Wednesday, April 20, 2011

Third Issue of CRITIQUE Published by NSI Delhi University Chapter is Out!


New Socialist Initiative (NSI)-Delhi University Chapter has come out with the Third issue of "Critique", a magazine which deals with higher education, universities, marginality, left politics, histories of student movements from India and beyond.

Scroll down to see the Contents and the cover of the Third Issue (Vol-1, Issue-3, Jan-May).

If you are in Delhi, you can get your copies at: U-Special Bookstore, Arts Faculty, Delhi University; Jawahar Book Depot, Jawaharlal Nehru University (JNU); People's Tree, Connaught Place. Copies are also available on request in Allahabad, Gorakhpur, Guwahati, Bhopal, Jabalpur, Chandigarh and few other cities. Just email at critique.collective@gmail.com for copies.


Monday, April 18, 2011

हम बनाम वे: अकादमिक कारखाने में दुनियाभर के शिक्षकों तुम श्रमिक भी हो, संगठित हो शताब्दी के अंत में शिक्षा जगत के दस किस्से


 माइकल येट्स

पत्रिकाओं, अखबारों और मेरे परिचित ई-मेल विचार-विमर्श गु्रपों से चुनी हुई निम्नलिखित बातों पर गौर करें:

1. टोरन्टों की चाक यूनिवर्सिटी ने कम्पनियों से अनुरोध् है कि दस हजार डालर देकर वे यूनिवर्सिटी में चल रहे किसी भी कोर्सा में अपनी कम्पनी का लोगों लगा लें।

2. न्यूयार्क की सिटी यूनिवर्सिटी ने अपनी वे कक्षाएं समाप्त कर दीं जिनमें विशेष मदद का प्रबंध् था। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय ने कमजोर विद्यार्थियों ;गरीब और अश्वेतद्ध के लिए विशेष कार्यक्रम समाप्त कर दिए।

3. पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी ने, जिसे कम्पनियों और रक्षा विभाग से खूब ध्न मिलता हे, शिक्षकों के शैक्षिक अवकाश के प्रावधन उनसे बिना पूछे खत्म कर दिया है।

4. कई विश्वविद्यालयों ने क्रेडिट कार्ड कम्पनियों से कापफी दान लेकर उन्हें कैम्पस में एकाध्किार दे दिया है। एक जगह तो क्रेडिट कार्ड कम्पनी छात्रों के रेडियो-टी.वी. कार्यक्रमों के लिए ध्न देती है। 

5. पफीनिक्स की तथाकथित यूनिवर्सिटी, प्राइवेट और मुनापफे के लिए चलने वाली संस्था, एकतीस राज्यों में पंचानबे संस्थाएं चलाती है जिसमें पचपन हजार विद्यार्थी हैं। इसने सुविध, उपभोक्ता सेवा, भारती उत्पादन, तथा व्यवसायिक सहभागिता जैसी व्यापारिक रणीनीति को आक्रामक रूप से लागू किया है। उसके ग्राहक कोडक, आईबीएम, जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कम्पनियां हैं जो उन लाखों वयस्क विद्यार्थियों के लिए प्रतिस्पर्धरत है जो लगातार नौकरियां बदलने की तैयारी में लगे हुए हैं।

6. कैलीपफार्निया स्टेट यूनिवर्सिटी का तंत्रा अपनी विभिन्न कैम्पसों के बीच के कम्प्यूटर सिस्टम को ‘माइक्रोसाफ्रट’ संचालित एक संगठन को सौपने की तैयारी में है। राज्य शिक्षा व्यवस्था का यह निजीकरण ;जो राजनीतिक विरोध् के चलते पिफलहाल रुक गया हैद्ध उन्हीं शक्तियों द्वारा उत्प्रेरित है जिन्होंने कूड़ा इकट्ठा करने से जेल व्यवस्था, शिक्षण संस्थाओं में कैन्टीन सेवा और कैम्पसों में पुलिस व्यवस्था तक हर क्षेत्रा में निजीकरण को आगे बढ़ाया है।

7. इतिहासकार डेविड नोबुल के अनुसार ‘एडूकाम’ अर्थात शिक्षा और व्यवसाय जगत के कन्सर्टियम ने ‘ल²नग इन्Úास्ट्रकचर एनिशिएटिव ‘स्थापित किया है जिसके कामों में शामिल है इसका विस्तृत अध्ययन कि प्रोपफेसर लोग करते क्या हैं। इसके लिए वह टेलर प्रणाली से शिक्षण को खंडित कर देखते हैं कि कौन से काम स्वचालित प(ति से हो सकते हैं और जिन्हें दूसरे भी कर सकते हैं। एडूकाम के अनुसार ‘कोर्स डिजाइन’ लेक्चर और मूल्यांकन का मानिकीकरण, यंत्राीकरण करके बाहरी एजेंसियों को सौंपा जा सकता है। एडूकाम के अध्यक्ष रॉबर्ट हेटेरिच का मानना है कि ‘आज का पर्यावरण व्यक्तिगत मानवी मध्यस्थता संचालित है।’ इसकी जगह स्वचालित कम्प्यूटरी नेटवर्क व्यवस्था की भारी गुंजाइश है। ऐसा होना ही है ;देखिए डिजिटल डिप्लोमा मिल्स मंथली रिव्यू पफरवी 1998द्ध

