Sunday, November 20, 2016

अमेरिकी चुनाव :- डोनाल्ड ट्रंप के जीत के असली मायने



स्वदेश कुमार सिन्हा

 नयी राजनीतिक व्यवस्था का जन्म ट्रंप की जीत ने सारे अनुमान ध्वस्त कर दिये दुनियॉ चिंता से अमेरिका की ओर देख रही है।
                                                               "वालस्ट्रीट जर्नल"

डेमोक्रेटछात्र और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोगी अब ट्रंप के राष्ट्रपति शासन की हकीकत का सामना करेंगे। कही दुख और कही खुशी क्योकि जिस प्रकार की किसी ने कल्पना नही की थी वह सामने है। 
                                                              “न्यूयार्क टाइम्स”

अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में 70 वर्षीय व पूँजीपति उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की भारी बहुमत की विजय ने ना केवल अमेरिका को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को चौकाया है। अमेरिकी लोकतंत्र के लम्बे इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि राष्ट्रपति के शपथग्रहण के पूर्व ही उसके विरोध में प्रदेर्शन शुरू हो गये हो और सम्पूर्ण राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया चिन्तित हो गया हो। अब वे जब चुनाव जीत गये हैं ते हमारे सामने एक अन्य तरह की दिक्कत है। पूरी दुनियॉ जानती है कि महिलाओेंप्रवासियों और अल्पसंख्यको के बारे में उनके विचार और कुविचार क्या उनके चाल चरित्र और चेहरे के तमाम कारनामें पिछले कुछ समय से पूरी दुनियॉ के लगातार दिखलाये और बतलाये जाते रहें है। तमाम खबरो में उन्हे या तो विदूषक बनाया जाता रहा या खलनायक। इस तरह की बातें तकरीबन हर जगह चुनाव प्रचार का एक हथकण्डा होती है लेकिन दिक्कत यह है कि इन्हे छोड़ भी दे ते हम उस शख्स के बारे में कुछ नही जानते जो अब दुनियॉ की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था और सबसे मजबूत फौजी ताकत का मुखिया बनने जा रहा है। अमेरिकी समाचार पत्र न्यूयार्क टाइम्स ने उन्हे अमेरिका के इतिहास में ऐसा प्रसिडेण्ट इलेक्ट’ कहा हैजो इस पद के लिए सबसे कम तैयार है।

Courtesy- fusion.ne


अमेरिका में उदारवाद बनाम अनुदारवाद :-

उनकी जीत का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि जो लोग इस वैश्विक सच्चाई से अवगत है कि सारे विश्व में घपीभूत हो रहे आर्थिक संकटो के कारण जिस तरह अनुदारवाद तथा दक्षिणपंथ की हवा चल रही हे तथा गैर राजनीतिक राजनेता तथा राजनीतिक पार्टियों को भारी लोकप्रियता मिल रही हे। इसमें ट्रंप की विजय बहुत आश्चर्यचकित नही करती। इसकी विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में  प्रायः यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि मानों चुनाव में डेमेक्रेट तथा रिपब्लिकन उम्मीदवारों के बीच कोई बड़ा विचाराधात्मक संघर्ष चल रहा है। परन्तु जमीनी हकीकत यह है कि वहॉ की राजनीतिक प्रायः विचारधारा विहिन होती हे। अगर गृह नीति के कुछ नगण्य मुद्दो को छोड़ दिया जाये तो अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के बीच प्रायः आम सहमति रहती हे। ज्यादातर चुनाव बहसे खोखली और अर्थहीन होती है तथा मीडिया की तड़क भड़क समूचे चुनावी परिदृश्य को और गैर राजनीतिक बना देती हे। इसलिए जब इन चुनावो में रिपब्लिकन उम्मीदवर के रूप में डोनाण्ड ट्रंप चुनाव के मैदान में उतरे तो अमेरिकी मीडिया ने एक टेलीविजन सेलिब्रेटी उद्योगपति तथा पूरी तरह से गैर राजनीतिक उम्मीदार को तब तक गम्भीरता से नही लिया जबतक वे पार्टी के अधिकारिक उम्मीदवार घोषित नही हो गये। वास्तव में अमेरिकी चुनाव में अनुदारवाद ही के दो घड़ो के बीच चुनावी लड़ाई चल रही थी। डोनाल्ड ट्रंप ने रिपब्लिकन पार्टी के घोर दक्षिणपंथी तत्वों के एकत्र किया तथा अपने चुनाव अभियानों में ट्रंप मुस्लिम अप्रवासियों से अमेरिका की नागरिक सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा बताकर उनपर अमेरिका में रोक लगाने जैसी मॉग करने लगे। सबसे बड़ी बात जो वह कर रहे थे वह थी तथाकथित  अमेरिकी गोरव की पुर्नस्थापना। वे श्वेत अमेरिकियों की बेराजगारी व बेकारी जैसे मुद्दे बड़े आक्रामक तरीके उठा रहे थे। इस कारण वे एक बड़े श्वेत मध्यवर्ग तथा कामगा वर्ग के बड़े नायक होकर उभरे तथा उनका उन्हे जबरदस्त समर्थन मिला।

ट्रंप के फॉसीवाद की आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि- आज अगर अमेरिका सहित दुनियॉ भर में अनुदारवाद धार्मिक कट्टरता तथा फॉसीवाद की लहर हाबी है तो कही न कही से अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ही जिम्मेदार है। आज भारत में संघ परिवार के फॉसीवाद सें अमेरिका को कोई परहेज नही है। सम्पूर्ण यूरोप अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिकी देशो फ्रांस,नीदरलैण्ड ,,आस्ट्रियास्वीडनडेनमार्क ,हंगरी में भी अनुदारवाद पार्टियों तथा नेताओ की लोकप्रियता बढ़ रही हे। जिन्हे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान का खुला समर्थन प्राप्त है। इसके ठीक विपरीत बेनेजुएला ,ब्राजीलग्रीस जैसे देशो की प्रगतिशील सरकारो को लगातार अस्थिर करने उनके विरोधियों का लगातार सहायता मुहैया कराने के काम में अमेरिका लगा हुआ हे। नब्बे के दशक में सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के देशो में समाजवादी सत्ता के पतन तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने बड़े दम्भ के साथ शीतयुद्ध जीत लेने का दावा किया तथा अमेरिका एक धु्रवीय महाशक्ति के रूप में उभरा। ’’इतिहास का अंत’’ तथा ’’पूँजीवाद की अन्तिम विजय’ की घेषणा की जाने लगी। परतु यह स्थिति बहुत दिन तक नही चल सकी। शीघ्र ही अमेरिका अपने मित्र राष्ट्रो के साथ खाड़ी युद्ध में उलझ गया दोनो खाड़ी युद्ध मानवता के प्रति सबसे बड़े अपराध थे तथा पहला युद्ध तो अमेरिका ने खाड़ी में पेट्रोलियम पर वर्चस्व के लिए लड़ा अमेरिकी जीवन शैली की रक्षा’ (दुनियॉ के कुल पेट्रोल उत्पादन का 80 प्रतिशत का उपभोग अमेरिका अकेले करता है’)के नाम पर लाखो लोगो का खून बहाया गया। इसी के प्रतिक्रिया स्वरूप 9/11 की घटना हुयी तथा उसे अफगानिस्तान ,ईराक मे सैन्य कार्यवाहियों में उलझना पड़ा जिसने अमेरिका की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी। 

