Thursday, August 14, 2014

अंधेरे दिनों की आहट


जावेद अनीस


Courtesy- .thehindu.com
"जाति व्यवस्था प्राचीन समय में बहुत अच्छे से काम कर रही थी और हमें किसी पक्ष से कोई शिकायत नहीं मिलत, .इसे शोषक सामाजिक व्यवस्था के रूप में बताना एक गलत व्याख्या है।यह विचार  हैं प्रो. वाई सुदर्शन राव के जो वारंगल स्थित काकातिया युनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रोफेसर रहे हैं ,नयी सरकार द्वारा हाल ही में ह्न्हें आईसीएचआर यानी भारतीय इतिहास शोध परिषद जैसी महत्वपूर्ण संस्था का अध्यक्ष नियुक्ति किया है, जिसका कि अकादमिक क्षेत्र में खासा विरोध हुआ और इस पद के लिए उनकी योग्यता पर सवाल खड़े किये गये एक इतिहासकार के रूप में उनकी ऐसी कोई उपलब्धि भी नहीं दिखाई पड़ती है जिसे याद रखा जा सके

वाई सुदर्शन राव ने वर्ष 2007 में लिखित अपने ब्लॉग में जाति व्यवस्था की जमकर तारीफ करते हुए लिखा था कि, यह कोई शोषण पर आधारित समाजिक और आर्थिक व्यवस्था नहीं है और इसे हमेशा गलत समझा गया है  “इंडियन कास्ट सिस्टमः अ रीअप्रेजल' शीर्षक लेख में सुदर्शन राव  ने जाति व्यवस्था की उन तथाकथित खूबियों की जोरदार वकालत की है जिनका कि  उनके  हिसाब से  पश्चिम परस्त और मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा केवल निंदा ही किया जाता रहा है। उनका निष्कर्ष है कि प्राचीन काल में जाति व्यवस्था बहुत बेहतर काम कर रही थी,उस दौरान इसके ख़िलाफ किसी पक्ष द्वारा शिकायत का उदाहरण नहीं मिलता है, इसे तो कुछ खास सत्ताधारी तबकों द्वारा अपनी सामाजिक और आर्थिक हैसियत को बनाए रखने के लिए दमनकारी सामाजिक व्यवस्था के रूप में प्रचारित किया गया। जाति व्यवस्था की सारी  बुराईयों को भारत में तथाकथित मुस्लिम काल के सर मढ़ते हुए वे लिखते हैं कि कि “अंग्रेजीदां भारतीय हमारे समाज के जिन रीति रिवाजों पर सवाल उठाते हैं, उन बुराइयों की जड़ें उत्तर भारत के सात सौ काल के मुस्लिम शासन में मौजूद थीं।“ सुदर्शन राव अपने लेख में इस बात का उम्मीद जताते  हैं कि , "भारतीय संस्कृति के सकारात्मक पक्ष इतने गहरे हैं कि प्राचीन व्यवस्थाओं के गुण फिर से खिलने लगेंगे।कुल मिलकर वे जाति-वयवस्था को सही ठहराते हुए इसके पुनर्स्थापित करने की वकालत करते हुए नजर आते हैं किसी ऐसे ऐसे व्यक्ति को इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च (आईसीएचआर) का  चेयरमैन बनाया जो जाति वयस्था से सम्बंधित उन विचारों को नए सिरे से स्थापित कराने का प्रयास करता है जिनसे  आधुनिक भारत एक  अरसा  पहले पीछा छुड़ा चुका है एक गंभीर मसला है। 

