- सुभाष गाताडे
अपनी एक कविता के अन्त में ‘सब अन्धेरा है, अन्धेरा है’ कह कर अपने मन के द्वंद्व को लोगों तक पहुंचाने वाली रचनाकार की संकल्पशक्ति के बारे में दावे के साथ क्या कुछ कहा जा सकता है ? अलबत्ता इन पंक्तियों को पढ़ कर किसी को शायद ही यह लगे कि इन पंक्तियों के रचनाकार ने अपने एक अनोखे संघर्ष के बदौलत चारों तरफ उम्मीद का उजास फैलाया होगा !
यह अकारण नहीं कि एक निम्नमध्यमवर्गीय परिवार में आठ भाई बहनो के बाद जनमी इरोम नन्दा और इरोम सखी की यह सबसे छोटी कन्या इरोम शर्मिला थानु, जो बारहवीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई भी पूरी न कर सकी थी, आज समूचे मणिपुर की ‘लौह महिला’ के नाम से जानी जाती है। सोचने का मुद्दा यह बनता है कि उपरोक्त पंक्तियों की रचयिता मणिपुर की महान कवयित्रि, स्तम्भकार और सामाजिक कार्यकर्ती इरोम शर्मिला थानु ( उम्र 34 साल) ने ऐसा क्या किया है कि वह जीते जी मिथक में तब्दील हो चुकी हैं।
वजह बिल्कुल साफ है।
इरोम शर्मिला थानु पिछले लगभग दस साल से भूख हड़ताल पर है। राज्य सरकार की बेरूखी और काले कानूनों के सहारे टिकी हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द करने के लिए इरोम शर्मिला ने यह कदम उठाया है। बीते 2 नवम्बर को उनकी इस हड़ताल को दस साल पूरे हुए।
वह 2 नवम्बर 2000 की बात है जब मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 15-16 किलोमीटर दूर मालोम बस स्टैण्ड पर सुरक्षा बलों द्वारा अंधाधुंध गोली चलाने से दस निरपराध लोगों की मौत हुई थी। इरोम शर्मिला उस वक्त मालोम में ही एक बैठक में थी, जो एक शान्ति रैली के आयोजन के लिए बुलायी गयी थी। अगले दिन के अख़बार के पहले पन्नों पर मारे गये लोगो की तस्वीरें थीं। इरोम को उस वक्त लगा कि ऐसी परिस्थिति में शान्ति रैली का आयोजन बेमानी साबित होगा और उसने वही निर्णय लिया कि ‘जिन्दगी की सरहद पर जाकर ऐसा कुछ किया जाये’ ताकि सुरक्षा बलों की यह ज्यादती रूके।
वैसे यह कोई पहला वाकया नहीं था जब मणिपुर या उत्तर पूर्व की सड़कें मासूम लोगों के खून से लाल हुई थीं। लेकिन इरोम को लगा कि अब सर पर से पानी गुजरने को है लिहाजा उन्होंने उसी दिन से ऐलान कर दिया था कि आज से वे खाना छोड़ रही हैं। उनकी बस एकही मांग है कि मणिपुर की सरजमीं पर पिछले 49 साल से लागू कुख्यात कानून सशस्त्रा बल विशेष अधिकार अधिनियम/आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट हटा दिया जाये।
इरोम शर्मिला जिस अधिनियम की वापसी के लिए इस सत्याग्रह में जुटी है उस अधिनियम के प्रावधानों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार दिये गये हैं, जिनके सामने अब खतम किया गया ‘पोटा’ या ‘टाडा’ जैसा कानून बहुत हल्का लगता है।
इस अधिनियम के तहत सरकार किसी क्षेत्राविशेष को अशांत क्षे़त्रा घोषित कर सकती है अगर वह इस नतीजे तक पहुंचती है कि ‘उपरोक्त क्षेत्रा या उसका एक हिस्सा एक ऐसी अशांत या खतरनाक स्थिति में है कि नागरिक शासन की मदद के लिये फौजी बल का इस्तेमाल जरूरी है।’ तब सम्बधित प्रशासक ‘ऐसे क्षेत्रा या उसके किसी हिस्से को जो किसी राज्य या केन्द्रशासित प्रदेश का हिस्सा है अशान्त क्षेत्रा घोषित कर सकता है।’ अधिनियम का सेक्शन चार किसी कमिशण्ड अफसर, वारण्ट अफसर या नान कमिशण्ड अधिकारी को ऐसे क्षेत्रा में मिले अधिकार पर रौशनी डालता है। इसके तहत वह ‘सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिये गोली भी चला सकता है जिसमें किसी की मौत भी हो सकती है’। धारा छह बताती है कि इस अधिनियम के तहत काम कर रहे किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई केन्द्र सरकार की अनुमति से ही मुमकीन है।
अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि साधारण नागरिकों के लिये अपने ऊपर हुए अत्याचार की जांच शुरू करवाने के लिये केन्द्र सरकार से गुहार लगाना कितना लम्बा, खर्चीला और पीड़ादायी अनुभव होता होगा। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि विगत आधी सदी से इस अधिनियम पर हो रहे अमल ने वहां के निवासी लाखों लोगों को आजभी अघोषित आपातकाल की स्थिति में रहने के लिये मजबूर किया है।
