Thursday, April 14, 2016

Bhim Yatra .. so that there are no more killings

- Subhash Gatade

Rarely does Jantar-Mantar, the place in the heart of Delhi, gets ‘enlivened’ with people who share very similar type of tragedy - one should say man made tragedy. The culmination of 125 day Bhim Yatra - led by Safai Karmchari Aandolan - which had started from Dibrugarh in the North East on 10 th December and had traversed around 500 districts and 30 states, proved to be one such occasion. (13 th April 2016)
The big public meeting organised at Jantar Mantar, attended by hundreds of safai karmcharis from different parts of the country and many individuals, activists who are sympathetic to their cause, was just another way to celebrate Dr Ambedkar’s 125 th birth anniversary, a day earlier. Special focus of the Yatra was on deaths in sewers and septic tanks and the key slogan was ‘Stop Killing us in Dry Latrines, Sewers and Septic tanks’. In fact, most of the people who were sitting on the podium belonged to such families only, who had lost their near-dear ones in cleaning sewer or septic tanks
Sunayana ( age 9 years) who lives with her grandparents these days in Lucknow, had lost her father in similar ‘accident’ and her mother also died due to shock within few days of her father’s death. There was Rahul ( aged 13 years) from Tamil Nadu who had lost his father merely a week back and was inconsolable on stage also. Pinki ( aged 35 year) from Varanasi, a mother of two kids was one of the most articulate among those who had gathered there. She had lost her husband three years back and was emphatic that ‘we are not here for compensation.’ We are part of this caravan now and ‘want that nobody should face similar tragedies hereafter.’ Kartar ( Delhi) still could recount how his son was called by his contractor when a fellow worker had already died cleaning the sewer. According to him the contractor rather forced him to descend into the sewer and take out fellow workers body and in the process his son also inhaled poisonous gases and died on the spot.
Everybody had a heartrending story to tell. Many like Santosh just could not even utter a word as it was no narrating an experience but ‘reliving’ the whole episode and its aftermath.
A query rather resonated all these presentations: How long their sons/husbands will have to die cleaning other people’s waste and excreta in a country which boasts of sending satellites into space. How does one explain allotment of thousands of crores of Rs for drainage and sewerage work, so much money being spent on laying/relaying pipes and drains that are designed to kill? Is it because ours is a society where Varna mind-set still dominates, and that’s why a human friendly system of garbage and sewage management has still not been conceived as planners rely on ‘expendable dalit labour’.

Monday, April 4, 2016

एक गैर-आधुनिक समाज में फांसीवाद :- प्रतिरोध की संभावनाये एवं सीमायें


-स्वदेश कुमार सिन्हा

“आधुनिकता में तर्क बुद्धि और व्यक्ति का अधिकार निहित होता है”

                                  (रवि सिन्हा ,एक्टिविस्ट ,समाज वैज्ञानिक)


आज हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसमें नई व्यवस्था के ठग और गिरोहबाज जब अवैद्य वध की बात करते हैं तो उनका मतलब कत्ल कर दिये गये जीते जागते इन्सान से नही , मारी गयी एक काल्पनिक गाय से होता है। जब घटनास्थल से फोरेंसिक जांच के लिए सबूतउठाने की बात करते हैं  तो उनका मतलब मार डाले गये आदमी की लाश से नही फ्रीज में मौजूद भोजन से होता है। हम कहते हैं  कि हमने प्रगतिकी है लेकिन जब दलितो की हत्या होती है और उनके बच्चो केा जिन्दा जला दिया जाता है तेा हमला झेले , मारे जाने ,गोली खाये या जेल जाये बिना आज कौन सा लेखक बाबा साहब अम्बेडकर की तरह खुल कर कह सकता है कि ’’अछूतो के लिए हिन्दुत्व संत्रासों की एक वास्तविक कोठरी है ? कौन लेखक वह सब कुछ लिख सकता है जेा सआदत हसन मंटो ने अंकल सैम के लिए पत्रमें लिखा ? इस बात से फर्क कही पड़ता कि हम कही जा रही बात से सहमत हैं या असहमत। यदि हमें  स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार नही होगा तो हम बौद्धिक कुपोषण से पीडि़त मूर्खो के एक देश में बदल कर रह जायेंगे। पूरे उपमहाद्वीप में पतन की एक दौड़ चल रही है। जिसमें नया भारत भी जोश खरोश से शामिल हो गया है। यहाँ भी सेंसरशिप भीड़ को आउटसोर्स कर दी गयी है।
                                           -अरूंधति राय