अपने हालिया साक्षत्कारों में उन्होंने महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों की एतिहासिकता और कालखंड तय करने और उनसे जुडी घटनाओं, पात्रों, तारीखों आदि को इतिहास के नजरिये से प्रमाणित करने को अपनी पहली प्रार्थमिकता बताया है जबकि देश के आला- इतिहासकार इस बात को बार बार रेखांकित कर रहे हैं कि इतिहास को आस्‍था पर नहीं बल्कि आलोचनात्‍मक अन्‍वेषण पर आधारित होना चाहिए, ऐसे में सवाल उठाना लाजमी है क्या नयी सरकार द्वारा उन्हें इन्हीं सब कार्यों के लिए आईसीएचआर अध्यक्ष चुना गया है सुदर्शन राव के विचारों को हलके में नहीं लिया जा सकता है आखिरकार वे  भारतीय इतिहास शोध संस्थान के अध्यक्ष हैं, जो कि  मानव संसाधन विकास मंत्रालय में उच्च शिक्षा विभाग के अधीन काम करने वाली एक एजेंसी है।

 यह कोई इकलौता मामला नहीं है, नयी सरकार के गठन के बाद लगातार ऐसे प्रकरण सामने आ रहे हैं जो ध्यान खीचते हैं ,दरअसल मोदी सरकार के सत्ता में आते ही संघ परिवार बड़ी मुस्तैदी से अपने उन एजेंडों के साथ सामने आ रहा है, जो काफी विवादित रहे है, इनका सम्बन्ध  इतिहास, संस्कृति, नृतत्वशास्त्र, धर्मनिरपेक्षता तथा अकादमिक जगत में खास विचारधारा से लैस लोगों की  तैनाती से है

हाल ही में इसी तरह का एक और मामला  सामने आया था जिसमें तेलंगाना के एक भाजपा विधायक द्वारा टेनिस स्टार सानिया मिर्जा को पाकिस्तानी बहुका खिताब  देते हुए उनके राष्ट्रीयता पर सवाल खड़ा  किया गया, क्यूंकि उन्होंने एक पाकिस्तानी से शादी की है, दरअसल दो ग्रैंड स्लैम जीत चुकी सानिया मिर्जा की पूरी दुनिया में श्रेष्ट भारतीय महिला टेनिस खिलाडी के रूप पहचान तो है ही साथ ही साथ वे उन लाखों भारतीय मुस्लिम लड़कियों के लिए एक प्रतीक और प्रेरणाश्रोत भी हैं जो शिक्षा, पोषण, अवसरों आदि के मामलों  में बहुत पीछे हैं यहाँ यह याद दिलाना भी जरूरी है कि सानिया कट्टरपंथी मुसलमानों को भी पसंद नहीं आती हैं, उनके स्कर्ट पहनने को लेकर कई बार सवाल उठाया जा चूका है

इसी कड़ी में गोवा के एक मंत्री दीपक धावलिकर का वह बयान काबिलेगौर है जिसमें उन्होंने यह  ख्वाहिश जतायी है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत हिन्दू राष्ट्र बन कर उभरेगा, लगे हाथों गोवा के ही उप-मुख्यमंत्री ने भी घोषणा कर डाली कि भारत तो पहले से ही एक हिन्दू राष्ट्र है

समाचारपत्रों में शिवसेना के एक सांसद द्वारा एक रोजेदार के मुंह में जबरदस्ती रोटी ठूसे जाने की तस्वीरों की स्याही तो अभी तक सूखी नहीं है, यह घटना संविधान के उस मूल भावना के विपरीत है जिसमें देश के सभी नागरिकों को गरिमा और पूरी आजादी के साथ अपने-अपने धर्मों पालन करने की गारंटी दी गयी है

