क्या केसरिया पलटन गाय के नाम पर फैलायी जा रही
संगठित हिंसा से कभी तौबा कर सकेगी
(न्यू
सोशलिस्ट इनिशिएटिव द्वारा जारी वक्तव्य )
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गोरक्षा के नाम पर स्वयंभू हथियारबन्द गिरोहों की अत्यधिक
सक्रियता, जिसमें
जबरदस्त तेजी भाजपा के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद आयी है, उसे
एक मुंहतोड़ जवाब पिछले दिनों गुजरात में मिला। जिस बेरहमी से शिवसेना से सम्बद्ध
एक गोरक्षक दल ने उना में दलितों के समूह पर हमला किया, (11 जुलाई
2016) जो
मरी हुई गाय की खाल उतार रहे थे, उन्हें सार्वजनिक तौर पर पीटा और गोहत्या का
आरोप लगा कर उन्हें पुलिस स्टेशन तक ले गए और इस समूची घटना का विडिओ बना कर सोशल
मीडिया पर भी डाला ताकि और आतंक फैलाया जा सके, उस घटना ने जबरदस्त गुस्से को जन्म दिया है।
हजारों हजार दलित सूबे के अलग अलग हिस्सों में सड़कों पर
उतरे हैं, उन्होंने
सरकारी दफ्तरों का घेराव किया है, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया है, पूरे
राज्य स्तर पर बन्द का आयोजन किया है और सरकार को झुकाने की कोशिश की है। उन्होंने
दोषियों को सख्त सज़ा देने की सरकार से मांग की है और साथ ही साथ उन पुलिस एवं
प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है, जिन्होंने
दलितों की शिकायत की अनदेखी की, जब उन्हें प्रताडित किया जा रहा था।
प्रतिरोध कार्रवाइयों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। दलित अभी
भी गुस्से में हैं। विरोध रैलियांे का अभी भी आयोजन हो रहा है।
उना में दलित अत्याचार की घटना का विरोध करते हुए लगभग तीस
दलित युवकों ने एक सप्ताह के अन्दर आत्महत्या करने की कोशिश की है। अलग अलग
राजनीतिक दलों के लोगों ने दलितों से अपील की है कि वह ऐसे कदम को न उठाएं और
शान्तिपूर्ण तरीके से संघर्ष जारी रखें। निस्सन्देह, उना की घटना और उसके बाद नज़र आए दलित आक्रोश ने
एक तरह से दलित आन्दोलन के एक नए मुक़ाम का आगाज़ किया है क्योंकि दलितों को यह बात
अन्ततः समझ में आयी है कि हिन्दुत्व की सियासत किसी भी मायने में दलितों की हितैषी
नहीं है और वह शुद्धता और प्रदूषण पर आधारित जाति व्यवस्था को अधिक मजबूत करती है।
हिन्दुत्व की राजनीति के साथ दलितों का बढ़ता मोहभंग उस घटना में भी उजागर हुआ जब
विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला मोदी के गृहनगर वाडनगर में पहुंचा जहां हजारों दलितों
ने उग्र प्रदर्शन में हिस्सा लिया और दलितों पर अमानवीय अत्याचार के लिए
प्रधानमंत्राी मोदी और भाजपा को सीधे जिम्मेदार ठहराया। इस घटना के विडिओ दिखाते
हैं कि प्रदर्शन में शामिल दलित ‘हाय रे मोदी .... हाय हाय रे मोदी’ का
नारा लगा रहे थे - यह उस नारे का संशोधित रूप था जिसे महिलाएं हिन्दुओं के अंतिम
संस्कार के प्रदर्शन में लगाती हैं। दलितों के इस गुस्से ने
अस्सी के दशक की शुरूआत में दलितों की पुरानी पीढ़ी के लोगों द्वारा किए गए लड़ाकू
प्रदर्शनों की याद ताज़ा कर दी जब वे आरक्षण की नीति की हिमायत में सड़कों पर उतरे
थे और उन्होंने हिन्दुत्ववादी संगठनों का सीधे मुकाबला किया था।
यह समूची उथलपुथल आम दलितों के लिए भी - जिनकी आबादी लगभग
आठ फीसदी तक है और जो लम्बे समय से हिन्दुत्ववादी संगठनों के नफरत एवं असमावेश के
प्रोजेक्ट में लगभग समाहित थे - सीखने का अनुभव रहा है। प्रदर्शनकारियों द्वारा