इन युद्धो के परिणाम स्वरूप समूचे एशिया तथा यूरोप में अलकायदा ,तालिबान बोकोहरम जैसे ढ़ेरो अतिवादी सगठनों का जन्म हुआ। प्रारम्भ में अमेरिका ने ही ढ़ेरो ऐसे संगठनो को आर्थिक सैनिक सहायता देकर सोवियत संघ के खिलाफ खड़ा किया। परन्तु आज यह संगठन अमेरिका  तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए भारी खतरा बन गये है। सीरिया ,लीबिया और इराक में सक्रिय इस्लामिक स्टेट नामक आतंकवादी ,कट्टरवादी संगठन की गतिविधियें ने सारे यूरोप ,अमेरिका ,अफ्रीका तथा एशिया तक को हिला दिया। अमेरिका तथा उसके सहयोगी गठबंधन देश रूस ,जापान ,ब्रिटेन फ्रांस आदि बड़े पैमाने पर मानवरहित ड्रोन विमानों से आई..एस. को समाप्त करने के लिए उनके क्षेत्रो पर भयानक बमबारी कर रहे है। जिसने सारी दुनियॉ में भारी अस्थिरता पैदा कर दी है। इन युद्धरत देशो से भारी पैमाने पर शरणार्थी यूरोपीय देशो तथा अमेरिका में आ रहे हैं तथा भारी सामाजिक तथा आर्थिक असंतुलन पैदा कर रहे है। अगर आज यूरोप तथा अमेरिका में भारी पैमाने पर शरणार्थी पहुँच रहे हैं तो इसके लिए कही न कही उसकी (अमेरिका) युद्ध उन्मादी तथा वर्चस्व की नीति जिम्मेदार है।

डोनाल्ड ट्रंप तथा यूरोपीय देशो  के अन्य अनुदारवादी नेता इस स्थिति का फायदा उठाकर अप्रवासियों के खिलाफ नफरत फैला रहे थे। ट्रंप को इस स्थिति का जबरजस्त फायदा मिला। आज अमेरिका का सामाजिक ,आर्थिक संकट निरंतर बढ़ रहा है। जल्दी-जल्दी आने वाली मंदिया उसके आर्थिक तंत्र को और संकट ग्रस्त कर रही है। अगर कोई यह कहे कि आज1930 जैसा आर्थिक संकट नही है इसलिए फासीवाद नही आ सकता तो वह यांत्रिकता का शिकार है। आज सैन्य ताकत के बल पर भले अमेरिका विश्व का सबसे शक्तिशाली मुल्क हो परन्तु आर्थिक रूप से वह दुनियॉ का सबसे कर्जदार मुल्क बन गय है। सन् 2008 में सबप्राइम संकट’ की वजह से लाखो अमेरिकी बेराजगार तथा गरीबी से ग्रस्त हुए इनका भारी समर्थन डोनाल्ड ट्रंप को मिला। लगभग 100 वर्ष पहले अमेरिकी सिनेटर बेवरीज ’ ने विश्व अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी वर्चस्व की महात्वाकांक्षाओ को हवा देते हुए कहा था ’’क्या हमारा कोई मिशन नही है’? क्या अपने सहजनों के प्रति हमारा कोई कर्तब्य नही हैहवाईद्वीप समूह हमारे हैं ,पोर्टरिको हमारा होने वाला क्यूबा के लोगो के अनुरोध पर अन्ततः क्यूबा भी हमारा हो ही जायेगा पूर्वी द्वीपों में यहॉ तक कि एशिया के प्रवेशद्वारो तक हमारी उदार सरकार का झण्डा फीलीपीन्स पर भी लहराया जाना है। हम धरती के किसी भी उस भाग से अपने कदम नही हटा सकते जहॉ विधाता ने हमारा झण्डा एक बार गाड़ दिया हो ’’। अमेरिकी साम्राज्यवाद का यह दंभ अब टूट रहा है क्यूबा ,ईरान जैसे शत्रु देशो से उसे उनकी शर्तो पर समझौते करने पड़ रहे है। उत्तर कोरिया के परमाणु तथा मिसाईल कार्यक्रमो के अमेरिका रोक लगाने में असमर्थ रहा है। जापानचीन ,रूस ,भारत ,ब्राजीलमैक्सिको जैसे देश भी आज बड़ी अर्थव्यवस्थाओ के रूप में उभर रहे है तथा साम्राज्यवादी लूट में अमेरिका के साथ समान रूप से साझीदार बन रहे है तथा आर्थिक रूप से अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे रहे है। डोनाल्ड ट्रंप इन जैसे ’’आत्म गौरव’’ के पराभव के मुद्दो को भुनाने में सफल रहे।

भूमण्डलीकरण के खिलाफ प्रतिक्रियाः-

1980 के बाद  लागू भूण्डलीकरण की नीतियों से दुनियॉ भर में गैर बराबरी तथा असमानता बढ़ी है। भूमण्डलीकरण ने केवल कुछ लोगो के लिए अवसरो के द्वार खोले हैं उनकी पूँजी बढ़ाई है परन्तु ज्यादातर लेगो के लिए यह गरीबी बदहाली लेकर आया है। इसमें विजेता कुछ ही है मगर गॅवाने वाले अधिक है। हर उभरती अर्थव्यवस्था में मध्यवर्ग ’’सुपररिच’’ ’’अल्ट्रारिच’’ यानी अत्यधिक धनाढ़्य लोग बड़े विजेता बने हैतो औद्योगिक देशा में कामगार व निम्न मध्यवर्ग और विकासशील देशो में गरीब और हाशिये के लोग वंचितो में शामिल है। यूरोपीय संघ के देशो में ते बेरोजगारी की औसत दर देश के कुल कार्यबल से 10 फीसदी तक अधिक है। जबकि यूनान तथा स्पेन में यह ऑकड़ा 20 फीसदी तक का है। विकसित देशो में भी ब्लूकालर व व्हाइट कालर कामगारों की वार्षिक आमदनी में एक स्थिरता बनी हुयी है। अमेरिका में1970 के दशक के बाद से ही करीब 90 फीसदी कामगारों की वास्तविक मजदूरी में कोई वृद्धि नही हुई है। भूमण्डलीकरण ने ’’रोजगार विहीन विकास” की नई अवधारणा पैदा की है। कुल मिलाकर वास्तवविकता यह है कि आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने तमाम मुल्को में समाज को आन्तरिक तौर पर बॉटने का काम किया है। अमेरिका तथा दुनियॉ भर में ऐसा दीख रहा है कि आर्थिक असमानता की वजह से जो जगह खाली हुयी है उन्हे दक्षिण पंथी नेता तथा घोर राष्ट्रवादी पार्टियॉ भर रही हैं। उन्होने मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों की विफलता को भुनाया और सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ लोगो के नाराजगी को हवा दी। उनकी राजनैतिक लामबन्दी अवसरवाद और लोकलुभावनवाद पर टिकी है। अमेरिका और यूरोप में ही रोजगार और मजदूरी संबंधी चिताओ के बारे में व्यापार और प्रवासियों का मसला उठाया गया जिसमें माहौल बनाने में अहम भूमिका निभाई। इसी तरह प्रवासन के खिलाफ विष वमन के लिए बड़ी चालाकी से सांस्कृतिक पहचान को हवा दी गयी ।तो इस्लाम विरोधी भावना को उभारने के लिए धार्मिक रूढ़िवाद की याद दिलाई गई।