गुजरात के सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में भगवा एजेंडा लागू किए जाने का वह मुद्दा भी सवालों के घेरे में है  जिसके तहत दीनानाथ बत्रा की विवादित किताबें अब विद्या भारती द्वारा चलाये जा रहे सरस्वती बाल मंदिर  स्कूलों से निकल कर सरकारी शालाओं की तरफ कूच कर चुकी हैं, दीनानाथ बत्रा संघ से जुडी संस्थाओं , विद्या भारती और भारतीय शिक्षा बचाओ समिति के अध्यक्ष है। गुजरात राज्य पाठ्य पुस्तक बोर्ड द्वारा  मार्च 2014 में दीनानाथ बत्रा द्वारा लिखित आठ पुस्तकों का प्रकाशन किया गया है और गुजरात सरकार द्वारा एक सर्कुलर जारी करके  इन पुस्तकों को राज्य के प्रार्थमिक और माध्यमिक स्तर के बच्चों अतरिक्त पाठ्य के रूप में पढ़ाने को कहा गया है, इसको लेकर विपक्ष का आरोप है कि राज्य सरकार बच्चों पर आरएसएस का  एजेंडा थोप रही है और उन्हें पूरक साहित्य के नाम पर व्यर्थ जानकारी वाली किताब पढ़ा रही है। इन पुस्तकों में श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि देशों को भारत का ही अंग बताकर अखंड भारत बताया गया है कई अन्य बातें भी हैं जिनका शिक्षा से कोई वास्ता नहीं है इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट के  अनुसार  इन किताबों में पुष्पक विमान को दुनिया का सब से पहला विमान बताया गया है जो की भगवान राम द्वारा उपयोग में लाया गया था , एक किताब में नस्लीय पाठ भी हैं, जिसमें बताया गया है की भगवान ने जब पहली रोटी पकाई तो वह कम पकी और अंग्रेज पैदा हुए, भगवान् ने जब दूसरी बार रोटी पकाई तो वह ज्यादा पक कर जल गयी और नीग्रो  पैदा हुए, भगवान ने जब तीसरी रोटी बनायी तो वह ठीक मत्रा में पकी और इस तरह से भारतीयों का जन्म हुआ  इन किताबों में  हमारे पुराने ऋषियों को विज्ञानिक बताया गया है  जिन्होंने . चिकित्सा, टेक्नोलॉजी, और विज्ञान के क्षेत्र में  कई सारी ऐसी खोज की हैं जिन्हें  पश्चिम द्वारा  हथिया लिया गया है हालांकि देश के शीर्ष इतिहासकारों द्वारा  दीनानाथ बत्रा के  इन पुस्तकों को  फेंटेसी करार देते हुए इसकी जमकर आलोचना की गयी है और  इसे  शिक्षा के साथ खिलवाड़ बताया  गया है प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर इसे अंधरे दिनोंका संकेत मानती है, उनके अनुसार यह आस्‍था द्वारा इतिहास के अधिकार क्षेत्र अतिक्रमण है, वे इसे महज इतिहास और आस्था का टकराव नहीं मानती हैं  उनके अनुसार  यह धर्म और आस्था के आवरण में छुपे एक खास तरह की राजनीति का इतिहास के  साथ टकराव है।    

स्पस्ट है कि मोदी सरकार आने के बाद से संघ परिवार के हिंदुत्व परियोजना को पंख मिल गयी है, आशंकायें सही प्रतीत हो रही है , बहुत सावधानी के साथ उस विचारधारा को आगे बढाने की कोशिश की जा रही है , जिसका  देश के स्वभाविक मिजाज़ के साथ कोई मेल नहीं है यह विचारधारा देश की  विविधता को नकारते हुए  हमारे उन मूल्यों को चुनौती देती है जिन्हें आजादी के बाद बने नए भारत में बहुत दृढ़ता के साथ  स्थापित किया गया था, यह मूल्य समानता, धर्मनिरपेक्षता , विविधता ,असहमति के साथ सहिष्‍णुता के हैं  इन मूल्यों के साथ छेड़-छाड़ एक जनतांत्रिक समाज के तौर पर भारत के विकास यात्रा को प्रभावित कर सकती हैं, कट्टरवाद ,संकुचित मानसिकता और यथास्थितिवाद का उदय आधुनिक और प्रगतिशील भारत के लिए  आने वाले समय में बड़ी चुनौती साबित होने वाले  हैं ऐतिहासिक शोध से जुड़े देश के एक प्रमुख संस्थान के नए चेयरमैन का जाति- व्यस्था को लेकर विचार  और हाल में घटित दूसरी घटनायें इसी इसी दिशा को ओर बढ़ते कदम प्रतीत हो रहे हैं 


Friday, August 8, 2014

समय से रूबरू हम

- सुभाष गाताडे

‘ हे मूर्ख, मैंने तुम्हे नदी पार करने के लिए नाव दी थी, नदी पार हो जाने के बाद कंधे पर ढोने के लिए नहीं’
 - बुद्ध

“I believe that despite the enormous odds which exist, unflinching, unswerving, fierce intellectual determination, as citizens, to define the real truth of our lives and our societies is a crucial obligation which devolves upon us all. It is in fact mandatory. If such a determination is not embodied in our political vision we have no hope of restoring what is so nearly lost to us – the dignity of man.”