अपनाए गए संघर्ष के एक रूप ने सत्ताधारी तबके को काफी बेचैन किया है और जिस रूप के
राष्ट्रीय स्तर पर फैलाव की सम्भावना बनती है। इसके तहत उन्होंने मरी
हुई गायों को लाकर सरकारी दफ्तरों जानेमाने नेताओं के घरों के सामने फेंका है, जिन्हें
वहां से हटाना भी प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हुआ है। दलितों के अच्छे खासे
हिस्से ने मरी हुई गायों को उठाना भी बन्द कर दिया है और यह ऐलान भी कर दिया है कि
अब वह भले ही
भूख से मर जाएं मगर इस पेशे को कभी नहीं अपनाएंगे। दरअसल, इस
कदम से दलितों ने मनुवादी/ब्राहमणवादी ताकतों को एक चेतावनी दी है कि जिस दिन वह
उन ‘गन्दे’ कामों
को करना बन्द कर देंगे, जिसके लिए उन्हें लांछन लगाया जाता है, वर्ण
समाज के लिए प्रलय जैसी स्थिति पैदा होगी। संघर्ष के इस रूप की अगुआई कर रहे एक
कार्यकर्ता ने एक पत्रकार से बात करते हुए कहा कि उन्होंने यह कदम इसलिए उठाया है
ताकि स्वयंभू गोभक्तों को सबक सीखाया जा सकेः ‘गोरक्षक हम पर हमला करते हैं क्योंकि वह समझते
हैं कि गाय उनकी माता है, ठीक है, अब उन्हें चाहिए कि अपनी माता की सेवा करे औरजब वह मरे तो उसकी लाश को उठाएं।’ (
मीडिया के अलग अलग हिस्सों में प्रकाशित फैक्ट फाइंडिंग
रिपोर्टें बताती हैं कि किस तरह पुलिस ने इन अत्याचारियों को रास्ते में नहीं रोका
और मामूली प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाने के लिए घंटों बरबाद किए। ऐसी अपुष्ट ख़बरें
भी मिली हैं कि स्थानीय पुलिस ने गोरक्षक दल को खुद सूचित किया था कि मरी हुई गाय
की खाल उतारी जा रही है। समूचे मामले में स्थानीय पुलिस की संलिप्तता एवं सांठगांठ
इस बात से भी उजागर होती है कि विडिओ के रूप में समूची घटना के प्रमाण मौजूद होने
के बावजूद - जो उजागर करते हैं कि दलितों पर सार्वजनिक अत्याचार की इस घटना में
तीस से अधिक लोग शामिल थे - उसने सिर्फ आठ लोगों को गिरफतार किया है और यह
प्रमाणित करने में लगी है कि यह अपवादात्मक घटना है।
दलितों के बढ़ते आक्रोश ने, जिस दौरान राज्य सरकार गोया शीतनिद्रा में रही, उसने
ऐसी तमाम अन्य घटनाओं को उजागर किया है जब गोरक्षकों ने दलितों पर हमले किए थे और
पुलिस ने पीड़ितों की शिकायत लेने में भी नानुकुर की थी। इस घटना ने दलितों के
रोजमर्रा के अपमान एंव भेदभाव, सामाजिक जीवन में मौजूद व्यापक अलगाव एवं
अस्प्रश्यता, बुनियादी
मानवाधिकार से उन्हें किया जा रहा इन्कार और हाल के वक्त़ में अत्याचारों की
घटनाओं में हुई जबरदस्त बढ़ोत्तरी की परिघटना को नए सिरेसे रेखांकित किया है और इस
बात को भी दर्शाया है कि किस तरह इस बढ़ते आतंक को रोकने के लिए अधिक सक्रिय कदम
उठाने के मामले में सत्ताधारी जमातें असफल रही हैं।
गोरक्षकों की आपराधिक कार्रवाइयां और दंडमुक्ति के जिस बोध
के साथ वह कानून को अपने हाथ में लेते दिख रहे हैं - जो मामला राष्टीय सूर्खियों
में आया है - वह एक ऐसा अवसर भी रहा है कि प्रशासन में उच्च पद पर बैठे अधिकारीगण
इस आतंक के बारे में खुल कर बोलते दिख रहे हैं। पिछले दिनों सूबा गुजरात के मुख्य
सचिव जी आर ग्लोरिया ने एक राष्टीय स्तर के अख़बार को बताया ’...यह स्वयंभू गोरक्षक दरअसल वाकई में अपराधीतत्व
हैं’।
उनके मुताबिक गुजरात में गाय के नाम पर दो सौ से अधिक ऐसे हथियारबन्द समूह बने हैं, जो ‘अपने
आक्रामक व्यवहार और जिस तरह वह कानून को अपने हाथ में लेते हैं’ उस
