांप नहीं सकी। मगर समाजी-सियासी बढ़ते पारे में सबसे अधिक दिग्भ्रम की स्थिति में सामाजिक आन्दोलनों के लोग या वाम के धड़े दिखे हैं, जिनके सामने यह यक्षप्रश्न बना रहा है कि किया क्या जाए ? आधिकारिक तौर पर वामपंथी पार्टियों ने ‘जन लोकपाल बिल’ के बारे में कोई पोजिशन नहीं ली है, मगर स्थानीय स्तर पर हम पा रहे हैं कि उनके संगठनों के कार्यकर्ता इस ‘ऐतिहासिक क्षण’ में जनता के साथ खड़े रहे दिखना चाहते रहे हैं। शायद इस कनफयूजन की स्थिति का ही नतीजा था कि जनान्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के अन्दर भी लम्बे समय तक उहापोह की स्थिति बनी रही। औपचारिक तौर पर अण्णा हजारे की मुहिम को समर्थन देने के बावजूद मेधा पाटेकर जैसे उसके अग्रणी नेता पहले उससे दूर रहे, और आज भी कई लोग अन्दर ही अन्दर दूरी बनाये हुए हैं।
दिग्भ्रम की स्थिति का आलम यह है कि मैं खुद यह पा रहा हूं कि विगत लगभग दो दशक से तमाम ऐसे साथी, दोस्त जो साम्प्रदायिकता, मजदूरों के जनवादी अधिकार, जातीय उत्पीड़न, अमेरिकी दादागिरी या ऐसे ही तमाम जनपक्षीय मसलों पर हमेशा साथ खड़े रहते आए हैं, वह स्पष्टतः अलग खेमे में बंटे हुए हैं। प्रस्तुत आलेख एक कोशिश है इस मसले पर मित्रों द्वारा या आन्दोलन से जुड़े विचारकों द्वारा या स्वतंत्रा विश्लेषकों द्वारा जो कुछ लिखा गया है/ लिखा जा रहा है, उसकी चुनिन्दा बातों को आप के साथ सांझा करना, और यह उम्मीद करना कि विभ्रम की यह स्थिति जल्द ही दूर होगी।
(पाठकसमुदाय से इस बात के लिए मुआफी चाहूंगा कि यह आलेख उनके पास तब पहुंच रहा है जब आन्दोलन का यह चरण समेटेजाने के करीब है।)
वैसे कोई सत्तर के दशक का एक उद्धरण देकर यह भी कह सकता है ‘यह जमाना ही ऐसा है कि अगर आप कनफ्यूज्ड नहींहों तो आप सही ढंग से सोच नहीं रहे हों।’( In this age if you are not confused you are not thinking properly).