आज आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने सम्पूर्ण राजनीति को विचारधारा विहीन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  अगर आज लिंकन तथा जैफरसन ’ के देश में एक घोर दक्षिणपंथी और गैर राजनीतिक व्यक्ति राष्ट्रपति के पद पर भारी बहुमत से पद पर आसीन हो गया है तो हम खुद यह निर्णय कर सकते हैं कि इसके लिए कौन सी नीतियॉ और कौन से व्यक्ति जिम्मेदार है और किसके खिलाफ वैश्विक संघर्ष की फौरी आवश्यकता है।

Wednesday, September 28, 2016

Protest Against the Communally Motivated Proposed Amendments to the Citizenship Act, 1955

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Oppose the Communally Motivated Proposed Amendments to the Citizenship Act, 1955

Delhi Action Committee for Assam




The proposed amendment to India’s Citizenship Act, 1955 has raised grave concern among democratic circles in Assam and in other parts of the country. The proposed amendment reads that “persons belonging to minority communities, namely, Hindus, Sikhs, Buddhists, Jains, Parsis and Christians from Afghanistan, Bangladesh and Pakistan, who have been exempted by the Central Government by or under clause (c) of sub-section (2) of section 3 of the Passport (Entry into India) Act, 1920 or from the application of the provisions of the Foreigners Act, 1946 or any order made thereunder, shall not be treated as illegal migrants for the purposes of this Act” and that for persons belonging to the aforementioned minority communities, “the aggregate period of residence or service of a Government in India as required under this clause shall be read as ‘not less than six years’ in place of ‘not less than eleven years’.” The proposed amendment which is being considered by a Joint Parliamentary Committee is indeed is a matter of grave concern for the whole of India. Government officials have claimed that the decision to grant Indian citizenship to the above mentioned discriminated religious communities in neighbouring countries is premised on ‘humanitarian grounds’. Notwithstanding this benevolent claim by the government, one needs to carefully place this proposed amendment in perspective. 

The proposed amendment is premised on the religious persecution of non-Muslim minorities in neighbouring Muslim majority countries. While religious basis have 'softly' underlined India's approaches to the issue of immigration since the Partition, what is alarming with the amendment proposed by the current government is its vehement attempt, in the garb of humanitarianism, to upturn the Constitution of India by slyly trying to introduce religious right-to-return. The current government displays zero or very little humanitarian concern for non-Hindu marginalised communities in the country and in neighbouring countries. 

Unlike Israel, Korea (both South and North), and few other countries, Indian law and the Constitution till today doesn't recognise any notion of 'Right to return'. This is the first time, when a sort of religious 'right to return' – is being advocated by the law-makers. To reiterate, this runs contrary to the secular fabric of the Constitution.

Further apart from complicating the already vulnerable demographic cauldron of the state of Assam, the circumstances under which the amendment is sought to be carried out raise questions about the federal structure of the country. The proposed amendment overrides the Assam Accord of 1985 which sets the date of 24 March 1971 as the cut off date for categorisation of illegal foreign immigrants to Assam, irrespective of Muslims or Hindus. In 1986 the Citizenship Act was amended and Article 6A was inserted. Retrospectively Article 6A granted citizenship to all those who entered Assam on or before 24 March 1971. How many amendment to Citizenship Act is required? Ain't the amendments made after the Assam Accord of 1985 not enough?

We strongly demand that the proposed amendment to the Citizenship Act 1955 be immediately withdrawn.

Monday, September 26, 2016

Slogans Rang Out in Delhi Against Kaziranga Police Brutality & Killings in Assam

A protest was held outside of Assam Bhawan, Chanakyapuri, on Friday against the Police brutality during an eviction drive near the Kaziranga National Park which resulted in death of two villagers. Despite prohibitory orders and heavy deployment of Delhi Police personnel and armed paramilitary forces at the venue, the 60 odd protesters under the banner of Delhi Action Committee (Against the Kaziranga Police Killings, Assam) continued to raise slogans against the dastardly killings by Assam Police. 

The protest was supported by left and left-leaning organizations like New Socialist Initiative (NSI), Campaign Against Fascist Attack on Universities (CAFAU), CPM affiliated All India Kishan Sabha, Krantikari Naujawan Sabha (KNS), Democratic Students' Union (DSU), National Alliance for People's Movement (NAPM) and Jhai Foundation (Assam) among others. 

Bonojit Hussain of New Socialist Initiative and Delhi Action Committee, P Krishna Prasad of All India Kishan Sabha, prominent social activist Harsh Mander, Nayanjyoti of Krantikari Naujawan Sabha, Abdul Kalam Azad of Jhai Foundation and few others addressed the gathering.

Later a 3 members delegation comprising of Bonojit Hussain, Biswajit Bora and Shalim M. Hussain submitted a memorandum to the Deputy Resident Commissioner of Assam government stationed at Assam Bhawan, New Delhi. 

Among many other demands, the memorandum submitted by Delhi Action Committee demanded that immediate compensation and rehabilitation be provided to all the evicted people of the villages; and an unconditional apology be rendered by the Chief Minister and the Home Minister of Assam to the people of these villagers and the country.

The Delhi Action Committee delegation remind the Deputy Resident Commissioner that "after the BJP came to power in Assam in May 2016, the state government has unleashed a reign of terror to execute its fascistic agendas. Within 2 months into power, the government opened fire and killed a 25 year old man Mintu Deuri, during a protest organized in Raha against the transfer of the site for a proposed AIIMS in the state on 15th July 2016. Now on 19 September 2016, just 34 days after the Raha incident, the police has again opened fire and killed two people - Anjuma Khatun and Fakhruddin, at a demonstration at Banderdubi revenue village near the Kaziranga National Park. The protesters were demanding resettlement and adequate compensation against an eviction drive carried out by the mandate of the Gauhati High Court order dated 9 October 2015 which was supposed to happen two days later, i.e. on 21 September 2016 but had been pre-poned to avoid protests. The villagers, belonging mainly to the Muslim community of erstwhile East Bengal origin, have been residing in the village for more than half a century."


The Committee delegation further brought to the notice of the Deputy Resident Commissioner that "out of the 198 displaced families from Banderdubi village, around 40 have moved in with their relatives and the rest have been compelled to seek shelter in Baghmari, a nearby village under the open skies. The Deputy Commissioner of Nagaon had not yet allowed any relief measures to reach them. And that, allegedly, the 7 Hindu families that lived in the village were informed before and were reportedly asked to move into safe places before the commencement of the forceful eviction drive, which highlights the communal agenda of the state administration. One of the most powerful ministers in the Assam government, Himanta Biswa Sarma, posted on his official Facebook page after the eviction drive that the new government would never compromise on "Jati, Mati, and Bheti" [Nationality, Land, and Home], a rhetoric of the homeland creating a paranoia against the Muslim inhabitants of erstwhile East Bengal origin, with which the BJP came to power. Thus in a true fascistic form, the repression has been accompanied with a parallel mobilisational drive, pitting one section of the society against another. Through electronic, print and social media, gross misinformation and falsehood has been consciously spread and we are told, this is a struggle to recover the Assamese nation from the outsiders – the Bangladeshis."