वजह से कानून और व्यवस्था के लिए चुनौती बने हैं और सरकार उनके खिलाफ सख्त
कार्रवाई करनेवाली है। मुख्य सचिव ने इस बात की भी ताईद की कि पुलिस विभाग में
नीचले पदों पर तैनात लोग इन हथियारबन्द गिरोहों के साथ सांठगांठ रखते हैं।
इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि कुछ वक्त़ पहले
पंजाब-हरियाणा उच्च अदालत ने भी एक अन्य गोरक्षा दल के हाथों कुरूक्षेत्र में एक
ट्रांसपोरटर मुस्तैन की हत्या की सीबीआई जांच का आदेश देते हुए /मार्च 2016/ गोरक्षकोंके बढ़ते अपराधीकरण का विशेष उल्लेख किया था, जो दंडमुक्ति के भय से काम करते हैं। अदालत का
कहना था कि कथित गोरक्षक समूह, जो राजनेताओं और राज्य के संचालन में मुब्तिला
वरिष्ठ कर्मियों की शह पर बने हैं, जिनमें पुलिसवाले संलग्न हैं
‘‘वह कानून को तोड़ने पर आमादा रहते हैं और अपने
निजी फायदे या अन्य कारण के लिए जानवर ढोनेवाले गरीब लोगों का दोहन करते हैं। ..
उपरी तौर पर देखें तो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी इन गोरक्षा समूहों के साथ मिले
दिखते हैं।
Image: http://www.gaurakshadalharyana.org/ |
दलितों का जो गुस्सा गुजरात की सड़को पर दिखाई दिया - जिसे
विश्लेषकों के एक हिस्से ने दलित विद्रोह के तौर पर भी सम्बोधित किया - उसका देश
के बाकी हिस्सों में भी असर हुआ है और उसने समूचे संसदीय विपक्ष को अपनी एकजुटता
कायम करने का मौका दिया है जिसने यह मांग की है कि ऐसे गोरक्षा समूहों पर तत्काल
पाबंदी लगनी चाहिए और ऐसे तमाम असामाजिक तत्व जो इसके नाम पर फल-फूल रहे हैं, उन
पर अंकुश लगना चाहिए। संसद के पटल पर ऐसे हथियारबन्द गिरोहों की भर्त्सना हुई है, जो
मुसलमानों के साथ साथ दलितों को भी निशाना बना रहे हैं, जो
उनके साथ मारपीट कर रहे हैं और कभी उनको जान से भी खतम कर रहे हैं। सांसदों ने इस
बात को भी कहा कि किस तरह मौजूदा सत्ताधारियों की नीतियां और कार्यक्रमों ने ऐसे
समूहों को अवसर प्रदान किया है और क्यों नहीं इन समूहों पर पाबन्दी लगायी जाती।
दरअसल जिस तरह गाय को राजनीति के केन्द्र में लाया जा रहा
है, जहां
महज यह अफवाह कि उसकी कहीं हत्या हो रही है आततायी तत्वों को गोया कानून अपने हाथ
में लेने की छूट देती हैं, जहां पुलिस एवं प्रशासन के लोग भी शामिल रहते
हैं, इस
समूची परिघटना की तुलना पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के ‘ईशनिंदा के अपराध’ से
की जा रही है। इसके तहत पाकिस्तान में कई बेशकीमती लोग मार दिए गए हैं और तमाम लोग
आज भी जेल में सड़ रहे हैं क्योंकि पाकिस्तान सरकार उन धार्मिक अतिवादियांें पर
अंकुश लगाने में विफल हुई है जिनके लिए ईशनिन्दा के नाम पर बना कानून मासूमों को
प्रताडित करने का जरिया बना है। यह चिन्ता भी प्रगट की जा रही है कि क्या भारत भी ‘पाकिस्तान’ के
रास्ते चलेगा - जहां वह राजनीति में सेक्युलर सिद्धान्तों का छीजन नहीं रोक पा रहा
है और सामाजिक-राजनीतिक जीवन में आस्था के लिए अधिक वैधता सुगम कर रहा है।
बिहार के पूर्वमुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा उनाघटना के मददेनज़र प्रधानमंत्री मोदी को लिखा खुला पत्र देश के मौजूदा माहौल को
ठीक से प्रस्तुत करता है जहां वह साफ लिखते हैं कि '..यह जो गौ-सेवा और गौ रक्षा के नाम पर
कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह हिंसक तथाकथित गौ-रक्षक दल इत्यादि पनप रहे हैं, इस
आग के पीछे सबसे बड़ा हाथ आरएसएस और आपका ही है.
