Tuesday, July 26, 2016

[वक्तव्य] गोरक्षा का आतंक


क्या केसरिया पलटन गाय के नाम पर फैलायी जा रही संगठित हिंसा से कभी तौबा कर सकेगी

(न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव द्वारा जारी वक्तव्य )

(For English Version, see the Link HERE )

गोरक्षा के नाम पर स्वयंभू हथियारबन्द गिरोहों की अत्यधिक सक्रियता, जिसमें जबरदस्त तेजी भाजपा के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद आयी है, उसे एक मुंहतोड़ जवाब पिछले दिनों गुजरात में मिला। जिस बेरहमी से शिवसेना से सम्बद्ध एक गोरक्षक दल ने  उना में दलितों के समूह पर हमला किया, (11 जुलाई 2016) जो मरी हुई गाय की खाल उतार रहे थे, उन्हें सार्वजनिक तौर पर पीटा और गोहत्या का आरोप लगा कर उन्हें पुलिस स्टेशन तक ले गए और इस समूची घटना का विडिओ बना कर सोशल मीडिया पर भी डाला ताकि और आतंक फैलाया जा सके, उस घटना ने जबरदस्त गुस्से को जन्म दिया है।

हजारों हजार दलित सूबे के अलग अलग हिस्सों में सड़कों पर उतरे हैं, उन्होंने सरकारी दफ्तरों का घेराव किया है, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया है, पूरे राज्य स्तर पर बन्द का आयोजन किया है और सरकार को झुकाने की कोशिश की है। उन्होंने दोषियों को सख्त सज़ा देने की सरकार से मांग की है और साथ ही साथ उन पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है, जिन्होंने दलितों की शिकायत की अनदेखी की, जब उन्हें प्रताडित किया जा रहा था।
प्रतिरोध कार्रवाइयों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। दलित अभी भी गुस्से में हैं। विरोध रैलियांे का अभी भी आयोजन हो रहा है।

उना में दलित अत्याचार की घटना का विरोध करते हुए लगभग तीस दलित युवकों ने एक सप्ताह के अन्दर आत्महत्या करने की कोशिश की है। अलग अलग राजनीतिक दलों के लोगों ने दलितों से अपील की है कि वह ऐसे कदम को न उठाएं और शान्तिपूर्ण तरीके से संघर्ष जारी रखें। निस्सन्देह, उना की घटना और उसके बाद नज़र आए दलित आक्रोश ने एक तरह से दलित आन्दोलन के एक नए मुक़ाम का आगाज़ किया है क्योंकि दलितों को यह बात अन्ततः समझ में आयी है कि हिन्दुत्व की सियासत किसी भी मायने में दलितों की हितैषी नहीं है और वह शुद्धता और प्रदूषण पर आधारित जाति व्यवस्था को अधिक मजबूत करती है। हिन्दुत्व की राजनीति के साथ दलितों का बढ़ता मोहभंग उस घटना में भी उजागर हुआ जब विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला मोदी के गृहनगर वाडनगर में पहुंचा जहां हजारों दलितों ने उग्र प्रदर्शन में हिस्सा लिया और दलितों पर अमानवीय अत्याचार के लिए प्रधानमंत्राी मोदी और भाजपा को सीधे जिम्मेदार ठहराया। इस घटना के विडिओ दिखाते हैं कि प्रदर्शन में शामिल दलित हाय रे मोदी .... हाय हाय रे मोदी का नारा लगा रहे थे - यह उस नारे का संशोधित रूप था जिसे महिलाएं हिन्दुओं के अंतिम संस्कार के प्रदर्शन में लगाती हैं। दलितों के इस गुस्से ने अस्सी के दशक की शुरूआत में दलितों की पुरानी पीढ़ी के लोगों द्वारा किए गए लड़ाकू प्रदर्शनों की याद ताज़ा कर दी जब वे आरक्षण की नीति की हिमायत में सड़कों पर उतरे थे और उन्होंने हिन्दुत्ववादी संगठनों का सीधे मुकाबला किया था।

