Monday, August 8, 2011

सामान्यता का आतंक


यह एक जीव-वैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्यों के निन्यानवे प्रतिशत से ज्यादा डीएनए एक जैसे होते हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि सभी मनुष्य एक-दूसरे से बहुत ज्यादा अलग होते हैं। हर किसी में सामान्य मानी जाने वाली चीजों को स्थापित करने के लिए मनुष्यों ने समानता और सार्वभौमिकता के आदर्श को अपनाया है तथा मानकीकरण के नियंत्राण को व्यवहारगत किया है। अमूमन मनुष्यता द्वारा विभेद से निपटने की कोशिशें बहुत ही घातक रही हैं। हममें से पृथक दिखने वाले लोगों को अलग खाने में कैद करने के लिए पदसोपान और बहिष्करण के सि(ांतों का प्रयोग किया जाता रहा है। समाज में कायम पदसोपान और बहिष्करण सिपर्फ लोगों के नजरिए से ही संबंध्ति नहीं हैं, बल्कि ये ऐतिहासिक रूप से स्थापित संरचनाएँ हैं। हमारी शारीरिक ‘क्षमताएँ और अक्षमताएँ’ हमारे लिए और हमारे नजदीक रहने वाले लोगों के लिए सबसे नजदीकी अनुभव हैं। लेकिन, सामाजिक अर्थ में हमारी ‘क्षमताओं या अक्षमताओं’ का आधार हमारी शारीरिक संरचना में निहित नहीं है। चश्मे का आविष्कार होने से पहले निकट दृष्टि-दोष वाले युवक शिकार करने जैसे कामों के लिए पूरी तरह ‘अक्षम’ या ‘अंध्े’ माने जाते थे। लसिक सर्जरी के बाद निकट दृष्टि-दोष वाले लोग लड़ाकू जहाज भी उड़ा सकते हैं। ऑडिटरी हार्डवेयर और साफ्रटवेयर के विकास संकेतों पर भरोसा करें तो आने वाले समय में दृष्टि-बाध्ति सहित हममें से अध्किांश लोग कम्प्युटर से एक ही तरीक से लिखी से गई अध्ययन-सामग्री तक पढ़ पाएँगे। इसलिए, हम सिमोन द बुआर के शब्दों में संशोध्न करते हुए यह कह सकते हैं कि ‘कोई शारीरिक-बाध्ति व्यक्ति के रूप में जन्म नहीं लेता/ती है, बल्कि उसे ऐसा बना दिया जाता है।’ क्रिटीक के इस अंक में दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे उच्चतर अध्ययन संस्थान में ‘शारीरिक अक्षमता’ के अनुभव पर कई लेख और एक इंटरव्यू शामिल है।

पिछले दो दशकों में ‘अक्षमता’ के विमर्श में कुछ स्वागत योग्य बदलाव हुए हैं। जैसा कि निखिल जैन और संजय जैन के लेखों से यह स्पष्ट है कि पहले ‘अक्षम’ लोगों के कल्याण की बात की जाती थी लेकिन अब उनके अध्किारों की बात होने लगी है। अर्थात् पहले राज्य की नीतियों और सार्वजनिक विमर्श में शारीरिक रूप से बाध्ति लोगों की जरूरतों के बारे में यह माना जाता था कि समाज के शारीरिक रूप से ‘सक्षम’ व्यक्तियों को बदकिस्मत ‘अक्षम’ लोगों के कल्याण के लिए काम करना चाहिए। लेकिन वर्तमान कार्यक्रमों का कम-से-कम घोषित उद्देश्य यह है कि ‘अक्षम’ लोगों के अध्किारों को सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि वे समुदाय के सार्वजनिक जीवन में पूरी तरह से सहभागिता कर पाएँ। दरअसल, ‘अक्षमता’ के विमर्श में यह बदलाव आदर्श मानवीय समाज के बारे में उदारवादी समझदारी में हुए व्यापक बदलाव को दिखाता है। जॉन रॉल्स और अमर्त्य सेन जैसे अध्किांश हालिया उदारवादी चिंतकों के अनुसार, सामाजिक नीतियों और संस्थाओं का लक्ष्य सिपर्फ व्यक्तिगत स्वतंत्राताओं की सुरक्षा करने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि हर कोई एक समावेशी समाज में भागीदारी करने और उसमें योगदान करने में समर्थ हो। अमर्त्य सेन का समर्थता ;कैपेबिलिटीद्ध का सि(ांत उदारवादी पैराडाइम के भीतर इस तरह के तर्क को उसके तार्किक परिणति तक ले जाता है। सामाजिक वस्तुओं में समान हक का कानूनी अध्किार यह सुनिश्चित करने के लिए अमूमन नाकापफी होता है कि वास्तव में इन अध्किारों का उपयोग किया जाएगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक सुरक्षा आदि में एक बुनियादी स्तर की कैपेबिलिटी या समर्थता न होने की स्थिति में हममें से किसी भी व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन में सहभागिता करना नामुमकिन होगा। इसलिए यह समाज की जिम्मेदारी है कि वह हममें से वंचित लोगों को सकारात्मक कार्रवाई के विविध् रूपों के तहत विशेष संसाध्न उपलब्ध् कराए। शोषित लोगों के आंदोलनों के कारण ही उदारवादी राज्य की नीतियों में बदलाव आया है। महिला आंदोलन, जातियों की गोलबंदी, नस्ल-विरोध्ी संघर्ष और मूल निवासियों के अध्किारों के आंदोलनों ने उदारवादी राज्य को इस दिशा में आगे बढ़ाया है। इस बात में किसी शक की गुंजाइश नहीं है इस बदलाव ने लोकतंत्रा की हमारे समझदारी को ज्यादा गहरा बनाया है। इसने हमारे सामने लोकतंत्रा की बुनियादी और सार्वभौमिक बातों को ज्यादा स्पष्ट किया है। इस संदर्भ में एक रोचक बात यह है कि नेपाल में हाल की घटनाओं में इन बातों को बहुत ज्यादा तरजीह दी गई है। हम सब यह जानते हैं कि नेपाल एक ऐसा देश है जो सिपर्फ चार साल पहले ही सामंतवादी राजतंत्रा के साये से बाहर निकला है। यहाँ सशस्त्रा माओवादियों ने अपने हिंसक संघर्ष के द्वारा एक समावेशी संविधन बनाने का रास्ता सापफ किया। वे ऐसा समावेशी संविधन बनाने पर जोर दे रहे है जो महिलाओं, शोषित जातियों और हाशिए पर पड़े जनजातीय समूहों के विशेष अध्किारों को सुनिश्चित करे।