पहले लोकसभा चुनाव और हाल ही में हुए बिहार विधानसभा
चुनावों में जिस गैर जिम्मेदारी से पिंक रिवोल्यूशन, गौ मांस, गाय पालने वाले और गाय खाने वाले आदि गैर जरूरी
बातों पर समाज तोड़ने वाले भड़काऊ भाषण दिए गये थे, उन्हीं का यह असर है कि आज किसान खरीद कर गायों
को गाड़ी में लादकर ले जाने से भी डरता है. जाने रास्ते में कौन उन्हें गौ रक्षा के
नाम पर घेर कर पीट दे या जान ही ले ले.
आपने तो लोगों को बांटकर, जहर रोपकर वोटों की खूब खेती की और जो चाहते थे
वो बन गए. पर आपका बोया जहर रह-रह जातिवादी और सांप्रदायिक सांप का रूप धर, समय-समय
पर उन्मादी फन उठाता है और देश की शांति और सौहार्द को डस कर चला जाता है. मुझे
अत्यंत दुःख है कि मुझे अपने देश के प्रधानमन्त्री को यह बताना पड़ रहा है कि यह आग
आपकी ही लगाई हुई है. इस आग में भस्म होकर जो गौपालक, किसान
बन्धु, दलित, आदिवासी
और अल्पसंख्यक मर रहे हैं, उसके दोषी सिर्फ आप, आपकी
पार्टी और आपकी असहिष्णु विचारधारा की जननी संघ है.
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ - जो अब उना की घटना के बाद
राजनीतिक नुकसान का आकलन करने में लगे हैं और उसके चुनावी प्रभावों का आकलन कर रहे
हैं, इसी
दौरान भाजपा के एक वरिष्ठ नेता द्वारा बहुजन समाज पार्टी की
नेत्राी सुश्री मायावती - जो उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्राी रह चुकी हैं - को निशाना
बना कर की गई नारीद्रोही टिप्पणियों ने गोया आग में घी का काम किया है। यह अलग बात
है कि इन टिप्पणियों को लेकर संसद के पटल पर भाजपा के वरिष्ठ नेताओं द्वारा ‘खेद’ प्रगट
किए जाने की बात भी एक किस्म का छलावा साबित हुई है क्योंकि बसपा के एक अन्य
नेता द्वारा की गयी वैसी ही विवादास्पद टिप्पणियों का इस्तेमाल करते हुए वह जमीनी
स्तर पर वह आक्रामक रवैया अख्तियार करते दिख रहे हैं।
पड़ोसी राज्य महाराष्ट जहां सत्तासीन भाजपा-शिवसेना की सरकार
द्वारा अम्बेडकर भवन को गिराये जाने की घटना - जिस कदम को लेकर जैसे विरोध उग्र हो
रहा है वैसे महाराष्ट सरकार उसे लेकर खेद प्रगट करने को मजबूर हुई है - से उठे
उद्वेलन की बातें अब चल ही रही हैं या हैद्राबाद सेंट्रल युनिवर्सिटी
में रिसर्च स्कॉलर रोहिथ वेमुल्ला की ‘संस्थागत हत्या’ और उस समूचे प्रसंग मंे कुछ केन्द्रीय
मंत्रियों की विवादास्पद भूमिका के बाद उभरे राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन
के अभी चर्चे कायम ही हैं या संघ भाजपा के नेताओं के दलित विरोधी बयानों एवं
कार्रवाइयों के सिलसिले या दलितों एवं आदिवासियों के लिए आरक्षण की नीति पर
पुनर्विचार करने की उनके अग्रणियांे की बातें - आदि की पृष्ठभूमि में फूट पड़े
दलितों के इस आक्रोश ने अखिल भारतीय स्तर पर दलितों के बीच आधार व्यापक बनाने की
हिन्दुत्व ब्रिगेड की सुनियोजित रणनीति को जबरदस्त धक्का पहुंचा है। निःस्सन्देह
दलित आक्रोश ने न केवल राज्य एवं केन्द्र के स्तर पर उन्हें बचावात्मक
पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर किया है बल्कि एक ‘हिन्दू
समाज सुधारक’ घोषित
करते हुए डा अम्बेडकर को अपनी राजनीति में समाहित करने की योजना को भी फिलवक्त
