Friday, July 22, 2016

कश्मीर के ताज़ा घटनाक्रम पर 'न्यू सोशालिस्ट इनिशिएटिव', दिल्ली चैप्टर का वक्तव्य

- न्यू सोशालिस्ट इनिशिएटिव

कश्मीर की घाटी फिर एक बार अशांत है। अपनी जिन्दगी की आम दिनों की दिनचर्या को छोड़ कर लोग सड़कों पर हैं। न केवल युवा बल्कि बच्चे और महिलाएं भी घरों से बाहर निकल कर भारतीय राज्य की सैन्य ताकत को चुनौती दे रहे हैं। पुलिस एवं सेना का बचा खुचा डर भी विलुप्त होता दिख रहा है। न केवल पुलिस थाने बल्कि सीआरपीएफ के शिविर भी हमले की जद में आए हैं। जनअसन्तोष से उर्जा ग्रहण करते हुए एक किस्म के जनविद्रोह की स्थिति बनती दिख रही है। एक सप्ताह के भीतर भारत के सुरक्षा बलों के हाथों चालीस लोगों की मौत हो चुकी है। पुलिस द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 'गैरप्राणघातक’ कहे जाने वाली छर्रों से सैकड़ों लोगों की आँखों को ही नहीं बल्कि तमाम अन्य किस्म की गंभीर शारीरिक हानि हुई है। जबकि लोग पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना का मुकाबला कर रहे हैं, कश्मीर में भारतीय राज्य के अन्य अंग - चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधि, नौकरशाही, विधानसभा एवं पंचायतों के चुने हुए सदस्य - सभी कहीं सार्वजनिक स्थानों पर दिख ना जाने के डर से कहीं दुबके हुए हैं। फिलवक्त़ कश्मीर की घाटी के लोग बनाम भारतीय राज्य की संगठित हिंसा की संस्थाओं के बीच ही टकराव तेज होता दिख रहा है।

हालांकि जनअसन्तोष के ताजे सिलसिले का फौरी कारण हिजबुल मुजाहिदीन के लड़ाके बुरहान वानी का मारा जाना है, लेकिन इस गुस्से का कारण और गहरा है और उसका लम्बा इतिहास है। कश्मीरी आवाम के आत्मनिर्णय के अधिकार को कुन्द किया जाना और उनका दमन इस विवाद की जड़ में है। इस दमन ने तमाम एकांतिक रूप ग्रहण किए हैं। बीते पचीस सालों से कश्मीर की घाटी दुनिया की सबसे सैन्यीकृत जगहों में शुमार हुई है। भारतीय सेना और अर्द्धसैनिक बलों से जुड़े पाँच लााख से अधिक लोग राज्य में और पाकिस्तान के साथ जुड़ी उसकी सरहद पर तैनात हैं। राष्ट्रीय राइफल्स और सीआरपीएफ के शिविर जगह जगह फैले हुए हैं। हाईवे पर जगह जगह बनाए गए चेकपाइंटस और कभी भी की जा सकनेवाली तलाशी कश्मीरी आम जीवन का हिस्सा बन चुकी है। हजारों लोग गायब हैं, जिन्हें सुरक्षा बलों ने उठा लिया है, और पूछताछ कैम्प के अंधकूप में गोया फेंक दिया गया है, जिनमें से कई फिर अचिन्हित कब्रों में पहुंच गये हैं। घृणित सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम/आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट ने भारत की सेनाओं को - गरिमामय जीवन जीने के आम कश्मीरियों के बुनियादी अधिकार पर हमला करने की - छूट प्रदान की है। अगर घाटी का आम निवासी चुनाव और प्रशासकीय पहल की भारतीय राज्य की आम दिनों की कार्रवाई से अपने आप को अलगाव में पड़ा पाता है, तो वह अपनी जमीन पर भारतीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति के खिलाफ गहरे रूप में क्षुब्ध है। यह असन्तोष व्यापक जनआन्दोलनों में बार बार फूटता रहता है।