यह समूची उथलपुथल आम दलितों के लिए भी - जिनकी आबादी लगभग आठ फीसदी तक है और जो लम्बे समय से हिन्दुत्ववादी संगठनों के नफरत एवं असमावेश के प्रोजेक्ट में लगभग समाहित थे - सीखने का अनुभव रहा है। प्रदर्शनकारियों द्वारा अपनाए गए संघर्ष के एक रूप ने सत्ताधारी तबके को काफी बेचैन किया है और जिस रूप के राष्ट्रीय स्तर पर फैलाव की सम्भावना बनती है। इसके तहत उन्होंने मरी हुई गायों को लाकर सरकारी दफ्तरों  जानेमाने नेताओं के घरों के सामने फेंका है, जिन्हें वहां से हटाना भी प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हुआ है। दलितों के अच्छे खासे हिस्से ने मरी हुई गायों को उठाना भी बन्द कर दिया है और यह ऐलान भी कर दिया है कि अब वह भले ही भूख से मर जाएं मगर इस पेशे को कभी नहीं अपनाएंगे। दरअसल, इस कदम से दलितों ने मनुवादी/ब्राहमणवादी ताकतों को एक चेतावनी दी है कि जिस दिन वह उन गन्देकामों को करना बन्द कर देंगे, जिसके लिए उन्हें लांछन लगाया जाता है, वर्ण समाज के लिए प्रलय जैसी स्थिति पैदा होगी। संघर्ष के इस रूप की अगुआई कर रहे एक कार्यकर्ता ने एक पत्रकार से बात करते हुए कहा कि उन्होंने यह कदम इसलिए उठाया है ताकि स्वयंभू गोभक्तों को सबक सीखाया जा सकेः गोरक्षक हम पर हमला करते हैं क्योंकि वह समझते हैं कि गाय उनकी माता है, ठीक है, अब उन्हें चाहिए कि अपनी माता की सेवा करे औरजब वह मरे तो उसकी लाश को उठाएं’ (

मीडिया के अलग अलग हिस्सों में प्रकाशित फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्टें बताती हैं कि किस तरह पुलिस ने इन अत्याचारियों को रास्ते में नहीं रोका और मामूली प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाने के लिए घंटों बरबाद किए। ऐसी अपुष्ट ख़बरें भी मिली हैं कि स्थानीय पुलिस ने गोरक्षक दल को खुद सूचित किया था कि मरी हुई गाय की खाल उतारी जा रही है। समूचे मामले में स्थानीय पुलिस की संलिप्तता एवं सांठगांठ इस बात से भी उजागर होती है कि विडिओ के रूप में समूची घटना के प्रमाण मौजूद होने के बावजूद - जो उजागर करते हैं कि दलितों पर सार्वजनिक अत्याचार की इस घटना में तीस से अधिक लोग शामिल थे - उसने सिर्फ आठ लोगों को गिरफतार किया है और यह प्रमाणित करने में लगी है कि यह अपवादात्मक घटना है।

दलितों के बढ़ते आक्रोश ने, जिस दौरान राज्य सरकार गोया शीतनिद्रा में रही, उसने ऐसी तमाम अन्य घटनाओं को उजागर किया है जब गोरक्षकों ने दलितों पर हमले किए थे और पुलिस ने पीड़ितों की शिकायत लेने में भी नानुकुर की थी। इस घटना ने दलितों के रोजमर्रा के अपमान एंव भेदभाव, सामाजिक जीवन में मौजूद व्यापक अलगाव एवं अस्प्रश्यता, बुनियादी मानवाधिकार से उन्हें किया जा रहा इन्कार और हाल के वक्त़ में अत्याचारों की घटनाओं में हुई जबरदस्त बढ़ोत्तरी की परिघटना को नए सिरेसे रेखांकित किया है और इस बात को भी दर्शाया है कि किस तरह इस बढ़ते आतंक को रोकने के लिए अधिक सक्रिय कदम उठाने के मामले में सत्ताधारी जमातें असफल रही हैं।

Monday, July 25, 2016

[Statement] Cow Vigilantism as Terror: Can the Saffron Establishment ever wash its hands of the growing menace?

- New Socialist Initiative

Cow vigilantism which has received tremendous boost since the ascendance of BJP at the centre got its first fitting reply in Gujarat recently. The way in which a self-proclaimed Gau Rakshak Dal - owing allegiance to Shiv Sena - attacked a group of Dalits in Una (11 th July 2016) who were skinning a dead cow, publicly flogged them, led them to the police station charging them with cow slaughter and even circulated a video of the whole incident on social media to spread further terror, has caused tremendous uproar.

Thousands and thousands of Dalits have come out on streets in different parts of the state, gheraoed government offices, damaged government property, enforced state-wide bandh and tried to bring the government to its knees, demanding severe punishment to the guilty and strict action against the police and government officials who failed to act upon their complaint when they were being publicly brutalised. 

The wave of protests has still not ebbed. The anger still simmers. Protest rallies still continue. 