Below are few images from the protest:

Photo: Ramakant Kushwaha























Photo: Shalim M. Hussain























Photo: Bonojit Hussain

Photo: Kislay Gonzalvez

Wednesday, September 21, 2016

Protest Call and Statement against the Kaziranga Police Killings, Assam

Delhi Action Committee Against Kaziranga Police Killings, Assam




After the BJP came to power in Assam in May 2016, the state government has unleashed a reign of terror to execute its fascistic agendas. Within 2 months into power, the government opened fire and killed a 25 year old man Mintu Deuri, during a protest organized in Raha against the transfer of the site for a proposed AIIMS in the state on 15th July 2016. Now on 19 September 2016, just 34 days after the Raha incident, the police has again opened fire and killed two people - Anjuma Khatun and Fakhruddin, at a demonstration led by the Krishak Mukti Sangram Samiti (KMSS) and All Assam Minority Students' Union (AAMSU) at Banderdubi revenue village near the Kaziranga National Park. The protestors were demanding resettlement and adequate compensation against an eviction drive carried out by the mandate of the Gauhati High Court order dated 9 October 2015 which was supposed to happen two days later, i.e. on 21 September 2016 but had been preponed to avoid protests. The villagers, belonging mainly to the Muslim community of erstwhile East Bengal origin, have been residing in the village for more than half a century.

Out of the 198 displaced families from Banderdubi, around 40 have moved in with their relatives and the rest have been compelled to seek shelter in Baghmari, a nearby village under the open skies. The Deputy Commissioner of Nagaon has not yet allowed any relief measures to reach them. It must be mentioned here that the 7 Hindu families that lived in the village were informed before and were reportedly asked to move into safe places before the commencement of the forceful eviction drive, which highlights the communal agenda of the state administration. One of the most powerful ministers in the Assam government, Himanta Biswa Sarma, posted on his official Facebook page after the eviction drive that the new government would never compromise on "Jati, Mati, and Bheti" [Nationality, Land, and Home], a rhetoric of the homeland creating a paranoia against the Muslim inhabitants of erstwhile East Bengal origin, with which the BJP came to power. Thus in a true fascistic form, the repression has been accompanied with a parallel mobilisational drive, pitting one section of the society against another. Through electronic, print and social media, gross misinformation and falsehood has been consciously spread and we are told, this is a struggle to recover the Assamese nation from the outsiders – the Bangladeshis. 



During the hearing of the case, the Advocate-General acknowledged and supported the contention of the applicants that as per the revenue records, Banderdubi and Deochur Chang are two villages that have been declared as revenue village by the government (in 1961) and therefore are not part of the Kaziranga National Park which makes the eviction of any villager from the said areas illegal (GHC Order, pp. 21). However the Gauhati High Court ordered fast eviction of inhabitants in the second, third, fifth and sixth additions of the Kaziranga National Park (GHC Order, pp. 36-37). Reportedly a total of 198 families from Banderdubi, 160 from Deochur Chang and 12 from Palkhowa were evicted in this drive. These villages have been in those areas even before official recognition of Kaziranga Wildlife Sanctuary as a National Park, it's inhabitants are not encroachers but revenue-paying villagers.According to records these villages (Banderdubi and Deochur Chang) came into existence in 1951 and the government granted patta (land entitlements) in 1961. The names of the villagers were inserted into the voters' list in 1965 for the assembly election, and a government school was established there in 1966. On the other hand, Kaziranga was declared as a National Park by the central government on 11 February 1974. 

Section 144 had already been in place in the said areas since Saturday, 17th of September. It must be mentioned here that the villagers were willing to abide by the Gauhati High Court order and evict the land voluntarily for the cause of conservation of the national park but were simply demanding resettlement and adequate compensation and enough time to comply with the court's order. In the consequent clash between the police and the local people, the police blatantly resorted to extreme brutality, first with tear gas and then with live bullets. Apart from the casualties, five more people have been severely injured.

The rapidity and force with which the current government has deployed its fascistic agenda by using state mechanisms must be read as clear signs of impending trouble for the already much troubled people of Assam. The targeted and brazen use of police force to kill citizens in order to craft a 'nation' and society as per its skewed wishes may soon turn into an irretrievable situation. As in other parts of the country, the Assam government has been acquiring land to serve the interests of the big capital or pursue its 'developmental' policies but it has no patience to listen to toiling people when it comes to their requirements for livelihood. And to repeat an age long political cliché, nowhere in the rest of India, or the national media have we seen any reactions or responses to this incident.

In any case, why is it legitimate to kill, even if he or she is a Bangladeshi?

We demand:

1. Immediate action against the concerned security and state officials who approved the decision to open fire on unarmed and peaceful protestors.

2. Immediate compensation and rehabilitation of all the evicted people of these villages.

3. An unconditional apology by the Chief Minister and the Home Minister of Assam to the people of these villagers and the country.

4. The Government of Assam must ensure and guarantee the safety and human rights of all people, irrespective of caste, creed, sex and religion, as laid out by the Constitution of the Union of India.

We also intend to:

1. Submit a petition to the National Human Rights Commission appealing that a show-cause notice be served to the Government of Assam asking for the rationale behind the live bullet firing upon protestors.

Sd/-

Biswajit Bora, Shalim M. Hussain, Jyotirmoy Talukdar, Sukruta Alluri, Bonojit Hussain, Mayur Chetia, Nayan Jyoti , Lokesh, Kislay Gonsalvez, Amrapali Basumatary, Usman Jawed, Apoorva Gautam.

Sunday, September 18, 2016

Statement by ASEAK on the Delhi University copyright judgement by Delhi High Court (16 Sept 2016)






Victory for Students and Access to Knowledge in DU Copyright Case: Corporate Publishers Market ends at the gates of the University

- Association of Students for Equitable Access to Knowledge (ASEAK)

In a rare and incredible order on 16th September 2016, the Delhi High Court dismissed the copyright infringement case filed in August 2012 by Oxford University Press, Cambridge University Press and Taylor and Francis Group against Rameshwari Photocopy Shop in Delhi School of Economics and Delhi University. Justice R.S. Endlaw in a 94 page long judgment interpreted the educational exception under section 52(1)(i) of the Copyright Act, 1957 as covering the act of photocopying prescribed reading material for university courses.

The publishers sought to claim damages to the tune of 60 lakh rupees from the shop citing infringement of copyright, which the publishers claimed was happening through photocopying of parts of books published by them. However, the publishers themselves stated that this suit, for them, was a test case where they wanted to introduce licensing systems across universities in India. These licensing systems intended to control the extent to which material could be photocopied and also direct a share of profit from these reproductions to the publishers. We, the Association of Students for Equitable Access to Knowledge (ASEAK) demanded to be made a defendant in this case as we believed that it is the right of students to access reading material that was at stake in this case- “Association of Students for Equitable Access to Knowledge (ASEAK) filed IA No.3454/2013 for impleadment in the present suit and which was allowed vide order dated 1st March, 2013 and ASEAK impleaded as defendant No.3.” (from the judgment). 