Tuesday, April 12, 2011

विश्वविद्यालय में रिक्शेः इक्कीसवीं सदी के भारत के नये प्रतीक

संजय कुमार

दिल्ली विश्वविद्यालय की सड़कों पर यह दृश्य बहुत आम है। इतना आम कि इसके बारे में कोई विशेष बात करना अजीब माना जा सकता है। दो मिली मीटर मोटी 64 तीलियों के तीन चक्कों के रिक्शा वाहन पर पर 18 से 22 वर्ष का का युवक या युवती सवार हैं।  सम्पन्न परिवार के युवक युवती आमतौर पर स्वस्थ होते हैं, वैसे ही यह सवारी भी है। स्वस्थ शरीर के साथ यौवन सुलभ सौन्दर्य व आकर्षण भी है, लिबास व सर के बालों पर लगे जैल  से लेकर पांवों के जूतों तक के चुनाव पर की गयी चेष्टायें इन दोनों को और बढ़ाती हैं। युवक/युवती का सारा ध्यान कान पर लगे सैल फोन पर चल रहे वार्तालाप पर है। उस वार्तालाप के साथ ही उसके चेहरे पर मुस्कान, हंसी या उत्तेजना आती है। उसके बिना चेहरा शून्य हो जाता है। यह स्वस्थ, सुन्दर, व सज्जित शरीर दिसम्बर की खिली  धुप में छात्रा मार्ग की की ढलान पर पन्द्रह किलोमीटर की रफ्रतार से गतिमान हैं, गालों की थपथपाती व बालों में घुसती ठन्डी हवा से चेहरा और चमक उठा है। युवक युवती से महज दो फुट दूर एक अन्य शरीर है, पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार से आये किसी देहाती का। इस शरीर की तनी मांसपेशियां युवक/युवती के गतिमान होने का कारण है। कद काठ व भार में यह शरीर युवक युवती से छोटा है, लेकिन आयु में औसतन उससे बड़ा। रिक्शा चालक के कपड़ों में कोई तरतीब ढूंढ पाना असंभव है। प्लास्टिक के काले जूतों के साथ लाल जुराबें, काली पतलून के साथ भूरा स्वेटर, जो कुछ जैसा जहाँ मिला पहन लिया। युवक/युवती का शरीर जितना विशेष प्रतीत होता है, रिक्शाचालक का उतना साधरण। सड़क की धुल मिट्टी का हिस्सा। रिक्शा पर स्थित दो मनुष्यों में एकमात्र संवाद भाड़े को लेकर होता हे, वर्ना वे दोनों अपनी अलग अलग दुनियाओं में गुम हैं।

Sunday, April 10, 2011

एक दमनकारी कानून के खिलाफ उठी ‘लौह महिला’ : मणिपुर की महान कवयित्रि इरोम शर्मिला और उनका संघर्ष

- सुभाष गाताडे 

अपनी एक कविता के अन्त में ‘सब अन्धेरा है, अन्धेरा है’ कह कर अपने मन के द्वंद्व को लोगों तक पहुंचाने वाली रचनाकार की संकल्पशक्ति के बारे में दावे के साथ क्या कुछ कहा जा सकता है ? अलबत्ता इन पंक्तियों को पढ़ कर किसी को शायद ही यह लगे कि इन पंक्तियों के रचनाकार ने अपने एक अनोखे संघर्ष के बदौलत चारों तरफ उम्मीद का उजास फैलाया होगा !

यह अकारण नहीं कि एक निम्नमध्यमवर्गीय परिवार में आठ भाई बहनो के बाद जनमी इरोम नन्दा और इरोम सखी की यह सबसे छोटी कन्या इरोम शर्मिला थानु, जो बारहवीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई भी पूरी न कर सकी थी, आज समूचे मणिपुर की ‘लौह महिला’ के नाम से जानी जाती है। सोचने का मुद्दा यह बनता है कि उपरोक्त पंक्तियों की रचयिता मणिपुर की महान कवयित्रि, स्तम्भकार और सामाजिक कार्यकर्ती इरोम शर्मिला थानु ( उम्र 34 साल) ने ऐसा क्या किया है कि वह जीते जी मिथक में तब्दील हो चुकी हैं।

वजह बिल्कुल साफ है।

इरोम शर्मिला थानु पिछले लगभग दस साल से भूख हड़ताल पर है। राज्य सरकार की बेरूखी और काले कानूनों के सहारे टिकी हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द करने के लिए इरोम शर्मिला ने यह कदम उठाया है। बीते 2 नवम्बर को उनकी इस हड़ताल को दस साल पूरे हुए।

At the Risk of Heresy: Why I am not Celebrating with Anna Hazare

Shuddhabrata Sengupta

At the risk of heresy, let me express my profound unease at the crescendo of euphoria surrounding the ‘Anna Hazare + Jan Lokpal Bill’ phenomenon as it has unfolded on Jantar Mantar in New Delhi and across several hysterical TV stations over the last few days. 