(Harold Pinter while delivering the speech at the award of Nobel Prize for Literature in 2005)

1

अपने वक्त़ के महान अदीब प्रेमचन्द के जन्मदिन पर हम उन्हें याद करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। यह सोच कर थोड़ा सुकून भी हो रहा है कि हम इस मामले में अकेले नहीं हैं। देश के तमाम नगरों में, छोटे मोटे कस्बों में आज उनकी याद को लोग ताज़ा कर रहे हैं। कहीं विचारगोष्ठी हो रही है, कवि सम्मेलन हो रहे हैं, तो कहीं समाज के सामने खड़े मसलों को लेकर तबादले खयालात चल रहे हैं।

मैं कभी अपने आप से पूछता हूं कि एक ऐसा शख्स - जिसे ‘कलम का सिपाही’ कहा गया, उसके गुजर जाने के 75 से अधिक साल बाद भी आखिर किस वजह से हम उन्हें याद कर रहे हैं ? लिखा तो कइयों ने था। हो सकता है कि कइयों का रचना संसार, ग्रंथ भंडार उनसे बड़ा हो, मगर लिखना मतलब शब्दों को तरतीब से रखना, लाइनों को सजा कर रखना नहीं होता। उसके जरिए क्या कहा जा रहा है? किनके दुखों, तकलीफों, आकांक्षाओं, अरमानों, संकल्पों को जुबां दी जा रही है, वह अहमियत रखता है और महज लिखा ही नहीं बल्कि अपने उसूलों के लिए समझौताविहीन जिन्दगी जी। पुरस्कारों की बंटती रेवडियों के मौजूदा माहौल में जबकि क्रिकेट के मैचों की तरह पुरस्कार भी कई बार फिक्स किए जाते हैं, उनका जीवन एवं उनका संघर्ष कलम एवं कागज के बीच के या कलम एवं टीवी के बीच के समीकरण को सुलझाने में मुब्तिला हम सभी को शायद अधिक मौजूं जान पड़ता है।

इस सन्दर्भ में मुझे बरबस हरिशंकर परसाईजी का वह लेख याद आ रहा है जिसका शीर्षक है ‘प्रेमचंद के फटे जूते’। आप में से अधिकतर ने प्रेमचंद की उस तस्वीर के साथ कई स्थानों पर प्रकाशित उस आलेख को पढ़ा होगा, जिसमें प्रेमचंद अपनी पत्नी के साथ फोटो खींचवा रहे हैं, पैरों में कैनवास के जूते हैं, और ‘बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।’

आप ने भले पढ़ा हो, मगर इस मौके पर आप के साथ उसे सांझा करने का मोह रोक नहीं पा रहा हूं। शायद वह उस राज का खुलासा करता है कि प्रेमचंद हमें आज भी क्यों मौजूं जान पड़ते हैं।

परसाई लिखते हैं कि

‘फोटो खिंचाने की अगर यह पोशाक है तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग अलग पोशाकें नहीं होगी - इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है।’

वह पूछते हैं
‘मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हे इसका जरा भी एहसास नहीं है ?’

वह प्रेमचंद के चेहरे की उस अधूरी मुस्कान की भी चर्चा करते हैं

‘यह मुस्कान नहीं है, इसमें उपहास है, व्यंग है।’
‘चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया ?

मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत दर परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार मार कर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया।’

‘तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी।’

लेख के अन्त में वह उनके ‘अंगुली के इशारे’ की बात करते हैं और उस ‘व्यंग मुस्कान’ की बात करते हैं,


‘तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो - मैंने तो ठोकर मार-मार कर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे ?’