There have been thirty incidents of suicide attempts by Dalit youth protesting the Una incident within a span of just one week. People across political spectrum are appealing to the angry youth not to resort to this extreme step and continue with peaceful struggle. Undoubtedly, Una incident and the consequent dalit assertion is proving to be a great turning point in the history of the dalit movement as Dalits have ultimately realised that politics of Hindutva is no friend of dalits and in fact, it is geared towards strengthening and further consolidating the purity and pollution based caste system.The growing disenchantment of Dalits with the politics of Hindutva was very much evident when their protests reached Narendra Modi's home town of Vadnagar itself where thousands of dalits participated in a militant demonstration blaming the Prime Minister himself and BJP for the brutal thrashing of Dalits. Videos of the protest showed many Dalit people shouting, “Hai re Modi...hai-hai re Modi,” - modification of a slogan used by women during Hindu funeral processions. The outrage has rekindled memories of the militant assertion in early eighties led by the earlier generation of young dalits wherein they had fought to defend policy of reservation and also dared to take on the Hindutva formations head-on. 

It has also been a great learning experience for ordinary dalits in the state who comprise around eight per cent of the population and who were largely co-opted by the Hindutva formations in their project of hate and exclusion. One unique form of struggle adopted by the protesters this time has rattled the ruling elite tremendously and has the potential of nationwide resonance. It involved throwing of carcasses of dead cows at government offices, outside the houses of prominent politicians, removal of which became a strenuous affair even for the establishment. A large section among them have even boycotted work of collecting dead bovines and have even declared that henceforth they are ready to die of hunger but would not take up the occupation again. In fact, by this simple act Dalits have rather issued a warning to the Manuvadi/Brahminical forces that the day they resolve to leave all those 'dirty' professions. for which they are stigmatised, a catastrophe like situation awaits them. One of the activists who 'pioneered' this unique form told a correspondent that they have stopped doing it to teach them a lesson


Fact finding reports which have appeared in sections of the media tell how the police did not stop the perpetrators on their way and also took hours to lodge a simple FIR and arrest the criminals. There are even unconfirmed reports that local police had even tipped the Gau Rakshak Dal about the skinning of the dead cow. The complicity and connivance of the local police is evident also in the fact that despite enough proof available with it in the form of the video of the incident about involvement of more than thirty people in the thrashing incident, it has kept number of arrests limited at eight only and is trying to portray it as an one off incident.

The unfolding dalit outrage which found the state government in deep slumber has brought to the fore many other similar recent incidents where Dalits had come under attack at the hands of Gau Rakshaks and the silence maintained by the police which had even refused to entertain complaints lodged by the victims. It has also given a vent to pent up anger of the dalits against daily humiliations and discrimination faced by them, widespread existence of exclusion and untouchability in social life, denial of basic human rights and manifold spurt in atrocities in the state in recent times and failure of the powers that be to take proactive measures to curb the growing menace

The criminal acts by the Gau Rakshaks and the impunity with which they are ready to take law into their hands which has received nationwide attention has also been an occasion for the senior members of the bureaucracy to speak out about the menace they have become all over the state. Chief Secretary of the state G R Gloria is reported to have told a national daily that:

'These vigilantes are self-proclaimed gau rakshaks but in actual fact they are hooligans'. According to him there are as many as 200 cow vigilante groups in the Gujarat who have 'become a law and order problem because of their aggression and the way they take law into their hands' and government is going to take strong action against them. The Chief Secretary was even categorical in admitting that lower level police personnel are hand in glove with these vigilantes.

It is worth emphasising that not some time ago even the Punjab-Haryana high court while ordering CBI probe into the death of Mustain, a transporter at the hands of members of another 'Gau Raksha Dal' in Kurukshetra, Haryana (March 2016) had underlined the growing criminalisation of the Cow Protectors who work with impunity. It said that so called cow vigilante groups constituted with the backing of political bosses and senior functionaries governing the state, including police,

"..[a]re bent upon circumventing law and fleecing poor persons ferrying their animals, be it for any personal domestic use or otherwise...Apparently even the senior functionaries of the police are hand-in-glove with such vigilante groups.

Image: http://www.gaurakshadalharyana.org/


Dalit anger witnessed on the streets of Gujarat - variously described as Dalit rebellion by a section of the commentators - has had spiralling effect in other parts of the country as well, and has also helped galvanise the entire parliamentary opposition camp which has even demanded that there should be immediate ban on all such Gau Rakshak Dals and all such miscreants who operate under its name and engage in mayhem. Members of parliament on the floor of the house have denounced all these vigilante groups who are targeting Muslims as well as Dalits, brutalising them in very many ways and on occasions lynching them and explained how the policies and programmes of the powers that be has made a conducive atmosphere for their proliferation and demanded ban on them. 

