Accountability is foundational to democracy
and, ultimately, people are supposed take those in power to account through
democratic processes and mechanisms. But, then, we also know what often happens
in democracy. Electoral competition gives rise to ‘technologies’ (often
religious, cultural and identity-based) which turn citizens into “Bhakts”
(devotees) and storm-troopers (remember Hitler’s “Brownshirts”). The dark side
of democracy comes on top more often than the other side. India is witnessing
that disaster. Trump was a testimony to the same phenomenon in the United
States.
But what about movements? Are they also
supposed to be accountable to someone or something? One would presume that
movements are accountable to their own missions, values, objectives, arguments
and strategies. Is anyone taking the movements to account on that score?
One would imagine that the left movement has
been taken sufficiently to account all over the world. So much so that, for
most people, there is no longer any need to take it to account. In many eyes,
it is finished. Why waste time on something that is finished? And yet, a most
curious thing is that left remains the favourite whipping boy of most other
movements and their intellectual luminaries. Here in India a favourite
pre-occupation of Dalit intellectuals is to expose the Savarna (upper caste)
hegemony over the left movement and many feminists focus on the misogyny of
leftists. As if in a survey of the Indian society leftists have come on top as
the most likely and most numerous perpetrators of oppression and violence
against Dalits and women! There is no denying that left must be taken to task
for all its ills and all its failings. But, should a movement that is often
pronounced dead be the prime example when it comes to evaluating movements?
The Bahujan Samaj Party (BSP) in Uttar Pradesh
has declared that it would be the party that would actually build the Ram
temple. This party is openly and loudly appealing to Brahmins as a caste to come
into its fold. Babasaheb Ambedkar famously talked about annihilation of caste
and declared that there is no scope of Dalit liberation under Hinduism. This
irony is not confined to BSP. A Dalit is submissively the President under the
current dispensation and an ex-Dalit Panther is a minister. All this can be
explained away as pragmatic responses to the demands and rigours of democracy.
But what about the movement itself? What about Ambedkar’s mission?
The question goes far deeper. Why is it the
case that Hindutva has been able to make such inroads into Dalit communities?
In what ways and to what degrees the ‘Hindu civilizational mind’ sits within
the ‘Dalit cultural mind’? Why is it the case that in Gujarat carnage and
elsewhere Dalits have been as much and as willing a part of the Hindutva
“Brownshirts” as any other community? Why is it the case that an occasional
Dalit leader who emerges as a fiery meteorite in the aftermath of a gruesome
atrocity disappears as fast from the social and political horizon and the
masters of the electoral machinations remain as much in control of the actual
political arena?
One hopes that the theorists of social
movements – from Columbia and Harvard Universities to JNU and Osmania – are
earnestly grappling with this puzzle. We all know the simple and common-sense
answers, but they do not suffice. The puzzle needs a deeper explanation. How
long the intellectual prophets of the social movements remain content with
celebrating the history and the survival of these movements? How long will
Dalit writers remain content with asking the caste lineage of other (Savarna)
writers and denouncing them for the surnames they use? How long will they be
content with demanding monopoly over literary depiction and theoretical
explanation of Dalit life and experience? Real questions and real challenges
remain unattended.
जवाबदेही
लोकतंत्र का मूलभूत तत्व है और, माना जाता है कि
अंततः लोग ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और तंत्रों के माध्यम से सत्ता में बैठे
लोगों पर निगरानी रखते हैं, लेकिन हम यह भी
जानते हैं कि लोकतंत्र में अक्सर क्या होता है। चुनावी प्रतिस्पर्धा ऐसी ''तकनीकों"
(अक्सर धार्मिक, सांस्कृतिक और
पहचान-आधारित) को जन्म देती है जो नागरिकों को "भक्त" और उत्पाती
सैनिकों के रूप में (हिटलर की
"ब्राउन शर्ट्स" याद करें) तब्दील कर देती है। लोकतंत्र का यह अँधेरा
पहलू दूसरे पहलू की तुलना में अधिक बार उछल कर सामने आता है। आज हिंदुस्तान उसी
तबाही के दौर से गुज़र रहा है। अमेरिका में ट्रम्प इसी तरह की परिघटना का उदाहरण
था।
लेकिन क्या
आंदोलनों को भी किसी व्यक्ति या किसी विचार के प्रति जवाबदेह होना चाहिए? यह कहा जा सकता है कि आंदोलन अपने स्वयं के
मिशन, मूल्यों, उद्देश्यों,
तर्कों और
रणनीतियों के प्रति जवाबदेह होते हैं। क्या इस हिसाब से कोई आंदोलनों का मूल्यांकन
कर रहा है?