We at ASEAK, had maintained from the beginning that the exceptions within the Indian Copyright Act, 1957, keep reproduction of material for the purposes of education outside the purview of what constitutes copyright infringement. Sure, publishers are running profit making enterprises but universities are not a market. Students pursuing higher education in India come from starkly different socio-economic backgrounds and further, most public universities work with a severe resource crunch. This is worsened by the prohibitively high costs and very limited reach of academic books, which the publishers anyway do not seem to be producing for students. They only make it to libraries and shelves of highly paid academicians. Photocopying, then, is just a quick fix in a system which is unable to meet simple demands of students studying in universities. In this situation, to put restrictions and further try to control and profit from a system which in itself is ramshackle and can hardly be afforded by a majority of students is pure evil. 

We so far had only appealed to the court to remove a stay order which had been put on Rameshwari Photocopy shop against photocopying from books of the said publishers. The court has gone far ahead and dismissed the publishers’ case. Justice Rajiv Sahai Endlaw observed in the judgment that, “copyright, specially in literary works, is not an inevitable, divine, or natural right that confers on authors the absolute ownership of their creations. It is designed rather to stimulate activity and progress in the arts for the intellectual enrichment of the public. Copyright is intended to increase and not to impede the harvest of knowledge. It is intended to motivate the creative activity of authors and inventors in order to benefit the public”. The judgment has also observed that there is no evidence of “actionable infringement” when it comes to photocopying by the university and its agents, and therefore there is no need for trial and the “suit is accordingly dismissed”.

Thursday, September 15, 2016

बदलता वैश्विक परिवेश और भारत अमेरिका सैन्य करार

- स्वदेश कुमार सिन्हा

भारत और अमेरिका के मध्य अब तक का सबसे बड़ा सैन्य करार आज सम्पूर्ण मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। जो लोग अमेरिका तथा भारत के संबंधों की जटिलता के इतिहास से परिचित हैं उन्हे यह भी ज्ञात होगा भी सन् 2008 में अमेरिकी संविधान की धारा -123 के अन्तर्गत निर्मित ’हाइड एक्ट’ के अन्तर्गत भारत अमेरिकी परमाणु उर्जा समझौते को वामपंथियों ने राष्ट्रीय हितो की तिलांजलि देकर अमेरिकी दबाव में होने वाला समझौता कहा था तथा भाजपा के साथ मिलकर तत्कालीन कांग्रेसी सरकर को गिराने में भी कोई परहेज नही किया था। 

आज एकाएक कौन सा बृहद वैश्विक परिवर्तन हो गया कि भाजपा ने अमेरिका के साथ इतना बड़ा सैन्य करार कर लिया तथा जिसका संसद और सम्पूर्ण देश में कोई विशेष विरोध तक नही हुआ। इस समझौते से पूर्व भी दोनो देशो के बीच इसी वर्ष कई महत्वपूर्ण रणनैतिक सैन्य समझौते हुए हैं । (लाजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेन्ट कम्युनिकेशन इण्टरओपरीबिलिटी एण्ड सिक्युरिटी मेमोरण्डम एण्ड एग्रीमेण्ट आर बेसिक एक्सचेन्ज एण्ड कारपोरेशन एग्रीमेन्ट ) यह जून 2005 में हुए भारत अमेरिकी राजनीतिक साझेदारी की अगली कड़ी है। सन् 2013 में अमेरिकी पालिसी थिंक टैंक संस्था ’बुकलिन इन्स्टीटयूशन और इस साल कारनेगी इनडोमेन्ट आफ इन्टरनेशनल पीस’ का कार्यालय खुलना भारत की विदेश नीति को अमेरिकी विदेश नीति के अनुरूप ढ़ालने की दिशा में बढ़ाया गया कदम बताया जा रहा है। परन्तु इस वर्ष सितम्बर के पहले सप्ताह में भारत अमेरिका के बीच हुआ अब तक का सबसे बड़ा सैन्य करार ’लाॅजिरिस्क एक्सचेन्ज मेमोरण्डम आफ एग्रीमेण्ट (लेमोए) जो बृहद तथा दूरगामी परिणाम देने वाला है।

इस करार के अन्तर्गत दोनो देश मरम्मत तथा आपूर्ति के लिए एक दूसरे के सैन्य ठिकानो तथा सुविधाओ का इस्तेमाल कर सकेंगे , विशेष रूप से एक दूसरे के वायु सेना का प्रयोग भी युद्ध के दौरान कर सकेंगे। इस सम्बन्ध में अमेरिकी विदेश मंत्री ’एश्टन कार्टर ’ का कथन है ’हमने भारत को मुख्य रक्षा सहयोगी का दर्जा दिया है। अमेरिका रणनीतिक और तकनीकी क्षेत्र में भारत का सहयोग बढ़ायेगा। यह विगत पचास साल के इतिहास में बड़ा बदलाव है। भारतीय विदेश मंत्री मनोहर पार्रिकर का कथन है ’इसमें अमेरिका का भारत में सैन्य ठिकाने बनाने संबंधी किसी भी प्रकार की गतिविधि का कोई प्राविधान नही है। इस समझौते को लेकर देश तथा विदेशों में कई तरह की प्रतिक्रियाये हो रही है। भाजपा तथा संघ परिवार यह कह रहे हैं कि यह देश की बढ़ती ताकत का परिचायक है। बहुत से वामपंथी विचारक तथा उनकी पत्र पत्रिकाएँ इस समझौते को एक नई गुलामी का दस्तावेज बता रहे हैं । यह स्मरण करने की बात है कि सन् 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान चन्द्रशेखर सरकार द्वारा अमेरिकी विमानो में तेल भरने की घटना पर देश में बवाल मच गया था। सन् 2003 में अमेरिकी दबाव के बाद भी अटल सरकार इराक के खिलाफ लड़ाई के लिए सेना भेजने की हिम्मत नही जुटा पाई थी।

पवित्र नगरों की सियासत


- सुभाष गताड़े

जनाब अरविन्द केजरीवाल, जो पिछले दिनों पंजाब के दौरे पर थे उनके एक ऐलान ने एक पुरानी बहस को नयी हवा दी है. उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी जीतती है तो वह अमृतसर को ‘पवित्र नगर’ का दर्जा प्रदान करेगी. इतना ही नहीं वह स्वर्ण मंदिर के आसपास शराब, मीट और टुबैको के उपभोग पर भी रोक लगाएंगे.

उनके मुताबिक खालसा को जन्म देने वाले आनंदपुर साहिब को भी पवित्र नगर का दर्जा दिया जाएगा. वैसे यह पहली दफा नहीं है जब उन्होंने नगरों को ‘पवित्र’ घोषित करने की बात कही है. याद रहे जिन दिनों वह वाराणसी से चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने अपने बनारस संकल्प में अन्य कुछ मांगों के अलावा इस बात का भी विशेष उल्लेख किया था कि वह वाराणसी को ‘पवित्र नगरी’ का दर्जा दिलाएंगे.

ऐसा प्रतीत होता है कि न उन्होंने उस वक्त इस मसले पर विस्तार से सोचा था कि विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, रूझानों से बने शहर बनारस- जहां महज हिन्दुओं एवं बौद्धों के ही सर्वोत्कृष्ट स्थान नहीं हैं, बल्कि जैनियों के कई तीर्थंकरों का जन्मस्थान भी यहीं है.

यहां तक इस्लाम के माननेवालों के भी कुछ अहम स्थान हैं इसी शहर में हैं. जिस नगर ने कबीर, रैदास एवं तुलसी जैसे महान संतो को जन्म दिया था उसकी साझी, मिलीजुली संस्कृति को ‘पवित्र नगरी’ का ओहदा देकर किसी खास इकहरी संस्कृति में ढालने का यह संकल्प किस तरह सेक्युलर भारत में विशेष धार्मिक क्षेत्रों के निर्माण के सिलसिले को तेज करेगा, उन्हें इसका तनिक भी इल्म नहीं है.

इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कण्डेय काटजू का बयान मौजूं है जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ऐसे बयान भले ही फौरी तौर पर वोटों में बढ़ोतरी कर दें, मगर वह किस तरह मुल्क के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रभावित करते हैं, इसे हम बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर स्थापित करने के लिए चले आन्दोलन से भी देख सकते हैं.

विडम्बना ही है कि धार्मिकता का जैसा विस्फोट समूची दक्षिण एशिया में दिख रहा है, उसमें ऐसा करने की हवा सी चल पड़ी है.

2014 में ही भाजपा के पूर्ण बहुमत से सत्तारोहण के बाद गुजरात के पाटण जिले के पलीटाना नगर को, जहां जैनियों के तमाम मंदिर और तीर्थस्थल हैं, जैन साधुओं की चार दिनी भूख हड़ताल के बाद, राज्य सरकार ने ‘शाकाहारी इलाका’ घोषित कर दिया था. वहां मांसाहारी पदार्थ बेचना और बनाना अब ‘कानून के उल्लंघन’ में शुमार किया जाता है. और यह इस सबके बावजूद कि एक लाख आबादी वाले इस नगर की 25 फीसदी आबादी मुस्लिम है.

इतना ही नहीं स्थानीय सरकारी अधिकारी बताते हैं कि नगर की चालीस फीसदी आबादी मांसाहारी रही है जिनमें सिर्फ मुस्लिम ही नहीं कोली जैसे हिन्दू समुदाय भी शामिल हैं. दिलचस्प है कि इसी तरह के रुझानों के चलते वर्ष 2013 में सूबा आंध्र प्रदेश की तिरूमाला पहाड़ियों की तलहटी में तिरूपति मन्दिर से तेरह किलोमीटर दूर बन रही ‘हीरा इण्टरनेशनल इस्लामिक युनिवर्सिटी’ को बिल्कुल अलग ढंग के विरोध का सामना करना पड़ा था.

गौरतलब है कि हीरा ग्रुप जो एक ग्लोबल फार्चुन कम्पनी है और कमोडिटीज तथा शैक्षिक व्यवसाय में भी मुब्तिला है, उसके तहत मुस्लिम महिलाओं के लिए इस कालेज का निर्माण किया जा रहा था. हिन्दु साधुओं के एक हिस्से ने इस इलाके की पवित्रता की दुहाई देते हुए इस निर्माणाधीन संस्थान को वहां से हटाने की मांग की थी.

Friday, September 2, 2016

Strike Today!

All trade union federations in India, except the BMS affiliated with the RSS, have declared a one day nationwide strike on 2nd September against the price rise and economic policies of Modi government. One of the main demands is a minimum wage of Rs 18,000/ per month. At present the legal minimum wage in most of the Aountry is less than one third of this. The overwhelming majority of workers in India work for even less than the legal minimum wage. The condition of agricultural workers is the worst. In Pudducherry the legal minimum wage for agricultural workers is Rs 1650/ per month. On the other hand, if the minimum wage is calculated to provide consumption needs of three persons for fooAd, clothing, housing, education and medical expenses, then it should be around Rs 26,000/. Clearly, the economic system in the country has failed to provide even essentials of life to the most of its working people. Indian capitalism is a predatory system which feeds on the living labour of Indian people without providing them even the bare minimum needed to survive. Everybody in a working class family has to work. It is no surprise that India has the largest number of child labourers in the world. Working parents can not earn enough to take care of their children. Capitalism in India makes super profits from patriarchy and caste system. As Ambedkar said, caste is division of labourers. It divides workers and forces Dalits to do the least remunerative and dangerous work as agricultural workers, manual scavengers, sanitation workers and in other ‘untouchable’ activities. Women workers are paid a pittance. Without their unpaid extra domestic work, working class families would simply collapse. 

All governments in India favour employers over working people. The Modi government however has been specially vicious in attacking workers. It has systematically degraded the National Rural Employment Guarantee scheme by starving it of funds. The proposed GST is likely to stoke the fires of already high food inflation even higher. It has dismantled the existing labour inspection system for the sake of ‘ease of doing business’. Its law on Child labour permits children to work in household units. Make in India programme is premised upon Indian labour being cheaper than global competitors. 

The strike call of 2nd September has broken new ground. The trade union movement so far has remained confined to the organised sector which employs only seven percent of the workforce. Workers in the unorganised sector work on contract with no job security. By making the demand for a reasonable minimum wage the main slogan of the strike, trade unions have taken an important first step towards forging the class wide unity of the entire working people. 

New Socialist Initiative stands in solidarity with this strike and wishes it a grand success. The road to a society without capitalist exploitation, and which honours and justly rewards the labour of working people is long and arduous. Nationwide strikes which strengthen working class solidarity are its important milestones.


Monday, August 29, 2016

‘गाय की दुम तुम रखो, हमें हमारी जमीन दो’

सुभाष गताड़े

फैलता दलित विद्रोह और बदहवास हिन्दुत्व ..

 Radhika Vemula addresses Dalit Mahasammelan in Una, Photo Courtesy: indianculturalforum.in

जब मैं पैदा हुआ तब मैं बच्चा नहीं था
मैं एक स्वप्न था, एक विद्रोह का स्वप्न
जिसे मेरी मां, जो हजारों सालों से उत्पीड़ित थी
उसने संजोया था
अब अभी भी मेरी आंखों में अछूता पड़ा है
हजारों सालों की झुर्रियों से ढंका उसका चेहरा
उसकी आंखें, आंसूओं से भरे दो तालाबों ने
मेरे शरीर को नहलाया है ….
– साहिल परमार

1
गाय से प्रेम, मनुष्य से नफरत ?

हर अधिनायकवादी परियोजना की विकासयात्रा में ऐसे मुक़ाम अचानक आ जाते हैं कि उसके द्वारा छिपायी गयी तमाम गोपनीय बातें अचानक जनता के सामने बेपर्द हो जाती हैं और बिगड़ते हालात को संभालना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। हिन्दुत्व की ताकतें फिलवक्त़ अपने आप को इसी स्थिति में पा रही हैं। गुजरात में उदघाटित होते दलित विद्रोह ने उसके लिए बेहद असहज स्थिति पैदा कर दी है, जो आज भी विकसित होता दिख रहा है।

सौराष्ट्र के उना में 15 अगस्त को ‘उना अत्याचार लडत समिति; की अगुआई में पहुंची दलित अस्मिता यात्रा अब समाप्त हो गयी हो; उसमें शामिल हजारों दलित, जो राज्य के अलग अलग हिस्सों से वहां पहुंचे थे, अब भले घरों की लौट गए हों, मगर उनका यह संकल्प कि हाथ से मल उठाने, सीवर में उतर कर उसकी सफाई करने या मरे हुए पशुओं की खाल उतारने के काम को अब नहीं करेंगे, आज भी हवा में गूंज रहा है और राज्य सरकार से उनकी यह मांग, कि वह पुनर्वास के लिए प्रति परिवार 5 एकड़ जमीन वितरण का काम शुरू करे वरना 15 सितम्बर से वह रेल रोको आन्दोलन का आगाज़ करेंगे, के समर्थन में नयी नयी आवाज़ें जुड़ रही हैं।