2.

ईमानदारी की बात यह है कि मैं कभी अदीब का तालिब, साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा, मगर साहित्य/कलम की ताकत मुझे हमेशा मुग्ध करती रही है।

फिर 19 वीं सदी का वह चर्चित गुलामी प्रथा विरोधी उपन्यास हो जिसकी रचना अमेरिकी लेखिका हैरिएट बीचर स्टो ने की थी, जिसके बारे में कहा जाता है कि 1852 में प्रकाशित इस उपन्यास ने ‘‘गुलामी प्रथा के खिलाफ बाद में छेड़े गए गृहयुद्ध की जमीन तैयार की।’’ कहा जाता है कि राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन जब 1862 में किसी समारोह में लेखिका से मिले तो उन्होंने आश्चर्यचकित होकर पूछा था ‘‘तो तुम ही हो वह कृशकाय महिला जिसने वह किताब लिखी और जिसने इस महान युद्ध की शुरूआत की।’’ या फ्रांसीसी क्रांति की पूर्वपीठिका तैयार करनेवाले महान साहित्यकारों के तमाम प्रसंग हों या 1968 के ऐतिहासिक छात्रा-मजदूर आन्दोलन के वक्त महान लेखक और दार्शनिक सात्र्रा को गिरफ्तार करने की पुलिस की मांग पर राष्ट्रपति द गाल बेसाख्ता कह उठते हों कि ‘मैं फ्रांस को कैसे गिरफ्तार कर सकता हूं’ ?

और आज के समय में शायद उन सभी को याद करने की अहमियत अधिक जान पड़ती है जब स्वतंत्र विचार पर तरह तरह की संकीर्णमना, बन्ददिमाग, कुन्दजेहन ताकतों की बन्दिशें बढ़ गयी हो, हमारी सन्तानों को पाठयक्रम में ‘अन्य’ समुदायों के प्रति नफरत फैलानेवाली, गल्प को इतिहास के तौर पर परोसनवाली और विज्ञान के साथ द्रोह करनेवाली रचनाएं‘ नैतिक तालीम के नाम पर पढ़ायी जा रही हों, जब हमें बताया जा रहा हो कि क्या लिखा जाना चाहिए, कैसे लिखा जाना चाहिए, किस किस्म की चाशनी में डूबा कर लिखा जाना चाहिए और अगर हमने इसके बावजूद भी हिम्मत की, अगर हमने उनके तालिबानी फरमानों को मानने से इन्कार कर दिया, तब फिर चाहे पूंजी की ताकतें हों या देश एवं समाज को आपसी नफरत पर टिके किसी मध्ययुग के उनके ‘वैभवशाली अतीत’ में ले जाने के लिए आमादा सियासतदां और उनके उत्पाती गिरोह आप को गिरेबान पकड़ने के लिए आगे आने के लिए आमादा हों।

ऐसे घटाटोप भरे माहौल में प्रेमचंद का उद्बोधन जब वह ‘साहित्य के मयार बदलने की’, ‘साहित्य की कसौटी बदलने’ की बात करते हैं, एक तरह से आवाहन मालूम पड़ता है।

‘..हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’

मित्रों, आप सभी ने विख्यात पत्रकार परिनोय गुहा ठाकुरदा द्वारा ‘गैस वार्स’ पर लिखी किताब को लेकर अम्बानी समूह द्वारा 150 करोड डालर के मानहानि के मुकदमे के बारे में सुना होगा, मगर शायद ‘एयर इंडिया’ और ‘सहारा समूह’ को लेकर चली कार्रवाइयों पर अधिक चर्चा तक नहीं हो सकी है।

कहने का लुब्बेलुआब यह है कि हमारे मुल्क में विगत कुछ समयों से उछाल मार रही ‘आहत भावनाओं वाली ब्रिगेड’ के रणबांकुरों से लेकर कार्पोरेट सम्राटों तक और सरकारी अमलों के बीच एक अपवित्रा गठबन्धन कायम हुआ है, जो असहमति की हर आवाज़ को कुचल देना चाहते हैं और हाल के समय में मुल्क में जो सियासी बदलाव देखने को मिला है, उससे गोया ऐसी ताकतों को और अधिक उन्मादी होने का अवसर मिला है।