Sunday, July 24, 2016

बरवक्त यहां 'गाय' कानून तोड़ने का सुरक्षित तरीका

सुभाष गताड़े

Courtesy Cartoonist Satish Acharya 
गोभक्त बालू सरवैया- जिन्होंने एक गाय भी पाली थी- ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि मरी हुई गाय की खाल निकालने के अपने पेशे के चलते किसी अलसुबह उन पर गोहत्या का आरोप लगाया जाएगा और उन्हें तथा उसके बच्चों को सरेआम पीटा जाएगा. इतना ही नहीं किसी गाड़ी के पीछे बांध कर अपने गांव से थाने तक उनकी परेड निकाली जाएगी.

उना, गुजरात की इस घटना ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया है. पिछले दिनों इस मसले पर बात करते हुए गुजरात सरकार के चीफ सेक्रेटरी जीआर ग्लोरिया ने गोरक्षा के नाम पर चल रही गुंडागर्दी को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि समूचे गुजरात में दो सौ से ज्यादा ऐसे गोरक्षा समूह उभरे हैं जो ‘अपने हिंसक व्यवहार के चलते और जिस तरह वो कानून को अपने हाथ में लेते हैं, उसके चलते कानून और व्यवस्था का मसला बन गए हैं.’

ग्लोरिया ने अपने बयान में यह भी जोड़ा कि ऐसे समूहों के खिलाफ हम सख्त कार्रवाई करनेवाले हैं क्योंकि भले ही यह ‘स्वयंभू गोभक्त हों मगर वास्तव में गुंडे हैं.’ शहर से गांव तक फैले उनके नेटवर्क तथा स्थानीय पुलिस के साथ उनकी संलिप्तता आदि बातों को भी उन्होंने रेखांकित किया.

ध्यान रहे कि यह पहली दफा नहीं है जब गोरक्षा के नाम पर बढ़ रही असामाजिक गतिविधियों की तरफ संवैधानिक संस्थाओं या उनके प्रतिनिधियों की तरफ से ध्यान खींचा गया हो. अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने भी इसी बात को रेखांकित किया था. 

अदालत का कहना था कि ‘‘गोरक्षा की दुहाई देकर बने कथित प्रहरी समूह जिनका गठन राजनीतिक आंकाओं एवं राज्य के वरिष्ठ प्रतिनिधियों की शह पर हो रहा है, जिनमें पुलिस भी शामिल है, वह कानून को अपने हाथ में लेते दिख रहे हैं.’

मालूम हो कि अदालत उत्तर प्रदेश के मुस्तैन अब्बास की हरियाणा के कुरूक्षेत्र में हुई अस्वाभाविक मौत के मसले पर उसके पिता ताहिर हुसैन द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी. समाचार के मुताबिक पांच मार्च को मुस्तैन शाहबाद से भैंस खरीदने निकला, जब उसके पास 41,000 रूपए थे. 

उसे कथित तौर पर गोरक्षा दल के सदस्यों ने पकड़ा और पुलिस को सौंप दिया. याचिकाकर्ता के मुताबिक 12 मार्च को शाहबाद की पुलिस ने उसे छोड़ने का आश्वासन दिया मगर उसे बाद में धमकाया और पीटा.