यह बात सही है कि दूसरे उत्पीड़ीत समूहों की तरह शारीरिक बाध के शिकार लोगों का आंदोलन उतना ज्यादा संगठित या राजनीति रूप से मजबूत नहीं है। इसके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन आंदोलनों की महत्वपूर्ण उपस्थिति है और इन्होंने ‘अक्षमता’ के पूरे विमर्श को एक नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शारीरिक बाध के लोग अब ज्यादा आत्म-विश्वास से भरे हुए हैं। वे अब निष्क्रिय रूप से इंतजार नहीं कर रहे हैं, या वे समाज से सहायता के लिए अपील नहीं कर रहे हैं। वे विरोध् कर रहे हैं, गोलबंद हो रहे हैं और सशक्त नागरिकों के रूप में अपने अध्किारों के लिए अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं। डॉ. दयाल पंवार ने अपने लेख ‘विकलांगों की शिक्षा और चुनौतियाँ’ में कवि बलदेव मित्रा शास्त्राी को उ(ृत करते हुए यह लिखा है कि ‘मैं निकम्मा दीन ये अपशब्द जग के क्यूं सहूं?, मैं उपेक्षित क्यूं रहूूं?’ नरेश द्वारा लिखी गई कविता ‘खट खट’ इस सवाल में छिपे मौन आत्म-विश्वास को दूसरे रूप में व्यक्त करता है ‘यह खटखट कोशिश है उन दरवाजों को खटखटाने की जो अब तक खोले नहीं गये।’

शारीरिक बाध के शिकार लोगों के विमर्श में कल्याण की अपील से अध्किार माँगने तक एक बदलाव हुआ है। इस बदलाव की तारीपफ करते वक्त हमें दो तरह के मुद्दों को नोट करने की जरूरत है। पहला, भारतीय राज्य और समाज में टोकनवाद की अंतहीन बीमारी है। ‘अक्षम’ लोगों के अध्किारों को कानूनी मान्यता मिल जाने के बाद उपविध्यिों या पफंडिंग के रूप में यह टोकनवाद बहुत आगे चला गया है और इसने भ्रष्टाचार को बहुत ज्यादा बढ़ावा दिया है। इस संदर्भ में कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय में विकलांग लोगों के लिए बुनियादी सुविध तैयार करने के लिए हुए निर्माण कार्य एक बहुत ही महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। इस अंक में शामिल रिजुल कोचर का लेख इससे संबंध्ति सभी पहलूओं को बहुत ही स्पष्टता से सामने लाता है। रिजुल का यह मानना है कि यह अज्ञानता, पफंड की कमी या पुराने नजरिए के कायम रहने का मसला नहीं है। दरअसल, जो योजना बनाई गई थी उसमें ‘अक्षम’ लोगों की जरूरतों को भी ध्यान में रखा गया था। लेकिन कलमाडी के नेतृत्व में चले दूसरी योजनाओं की तरह ही इस योजना को सही तरीके से लागू करने में घोटाला हुआ। टैक्टाइल टाइल्स को दृष्टि-बाध के शिकार लोगों के मदद के लिए लगाया गया, लेकिन ये किसी बिजली के खंभे या पेड़ के पास जाकर खत्म हो गए। महँगे लाल बालू पत्थरों के द्वारा पैदल यात्रियों के लिए बने पारपथ पर व्हील चेयर का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। दरअसल, विश्वविद्यालय के अध्किारियों का एकमात्रा मकसद यह था कि किसी भी तरह से पैसा खर्च किया जाए और पफायदा कमाया जाए। यदि ‘अक्षम’ लोगों के नाम पर पैसा बनाने का मौका मिले तो उसका पूरा पफायदा उठाया जाना चाहिए।