हर बार भारतीय राज्य की किसी कार्रवाई ने जनअसन्तोष को भड़काने में चिंगारी का काम किया है। बीते समय अमरनाथ यात्रा ट्रस्ट को राज्य सरकार द्वारा जमीन हस्तांतरण का मसला वर्ष 2008 के व्यापक प्रदर्शनों की वजह बना। वर्ष 2009 मे कश्मीरी जनता शोपियां में दो महिलाओं के बलात्कार एवं हत्या के मसले के खिलाफ सड़कों पर उतरी। वर्ष 2010 का आक्रोश भारतीय सेना द्वारा की गयी तीन स्थानीय लोगों की हत्या और उन्हें सरहद पार के घुसपैठिये साबित करने के खिलाफ सड़कों पर फैला। अफजल गुरू को गोपनीय ढंग से दी गयी फांसी 2013 के जनाअन्दोलन की वजह बनी। सबसे शर्मनाक बात थी कि संप्रग सरकार ने अफजल गुरू की लाश को उसके परिवार को सौंपने से भी इन्कार किया था। जब भी पंचायत या विधानसभा के चुनाव सम्पन्न होेते हैं, या मिलिटेंसी से जुड़ी हिंसा की ख़बरें कम आने लगती हैं या कोई कश्मीरी युवा संघीय लोक सेवा आयोग के इम्तिहान में अव्वल स्थान पाता है, कथित मुख्यधारा का भारत, उसके राजनीतिक प्रतिष्ठान, मीडिया और बुद्धिजीवी समुदाय घाटी में ‘सामान्य स्थिति’ बहाल होने की बात करने लगते हैं। 

चुनावी सभाएं, राज्य द्वारा बांटी जानेवाली सहायता या अनुदान, प्रशासकीय कदम या कुछ व्यक्तियों की निजी कामयाबियां दरअसल उस दरार को पाट नहीं सकती, जो आम कश्मीरियों तथा जिसे ‘मुख्यधारा’ के भारतीयों का राजनीतिक समुदाय अपना राष्ट्र कहता है, उसके बीच बनी हुई हैै। नेहरू सरकार द्वारा शेख अब्दुल्ला की 1953 में की गयी गिरफ़्तारी के बाद से और 1991 के बाद घाटी में सेना की बढ़ती उपस्थिति के बाद से ही लगातार बढ़ती जा रही है और भारतीय राष्ट्र के बढ़ते हिन्दुत्वकरण के साथ वह लगभग न भरने लायक स्थितियों में पहुंची है।

भारत के नागरिकों को इस प्रक्रिया की तरफ और कश्मीर पर उसके प्रभावों के बारे में बारीकी से गौर करने की जरूरत है। उत्तर भारत के धार्मिक आयोजनों में यह नारा लगना कोई असामान्य नहीं है कि ‘दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे।’ अधिकाधिक यही देखने में आ रहा है कि भारत के बाकी हिस्सों में धार्मिकता का जो सार्वजनिक एवं आक्रामक प्रदर्शन होता है, वह सालाना अमरनाथ यात्रा में भी प्रतिबिम्बित हो रहा है। प्रस्तुत यात्रा जिसे अपनी गंभीर धार्मिक प्रतिबद्धता का प्रतीक माना जाता था, वह अब घाटी पर भारतीय वर्चस्व जाहिर करने का एक प्रतीक बन गयी है। सरकार द्वारा इसे मिल रहे समर्थन को देखते हुए हिन्दुत्ववादी संगठन घाटी में नए नए यात्राओं के स्थान ढूँढने में लगे हैं। कश्मीरियों के खिलाफ बढ़ते हिन्दुत्ववादी आक्रमण को हम पिछले साल अक्तूबर में उधमपुर में एक ट्रक चालक पर गोरक्षकों द्वारा किए गए जानलेवा हमले में भी देख सकते हैं। भारत के अन्य हिस्सों से कश्मीरी छात्र पूरी तरह ‘राष्ट्रवादी’ न होने के आरोपों में हमलों का शिकार हुए हैं या उन्हें वहां से निष्कासित भी किया जाता रहा है। हिंदुत्व सियासत के हिमायती इतिहास, राजनीति और सामाजिक बदलाव को हिन्दु और मुसलमानों के बीच के संघर्ष के रूप में देखते हैं। उनके लिए कश्मीर पर भारत का नियंत्रण हिन्दुओं के जीत की निशानी है। जब तक यह नियंत्रण बरकरार है, भले ही उसके लिए कश्मीरियों को जितनी भी कीमत चुकानी पड़े, वे कोई समस्या नहीं देखते। कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की नीति एवं रणनीति की भारी चूक इससे उजागर होती है। मोदी की राजनीति, छदम शौर्य, बड़बोलापन और नाटकीयता पर आधारित है। कश्मीर में शान्ति या पाकिस्तान के साथ सामान्य सम्बन्धों को बहाल करना उसकी प्राथमिकताओं में नहीं है।