बचपन से हम सुनते आए थे कि किताबें पढ़ने के लिए होती हैं, सुनने के लिए होती हैं, गुनने के लिए होती है, मगर वक्त़ का फेर देखिए इन दिनों किताबों के लुगदी बनाने की बातें अधिक चल रही हैं। ‘हिन्दू धर्म का वैकल्पिक इतिहास’ के नाम से लिखी गयी अमेरिकी विदुषी वेंडी डोनिगर की किताब को प्रकाशक पेंग्विन द्वारा वापस लिए जाने और उसकी लुगदी बनाने की बात से जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह फिलवक्त़ रूकने का नाम नहीं ले रहा है, आलम तो यह है कि कई सालों से प्रकाशित और चर्चित किताब के कुछ अंश अचानक कुछ संगठनों को आक्षेपार्ह लग रहे हैं।

विडम्बना देखिए कि इस मुहिम में अदालत भी साथ दे रही है।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप खोजी पत्रकारिता करके किसी अडानी-अम्बानी के बारे में लिख रहे हैं या किसी धर्म के इतिहास को विज्ञान की कसौटी पर कस रहे हैं, आप साहित्य भी लिखेंगे तो उसमें मुमकिन है विचार जगत के इन पहरेदारों को कुछ नागवार गुजरे और वह कानूनी और गैरकानूनी किसी भी तरीके से आप पर शिकंजा कसने की कोशिश करें।

पिछले दिनों मैं महाराष्ट्र गया था, वहां किसी ने अदालत में दावा किया कि चर्चित लेखक आनन्द यादव ने तुकाराम और ज्ञानेश्वर पर जो उपन्यासनुमा किताबें लिखी हैं, उसने उसकी आस्था को चोट पहुंचायी है और अदालत ने भी किताबों के लुगदी बनाने का फरमान जारी किया है। मराठी साहित्य के ज्ञाता बता सकते हैं कि आनंद यादव, मराठी साहित्य जगत के स्थापित नाम हैं, सम्भवतः किसी समय मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके हैं, अपने इन दोनों उपन्यासों के लिए उन्होंने काफी अनुसंधान भी किया है, मगर यह सभी बातें उनकी किताबों के लुगदी बनने को रोक नहीं सकतीं। हां, फिलवक्त उच्च अदालत का इन्तज़ार है कि वह इस मामले में क्या कहती है।

एक ऐसे वक्त़ में जब पत्रकारिता को सत्ता या सम्पत्तिशालियों की पीआर/पब्लिक रिलेशन मशीनरी में तब्दील करने के प्रयास चल रहे हों, साहित्य को ‘उन लोगों की जय बोलने के लिए’ कहा जा रहा हो, तब बकौल मुक्तिबोध यही बात दोहरानी पड़ेगी कि ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का वक्त़’ अब आ गया है।

Tuesday, August 5, 2014

Diabolic Designs and Demonic Actions

-  Anand Teltumbde

Indian history is fraught with ruling-class intrigues, which tend to keep the lower classes in a perennial state of confusion. The fact that this history comes to us in a mythologised form is itself the biggest intrigue, obscuring as it does information about how the vast, diverse masses of the Subcontinent lived through the millennia. Reading Indian history, thus, becomes an exercise in speculation. If it provides one kind of insight for one group, it is capable of being interpreted equally plausibly in the opposite way by another. What eventually reaches the people is a partisan viewpoint at best and bewilderment at worst – a condition under which the ruling classes thrive. In this context, two books by Subhash Gatade, a committed intellectual and Left activist, are significant additions to the works of the fast-diminishing community of scholars who continue their work with unstinting commitment in these confusing times.