निश्चित ही हिन्दुत्व बिरादरी के किसी भी कारिन्दे ने या उसके अलमबरदारों ने इस बात की कल्पना तक नहीं की होगी कि उनके ‘मॉडल राज्य’ /जहां ‘आप हिन्दु राष्ट में प्रवेश कर रहे हैं, ऐसे बोर्ड गांवों-कस्बों में लगने का सिलसिला 90 के दशक के अन्त में ही उरूज पर पहुंचा था/ में ही उन्हें ऐसी चुनौती का सामना करना पड़ेगा और जिससे उन्होंने बहुत मेहनत से बनाए सकल हिन्दू गठजोड़ की चूलें हिलने लगेंगी। यह उनके आकलन से परे था कि दलित – जो वर्णव्यवस्था में सबसे नीचली कतारों में शुमार किए जाते हैं – जिन्हें हिन्दुत्व की परियोजना में धीरे धीरे जोड़ा गया था, यहां तक कि उनका एक तबका 2002 के गुजरात दंगों की अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा में भी शामिल था, वह अलसुबह बग़ावत में उठ खड़े होंगे और गरिमामय जीवन की मांग करते हुए उन्हें चैलेंज देंगे। इतनाही नहीं वह अल्पसंख्यकों को भी अपने साथ जोड़ेंगे और इस तरह हिन्दुत्व की परियोजना की जड़ पर ही चोट पहुंचाएंगे।

जैसा कि इस स्थिति में उम्मीद की जाती है, जब दलितों का यह अप्रत्याशित उभार सामने आया तो उसकी क्या प्रतिक्रिया दी जाए, इसे लेकर वह बाकायदा बदहवासी तथा दिग्भ्रम का शिकार हुए। संघ परिवार के विभिन्न आनुषंगिक संगठनों या चेहरों से जितनी विभिन्न किस्म की आवाज़ें सुनाई दी, वह इसी का प्रतिबिम्बन था। इसमें कोई दोराय नहीं कि एक साथ कई आवाज़ों में बोलना हिन्दुत्व ब्रिगेड की आम रणनीति का हिस्सा रहा है, मगर इस बार मामला वहीं तक सीमित नहीं था। सबसे बड़ा सवाल उनके सामने यही उपस्थित था कि गाय की रक्षा के नाम पर जो ‘परिवार’ के एजेण्डे को आगे बढ़ा रहे थे, ऐसे हमलावरों की हिफाजत करें, और इस तरह पीड़ितों से अपनी दूरी कबूल करे या दूसरी तरफ पीड़ितों की हिमायत करे, हमलावरों की भर्त्सना करें तथा उन पर सख्त कार्रवाई की मांग करें तथा दलितों को अखिल हिन्दु एकता सूत्र में बनाए रखने की कवायद में जुटे रहें। इस विभ्रम का असर उनके द्वारा जारी वक्तव्यों में भी दिखाई दिया जो इस अवसर पर दिए गए। एक तरफ प्रधानमंत्राी थे जिन्होंने इस घटना के लम्बे समय बाद अपनी चुप्पी तोड़ी और यहां तक कहा कि गोरक्षा के नाम पर अधिकतर असामाजिक तत्व सक्रिय हैं और बताया कि वह गृह मंत्रालय को सूचित करनेवाले हैं कि वह ऐसे तत्वों के बारे में दस्तावेज तैयार करें। प्रधानमंत्राी मोदी के बरअक्स उनके पूर्वसहयोगी विश्व हिन्दू परिषद के लीडर भाई तोगडिया का रूख था, जिन्होंने गोरक्षकों पर लांछन लगाने की निन्दा की और ऐसी कार्रवाई को ‘हिन्दू विरोधी’ कहा। यह दिग्भ्रम समझ में आने लायक था।

दरअसल, ऊना की घटना के बहाने हाल के समयों में यह पहली बार देखने में आ रहा था कि हिन्दुत्व ब्रिगेड अगर अपने एक अहम एजेण्डा – जो गाय के इर्दगिर्द सिमटा है और जिसने उसे राजनीतिक विस्तार में काफी मदद पहुंचायी है – को आगे बढ़ाने की कोशिश करती है तो एक संभावना यह बनती है कि हिन्दु एकता कायम करने के उसके इरादों में दरारें आती हैं। /सुश्री विद्या सुब्रम्हण्यम अपने उत्तर प्रदेश की राजनीति पर केन्द्रित अपने एक आलेख में इस स्थिति को ‘ए रिवर्स राम मंदिर मोमेन्ट’ कहती हैं – देखें: ी http://www.thehindu.com/opinion/lead/its-mayawati-versus-modi-in-up/article9022511.ece? ref=topnavwidget&utm_source=topnavdd&utm_medium=topnavdropdownwidget&utm_campaign=topnavdropdown / उन्मादी ‘गोरक्षकों’ के हमलों का शिकार दलितों के अलावा – जो ‘परिवार’ की राजनीति से ही तौबा कर रहे हैं – किसान आबादी का बड़ा हिस्सा भी गाय के इर्दगिर्द हो रही हिन्दुत्व की राजनीति से परेशान है क्योंकि वह अपने उन पशुओं को बेच पाने में असमर्थ है या उसे उन्हें बहुत कम कीमत पर बेचना पड़ रहा है – जो बूढ़े हो चुके हैं या जिन्होंने दूध देना बन्द कर दिया है। इतनाही नहीं मीट के व्यापार में लगे पंजाब के व्यापारियों ने पिछले दिनों प्रेस कान्फेरेन्स कर इन स्वयंभू गोरक्षकों की हिंसक कार्रवाइयों से अपने व्यवसाय में उन्हें उठाने पड़ रहे नुकसान को रेखांकित करते हुए प्रेस सम्मेलन किया। कहां धार्मिक हिन्दू गाय की पूछ के सहारो वैतरणी पार करने की बात करता है और अब यह आलम था कि हिन्दू धर्म एवं राजनीति के संमिश्रण के सहारे लोकतंत्र में अपनी जड़ ज़माने वाले लोगों के लिए गाय की वही पूछ उनके गले का फंदा बनती दिख रही है। हिन्दुत्व की मौजूदा स्थिति को सन्त तुलसीदास की चौपाई बखूबी बयां करती है ‘भयल गति सांप छछुंदर जैसी ..’