धराशायी किया है।
हिन्दू एकता को लेकर उनके जो भी दावे हों, यह
घटना - जिसे अपवाद नहीं कहा जा सकता और जो दलितों को बुनियादी मानवाधिकार से वंचित
करने, उन्हें
प्रताडित करने और उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी कार्रवाइयों में तूफानी दस्तों के तौर
पर इस्तेमाल करने के लम्बे सिलसिले का ही एक हिस्सा है - उसने असमावेश और नफरत पर
टिकी उनकी मनुवादी/ब्राहमणवादी विचारधारा के सारतत्व को ही बेपर्द किया है। दरअसल
उनका विश्वनज़रिया दलितों के सशक्तिकरण/मुक्ति या समावेशी विकास की किसी किस्म की
दृष्टि /विजन के प्रतिकूल बैठता है। और प्रस्तुत घटना और उसके बाद
उमड़े जनाक्रोश ने इसे फिर एक बार प्रमाणित किया है कि मामूली बहानों का इस्तेमाल
करते हुए जमीनी स्तर पर दलितों और मुसलमानो के बीच तनाव बढ़ाने की उनकी तमाम
कोशिशों के बावजूद, हिन्दु
राष्ट्र के उनके नज़रिये में दोनों की हैसियत एक जैसी ही है। एक ऐसे
राज्य में, जहां
विगत पन्दरह सालों से हिन्दुत्व की ताकतें हुकूमत में हैं, और
जिसे उन्होंने 2014 में हुए संसदीय चुनावों के पहले विकास के ‘गुजरात
मॉडल’ के
तौर पर प्रस्तुत किया था, वहां दलितों द्वारा प्रगट अभूतपूर्व गुस्से ने
उन्हें अन्दर तक हिला दिया है और वह समाधान की बदहवास कोशिशों में लगे हैं।
उन्होंने महसूस किया है कि दलित अवाम का यह उभार विभिन्न राज्य विधानसभाओं - पंजाब, उत्तर
प्रदेश और गुजरात आदि - के आसन्न चुनावों में जो 2017 में सम्पन्न होने हैं, उनके
तमाम राजनीतिक समीकरणों को बिगाड़ देने की क्षमता रखता है।
‘दलित विद्रोह’ के वर्तमान चरण का एक अन्य विवादास्पद पहलू
मीडिया की भूमिका को लेकर सामने आया है जिसने (अपवादों को छोड़ दें तो) एक तरह से
हिन्दुत्व की असमावेश केन्द्रित राजनीति का प्रवक्ता बनना कुबूल किया है। अगर हम
कार्पोरेट नियंत्रित और उनकी मिल्कियत वाले मीडिया द्वारा किए जानेवाले घटनाओं के
कवरेज को देखें तो पता चलता है कि उसने उन तमाम विशाल दलित लामबन्दियों की
वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट देने से लगातार इन्कार किया है, जिसने हिन्दुत्व की राजनीति को चुनौती दी है
तथा उस पर सवाल खड़े किए हैं। वर्णमानसिकता के प्रभुत्ववाले उनके दलितद्रोही
दृष्टिकोण का एक प्रातिनिधिक उदाहरण हाल में ही सामने आया था जब
उन्होंने मुंबई में भाजपा-शिवसेना सरकार द्वारा अम्बेडकर भवन को गिराये जाने की
घटना के खिलाफ वहां की सड़कों पर उतरे डेढ लाख से अधिक के जनसैलाब को अपने कवरेज
में कोई अहमियत नहीं दी थी। मीडिया के जनतंत्र का प्रहरी होने की बात जो बार बार
की जाती है, घटनाओं
के समाचार देने और विश्लेषण में उसके वस्तुनिष्ठ होने की जो बात की जाती है, मगर
यहां यह नज़र आ रहा है कि सत्ताधारी जमातों के एक प्रवक्ता के तौर पर उनके रूपांतरण
में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। निश्चित ही यह ऐसी स्थिति है जो आपातकाल से भी बुरी
है जब ‘उन्हें झुकने
के लिए कहा गया था और वह रेंगने लगे थे ।’
इस बात पर जोर दिया जाना जरूरी है कि गोरक्षा के नाम पर बने
इन हथियारबन्द समूहों की आक्रामक कार्रवाइयों का दायरा दलितों तक सीमित नहीं है, दरअसल, मुसलमान