जिस दिन सुरक्षा बलों ने बुरहान वानी की हत्या की, उसी दिन भारत की सर्वोच्च अदालत ने फर्जी मुठभेड़ों को लेकर तथा मणिपुर में आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट पर अपना फैसला सुनाया। अदालत ने साफ किया कि कानून और व्यवस्था की स्थिति का बहाना बना कर राज्य अपने ही नागरिकों के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार नहीं कर सकता या उसके सुरक्षा बलों को दंडमुक्ति के भय के बिना उसे मारने का अधिकार नहीं है। हालांकि यह बात संभव नहीं दिखती कि इस फैसले का कश्मीर, ‘उत्तर पूर्व’ या मध्य भारत (या ऐसे इलाके जहां भारतीय राज्य को हथियारबन्द विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है) की जमीनी स्थिति पर कुछ असर होगा, वह निश्चित ही जनतंत्रों मे नागरिकत्व की अन्तर्वस्तु पर एक स्पष्ट राय देता है, जिसका अनुपालन हथियारबन्द बग़ावत जैसी एकांतिक परिस्थितियों में भी जरूरी है। कश्मीर और भारत के कई अन्य स्थानों पर भारतीय शासकवर्गों की कार्रवाइयां दरअसल इस बात को उजागर करती हैं कि उन्हें भारत के संविधान का उल्लंघन करने में भी कोई गुरेज नहीं है। हजारों फर्जी मुठभेड़ें, महिलाओं पर हमले, जबरन विस्थापनों और अन्य कार्रवाइयां दरअसल इसी बात का प्रमाण हैं कि देश में भारतीय राज्य सबसे अधिक अधिनायकवादी, जनतंत्रा विरोधी और हिंसक ताकत के तौर पर मौजूद है।

हम कश्मीर के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ अपनी एकजुटता प्रगट करते हैं जो एक बहुलतावादी और जनतांत्रिक कश्मीर कायम करना चाहते हैं। कोई भी राजनीति, फिर वह चाहे उत्पीड़न विरोधी लोक राजनीति हो, वह जनतांत्रिक मूल्यों के सवालों से बच नहीं सकती। मानवीय स्थिति के अभीष्ट के तौर पर जनतंत्र के विचार का विस्तार दरअसल धर्मनिरपेक्ष संघर्षों का ही नतीजा है और राजनीतिक-धार्मिक संगठनो को उसमें कोई स्थान नहीं है। किसी भी सियासत में धर्म की अहमियत, विशेषकर राष्ट्रवादी राजनीति में, वह न केवल निरीश्वरवादियों बल्कि अन्य धर्मों के माननेवालों के खिलाफ पड़ती है, यह हम पाकिस्तान जैसे मुल्क पर निगाह डाल कर या भारत में हिंदुत्व की राजनीति में उभार में भी, देख सकते हैं। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक ताकतों की हिंसा और उनका अधिनायकवाद जो धर्म का इस्तेमाल करते हैं वह उन लोगो के जनतांत्रिक अधिकारों पर भी हमला करते हैं जिन्हें कथित बहुमत के धर्म के माननेवाले कहा जा सकता है। दरअसल आत्मनिर्णय का अधिकार जनतंत्र के विचार का विस्तार का हिस्सा होता है, जिस संभावना की पूर्ति भारतीय राज्य द्वारा इस भूभाग पर लम्बे समय से अधीनीकरण के चलते मुमकीेन नहीं हो सका है।

आखिर कश्मीर की आज़ादी का संघर्ष किस तरह आगे बढ़ेगा यह स्थूल रूप में कश्मीरियों द्वारा ही निर्धारित किया जाएगा। शेष भारतीयों का सबसे प्रमुख सरोकार यही होना चाहिए कि घाटी में भारतीय राज्य की राजनीति कैसी हो? जब भारतीय राज्य घाटी के लोगों के खिलाफ शेष भारत के आर्थिक तौर पर वंचित एवं सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित किसान समुदायों से भरती होने वाले सिपाहियों का इस्तेमाल करता है, तो वह एक ही तीर से दो निशाने साधता है। भारतीय राजनेताओं एवं मीडिया का अंध पाकिस्तान विरोध, भारतीय सेना के यह दावे कि उन्होंने कश्मीरी उग्रवाद पर काबू पा लिया है या भारत विरोधी प्रदर्शनों को लेकर जनता को थका देने की बात, यह सभी दावें भारतीय समाज के आंतरिक उत्पीड़न से मुक्ति का विकल्प नहीं हो सकते। कश्मीर दरअसल भारत के शासकों के हिंसक अधिनायकवाद और राजनीतिक चालबाजियों का सबूत है। अगर भारत के लोग अपने लिए जनतंत्र को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो उन्हें भारत की सरकार कश्मीर में जो कर रही है उसे चुनौती देनी चाहिए।

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