वामपंथी आंदोलन
के लिए तो यह सच है कि उसका लेखा-जोखा पूरी दुनिया में पर्याप्त रूप से किया गया
है। यहाँ तक कि, अधिकांश लोगों के
लिए अब इसे टास्क के रूप में लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह गई है। बहुतों के लिए
तो वामपंथ ख़त्म ही हो गया है। जो ख़त्म हो गया है उस पर समय क्यों बर्बाद करना? लेकिन फिर भी,सबसे मज़े की बात
यह है कि वामपंथ अभी भी अधिकांश अन्य आंदोलनों और उनके बौद्धिक दिग्गजों की
आलोचनाओं का पसंदीदा निशाना बना हुआ है जिसको जब चाहे कोड़े मारे जा सकते हैं। यहाँ
भारत में दलित बुद्धिजीवियों का प्रिय शगल वामपंथी आंदोलन में सवर्ण (उच्च जाति)
वर्चस्व को उजागर करना है और बहुत सी नारीवादियों का काम तो बस वामपंथियों के 'स्त्री -द्वेष'
पर ही ध्यान
केंद्रित करना है। मानो भारतीय समाज के किसी सर्वेक्षण में दलितों और महिलाओं के
खिलाफ उत्पीड़न और हिंसा के सबसे संभावित और सबसे बड़े अपराधियों के रूप में
वामपंथी ही उभर कर आए हों! इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वामपंथ को
अपनी सभी बीमारियों और अपनी सभी विफलताओं की ख़बर लेनी चाहिए। लेकिन, क्या एक आंदोलन जिसे अक्सर ही मृत घोषित कर
दिया जाता हो उसे आंदोलनों के मूल्यांकन के प्रमुख उदाहरण के रूप में लिया जाना
चाहिए?
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने
घोषणा की है कि यही वह पार्टी होगी जो वास्तव में राम मंदिर का निर्माण करेगी। यह
पार्टी खुलेआम और जोर-शोर से एक जाति के रूप में
ब्राह्मणों को अपने पाले में आने की अपील कर रही है। सभी जानते हैं कि
बाबासाहेब अम्बेडकर ने जाति-उन्मूलन की बात की थी और घोषणा की थी कि हिंदू धर्म के
तहत दलित मुक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है। यह विडंबना बसपा तक ही सीमित नहीं है।
वर्तमान शासन में एक दलित विनीत भाव से राष्ट्रपति बनता है और एक पूर्व दलित पैंथर
एक मंत्री है। इन सब बातों की व्याख्या तो इस तरह की जाती है कि लोकतंत्र की
बाध्यताएँ इस व्यावहारिक आचरण के लिए मज़बूर
करती हैं। लेकिन खुद उस आंदोलन के बारे में क्या कहा जाए? अम्बेडकर के मिशन का क्या हुआ?
सवाल और भी गहरा
है। ऐसा कैसे हुआ कि दलित समुदायों में
हिंदुत्व इस तरह की पैठ बनाने में सफल रहा? 'दलित सांस्कृतिक दिमाग' में 'हिंदू सभ्यतात्मक दिमाग' किस तरह और किस हद तक बैठ गया है? ऐसा क्यों है कि गुजरात नरसंहार के दौरान और
अन्य जगहों पर भी दलित हिंदुत्व के "ब्राउन शर्ट" बनने के उतने ही आकांक्षी रहे हैं जितना कि कोई
अन्य समुदाय? ऐसा क्यों है कि
दलितों के ऊपर अत्याचार की किसी घटना के बाद कोई दलित नेता किसी प्रज्ज्वलित
उल्कापिंड की तरह सामने आता है, लेकिन सामाजिक और
राजनीतिक क्षितिज से उतनी ही तेजी से गायब भी हो जाता है जबकि चुनावी खेल के
खिलाड़ी ज़मीनी राजनीतिक अखाड़े पर अपना पूर्ण नियंत्रण बनाए रहते हैं?
उम्मीद है कि
कोलंबिया और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों से लेकर जेएनयू और उस्मानिया तक के
सामाजिक आंदोलनों के सिद्धांतकार - इस पहेली को गंभीरता से ले रहे हैं। हम सभी सरल
और सामान्य बुद्धि के उत्तर जानते हैं,
लेकिन वे
पर्याप्त नहीं हैं। पहेली को एक गहरी व्याख्या की जरूरत है। सामाजिक आंदोलनों के
बौद्धिक पैग़म्बर कब तक इन आंदोलनों के इतिहास और इनके बचे रहने का जश्न मनाने से
ही संतुष्ट रहेंगे?
दलित लेखक कब तक
अन्य (सवर्ण) लेखकों की वंशावली पूछते रहेंगे और उनके जातिनामों के लिए उनपर इलज़ाम
लगा कर संतुष्ट होते रहेंगे? वे कब तक दलित
जीवन और उसके अनुभव के साहित्यिक चित्रण और उसकी सैद्धांतिक व्याख्या पर एकाधिकार
की मांग भर करते रहेंगे? असली सवाल और
असली चुनौतियों पर अभी ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
-रवि सिन्हा