उनके निशाने पर मुख्य तौर पर रहे हैं - जैसा कि विगत दो साल की घटनाओं पर सरसरी
निगाह डाल कर पता किया जा सकता है। इनमें सबसे ताज़ी घटना की रिपोर्ट गुड़गांव से
आयी थी जब दो मुसलमान टान्स्पोर्टरों पर एक गोरक्षक समूह ने हमला किया और उन्हेंगोमूत्र में सना गोबर खाने के लिए मजबूर किया - जब उन्होंने पाया कि उनके वाहन में
कुछ पशु मौजूद थे। प्रस्तुत घटना का एक विडिओ भी वायरल हुआ है जिसमें समूह का नेता
कैमेरा पर दावा करता है कि इन ‘तस्करों को उनके पापों से मुक्त करने के लिए
उन्होंने इस काम को अंजाम दिया। और चूंकि सूबा हरियाणा में
भाजपा का शासन है - जो वहां होमगार्ड के तर्ज पर ‘गोसुरक्षा दल’ के गठन के बारे में विचार कर रहा है और उसने ‘गोतस्करी’ को
काबू में करने के लिए आई ए एस स्तर का एक विशेष अधिकारी नियुक्त किया है, इन
अत्याचारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
अभी पिछले साल की ही बात है जब पलवल, हरियाणा
में साम्प्रदायिक दंगे जैसी स्थिति उत्पन्न हुई। इस घटना का फौरी कारण था गोरक्षा
के नाम पर बने इन हथियारबन्द समूहों ने मीट ले जाने वाले एक ट्रक पर
हमला किया और यह अफवाह फैला दी कि उसमें गोमांस/बीफ ले जाया जा रहा है। पुलिस वहां
तुरंत पहुंची और हमलावरों के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय उन्होंने ट्रक के
चालक एवं मालिक के खिलाफ आपराधिक षडयंत्रा की धारा के तहत मुकदमा दर्ज किया और
उन्हें जेल भेजा। अगले ही दिन सरकार ने ऐलान किया कि ‘गोरक्षकों’ पर
पहले दर्ज मामलों को वापस लिया जाएगा और एक तरह से इस बात का संकेत दिया कि भविष्य
में ऐसी घटनाएं हो तो उन्हें कोई चिन्ता नहीं होगी।
पिछले साल दिसम्बर के अन्त में, जिला
करनाल /हरियाणा/ के बनोखेड़ी गाव में एक मिनी टक पर ‘गोरक्षा के नाम पर बने ऐसे समूहों द्वारा गोली
चलाये जाने की घटना हुई जिसमें सिर्फ लोग सवार थे - इनमें से अधिकतर अल्पसंख्यक
समुदाय से ताल्लुक रखते थे और जो राज्य मंे होने वाले पंचायत चुनावांे में भाग
लेने के लिए पंजाब से उत्तर प्रदेश जा रहे थे। /देखें, लोक
लहर, 14 दिसम्बर 2015/ गोली चलाने की इस घटना में एक युवक की मौत हुई
और कई लोग बुरी तरह घायल हुए। गोरक्षकों ने इस टक पर मध्यरात्रि के वक्त़ हमला
किया था और अधिक चिन्तनीय बात थी कि इस समूह के साथ कुछ पुलिसवाले भी चल रहे थे।
इस घटना को लेकर जब हंगामा हुआ तब पांच लोग गिरफतार हुए जिनमें दो पुलिसवाले भी
शामिल थे।
गोरक्षा के नाम पर बने इन समूहों का आतंक किसी खास इलाके या
राज्य तक सीमित नहीं है, वह समूचे देश में फैला है। कुछ माह पहले ऐसे ही
एक गिरोह ने अल्पसंख्यक समुदाय के दो युवकों को /जिनमें से एक अल्पवयस्क था/
लतेहार, झारखण्ड
में बुरी तरह यातनाएं देकर पेड़ पर फांसी पर लटका दिया था क्योंकि वह युवक मवेशी का
व्यापार करते थे और गोरक्षक उन्हें ‘सबक सीखाना चाह रहे थे।’ हिमाचल
प्रदेश के जिला नाहन का साराहन गांव अल्पसंख्यक समुदाय के युवकों के एक समूह पर
ऐसे ही एक गोरक्षक गिरोह के हमले का प्रत्यक्षदर्शी बना था, जिसमें
एक युवक की मौत हुई थी और चार अन्य को गंभीर चोटें आयी थीं। /अक्तूबर 2015/ गोरक्षकों