Friday, July 22, 2016

कश्मीर के ताज़ा घटनाक्रम पर 'न्यू सोशालिस्ट इनिशिएटिव', दिल्ली चैप्टर का वक्तव्य

- न्यू सोशालिस्ट इनिशिएटिव

कश्मीर की घाटी फिर एक बार अशांत है। अपनी जिन्दगी की आम दिनों की दिनचर्या को छोड़ कर लोग सड़कों पर हैं। न केवल युवा बल्कि बच्चे और महिलाएं भी घरों से बाहर निकल कर भारतीय राज्य की सैन्य ताकत को चुनौती दे रहे हैं। पुलिस एवं सेना का बचा खुचा डर भी विलुप्त होता दिख रहा है। न केवल पुलिस थाने बल्कि सीआरपीएफ के शिविर भी हमले की जद में आए हैं। जनअसन्तोष से उर्जा ग्रहण करते हुए एक किस्म के जनविद्रोह की स्थिति बनती दिख रही है। एक सप्ताह के भीतर भारत के सुरक्षा बलों के हाथों चालीस लोगों की मौत हो चुकी है। पुलिस द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 'गैरप्राणघातक’ कहे जाने वाली छर्रों से सैकड़ों लोगों की आँखों को ही नहीं बल्कि तमाम अन्य किस्म की गंभीर शारीरिक हानि हुई है। जबकि लोग पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना का मुकाबला कर रहे हैं, कश्मीर में भारतीय राज्य के अन्य अंग - चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधि, नौकरशाही, विधानसभा एवं पंचायतों के चुने हुए सदस्य - सभी कहीं सार्वजनिक स्थानों पर दिख ना जाने के डर से कहीं दुबके हुए हैं। फिलवक्त़ कश्मीर की घाटी के लोग बनाम भारतीय राज्य की संगठित हिंसा की संस्थाओं के बीच ही टकराव तेज होता दिख रहा है।

हालांकि जनअसन्तोष के ताजे सिलसिले का फौरी कारण हिजबुल मुजाहिदीन के लड़ाके बुरहान वानी का मारा जाना है, लेकिन इस गुस्से का कारण और गहरा है और उसका लम्बा इतिहास है। कश्मीरी आवाम के आत्मनिर्णय के अधिकार को कुन्द किया जाना और उनका दमन इस विवाद की जड़ में है। इस दमन ने तमाम एकांतिक रूप ग्रहण किए हैं। बीते पचीस सालों से कश्मीर की घाटी दुनिया की सबसे सैन्यीकृत जगहों में शुमार हुई है। भारतीय सेना और अर्द्धसैनिक बलों से जुड़े पाँच लााख से अधिक लोग राज्य में और पाकिस्तान के साथ जुड़ी उसकी सरहद पर तैनात हैं। राष्ट्रीय राइफल्स और सीआरपीएफ के शिविर जगह जगह फैले हुए हैं। हाईवे पर जगह जगह बनाए गए चेकपाइंटस और कभी भी की जा सकनेवाली तलाशी कश्मीरी आम जीवन का हिस्सा बन चुकी है। हजारों लोग गायब हैं, जिन्हें सुरक्षा बलों ने उठा लिया है, और पूछताछ कैम्प के अंधकूप में गोया फेंक दिया गया है, जिनमें से कई फिर अचिन्हित कब्रों में पहुंच गये हैं। घृणित सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम/आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट ने भारत की सेनाओं को - गरिमामय जीवन जीने के आम कश्मीरियों के बुनियादी अधिकार पर हमला करने की - छूट प्रदान की है। अगर घाटी का आम निवासी चुनाव और प्रशासकीय पहल की भारतीय राज्य की आम दिनों की कार्रवाई से अपने आप को अलगाव में पड़ा पाता है, तो वह अपनी जमीन पर भारतीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति के खिलाफ गहरे रूप में क्षुब्ध है। यह असन्तोष व्यापक जनआन्दोलनों में बार बार फूटता रहता है।


हर बार भारतीय राज्य की किसी कार्रवाई ने जनअसन्तोष को भड़काने में चिंगारी का काम किया है। बीते समय अमरनाथ यात्रा ट्रस्ट को राज्य सरकार द्वारा जमीन हस्तांतरण का मसला वर्ष 2008 के व्यापक प्रदर्शनों की वजह बना। वर्ष 2009 मे कश्मीरी जनता शोपियां में दो महिलाओं के बलात्कार एवं हत्या के मसले के खिलाफ सड़कों पर उतरी। वर्ष 2010 का आक्रोश भारतीय सेना द्वारा की गयी तीन स्थानीय लोगों की हत्या और उन्हें सरहद पार के घुसपैठिये साबित करने के खिलाफ सड़कों पर फैला। अफजल गुरू को गोपनीय ढंग से दी गयी फांसी 2013 के जनाअन्दोलन की वजह बनी। सबसे शर्मनाक बात थी कि संप्रग सरकार ने अफजल गुरू की लाश को उसके परिवार को सौंपने से भी इन्कार किया था। जब भी पंचायत या विधानसभा के चुनाव सम्पन्न होेते हैं, या मिलिटेंसी से जुड़ी हिंसा की ख़बरें कम आने लगती हैं या कोई कश्मीरी युवा संघीय लोक सेवा आयोग के इम्तिहान में अव्वल स्थान पाता है, कथित मुख्यधारा का भारत, उसके राजनीतिक प्रतिष्ठान, मीडिया और बुद्धिजीवी समुदाय घाटी में ‘सामान्य स्थिति’ बहाल होने की बात करने लगते हैं। 