इस लम्बे लेख के कुछ अंश ही आज के भारत के वास्तविक चित्र को सामने रख देते हैं । 1919 में गुरूदेव रविन्द्र नाथ ठाकुरने अंग्रेज सरकार से मिली नाइटकी पदवी लौटा दी थी जलियाँ वाला बागनरसंहार के लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियों की मुखालिफत करने का यह उनका तरीका था। उन्होने एक लेख में लिखा थायह एक ऐसा समय है ,जब सम्मान के बिल्ले हमारे चतुर्दिक अपमान को और अधिक नुमाया करने लगे हैं ।  तब दौर उपनिवेशवाद का था आज हम एक स्वतंत्र सम्प्रभुता सम्पन्न लोकतांत्रिक देश हैं तथा संघ परिवार का फांसीवाद ,चुनाव लड़कर भारी समर्थन से सत्ता मेंआया है, तथा इससे कुछ भी फर्क नही पड़ता है कि उसके वोटो का प्रतिशत कितना है। संभवतः भारतीय इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि ’’संघ परिवार के फांसीवादी कदमो के विरोध में बड़े पैमाने पर साहित्यकारो , लेखको ,इतिहासकारो वैज्ञानिको तथा अकादमिकशियनों द्वारा प्रतिरोध के फलस्वरूप ’’साहित्य अकादमीतथा अन्य प्रकार के राजकीय पुरस्कारो तथा सम्मानो के वापसी  की घटना घटित हुयी है। पुरस्कारो की वापसी की यह परिघटना बहुत दिन तक नही चल सकती थी , और ऐसा ही हुआ। परन्तु संघ परिवार का फांसीवाद आज दूसरे दौर में पहुँच  गया है। 

हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित शोध छात्र ’’रोहित बेमुलाकी आत्महत्या जो एक तरह से संस्थानिक हत्या ही थी तथा जे.एन.यू. नयी छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैयासहित अनेक छात्र नेताओ की कथित राष्ट्र विरोधी नारो के नाम पर लम्बे समय तक की गिरफ्तारी का यह दौर पिछले समय से भी ज्यादा खतरनाक है। कथित अंधराष्ट्रवाद की जो बहस फांसीवादियों द्वारा चलायी जा रही है वह हमें उस दौर की याद दिलाती है जब नस्ल ,जाति तथा कथित जर्मन अन्धराष्ट्रवाद के नाम पर लाखो यहूदियों को गैस चैम्बरो में जला कर मार डाला गया था। जर्मनी , इटली ,स्पेन में फाॅसीवाद तथा नाजीवाद को इतना ब्यापक जन समर्थन हासिल नही था , क्योकि वे अपेक्षाकृत आधुनिक समाज थे। द्वितीय महायुद्ध की पराजय ने वहां पर फाॅसीवाद तथा नाजीवाद की कमर तोड़ दी थी। परन्तु हमारे देश में  स्थिति भिन्न है यहाँ के पिछड़े तथा गैर आधुनिक समाज में  जिसकी अधिरचना में अभी भी गहरे तक सामती मूल्य विद्यमान है। जनता की पिछड़ी मानसिकता का दोहन करके कोई भी फांसीवादी राज्य लम्बे समय तक टिका रह सकता है। वास्तव में आधुनिकता की यह समस्या भारत सहित तीसरी दुनिया के समाजो में इसके पूर्व ढाँचे  में ही निहित है। इसके बीजो की तलाश हमें अंगेजो के आने से पहले की भारतीय ग्राम संरचना में करनी होगी।

19वीं सदी में भारतीय समाज की आर्थिक सामाजिक संरचना

छोट-छोटे गावं में  बसा भारत ब्रिटिशो के आने से पूर्व कई अर्थो में आबाद था। आक्रमणकारी आये ,गये ,लड़ाइयां होती रही तख्त और ताज बदलते रहे लेकिन गावं नही बदले। वे अपने अर्थतंत्र में आत्मनिर्भर थे। जरूरतो की लगभग सारी चीजे खुद ही पैदा कर लेते और मेहनत मजदूरी में ब्यस्त रहते। गावं की सामाजिक व्यवस्था पर धर्म का जबरदस्त प्रभाव था। वे उसकी सीमा लांघ कर आगे बढ़ने की बात सोच भी नही सकते थे। सामन्तवादी ब्यवस्था के कारण राजा सर्वे सर्वा जरूर थे ,लेकिन गावं की भूमि पर उनका कोई अधिकार नही था। भूमिपर अधिकार गावं का होता था। राजा को उसका कर भार देने के बाद शेष सारी उपज गावं के ही काम में लायी जाती थी।

गावं में किसानेा के अतिरिक्त बढ़ई ,लोहार, कुम्हार, जुलाहा, मोची , धोबी , तेली, हज्जाम ,जैसे मजदूर किस्म के लोग भी रहते थे। लेकिन यह भी गावं की ही जरूरतो को पूरा करने के लिए खटते थे। ग्राम समुदाय में कर्मकारो का भी एक वर्ग होता था जो हलखोर का काम करते थे, जो अछूत समझे जाते थे। इनमें से अधिकांश देश की उन आदिम निवासियों के वंशज थे , जिनको समूल विनिष्ट करने के बदले ,प्राचीन काल में हिन्दू समाज ने आत्मसात कर लिया था। ’’(भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि -ए0आर0 देसाई, पृष्ठ 7-8) लोगो के व्यवसाय जातियों के आधार पर तय होते थे। वे वंश परम्परागत निर्बाध रूप से चलते थे। व्यक्ति का कोई महत्व नही था। परिवार और जाति ही सब कुछ थे। बाहरी दुनिया से इन समुदायों का लेन-देन या विनिमय नाम मात्र का होता था। आवागमन के साधन बहुत ही कम थे।