ने आरोप लगाया कि यह युवक गोतस्करी में लिप्त थे। पिछले साल ऐसे ही एक समूह ने
कश्मीर की ओर जा रहे एक टक पर रात में उधमपुर में पेटोल बम से हमला किया था जिसमें
जाहिद नामक युवक /उम्र 19 वर्ष/ जलने के चलते भयानक पीड़ा भरी मौत हुई थी
और उसके साथी घायल हुए थे। यह अकारण नहीं कि कुछ माह पहले जम्मू और कश्मीर की
मुख्यमंत्राी सुश्री मेहबूबा मुफ़्ती ने पंजाब के मुख्यमंत्री को बाकायदा पत्र लिखकर बताया कि किस तरह राज्य के मीट निर्यातक और व्यापारियों को स्वयंभू
गोभक्तों से नियमित तौर पर प्रताडित किया जा रहा है और इस मामले में दखलंदाजी करने
की उनसे अपील की थी।
यह उम्मीद करना बेवकूफी होगी कि भाजपा - जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ का आनुषंगिक संगठन है - गोरक्षा के नाम पर चले इन गिरोहों पर अंकुश लगाएगी
क्योंकि दलितो का एक हिस्सा उनके द्वारा अंजाम दी गयी घटना से उद्वेलित है या
न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के नुमाइन्दे संवैधानिक मूल्यों और सिद्धांतों की
उनके द्वारा की
जा रही खुलेआम अवहेलना को लेकर चिंतित हैं या देश की अमन और इन्साफपसंद अवाम
प्रचारक से प्रधानमंत्राी बने जनाब मोदी को इस बात की याद दिला रही है कि अपना
पदभार ग्रहण करते हुए उन्होंने ‘संविधान के सबसे पवित्रा किताब होने की बात’ कही
थी।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि संघ परिवार, आनुषंगिक
संगठनों के अपने विशाल नेटवर्क के जरिए संचालित होता है - जिनके बीच आपसी श्रम
विभाजन होता है - ताकि हिन्दु राष्ट्र के अपने एजेण्डा को आगे बढ़ाया जा सके। दरअसल वह
कोईभी कसर बाकी नहीं रखेगा ताकि जनता का ध्यान उनकी बुनियादी वर्णमानसिकता की तरफ
न जाए जो यह बात स्वीकारने के लिए भी तैयार नहीं होते कि दलितों के दावेदारी की
जड़े सदियों पुरानी जाति व्यवस्था की संरचना में छिपी हैं। वे उन तमाम आवाज़ों को
खामोश करने के लिए किसी भी सूरत तक जा सकते हैं, जो उन्हें प्रश्न कर रही हैं, उन्हें
चुनौती दे रही है और ‘विजय के उनके पथ’ में बाधाएं खड़ी करने की क्षमता रखती हैं। ऐसी
तमाम आवाज़ों के लिए आनेवाले दिन किस तरह चुनौती भरे हो सकते हैं इसका अन्दाज़ा हम
गुजरात में दलित अत्याचारों को लेकर राजधानी दिल्ली में आयोजित धरने पर ऐसे एकसंगठन द्वारा किए गए हमले में देख सकते हैं जिसे हिन्दुत्व ब्रिगेड का करीबी कहा
जा रहा है।
गुजरात के ‘मॉडल राज्य’ में दलितों पर हो रहे हमले या दलितों पर
अत्याचार की घटनाओं में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी उन तमाम दलित नेताओं के सामने एक
उलझन भरा सवाल पेश करती है जिन्होंने मोदी के सत्तारोहण के पहले उनके साथ जुड़ना
कबूल किया था और एक तरह से गुजरात दंगों के दिनों में /2002/ जब
वह मुख्यमंत्राी थे, उनकी
विवादास्पद भूमिका के साफसुथराकरण में भूमिका अदा की थी। क्या अब भी आठवले, उदित
राज और पासवान जैसे लोग सत्ता से चिपके ही रहेंगे, कुछ पद पाकर सन्तुष्ट रहेंगे और इस दलित विरोधी
और उत्पीड़ित विरोधी हुकूमत की वास्तविकता उजागर न हो इस मुहिम में जुटे रहेंगे या
वह गुजरात की सड़कों पर दलितों द्वारा दिए गए उदघोष को सुनेंगे कि बिना राष्टीय