Thursday, August 25, 2016

Dalit Uprising and After- Why Hindutva Would Not Be The Same Again

- Subhash Gatade
When I was born I was not a child
I was a dream, a dream of revolt
that my mother, oppressed for thousands of years,
dreamt.
Still it is untouched in my eyes
Covered with wrinkles of thousand years, her face
her eyes, two lakes overflowing with tears
have watered my body…..
– Sahil Parmar*
 Well known Gujarati poet Sahil Parmar’s poem ‘When I Was Born’ perhaps reverberates these days in Gujarat when we are witnessing a Dalit Upsurge- a first of its kind at least in that regions history. It will be a talk of folklore for times to come how flogging of dalits in a village in Saurashtra by Hindutva fanatics suddenly erupted into a mass movement of dalits which could catch imagination of the people cutting across different sections of society. An attempt is being made here to understand the dynamics of the movement and its likely impact on the future trajectory of Hindutva.
Courtesy: newsclick.in
 I
Love Cows, Hate Human Beings ?
There are moments in the trajectory of any authoritarian/fascist/rightwing project where one of its closely guarded secrets suddenly tumbles out in the open and then it becomes difficult for it to fix it. The Hindutva brigade today finds itself in a similar situation – thanks to the dalit upsurge in Gujarat which is still unfolding before our eyes.
The historic march to Una town of Saurashtra region- under the banner of Una Atyachar Ladat Samiti might be over ; thousands and thousands of dalits who had gathered there from different parts of the state and outside might have returned home but their resolve not to undertake the despicable caste practice of manual scavenging and disposing of cattle carcasses still reverberates all over the state. And their demand before the state government that within next one month – by 15 th of September – it starts distributing five acres of land to each rural dalit family for rehabilitation is reaching far and wide and gathering fresh support.
None from the Hindutva fraternity had ever imagined that in their so called ‘model state’  itself , they would be faced with such a challenge which would put their carefully crafted pan Hindu social coalition to test. It was  beyond their comprehension that dalits – the most downtrodden section in the Varna hierarchy – who had been slowly roped in down the years in the Hindutva politics and a section amongst them had also become a party to the anti-minority violence in 2002, would one fine morning turn their backs on them and would readily join hands with the ‘other’ demanding a life of human dignity and putting in jeopardy the very raison detre of the project.
And as can be expected in such a situation, they literally floundered when they were asked to react to this  uprising.  The multiple voices which emerged from the broader ‘Parivar’ were an indication of their confusion.
No doubt talking in multiple tongues has always been part of their overall strategy but this time it also demonstrated  disorientation in their own ranks.  The moot question became whether to uphold the perpetrators – who were following the script – or support the victims. And thus one found the Prime Minister exposing majority of the cow vigilantes as being anti social elements and asking the home department to prepare a dossier about them and another significant leader of the same ‘family’ denouncing such characterisation as being ‘anti-Hindu’. The confusion was understandable. In fact, it was for the first time in recent times that Hindutva Supremacists are discovering that the more they push one of their key agenda centering around cow politics – which has served them well till date – the more there is possibility that their dream of Hindu Unity would see further fissures.  ( Vidya Subrahmaniam describes it as ‘A reverse Ram Mandir Moment’ in her article on present situation in UP.http://www.thehindu.com/opinion/lead/its-mayawati-versus-modi-in-up/article9022511.ece? ref=topnavwidget&utm_source=topnavdd&utm_medium=topnavdropdownwidget&utm_campaign=topnavdropdown) Apart from Dalits, who have come under increasing attack at the hands of overzealous ‘cow protectors’ and are slowly turning against the ‘Parivar’ itself , large section of peasant population is peeved over the fact that politics around cow has  made their life miserable as they are not able to do away with cattles who have become old or have stopped producing milk. One of the couplets by Saint Tulsidas captures Hindutva’s plight beautifully ‘Bhayal Gati Saap Chachunder Jaisi..‘.
II
Rashtravadi toh hamare saath hain, humein Dalit aur pichchde ko saath lana hai.
Everybody knows that there was nothing ‘unusual’ – as far as depradations unleashed by Hindutva fanatics under the name of cow protection were concerned – about what happened to dalits from Mota Samadhiyala village when they were skinning a dead cow.
One can recollect that such attacks were common even in those days when BJP did not have majority of its own at the centre. A classic example has been killing of five dalits in Dulina (Jhajjar ) – hardly fifty kilometres away from the national capital – who were similarly skinning dead cows, by a cow vigilante mob (2003) before Dulina police station itself with leading officers of the police and administration remaining mute witnesses. A leading Hindutva leader ( dead sometime back) even ‘justified’ the killings by citing reference to ancient Hindu sciptures claiming that in ‘Puranas cows were more valued than human beings’. The killings definitely led to an outrage, there were few symbolic arrests as well but the commotion died down soon and in fact the perpetrators of this massacre were decorated as ‘cow protectors’.
In fact, most such earlier attacks in recent times had been rather more brutal. To name a few, lynching of two young men near Latehar after their brutal torture near Latehar, Jharkhand by cow vigilantes ; killing an adolescent near Udhampur who was sleeping in truck by throwing petrol bomb under the suspicion that the truck was carrying beef ; near riot like situation which emerged in Palwal, Haryana because of cow vigilantes attack on a truck carrying meat or the way two transporters were fed cow dung laced with urine when they were found transporting cattles for sale near Gurgaon. Scan the internet to watch the ‘valour’ of these fanatics and you will find scores of such criminal attacks on innocents. Videos after videos are available which show how these self proclaimed cow protectors brutalised people for carrying cows from one place to other or because of suspicion that they were carrying beef and how their has been no action against them from the law and order people.
But thrashing of Dalits from Mota Samadhiyala village by cow vigilantes, uploading the video of their ‘valour’ on social media has proved to be a turning point.
Anybody can see that the Dalit Uprising which the Una incident has triggered has inadvertently or so unearthed the ‘well guarded secret’ behind this exclucivist project – where it is clear even to a layperson now that for Hindutva, dalits or other marginalised are lesser human beings or the ‘other’, whatever might be its claims about the great samrasta it upholds. There is a growing realisation that the formal posturing of Hindutva politics, where it is presented /understood in the form of religious imaginaries where ‘minorities- may be Muslim or Christian – are portrayed as the ‘other’ is one thing but essentially the whole idea of Hindu Rashtra is an attempt to further legitimise the Brahminical project of hegemonising and homogenising of Indian society where secondary position of Dalits has received religious sanction also. An inkling of how they view Dalits and the backwards – when they are talking among themselves – can be had from the recent comments by PM Modi when he spoke at length at a meeting which was attended by 400 top leaders of the BJP, at the end of the15 day patriotism drive. Newspaper reports tell us that he called on his party to continue playing Nationalism card which is ‘central to the BJP’s ideology.’ Perhaps the most telling comment made by him was the following : “Rashtravadi toh hamare saath hain, humein Dalit aur pichchde ko saath lana hai.” The nationalists are with us, we need to bring Dalits and backward groups.” (http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/nationalists-are-with-us-lets-reach-out-to-dalits-backwards-pm-modi-to-party-2993281/)
Was it just slip of tongue or an admission of the truth that for Hindutva  non-backwards, non-dalits i.e. upper castes have sole claim over nation and dalits as well as backwards to be outside its purview who need to be brought closer. (http://scroll.in/article/814769/the-daily-fix-what-did-modi-mean-when-he-said-there-is-a-chasm-between-dalits-and-nationalists)
Perhaps a marker of their continuing indifference or disdain towards the plight of the dalits ( forget those bollywood type dialogues where it was declared that ‘Shoot Me but Do Not Shoot My Dalit Brothers’) could also be gauged from the fact that when the Dalit Upsurge was at its peak in the state, the provocative statement by one of their own MLAs from Telangana who ‘justified’ the beatings and uploaded a video on facebook did not prompt them to take any action. His words were “Jo Dalit gaye ke maas ko le ja raha tha, jo uski pitai hui hai, woh bohut hi achhi hui hai [Those Dalits who were taking the cow, the cow meat, those who were beaten, it was a very good thing to happen],”(http://scroll.in/latest/812903/anyone-who-kills-cows-deserves-to-be-beaten-says-bjp-mla-raja-singh).