The rise and rise of the RSS

The first book, Godse’s Children: Hindutva Terror in India, deals with the intrigues of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), the right-wing, militant Hindu nationalist organisation, which, as Shamsul Islam writes in his foreword to the book, is “the flag-bearer of Hindu nationalism, believing in the superiority of the Aryan race, like Hitler and the Nazis”. The RSS believes that the Hindus belong to the Aryan race and that India belongs to them, while others – like the Muslims and Christians – are ‘foreigners’ because they followed religions which originated in non-Aryan lands. Consequently, they RSS (mis)appropriated Buddhism, Jainism, Sikhism, and other religions born in the Subcontinent, which represented historical protests against the hegemonic precepts of Brahmanism, the source creed of Hinduism.

Godse’s Children: 
Hindutva Terror in India
by Subash Gatade. Pharos Media, 2012.
The RSS camouflaged its vision with Hindutva, or the ideology of Hindu superiority, constructed by Vinayak Damodar Savarkar, one of its more sophisticated proponents, who, because of his tryst with patriotism, was not ordinarily associated with the organisation. The RSS raised its clandestine network and infiltrated all possible segments of society, spreading its ideological venom during the pre-Independence days. While noticed by the colonial rulers for its nefarious activities, it only entered the limelight with the assassination of Mahatma Gandhi by one of its former members Nathuram Godse, a Brahmin youth from Pune whom Gatade calls “the first terrorist of independent India”. The RSS tried – unsuccessfully – to dissociate itself from this act, but was so baldly exposed that Brahmins, who were generally identified with it, faced mass anger in many parts of Maharashtra. The RSS was first banned by the British, and has been banned three times in Independent India: in 1948, following the assassination of Gandhi; during the Emergency (1975–1977); and in 1992 following the demolition of the Babri Masjid. During these periods, the RSS silently floated a number of other organisations in order to neutralise the government ban. The earliest manifestations of this strategy were a political party, the Bharatiya Jan Sangh (BJS), formed in 1951, and a religious organisation, the Vishva Hindu Parishad (VHP), formed in 1964. By 1967 the BJS had emerged as a major political force, winning 35 parliamentary seats with 9.4 percent of the national vote, almost doubling its share from 1962 when it had won 14 seats with 6.4 percent. But the BJS was still a distant competitor to the Congress. The nationwide unrest thereafter came as a boon to the party, which, donning the garb of a ‘defender of democracy’ transcended its restricted constituency to gain mass appeal. During the State of Emergency declared by Indira Gandhi in 1975, the BJS played an active role in the opposition, and many of its leaders were arrested. After the Emergency, the BJS merged itself into the Janata Party, formed by the diverse political forces that were brought together by their opposition to Indira Gandhi. The Janata Party captured power at the Centre, cashing in on mass anger against the Emergency during the 1977 elections. The internal struggles within the RSS led to fall of the Janata Party and, in 1980, the Sangh regrouped itself to form the Bharatiya Janata Party (BJP). After the communal upsurge created by the movement for the Ram temple in Ayodhya and the countrywide rath yatra that culminated in the demolition of the Babri Masjid in 1992, it entered the political mainstream. Behind this success was the organised force of the ‘Sangh Parivar’, as the family of RSS organisations came to be known.

The advent of neoliberal globalisation in 1992 boosted morale within the BJP and the entire Sangh Parivar, evidenced by its electoral successes. It captured power in several states and thrice at the centre between 1996 and 2004. The US-led ‘War on Terror’, which stereotyped Muslims and identified them with terrorism the world over, emboldened the Parivar to escalate its hate campaign. It carried out an anti-Muslim pogrom in Gujarat in 2002, citing as catalyst the incident at Godhra in which 52 kar sevaks (Hindu volunteers returning from serving at the disputed site in Ayodhya) were burnt alive when their train bogie caught fire through causes yet to be conclusively determined. These actions could be deemed acts of terror, but were not so named. Meanwhile, the Indian police usually lost no time in dubbing acts by militant Islamists ‘terror attacks’. However, when Hemant Karkare, the chief of the Maharashtra Anti-Terrorist Squad (ATS), spotted a saffron hand in a series of blasts on 8 September 2008 in Malegaon that left 37 people dead and over 125 injured, it stunned the world. Karkare arrested eleven suspects by late October and was investigating their links to the Sangh Parivar when he himself was killed in the terrorist attacks on Mumbai on 26 November that year. Given the regular threats made against opponents of the Hindutva brigade, including those made by the late Shiv Sena supremo Bal Thackeray, many suspect that Karkare’s death was an execution carried out by Hindutva agents in the Maharashtra ATS.