This time around, I have to say that the print media has acted (upto now) with a degree of restraint that I think is commendable. Partly, this has to do with the different natures of the two media. If you have to write even five hundred words about the Jan Lokpal bill, you run out of platitudes against corruption in the first sentence (and who can speak ‘for’ corruption anyway?) and after that you have to begin thinking about what the bill actually says, and the moment you do that, you cannot but help consider the actual provisions and their implications. On television on the other hand, you never have to speak for more than a sound-byte, (and the anchor can just keep repeating himself or herself, because that is the anchor’s job) and the accumulation of pious vox-pop sound bytes ‘against corruption’ leads to a tsunami of ‘sentiment’ that brooks no dissent. 

Between the last NDA government and the current UPA government, we have probably experienced a continuity of the most intense degree of corruption that this country has ever witnessed. The outcome of the ‘Anna Hazare’ phenomenon allows the ruling Congress to appear gracious (by bending to Anna Hazar’s will) and the BJP to appear pious (by cozying up to the Anna Hazare initiative) and a full spectrum of NGO and ‘civil society’ worthies to appear, as always, even holier than they already are.

Saturday, April 9, 2011

Coalition of Crooks: Why the West was so restive to Attack Libya!

[Statement issued by New Socialist Initiative - Delhi University Chapter]

A pack of scoundrels, brandishing latest weapons have attacked Libya. Ever since the popular uprising against Gaddafi took a turn towards civil war, and Gadaffi’s army gained the upper hand, the gang of Presidents and Prime Ministers of Western countries was getting its arsenal ready against the North African country. Resolution 1973 of the UN Security Council provided the fig leaf they were waiting for, and now, like a pack of hungry wolves on scent of an easy prey they have gone berserk. They care little about pusillanimous complaints of an Arab League, the organization of Arab dictators which gifted them the fig leaf, or African Unity. 

While Western leaders attacking Libya are claiming it to be for the sake of spreading democracy and human rights in the Arab world, their domestic record speaks volumes about the moral content of their politics. The minnow of the pack, but most jumpy Silvio Berlusconi of Italy is mired in bunga-bunga sex scandal and corruption scams at home. He is desperately trying to relive the infamy of Mussolini’s imperial adventures in Africa. Recent opinion polls in France have pushed Nicolas Sarkozy to the third spot among candidates likely to stand for the post of the President next year. Five years ago he had won elections by successfully poaching on the far right, proto-Fascist constituency of the National Front. He had also successfully played the charade of projecting a happy family life by going on a holiday with his estranged wife just before elections, to woo conservative Catholic voters. Just after elections, he divorced and married a much younger Italian super model. His ministers are mired in corruption scandals. It is only the prestige attached to the President of the Republic that is shielding him. A recent demonstration of over two hundred thousand in London called David Cameroon ‘butcher of Britain’ for dismantling whatever little welfare is left in British capitalism. He became Prime Minister because the alternative in Gordon Brown was too disgusting to British voters. His junior Nick Clegg of the Liberal Party won seats by promising, among other things, not to raise university tuition fees. Few months later he broke that promise by supporting Conservative welfare cuts. Barrack Obama started by giving a sensible speech in Cairo to the Muslims of the world. But his behaviour on Palestine, Iraq, Afghanistan and now, Libya, is ample proof of the stranglehold of imperial arrogance on the US foreign policy, and of what pliable material he is made of.

Tuesday, April 5, 2011

UID: Facility or Calamity?

- Prof. Jean Dreze

Quite likely, someone will be knocking at your door a few weeks from now and asking for your fingerprints. If you agree, your fingerprints will enter a national database, along with personal characteristics (age, sex, occupation, and so on) that have already been collected from you, unless you were missed in the “Census household listing” earlier this year. 

The purpose of this exercise is to build the National Population Register (NPR). In due course, your UID (Unique Identity Number, or “Aadhaar”) will be added to it. This will make it possible to link the NPR with other Aadhaar-enabled databases, from tax returns to bank records and SIM registers. This includes the Home Ministry’s NATGRID, smoothly linking 21 national databases. 

For intelligence agencies, this is a dream. Imagine, everyone’s fingerprints at the click of a mouse, that too with demographic information and all the rest! Should any suspicious person book a flight, or use a cybercafé, or any of the services that will soon require an Aadhaar number, she will be on their radar. If, say, Arundhati Roy makes another trip to Dantewada, she will be picked up on arrival like a ripe plum. Fantastic! 

So, when the Unique Identification Authority of India (UIDAI) tells us that the UID data (the “Central Identities Data Repository”) will be safe and confidential, it is a half-truth. The confidentiality of the Repository itself is not a minor issue, considering that UIDAI can authorize “any entity” to maintain it, and that it can be accessed not only by intelligence agencies but also by any Ministry. But more importantly, the UID will help to integrate vast amounts of personal data, available to government agencies with few restrictions.