भूख हड़ताल शुरू करने के चार दिन बाद से ही ‘आत्महत्या की कोशिश करने के आरोप में’ उन्हें हिरासत में लिया गया था। विगत कई सालों से उन्हें जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में न्यायिक हिरासत में रखा गया था जहां उन्हें एक नली के जरिये जबरदस्ती खाना खिलाया जाता था। हर पन्दरह दिन पर उन्हें जिले के सेशन जज के सामने पेश किया जाता था जो उनकी रिमाण्ड की मुद्दत को और पन्दरह दिन बढ़ा देता था। यह सिलसिला यूं ही चल रहा था।
चार साल पहले तीन अक्तूबर को जब अदालत द्वारा इरोम को सुनायी गयी एक साल की सज़ा खतम हुई तथा वह अस्पताल से रिहा होकर कांगला किले की ओर बढ़ी, तब लोगों का यही आकलन था कि पुलिस फिर उन्हें गिरफ्तार कर अस्पताल की न्यायिक हिरासत में डाल देगी। लेकिन शायद सरकार के आला अफसरों को इस बात का गुमान नहीं था कि इरोम ने अपने इस अनूठे संघर्ष के मंच के तौर पर राजधानी दिल्ली पहुंचना तय किया है, ताकि वह राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मीडिया को बता सके कि ‘सशस्त्रा बलों को अंधाधुंध अधिकार देने वाले इस कानून के कारण मानवाधिकार उल्लंघन की घटनायें निरन्तर होती हैं जिन पर कोई कार्रवाई भी नहीं हो पाती।’
कुछ समय पहले बीबीसी ने ‘मणिपुर वूमेन्स मैराथान फास्ट’ नाम से मणिपुर की इस मशहूर कवयित्रि और सामाजिक कार्यकर्ती इरोम के भूख हड़ताल पर रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें बताया गया था कि डाक्टरों के मुताबिक उसके इन अनशन का असर उसके शरीर की कार्यप्रणाली पर पड़ रहा है - उसकी हड्डियां कमजोर हो चली हैं और कई अन्य चिकित्सकीय जटिलतायें भी पैदा हुई हैं।
गौरतलब है कि प्रिन्ट-इलैक्ट्रानिक मीडिया के इतने प्रचण्ड विस्तार के बावजूद उत्तर पूर्व के कोने में दस साल से जारी इस शान्तिमय सत्याग्रह की ख़बर लगभग साडे छह साल पहले ही शेष भारत को हुई, जब थंगजाम मनोरमा नामक युवति की कथित तौर पर असम राईफल्स की हिरासत में हुई मौत के बाद समूचा मणिपुर दोषियों को सज़ा दिलाने एवं सशस्त्रा बल अधिनियम को खतम करने की मांग को लेकर जब सड़कों पर उतरा और एक जुझारू जनान्दोलन खड़ा हुआ।
लोगों को याद होगा कि उन्हीं दिनों मणिपुर की जनता के बढ़ते असन्तोष को देखते हुए सरकार ने इस अधिनियम की समीक्षा के लिए एक कमेटी भी गठित की थी, जिस कमेटी ने साफ तौर पर सिफारिश की थी कि इस अधिनियम को हटा दिया जाये। यह जुदा बात है कि सुरक्षा कारणों का हवाला देकर सरकार ने कमेटी की सिफारिशों को खारिज कर दिया था।
मणिपुर के इतिहास की यह खासियत है कि वहां राजनीतिक सामाजिक आन्दोलनों में महिलायें हमेशा ही आगे रही हैं। यह अकारण नहीं था कि थंगजाम मनोरमा के बलात्कार और हत्या के बाद इन्साफ की मांग करते हुए जो व्यापक आन्दोलन चला था उसमें भी महिलाओं की भूमिका पर विशेष चर्चा हुई थी। 15 जुलाई 2004 को असम राईफल्स के इलाकाई मुख्यालय के सामने सूबे की चन्द प्रतिष्ठित एवम बुजुर्ग महिलाओं ने बाकायदा निर्वस्त्रा होकर प्रदर्शन किया था। वे अपने साथ जो बैनर लायी थीं उस पर लिखा था: ‘भारतीय सेना आओ हम पर बलात्कार करो’ ‘ भारतीय सैनिकों आओ हमारा मांस नोचो’।
इरोम के ऐतिहासिक सत्याग्रह को भी मणिपुर की महिलाओं की इसी जुझारू परम्परा की अगली कड़ी के रूप में देखा जा रहा है। बीबीसी के सम्वाददाता के साथ बात करते हुए इरोम ने कहा था ‘मेरी भूख हड़ताल मणिपुर की जनता की तरफ से है। यह कोई व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है - यह प्रतीकात्मक है। वह सच्चाई, प्यार और अमन का प्रतीक है।’
इस बात का विशेष उल्लेख किया जाना जरूरी है कि एक तरफ जहां इरोम शर्मिला हिन्दोस्तां की हुकूमत के खिलाफ अपने असमान संघर्ष में पूरे जी जान से जुटी है, वहीं उसके इस संघर्ष में कई सारे आत्मीय जनो को भी काफी कुछ झेलना पड़ा है।
लेकिन शर्मिला थानु की 75 वर्षीय मां इरोम सखी ने इस दौरान जो कुछ झेला है उसके सामने इस तमाम त्याग की चमक फीकी पड़ती दिखती है। जाननेयोग्य है कि 2 नवम्बर 2000 के उस ऐतिहासिक दिन से जबसे इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल शुरू हुई थी, वह कभी अपनी बेटी से मिली नहीं है। अपने आंखों से टपकनेवाले आंसुओं को रोकने की कोशिश किये बिना इरोम सखी ने एक पत्राकार को बताया था: ‘यह मुमकीन है कि बिटिया को देख कर मेरे भावुक हो जाने से उसका संकल्प कमजोर पड़ सकता है। और मैं नहीं चाहती कि मेरी बिटिया इन्सानियत की बेहतरी के लिए छेड़ी गयी इस लड़ाई में हार जाये।’
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