Friday, July 15, 2016

[NSI Statement] On the Unfolding Situation in Kashmir

- NSI Delhi Chapter

The valley of Kashmir is on the boil again. Forsaking the so-called normal routines of their lives, people are on the streets. Not just young men, but even children and women are out, challenging the military might of the Indian state. Any fear of the police and army appears to have been discarded. Police stations and even CRPF camps have been attacked. A popular upsurge, it is energised by mass fury. Forty people have lost their lives in one week at the hands of the Indian security establishment. Hundreds of others have suffered serious eye and other injuries from presumedly 'non-lethal' pellets used by the police. While people are out confronting the police, para-military and army, the other organs of the Indian state in Kashmir, the elected government and its bureaucracy, elected members of the legislature, panchayats, etc. are in a rathole, fearing public appearance. It is just the people of Kashmir valley versus the institutions of organised violence of the Indian state.



While the immediate cause of popular anger is the killing of Hizbul Mujahideen militant Burhan Wani, reasons for this anger go much deeper and have a longer history. The stifling and repression of the Kashmiri people's right to self-determination stands at the root of this conflict. This repression has taken on extreme violent forms. For twenty five years now, the Kashmir valley has been among the most militarised places in the world. More than half a million troops of Indian army and para-military forces have been stationed in the state and its border with Pakistan. Rashtriya Rifle and CRPF camps dot the land scape. Highway checkpoints and random searches are part of everyday life. Thousands of men have disappeared, been picked up by security forces, thrown in the black hole of interrogation camps, often ending up in unmarked graves. The hated AFSPA gives Indian security forces legal cover to assault basic rights of Kashmiris to live a life of elementary dignity. If an average valley resident is alienated from the normal practices of the Indian state such as elections and its administrative initiatives, s/he harbours deep resentment against the presence of Indian security forces in their homeland. This resentment has erupted in mass protests again and again. 

Each time it has been an action of the Indian state that has served as the spark. Protests in 2008 were in response to the state government's proposal to transfer land to the Amarnath Yatra Trust. In 2009 Kashmiris were protesting against the rape and muder of two women in Shopian. Protests in 2010 followed an Indian army unit killing three local men, and passing them off as infiltrators from across the border. The valley erupted once again in 2013 against the secret hanging of Afzal Guru. Most shamefully the then UPA government refused to hand over his body to his family. Each time panchayat or assembly elections are held without disruption, or instances of militancy related violence drops, or a Kashmiri youth achieves a high postion in UPSC examinations, so-called mainstream India, its political establishment, media and intellectual class begin singing the raga of 'return to normalcy' in the valley. Election rallies, brokering of state largesse, administrative measures, or personal success of a few individuals however can not fill the chasm that separates Kashmiris from the political community 'mainstream' Indians call their nation. This chasm has been deepening and widening ever since the arrest of Sheikh Abdullah in 1953 by the Nehru government, military style occupation of the valley from 1991, and has become unbridgeable even in principle with the creeping Hindutvaisation of the Indian nation. 

Citizens of India need to pay special attention to this latter process and its consequences for Kashmir. It is not uncommon to hear slogans like 'doodh maangoge kheer denge, Kashmir maangoge cheer denge' (We will give you creamy deserts if you ask for milk, we will cut you down if you ask for Kashmir) in mundane relgious functions in northern India. Increasingly public and aggressive display of religiosity seen elsewhere in India, is most clearly manifest in the annual Amarnath yatra. The yatra, seen as a mark of rigourous and serious religious commitment earlier, is now taken to be an assertion of Indian supremacy over the valley. Emboldened by this state support, Hindutva organisations have started inventing new Hindu pilgrimages in the valley. Increasing Hindutva aggression against Kashmiris can also be seen in the fatal attack on a trucker from the valley by gau rakshaks in Udhampur in October last year. In other parts of India Kashmiri students have been attacked and/or rusticated from universities for not being sufficiently 'nationalist'. Votaries of Hindutva see history, politics and social change in terms of the conflict between Hindus and Muslims. For them India’s control over Kashmir is a sign of victory of Hindus. As long as this control persists, no matter what price Kashmiris have to pay for it, they see no problem in Kashmir. This explains the utter lack of policy and strategy of the Modi government with regard to Kashmir and Pakistan. Modi's politics is based upon false bravado, loud mouthing, and theatrics. Peace in Kashmir, or with Pakistan, is none of its priorities.