Hindutva everywhere

Gatade offers a detailed account of how Hindutva forces committed acts of terror that were easily blamed on Islamist groups, while simultaneously leveraging international propaganda and sustaining the cacophony against Pakistan as the exporter of terror. Gradually, after revelations by former functionaries of the Parivar, the Hindutva militant network’s role in several attacks came to the fore: in the Samjhauta Express attack in February 2007, the Mecca Masjid blasts in Hyderabad in May 2007, and the Ajmer Sharif incident in October 2007. The exposés involving the Nanded (2006) and Malegaon blasts (2008) were followed by the shocking confessions of Swami Aseemanand, who was arrested on 19 November 2010 for his involvement in the Mecca Masjid attack. He revealed that he and other Hindutva activists were involved in bombings at various Muslim religious places, operating on what he described as a “bomb for bomb” policy.

Sunday, August 3, 2014

[Appeal for Solidarity] Textile Workers in Bangladesh on Fast-Unto-Death Hunger Strike

Dear Friends and Comrades,

Lal Salaam!

Can hungry people go on hunger strike? That is exactly what the textile workers of Tuba Group in Bangladesh are doing since July 28, 2014.

1600 textile workers of Tuba Group have been agitating since June, 2014 over unpaid wages stretching back to May, 2014. On July 26, 2014 the workers had confined two relatives of the Group chairman and managing director Delwar Hossain within the factory premises demanding immediate payment of their due wages. Last Monday (July 28, 2014) several hundred workers of Tuba Group took over factories they work at (Taif Designs Ltd., Mita Designs Ltd. and Tuba Fashions Ltd. at Uttar Badda Dhaka) and began their fast unto death demanding the unpaid wage and festival bonus. 

Six days later about 92 workers are suffering from different level of dehydration and 11 workers are hospitalized as their health condition took a critical turn. Representative from neither garment owners association Bangladesh Garment Manufacturer & Exporter Association (BGMEA) nor the government has contacted the agitating workers and taken any initiative to end this hunger strike by meeting their demands. Instead, they have used this issue of non-payment to secure the owner, Delwar Hossain's bail. He was in jail in connection with the fire at one of his factory, Tazreen Fashions Ltd. which killed more than 125 workers on November 24, 2012. While an injured worker of Tazreen Fashions Ltd., Amena Begum, is counting her last days at a Palliative Care Center, missing workers' families still awaiting proper compensation and 1600 workers starving for three months without pay, the owner is granted bail. When the garment owners lock workers inside burning buildings, should we to expect them to care if the latter die fasting? We are writing to you to inform you about the ongoing workers struggle, we are writing today to request you to support the movement. We request you to:

- If possible organize a vigil outside Bangladeshi Embassy in solidarity with the struggling workers and to put pressure on the Bangladeshi Govnernment to intervene so that workers are paid immediately and that the bail of the owner who is charged with culpable homicide is revoked.

- If you are part of press fraternity, or if you know someone who is in the press please help us get this news of workers occupation and hunger strike out, help us mobilize the international media.

- If possible please send a text message to the president and vice-president of BGMEA, condemning their complicity in allowing the owner to steal workers wage.Here are the numbers:
Atikul Islam, President, BGMEA +8801711520099/01716240893
Md. Shahidulla Azim, Vice-president, BGMEA +8801711520514

-If possible fax a letter to the Ministry of Labor, Govt. of Bangladesh, at this number condemning the government's inaction. Fax no: +88029575583 

Thank you for your continued support, we will keep you posted.

In solidarity,
Saydia Gulrukh and Moniruzzaman Masum
Members, Activist Anthropologist Collective
Dhaka, Bangladesh

Below are few photographs of the ongoing hunger strike and the struggle: