“कर्नाटक चुनाव नतीजे और दो प्रतिद्वंदी विचारधारायें” विषय पर Washington DC Diaspora द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रस्तुत टिप्पणी
मैं अपनी बात एक खंडन के
साथ शुरू करना चाहूंगा। मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं कि इस बात का विशेषज्ञ नहीं हूं
कि चुनाव कैसे लड़े और जीते जाते हैं. न मैं इस बात में किसी महारत का दावा कर सकता
हूं कि चुनावी नतीजों का इस तरह विश्लेषण करूं कि आखिर कौनसी चीज़ ने काम किया है
और किसने नहीं किया है। इसलिए, कर्नाटक में हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों
को लेकर मैं कोई नयी अन्तर्दृष्टि नहीं प्रदान करने वाला हूं, जो इसके पहले से उपलब्ध मीडिया रिपोर्टों और विश्लेषणों में उपलब्ध है। मैं
यहां आज की चर्चा के शीर्षक के दूसरे हिस्से पर अपने आप को केंद्रित करूंगा - दो प्रतिद्वंदी विचारधाराएं।
विचारधाराओं का प्रश्न उठाना कोई आसान काम नहीं
होता, उनका जवाब देने की बात दूर रही, खासकर तब जबकि जमीनी स्तर पर चल रही सियासत की गंदली होती राजनीति की बात करनी
हो। कागज़ के पन्ने पर विचारधारात्मक एक साफ लाइन खींचना एक बात है, जबकि राजनीति की वास्तविक जमीन पर उसे खींचना दूसरी
बात है। राजनीति के सामान्य दौर में - कमसे कम ऐसे राज्यतंत्र /राज्य शासन विधि/
पॉलिटी के अंतर्गत जो एक सामान्य क्रम में स्थापित हुई है - विचारधारात्मक लाईनें
शायद ही साफ खींची जाती हैं। वे सभी लोग जो सभी परिस्थितियों में साफ
विचारधारात्मक लाईन खींचने पर जोर देते हैं वह निरपवाद रूप से राजनीति के सामान्य दौर के हाशिये पर चले जाते हैं।
ऐसे वक्त़ हालांकि जरूर होते हैं, जब राजनीति के प्रतिमान बदल रहे होते हैं, ऐसी स्थितियों में विचारधारात्मक युद्ध रेखाएं कमोबेश / लगभग , साफ खींची जा रही होती हैं और कभी कभी, भले ही ऐसे मौके बहुत कम आते हैं, ऐसे बदलावों से क्रांतिकारी रूपांतरण भी
प्रस्फुटित होते हैं। मुमकीन है विचारधारात्मक रेखाएं, वास्तविक राजनीतिक उथलपुथल के दौरान अधिक साफ न हों, लेकिन हम पश्चद्रष्टि / दूरंदेशी ( hindsight ) के तौर पर बाद में पढ़ सकते
हैं जब राज्यतंत्र/ राज्य शासन विधि/ पॉलिटी और समाज एक नए नॉर्मल में स्थापित हो जाता हो।
हम यह नहीं कह सकते कि आज की तारीख़ में भारत
ऐसे किसी मुक़ाम पर है जहां राजनीति के प्रतिमान बदलते दिख रहे हैं जो किसी क्रांति
का वायदा कर रहे हों। दरअसल, हिन्दुत्व के उभार के साथ एक प्रतिक्रियावादी किस्म का
बदलाव निर्णयात्मक रूप में आकार ग्रहण किया है। वर्ष 2014 की एक दहाई बाद, अब यह साफ हो चुका है, कम से कम उन लोगों के लिए जो गौर कर सकते हैं कि भारत ने अपने ऊपर किस किस्म
की तबाही को न्योता दिया है। अर्थव्यवस्था, सामाजिक ताना बाना और शासन की संस्थाओं, और खुद जनतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी पहुंची चोट, अब मुल्क की समूची संरचना पर महसूस की जा सकती है। भारत को कई दशक पीछे ढकेला
गया है जो रफ़्ता रफ़्ता ही सही एक प्रबुद्ध जनतांत्रिक गणतंत्र बनने की दिशा में बढ़
रहा था जहां उसकी अर्थव्यवस्था भी औसत दर्जे की समृद्ध थी और इतनी बेपरवाह भी नहीं
थी। तय बात है एक दशक में ही जो खोया है उससे उबरने के लिए कई दशक लगेंगे। और इस
के बावजूद, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हम वर्ष 2024 में अधिक तबाही की दिशा में नहीं बढ़ेंगे।
इन परिस्थितियों में , किसी को भी भोला भाला / सरलमति या रूढिवादी नहीं समझा जाना चाहिए, जो अगर ऐसे प्रतिमानात्मक बदलाव ( paradigm shift ) की कामना कर रहा हो , जिसका फोकस पुनःस्थापन पर हो, पुराने दौर को लौटाने पर हो। हम इस बात को महसूस
कर सकते हैं कि राजनीतिक घड़ी महज एक दशक पीछे ले जाने से भी देश को काफी राहत
मिलेगी। ऐसी तबाही के दिनों में, एक किस्म के पुनःस्थापन की उम्मीद करना कोई
अपराध नहीं है, खासकर तब जब क्षितिज पर किसी इन्कलाब के संकेत
नहीं दिख रहे हैं। इसी वजह से राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की कामयाबी और उसके बाद कर्नाटक के विधानसभा
चुनावों में कांग्रेस पार्टी की शानदार जीत एक किस्म के बड़े राहत के संकेत के तौर
पर आयी हैं । इतनाही नहीं यह जागरूक नागरिकों के लिए भी बेहद जरूरी उम्मीद की एक
किरण के तौर पर आयी है, यहां तक कि काफी हद तक समूचे मुल्क के पैमाने पर
परेशानहाल जनता और उत्पीड़ित समुदायों ने भी इसे महसूस किया है।
हालांकि हमें यह सवाल पूछना
ही चाहिए कि क्या कर्नाटक के नतीजे इस वजह से सामने आए हैं कि जमीनी स्तर पर
विचारधारात्मक रेखाएं साफ साफ खींची गई हैं ? भले ही यह निराशाजनक लगे, इसका जवाब नहीं है। दरअसल, यह उतना निराशाजनक नहीं लगना चाहिए, जितना सुनाई देता है। जैसा कि मैंने कहा कि
चुनावी राजनीति की दलदल में यह आसान नहीं होता या कभी कभी श्रेयस्कर /वांछनीय भी
नहीं होता। तमाम परिस्थितियों में इस पर जोर देना कभी कभी उल्टा भी पड़ सकता है। हम
बिल्कुल विपरीत प्रश्न भी पूछ सकते हैं: क्या यह नतीजे इस बात पर उपयोगी रौशनी डाल
सकते हैं कि जमीनी स्तर पर विचारधारात्मक विभाजक रेखा कैसे खींची जा सकती है ? इसका जवाब सकारात्मक होगा। मैं अभी इसी प्रत्यक्ष रूप से नज़र आ रही
विरोधाभासपूर्ण परिस्थिति पर ही गौर करूंगा।
कर्नाटक नतीजों में सबसे पहली बात नोट करनेलायक
है कि कांग्रेस, जिसने भाजपा का और केसरिया ब्रिगेड का सीधे
मुकाबला किया, उसे निर्णायक जीत मिली है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दुत्व को जबरदस्त शिकस्त मिली है। भाजपा ने 2018 में जो 36 फीसदी वोट हासिल किया था, वह उसने बरकरार रखा है। चुनावी विश्लेषण के इस कुल जोड़ के स्तर पर, ( aggregate level ) कांग्रेस की बढ़ोत्तरी जनता दल सेक्युलर (JDS) जो एक क्षेत्राीय पार्टी है . की कीमत पर हुई है, जिसका वोट प्रतिशत लगभग उतना ही अर्थात पांच प्रतिशत गिरा है। अपने नाम के
बावजूद, चुनावों के बाद यह पार्टी साफ तौर पर भाजपा के
करीब पहुंची है।
लेकिन हमें महज कुल संख्या के आधार पर निष्कर्ष
नहीं निकालने चाहिए। कांग्रेस महज इस वजह से नहीं जीती है कि उसे मैसूर क्षेत्र में फायदा मिला है जहां जनता दल सेक्युलर मजबूत रही है। दरअसल उसने तेलगू
राज्यों और महाराष्ट्र के करीब उत्तरी कर्नाटक की भी अधिकतम सीटें जीती हैं। समूचे
राज्य के ग्रामीण इलाकों में उसे बढ़त हासिल हुई है। नोट करनेलायक बात यह है कि न
केवल भाजपा ने अपना सकल वोट प्रतिशत बरकरार रखा है, उसे अन्य इलाकों में बढ़ोत्तरी भी हासिल हुई है। ऐसे इलाकों में जहां
सांप्रदायिक विभाजन अधिक तगड़ा है और हिन्दुत्व की पैठ गहरी है, वहां उसे अधिक फायदा हुआ है। उडुपी-मंगलौर के तटीय इलाकों में उसने अपनी पकड़
बनाए रखी है और यहां तक कि उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। वही हाल बेंगलुरु और आसपास
के शहरी इलाकों का है जहां उसे 28 में से 15 सीटें हासिल हुई हैं। श्रीरंगपटटनम का मामला तो काफी चौंकानेवाला है जहां उसका
वोट प्रतिशत 2018 के 6.4 फीसदी से बढ़ कर 2023 के 22.8 फीसदी तक पहुंचा है। यही वह जगह है जहां एक
जबरदस्त सांप्रदायिक मुहिम इस दावे के इर्द गिर्द चल रही है कि एक अन्य मस्जिद
दरअसल एक मंदिर ही है। यह सोचना मूर्खता होगी कि कर्नाटक में हिन्दुत्व ने अपनी
जमीन खोयी है।
हिन्दुत्व की पकड़ का एक मार्मिक उदाहरण है बजरंग
दल और बजरंग बली प्रसंग। जब खुद प्रधानमंत्राी ने इन उपद्रवियों की तुलना मारूति
से की, और जब एक के बाहुबल और दूसरे के आशीर्वाद से
सहायता चाही, तो मुल्क में इस स्वांग का जबरदस्त मज़ाक उड़ा।
लेकिन फिरभी यह कहना जरूरी है कि यह कोई हंसकर उड़ा देने की बात नहीं है। इस
आपाधापी में कांग्रेस के कई नेताओं ने अपनी धार्मिक पहचानों का प्रदर्शन करने में
संकोच नहीं किया - यहां तक कि डी के शिवकुमार, जो कर्नाटक की जीत के प्रमुख शिल्पकार समझे जाते हैं, उन्होंने कई मंदिरों के चक्कर लगाए - जिनका मीडिया में भी प्रचार हुआ और
कांग्रेस की मुहिम में लगे लोग इस बात को गिनाने लगे कि कांग्रेस के राष्टीय
अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने, कर्नाटक के हैद्राबाद इलाके में कितने हनुमान
मंदिरों का निर्माण किया। वे सभी जो जमीनी हालात से वाकीफ रहते हैं और जिन्हें इस
बात का पता है कि भारत में चुनाव कैसे लड़े और जीते जाते हैं, उन्होंने इस कदम को हल्के में नहीं लिया।
कर्नाटक की जीत को लेकर मीडिया में जो अलग अलग
विश्लेषण सामने आए है, वहां कांग्रेस की जीत कोे लेकर कई कारकों का
उल्लेख किया गया है, लेकिन इनमें तीन ज्यादा उभर कर सामने आए हैं -
अपवादस्वरूप एक अत्यधिक भ्रष्ट सरकार के खिलाफ कथित सत्ताविरोधी भावना, आबादी के बड़े हिस्से के गरीबों को झेलनी पड़ती आर्थिक कठिनाइयां और कर्नाटक में
कांग्रेस पार्टी की सापेक्षतः अधिक मजबूत सांगठनिक उपस्थिति। ऐसे विश्लेषण दरअसल
कथित तौर पर जाति और समुदायों पर आधारित - लिंगायत, वोक्कालिगा, कुरूबा, मुसलमान और अन्य - वोट बैंको को भी समेटते हैं। लेकिन ऐसे वोट बैंक का प्रबंधन
करना एक तरह से ऐसी किसी चुनावी रणनीति का एक आवश्यक हिस्सा है - जिसे सोशल
इंजिनीयरिंग जैसे व्यंजनापूर्ण मुहावरे में प्रगट किया जाता है। वह किसी
विचारधारात्मक विभाजक रेखा को परिभाषित नहीं करती। अगर हम भारतीय राजनीति की
प्रचंड संश्लिष्टता से किसी ऐसी समझदारी को निःसृत करना
चाहें तो कारकों के दो बड़े संकुल/संचय उभर कर सामने आते हैं - हिन्दुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , धार्मिक और अन्य पारंपारिक पहचानें एक संकुल /संचय का निर्माण करती हैं तथा
गरीबी, वर्ग, जिन्दगी की बुनियादी सुरक्षा और भौतिक खुशहाली
जैसे मुददे दूसरे संकुल/संचय में आते हैं।
बीसवीं सदी के इतिहास को देखते हुए वर्ग की canonical परिभाषा ही ही विचारधारात्मक विभाजक रेखा के
केन्द्र में स्थित मानी जाती रही है। ऐसे तमाम लोग जो इस परिभाषा से इत्तेफाक रखते
हैं और अन्य किसी परिभाषा की संभावना को भी खारिज करते हैं, वह इस तथ्य को रेखांकित करेंगे कि कर्नाटक का चुनाव इसलिए जीता गया क्योंकि
गरीब, खासकर ग्रामीण इलाकों के गरीबों ने कांग्रेस को
समर्थन दिया। जबकि यह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि वर्ग का कारक कहीं नहीं गया
है, वह अन्य कारकों की अधिक प्रभावी उपस्थिति को स्पष्ट नहीं करता। जैसा कि मैंने
पहले ही उल्लेख किया कि कांग्रेस की जीत का मतलब यह नहीं है कि कर्नाटक में
कांग्रेस को शिकस्त मिली है और यह भी मामला नहीं है कि गरीबों ने कांग्रेस को
इसलिए वोट दिया कि वह हिन्दुत्व से नफरत करते हैं।
हक़ीकत यही है कि आज की तारीख में दो अलग अलग
धुरियां दिखती हैं जिसके इर्दगिर्द आज की राजनीति की विचारधारात्मक विभाजक रेखाओं
को खींचा जा सकता है। वर्ग की धुरी तो विहित / कैनोनिकल (canonical ) है, लेकिन एक दूसरी धुरी भी है। किसी अन्य सुचिंतित
शब्दावली के अभाव में आइए उसे सांस्कृतिक धुरी कहते हैं। इसमें शामिल हैं धर्म, जाति, नस्लीयता, समुदाय, भाषा और यहां तक कि सभ्यताओं पर आधारित पहचानें
/अस्मिताएं। यह धुरी जनतांत्रिक और चुनावी राजनीति के दायरे में अधिक सक्रिय हुई
है। दरअसल, इस प्रश्न का एक हिस्सा अधिक तीखे तरीके से पूछा
जा सकता है। आखिर क्यों हमेशा ही मौजूद वर्ग धुरी क्यों कभी राजनीतिक तौर पर
सक्रिय धुरी को जन्म नहीं देती है ? ( यही प्रश्न जेण्डर धुरी के
बारे में भी पूछा जा सकता है, भले ही अलग अंदाज में) जैसा कि कई वामपंथी ट्रेड
यूनियन कार्यकर्ता बता सकते हैं, फैक्टरी की सरजमीं पर जो वर्ग एकत्रित होता है
वह शायद ही अपनी वर्गीय पहचान और एकजुटता को वोटिंग बूथ के समय याद करता है। यहां
मैं वर्ग और संस्कृति के अन्तर्सम्बन्ध के उच्च सिद्धांत की तरफ भी नहीं मुड़ूँगा ।
अभी प्रस्तुत चर्चा के लिए मैं एक व्यावहारिक रूख अख्तियार करूंगा और इन दो दायरों
को सापेक्षतः स्वायत्त अलबत्ता गहरी भूम्यन्तर्गत (deep subterranean ) स्तर पर जुड़े रहने की बात करूंगा ।
राजनीति में संस्कृति का उभार महज तीसरी दुनिया
तक सीमित नहीं है।Clash of Civilisations ‘(सभ्यताओं का टकराव’) शीर्षक से ग्रंथ से मशहूर हुए हार्वर्ड के प्रोफेसर सैमुअल हंटिग्टन, को अन्य प्रगतिशील प्रोफेसरों की तरफ से जरूर अनुशासित किया जा सकता है जब
उन्होंने अपनी असली शक्ल उजागर की - जब उन्होंने अमेरिकियों को यह पूछने के लिए
प्रेरित किया - हम कौन हैं ? - और उन्हें प्रोत्साहित किया
कि वह लातीनो प्रवासियों से सचेत रहें, जो उनके हिसाब से अमेरिकी राष्ट्रीय पहचान के
लिए खतरा थे। उन्हें उलाहना देना आसान काम है , लेकिन हम अमेरिकी राजनीति में डोनाल्ड ट्रंप के उभार को कैसे स्पष्ट कर सकते
हैं, जो उसी तर्ज पर अमेरिकी राजनीति में सामने आया है जैसी धारणा हटिंगटन ने
स्पष्ट की थी ? ट्रंप जैसों का आगमन महज उस वजह से नहीं होता कि
हंटिंग्टन जैसे लोग इसका सिद्धांत पेश करते हैं। ट्रंपवाद के स्त्रोत अमेरिकी समाज की गहरी तहों पर दिखते हैं। उसी तरह, हिन्दुत्व का राजनीतिक आकर्षण, कम से कम आंशिक तौर पर सही भारतीय समाज मन की
गहरी तहों से उभरता है।
इस पहेली और त्रासदी को और जटिल बनाने के काम
में खुद जनतंत्र, जो अत्यधिक प्रतियोगितात्मक किस्म का होता है, भूमिका अदा करता है, जो सामाजिक मन की गहरी तहों के सबसे निकृष्टतम
पहलुओं को उभार कर सामने लाता है। आखिर दुनिया में कौन ऐसा दावा करेगा कि जनतंत्र
का बेहतर विकल्प उसके पास है ? लेकिन, हक़ीकत यही है कि ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब
जनतंत्र अपने आप को विचित्र जगहों पर पहुंचता पाता है। जनतंत्र के रास्ते हिटलर के
उभार का मसला बेहद घिसा पीटा लग सकता है, भले ही आज की दुनिया में यह परिघटना अधिक
सार्वत्रिक दिखती है। अमेरिका में बसे आप लोगों के पास ट्रंप है और मुझे बताया गया
है कि ट्रंपवाद अभी कहीं नहीं गया है। हिन्दोस्तां में रहने
वाले हम लोगों के लिए नरेंद्र मोदी हैं ; तुर्की ने अभी हालही में एर्दोगान को फिर चुना
है जो 2003 से सत्ता में है, पहले प्रधानमंत्री के तौर पर और बाद में राष्ट्रपति के तौर पर ; ब्राजील के बोलसोनारो को मुश्किल से हराया जा सका ; पुतिन का उदाहरण इतना अधिक चर्चित है कि उसे भुलाया नहीं जा सकता। हम ऐसे तमाम
उदाहरण दे सकते हैं जब जनतंत्र खुद आत्महत्या करने के कई विचित्र रास्ते ढूंढता
है। लेकिन इन सभी उदाहरणों में एक बात बिल्कुल साझी है. सांस्कृतिक धुरी एक बेहद
महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
यह सब कहते हुए मैं इस बात के प्रति सचेत हूं कि सांस्कृतिक धुरी कभी राजनीतिक दायरे में अपने आप सक्रिय नहीं होती। प्रतियोगितात्मक चुनावों के
साथ लोकप्रिय जनतंत्र पूरी तरह से सांस्कृतिक परिघटना नहीं है। आखिर यह पूरी कवायद
एक राज्यसत्ता के गठन के लिए है और एक सरकार को चुनने के लिए जो आर्थिक और
राजनीतिक प्रणाली का संचालन कर सके। यह प्रणाली अपने आप को राजनीतिक दायरे में ही
गठित करती है और जाहिरा तौर पर उसी दायरे में संचालित होती है, लेकिन प्रतियोगितात्मक चुनावी प्रक्रिया उसे सामाजिक मन के सांस्कृतिक अवचेतन
में गहरे उतरने के लिए मजबूर करती हैं। डेप्थ साइकोलोजी ( Depth Psychology ) के समरूप, मैं अक्सर डेप्थ पॉलिटिक्स ( Depth Politics) की बात करता हूं. भारतीय
सामाजिक मन का सांस्कृतिक अवचेतन, जिसकी तहें सदियों से और सहस्त्राब्दी से जमती
रही हैं, वह आधुनिक राजनीति में प्रतियोगितात्मक चुनावी
जनतंत्र के माध्यम से संचालित होती हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका के मामले में, हम अक्सर Deep State डीप स्टेट (गहरे राज्य) की बात करते हैं जो जनतंत्र की तारों को खींचता
है जबकि खुद संवैधानिक और जनतांत्रिक सत्ताओं एवं प्रक्रियाओं की पहुंच के बाहर
दिखता है। भारत में खुद डीप स्टेट भले ही उतना गहरा न हो, लेकिन वह मौजूद अवश्य है और सांस्कृतिक अवचेतन (cultural unconscious ) का अस्तित्व उसे बहुत काम आता है। दरअसल, भारतीय डीप स्टेट, इस बात की जरूरत महसूस नहीं करता कि वह अदृश्य
रहे और गहरे तक सीमित रहे। ऐसे तमाम उदाहरण दिखते हैं जब राजनीतिक और आर्थिक
ताकतों एवं कारकों की तरफ से असंवैधानिक, गैरजनतांत्रिक और निहायत बेशरम / निर्लज्ज कस्म
के कदम उठाए गए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक संसाधन और संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं के साथ जो खिलवाड़ किया
जा रहा है, वह छिपा नहीं है। लेकिन मुददा यह नोट करने का है
कि राज्यसत्ता, भले ही वह ‘डीप’ /गहरी हो या अन्य किस्म की हो, उसे यह बहुत आसान लगता है कि वह सांस्कृतिक अवचेतन के साथ खिलवाड़ करे और इस कवायद में जनतंत्र भी
एक सहयोगी हो जाता है।
माईकेल वाल्जर, ( Michael Walzer ) प्रिन्स्टन के राजनीतिक दार्शनिक, उन्होंने एक अन्य दिलचस्प परिघटना की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है, जिसमें मेरे खयाल से सांस्कृतिक धुरी गहरे में आलिप्त/ उलझी
दिखती है। अपनी किताब ‘द पैरोडोक्स आफ लिबरेशन’ में वह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के उदाहरणों को रेखांकित करते हैं, जो विदेशी हुकूमत से आज़ादी की तरफ बढ़े और जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी और प्रबुद्ध जनतंत्रों की स्थापना की, लेकिन कुछ ही दशकों में इन सेक्युलर क्रांतियों ने धार्मिक प्रतिक्रांतियों को
जन्म दिया या उनमें वह परिणत हुईं। विडम्बना यही थी कि इन प्रतिक्रांतियों को
उन्हीं जनतांत्रिक प्रक्रियाओं ने जन्म दिया जिन्हें इनके संस्थापक कर्णधारों ने
एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक और प्रबुद्ध गणतंत्र के मकसद से खड़ा
किया था। वाल्जर के इस पैरोडोक्स ( विरोधाभास ) में भारत का उल्लेख विशेष तौर पर
आता है, हालांकि एक विशाल और जटिल मुल्क होने के नाते ‘‘क्रांति’’ को किसी ‘‘प्रतिक्रांति’’ से स्थापित करने में इतना वक्त़ लगा है।
जवाहरलाल नेहरू जैसी शख्सियत की विदाई के लगभग आधी सदी बाद ही नरेन्द्र मोदी जैसे
शख्स के सत्ता में आने का रास्ता सुगम हुआ है और नेहरूवादी वर्चस्व/हेगेमनी को हिंदुत्व के वर्चस्व में प्रतिस्थापित किया जा सका है।
यह सब कहते हुए मेरा मकसद यही है कि उस
ज़ाहिर/प्रकट/ obvious को रेखांकित किया जाए जिसकी अक्सर उन लोगों
द्वारा उपेक्षा की जाती है जो महज वर्गीय धुरी के इर्दगिर्द विचारधारात्मक विभाजक
रेखा खींचने के प्रति अभ्यस्त होते हैं। दरअसल राजनीति की वास्तविक जमीन पर विभाजक
रेखा वर्ग और संस्कृति दोनों धुरियों को काटती है। प्रतियोगितात्मक चुनावी राजनीति
की उबड़-खाबड़ जमीन पर और वहां जारी उठापटक को देखते हुए हम बहुत समझदारी का दावा
नहीं कर सकते कि कोई प्रमाणित कर दे कि एक दूसरे से से व्युत्पन्न है। अगर वर्ग ही
एकमात्र संचालक धुरी होता, तो वाम ने दुनिया को आसानी से जीत लिया होता।
दूसरी तरफ, अगर संस्कृति ही एकमात्र संचालक धुरी होती तो
फिर दक्षिणपंथ के उभार से बचना नामुमकिन होता. इत्तेफाक से जमीनी स्तर पर यह मामला
नहीं है। यहां तक कि खुद संघ परिवार सिर्फ हिन्दुत्व के बलबूते जिन्दा नहीं रह सकता। यहां तक कि
नरेंद्र मोदी को भी हिन्दु-मुस्लिम विभाजन से परे देखना पड़ता है और बोलना - कमसे
कम बोलना - पड़ता है ‘सबका साथ, सबका विकास’।
इसी रौशनी में कर्नाटक के नतीजों को पढ़ना चाहिए।
स्थूल रूप में कहें तो सांस्कृतिक धुरी कांग्रेस के खिलाफ झुकी थी जबकि वर्गीय
धुरी उसके पक्ष में झुकी थी। जमीनी स्तर पर विचारधारात्मक लाइन खींचने के काम के
लिए बेहद जरूरी है कि हम दोनों धुरियों पर राजनीतिक नक्शे को ठीक से पार कर सकें।
कर्नाटक में इस बार इसे करने में कांग्रेस सफल रही। भाजपा मुख्यतः इसलिए हारी कि
वर्गीय धुरी इसके खिलाफ तीखे रूप से झुकी थी। भ्रष्टाचार और कुशासन के चलते गरीबों
की मुश्किलों में और इजाफा हुआ था।
लेकिन हमें कर्नाटक के उदाहरण से वर्ग के
सापेक्षतः अधिक महत्व को लेकर अधिक उत्साहित नहीं होना चाहिए। जैसा कि मैंने पहले
ही स्पष्ट कर दिया कि कर्नाटक से हिन्दुत्व विलुप्त नहीं हुआ है। कांग्रेस जीतने
में इस वजह से कामयाब हुई कि वह वर्ग आयाम का ठीक से लाभ उठा सकी तथा सांस्कृतिक
धुरी के रास्ते पर अपने आप को नुकसान पहुंचाने से बची। इस परिस्थिति की तुलना हम
ऐसी काल्पनिक स्थिति से कर सकते हैं जहां वाम पक्ष भाजपा का प्रमुख विरोधी हो। वाम
के लिए कांग्रेस की तरह बेहतर करना मुश्किल होता, जिसकी वजह यही है कि वह सांस्कृतिक धुरी के
इर्दगिर्द का रास्ता तय करने में अभी सफल नहीं हुआ है - जो समूचे उपमहाद्धीप में
उसके खिलाफ तीखे अंदाज़ में उपमहाद्वीप में अधिकतर जगहों पर खड़ी है।