स्वयंसेवक संघ और मोदी की अगुआईवाली भाजपा से टकराव लिए दलित मुक्ति की कल्पना भी
नहीं की जा सकती।
उजागर होता दलित आक्रोश दलित आन्दोलन के सामने भी
महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित करता है। क्या सड़कों पर फूट पड़ता यह आक्रोश यूं ही
विलुप्त हो जाएगा या वह जाति उन्मूलन और पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के अम्बेडकरवादी
सियासत के रैडिकल एजेण्डा को पुनर्जीवित कर सकेगा और समानधर्मा ताकतों के साथ
व्यापक गठबन्धन कायम करते हुए मनुवादी/हिन्दुत्ववादी ताकतों के सामने एक
व्यवस्थागत चुनौती पेश कर सकेगा। बहुजन समाज पार्टी जैसे संगठनों को - जो अपने आप
को दलितों की पार्टी कहते हैं - उन्हें इस मसले पर अभी बहुत कुछ जवाब देने हैं।
निस्सन्देह गोरक्षा के नाम पर स्वयंभू गिरोहों की
कारगुजारियां और दलितों एवं अल्पसंख्यकों पर ऐसे गिरोहों के हमलों को लेकर
प्रधानमंत्राी की चुप्पी ने मौजूदा हुकूमत के वास्तविक एजेण्डा को और बेपर्द किया
है। विश्लेषकों का अनुमान है कि अपने दलितद्रोही नज़रिये की भारी कीमत उसे आनेवाले
चुनावों में चुकानी पड़ेगी। यह बात वैसे अभी भी अस्पष्ट है कि किस तरह वे तमाम
ताकतें, संगठन
जो हिन्दुत्व के एजेण्डा की मुखालिफत करते हैं और जो देश में धर्मनिरपेक्षता की
हिमायत करने के लिए प्रेरित है तथा जनतंत्रा के जमीनी स्तर पर अधिकाधिक विस्तार के
लिए प्रतिबद्ध हैं, वह
क्या रणनीति बना रहे हैं ताकि हिन्दुत्व के असमावेशी एजेण्डा को न केवल चुनावों के
स्तर पर बल्कि सामाजिक स्तर पर भी शिकस्त दी जा सके और वाम की ताकतें ताजे़ दमखम
के साथ इसमें क्या भूमिका निभा रही हैं। यह बात अभी देखी जानी बाकी है कि
हिन्दुत्व की सियासत जिस तरह देश के लिए ख़तरा बन कर उपस्थित हैं, उस
परिस्थिति की गंभीरता को समझते हुए क्या जमीनी स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक ताकतों का
समानान्तर गठजोड़ सामने आ सकेगा ?
मौजूदा समय देश के अपने इतिहास में एक ऐसा अवसर है, जो
प्रचण्ड संभावनाओं से भरा है और इन्कलाबी वाम से यह अपेक्षा की जाती है कि वह तेजी
से बदलती इस परिस्थिति में अपने स्रजनात्मक, उर्जावान और रणनीतिक हस्तक्षेप को आगे बढ़ाए।
इस सम्बन्ध में तीस के दशक में फासीवादी विरोधी संघर्ष के
दिनों में उठे ऐतिहासिक नारे को याद कर सकते हैं जब ऐलान किया गया था कि ‘फासीवाद
को आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा।’ (फासीजम विल नाट पास) वह ऐसा वक्त़ था जब
कम्युनिस्टों, अराजकतावादियों, समाजवादियों
और गणतंत्रावादियों का संयुक्त मोर्चा बना था और जो कंधे से कंधा मिला कर लड़ रहे
थे और जिनका साथ देने के लिए नगरों और गांवों से भी आम लोग पहुंच रहे थे क्योंकि
सबने इस बात को बखूबी समझा था कि फासीवाद की जीत के स्पेन के लिए क्या मायने हो
सकते हैं।
अब शायद जरूरत है कि ऐसे तमाम अनुभवों से सीखने की और 21 वीं
सदी में उसके संस्करण का मुकाबला करने के लिए अधिकतम व्यापक एकता कायम करने की और
जोरदार ऐलान करने की कि ‘साम्प्रदायिक फासीवाद को रोक दिया जाएगा।’
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