उसी के साथ, हमें साफ विचारधारात्मक लाइन खींचने की अत्यधिक जरूरत के काम से अपना ध्यान
नहीं हटाना चाहिए। लगभग एक दशक के मोदी शासन के बाद से जो परिस्थिति भारत में उभरी
है, इसमें यह बात चुनावी संघर्षो में भी जरूरी हो गयी है। इन दोनों धुरियों की
अहमियत को देखते हुए तथा राजनीतिक टोपोग्राफी ( topography ) की असमता को देखते हुए ऐसी लाइन हमेशा सीधी नहीं
हो सकती, लेकिन उसे स्पष्ट होना चाहिए। जनता दल (
सेक्युलर) की शिकस्त के संदर्भ में हम इसकी अहमियत समझ सकते हैं। वह साफ
विचारधारात्मक पोजिशन लेने में असफल रही और अपने पारंपारिक प्रभाव और पुरानी वोट
बैंक की राजनीति के आधार पर उसने अधिकाधिक सीटें हासिल करने की कोशिश की ताकि वह
किंगमेकर बन सके। उसकी यह रणनीति अतीत में काम आती रही है, लेकिन मौजूदा परिस्थिति में उसे यह दांव उलटा पड़ो। विचारधारात्मक प्रतिबद्धता
की अनुपस्थिति को लेकर लोग पहले से चौकन्ने थे।
हिन्दुत्व की मुखालिफ ताकतों के मनोबल बढ़ाने के
अलावा और भारत में बेहद चिंतित करनेवाले राजनीतिक वातावरण में उम्मीद की एक किरण
के तौर पर दिखने के अलावा, कर्नाटक के नतीजों के 2024 के अहम संघर्षों के लिए साफ सबक हैं। लेकिन इस बात
के साफ संकेत मिल नहीं रहे हैं कि इन घटनाओं से समूचे विपक्ष ने सीखने की कोशिश की
है। विपक्ष की एकता के बड़े दावों के बीच, पार्टिंयां और नेता ऐसा रूख अख्तियार कर रहे हैं
गोया वह सीट बंटवारे के लिए ही बैठे हों। हरेक कोई विपक्ष के हिस्से का सबसे बड़ा
भाग ही पाना चाहता है। यह ख़बरें भी सुनाई दे रही हैं कि हरेक भाजपा प्रत्याशी के
खिलाफ संयुक्त विपक्ष का एक ही प्रत्याशी खड़ा किया जाए। कांग्रेस को तमाम सलाह दी
जा रही है कि वह बड़े दिल का परिचय दे और विपक्षी एकता के लिए कुर्बानी देने के लिए
तैयार रहे।
विपक्षी एकता के कोलाहल में साफ विचारधारात्मक
लाइन खींचने की बेहद आवश्यक बात कहीं खो जा रही है। हिन्दुत्व के खिलाफ संघर्ष का सापेक्षतः बेदाग़ रेकार्ड रखने वाली दो ही राजनीतिक ताकतें
मौजूद हैं - कांग्रेस और वाम। अन्य सभी ताकतों का रेकॉर्ड किसी न किसी रूप में
दागदार रहा है। कुछ लोग बेहद दिग्भ्रमित रहे हैं या अदूरदर्शी रहे हैं जबकि तमाम
अन्य खुल्लम खुल्ला अवसरवादी रहे हैं।
इन दो दृढनिश्चयी ताकतों के साथ भी कुछ समस्याएं
रही हैं। वामपंथ, जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, वह संस्कृति की धुरी के इर्दगिर्द लड़ने में खासकर अनाड़ी/अनुपयुक्त/अयोग्य
साबित होता रहा है। इसके चलते जडसूत्रवाद, तंगनज़री या अविचारी लोकरंजनवाद जैसी बीमारियां से उभरनेवाली बाधाओं में
बढ़ोत्तरी हुई है। दूसरी तरफ, कांग्रेस, जो एक बड़ी राजनीतिक ताकत रही है, उसकी समस्याएं अधिक बड़ी हैं। उसके लंबे और जटिल
इतिहास को देखते हुए, और राजनीतिक दायरे में उसकी हाल की चूकों और कुछ
अन्य भूलों को देखते हुए, हिन्दुत्व के लिए रास्ता सुगम करने के आरोप से उसे बचाना पूरी तरह संभव नहीं होगा। वह
हमेशा ही धर्मनिरपेक्षता और हिन्दुत्व के बीच झूलती रही है और उसके पास ऐसे नेता
और कार्यकर्ता रहे हैं जो कभी भी बिना पलक झपकाए दूसरे खेमे में जाते रहे हैं।
कांग्रेस कभी भी स्पष्ट विचारधारा या काडरआधारित पार्टी का शानदार उदाहरण नहीं रही
है। इसके बावजूद यह कहना पड़ेगा कि वह हाल के महिनों और वर्षों में बेहतर हो रही
है। वहां काफी आंतरिक मंथन चला है और कांग्रेस एक ऐसी केन्द्रीय शक्ति बन कर उभरी
है जिसके इर्दगिर्द हिन्दुत्व विरोधी ताकतों को लामबंद किया जा सकता है।
एक विचारधारात्मक नेता और समझौताविहीन योद्धा के
तौर पर राहुल गांधी का उभार कांग्रेस के हालिया इतिहास में एक नया मोड़ रहा है। भारत जोड़ो यात्रा ने देश के राजनीतिक वातावरण को बदल दिया है। लेकिन इसके बावजूद राहुल की कांग्रेस
इतनी मजबूत स्थिति में नहीं है कि वह विपक्ष के भिन्न / मुक्त़लिफ राजनीतिक
शक्तियों के बीच विचारधारात्मक एकता कायम कर सके। समस्या इस वजह से भी अधिक जटिल
हो जाती है कि अगर कांग्रेस ने देश के उनके हिस्से में मजबूती हासिल की तो तमाम
क्षेत्रीय दलों का नुकसान तय है। दरअसल हरेक कोई यही चाहता है कि कांग्रेस अन्य
जगहों पर मजबूत हो लेकिन उनके अपने इलाकों में कमजोर रहे या हाशिये पर रहे।
हमारे जैसे लोग भारत में विपक्ष का कोई रास्ता
तय नहीं कर सकते. न हम रणनीति बनाने के हालत में है, न ही वार्ता के टेबल पर बैठने की स्थिति में हैं। हम अधिक से अधिक यही कर सकते
हैं कि एक इच्छाओं की एक सूची पेश कर सकते हैं, जो तार्किक / उचित लगें। लेकिन हमें जटिलता के प्रति अधिक ग्रहणशील होना होगा, जब व्यापक रणनीतियों का निर्माण करना हो। भारत का एक कोना दूसरे कोने से कितना
अलग है। मिसाल के तौर पर, केरल, जहां कांग्रेस और वाम एक दूसरे का सामना कर रहे
हैं, यह उचित होगा कि वह एक दूसरे के खिलाफ रहें बशर्ते वह भाजपा के लिए रास्ते बंद
रखें। दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल में यह सोचना बिल्कुल अशोचनीय /
असंभव नहीं है कि कांग्रेस और वाम मिल कर ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस से इस
तरह लड़ें कि वे भाजपा से जमीन छीन लें और तृणमूल के लिए प्रमुख विपक्ष बन कर
उभरें। भारत के उस हिस्से में, भाजपा से राष्ट्रीय स्तर पर लड़ने का वही एकमात्र
प्रभावी तरीका साबित हो। देश के अलग हिस्से हैं जहां, मिसाल के तौर पर, भाजपा को विरोध के नाम पर एक साझा विपक्षी
उम्मीदवार हर सीट पर खड़ा करने का मतलब यही सुनिश्चित करना होगा कि भाजपा को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिल जाएं। हम भारत के राजनीतिक भूगोल की जटिलताओं के बारे
में इस तरह तमाम बातें करते रह सकते हैं।
विचारधारात्मक लाइन खींचनी ही होगी लेकिन हम
अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह सीधी ही हो। हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस लड़ाई में
कांग्रेस प्रमुख नेतृत्वकारी की भूमिका में हो, लेकिन हमें यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह विचारधारात्मक रज्जुओं से अपने
हाथ और पैर इस तरह न बांध दे कि वह हिन्दुत्व के खिलाफ असली संघर्ष लड़ने के लिए निष्प्रभावी हो जाए, जिस तरह वाम की स्थिति हुई है।
अंत में, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि फासीवादी चुनावों के जरिए भले ही सत्ता में आ
जाएं, लेकिन वह इस बात के प्रति जवाबदेह नहीं होते कि
वह चुनावों के जरिए सत्ता से बेदखल होने के लिए तैयार रहें। अमेरिकी संस्थानों की
सापेक्ष मजबूती का ही परिणाम था कि संयुक्त राज्य अमेरिका में 6 जनवरी का एक सुखद नतीजा निकल सका। जनवरी 6 के समानांतर कोई भारत में प्रसंग घटित हो तो वह भारतीय जनतंत्र के लिए मौत की
घंटी साबित होगा, जो पहले से ही जबरदस्त तनाव में है।
इसी निराशाजनक सुर में, मैं अपनी बात यहां समाप्त कर रहा हूं।
(जून 10, 2023)