अध्किारों पर जोर देने के इस दोर में हमारे समाज के एक अन्य पहलू पर भी ध्यान देना जरूरी है कि शारीरिक ‘अक्षमता’ एक वर्गीय मुद्दा भी है। भारत में तकरीबन 7 करोड़ ‘अक्षम’ ;कपंेंइसमद्ध लोग हैं जो निश्चित रूप से इस देश की सबसे गरीब जनसंख्या है। भारतीय ‘अक्षमों’ के नब्बे प्रतिशत हिस्से की शिक्षा या रोजगार तक कोई पहुँच नहीं है। वे मोटे तौर पर परिवार की मदद से, भीख माँगकर या ट्रेनों और बसों में कुछ बेचने जैसे असुरक्षित काम करके अपना गुजारा करते हैं। इस बात की बहुत ज्यादा संभावना होती है कि गरीब तबकों में पैदा हुए बच्चे शारीरिक बाध के शिकार युवा के रूप में बड़े हों। भारत जैसे देश में अध्किांश ‘अक्षम’ लोगों के अध्किारों को सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि गरीब लोगों की स्थिति को भी बेहतर बनाया जाए। इस संदर्भ में एक बहुत ही नकारात्मक बात यह हुई है कि कि पिछले दो दशकों में, पश्चिम से लेकर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में गरीबों का हाशियाकरण हुआ है। अब राज्य की नीतियों और सार्वजनिक विचारधरा में इनके बारे में पहले की तुलना में बहुत कम चिंता की जाती है। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण हिंदी में बनी ब्लैक, तारे जमीन पर और गुजारिश जैसी पिफल्में हैं। इन पिफल्मों में ‘अक्षम’ लोगों को मुख्य चरित्रा के रूप में पेश किया गया और उनके मजबूत पक्ष को उभारा गया। लेकिन इसमें मुख्य रूप से उन्हीं ‘अक्षम’ लोगों की स्थिति को दिखाया गया जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही अच्छी है। तारे जमीन पर में जिस बच्चे की कहानी दिखाई गई है, उसकी अध्किांश समस्याओं का हल यह है कि उसके शिक्षक और माता-पिता उसकी स्थिति और जरूरतों को समझें। दूसरी ओर, यदि हम ग्रामीण भारत की ‘अक्षम’ दलित लड़की की स्थिति पर विचार करते हैं, तो उसकी समस्याओं को दूर करने के लिए बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत होगी। उसकी समस्याओं की हल की शुरूआत करने के लिए यह जरूरी होगा कि उस समाज को बदला जाए जिसमें वह अछूत और गरीब है। सिपर्फ एक ऐसा समाज ही उसके अध्किारों को सुनिश्चित कर सकता है जो कम-से-कम हर बच्चे को शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण-युक्त भोजन देता है। वर्ग के मुद्दे के हाशियाकरण का एक अन्य पहलू सार्वजनिक दायित्वों का निजीकरण है। ऐसा लगता है कि जिस कल्याण को बहुत संघर्ष के बाद सार्वजनिक विमर्श से बाहर कर दिया गया था, वह पिफर से दया और अमीर लोगों के सामाजिक दायित्व के नाम पर वापस आ रहा है। दृष्टि-बाध से पीड़ित एक छात्रा विक्रान्त इन प्रवृत्तियों के खिलापफ चेतावनी देते हैं। इस अंक में प्रकाशित अपनी कविता प्रश्न-चिन्ह में वह कहते है ‘दो चार चवन्नी थमा के हाथों में, कहते हो सर्वोदय’

वर्तमान दौर में सार्वजनिक जिम्मेदारियों के निजीकरण बढ़ता जा रहा है। इससे लोगों के लोकतंत्रा और लोगों के एक मुक्त विश्व में रहने के अध्किार में कटौती हुई है। इस अंक में एपफटीआईआई, पुणे के विद्यार्थियों के याचिका प्रकाशित की गई है। यह संस्था को वैश्विक उफँचाई देने के नाम पर किए जा रहे निजीकरण की प्रक्रिया के खतरनाक पक्ष को दिखाता है। अभी ‘इंडिया’ का पूरा ध्यान इस बात पर है कि वह खुद को किस तरह अंतर्राष्ट्रीय मानकों और वैश्विक शक्ति के अनुरूप ढ़ाल सकता है। लेकिन लोकतांत्रिक अध्किारों के संदर्भ में इसका रेकार्ड बहुत ही खराब है और दिन-प्रतिदिन इसमें गिरावट ही आती जा रही है। चाहे वह बाटला हाउस कांड की जघन्य दास्तान हों ;जिसके बारे में जामिया टीचर्स सॉलिडैरिटी एसोसिएशन ;जेटीएसएद्ध की रिपोर्ट इस अंक में प्रकाशित की गई हैद्ध या उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार का मामला हो- हर पहलू के संदर्भ में भारतीय लोकतंत्रा की गिरावट सापफ तौर पर दिखाई देती है। इस देश के विशेषाध्किार प्राप्त वर्ग के लिए आतंकवाद, विकास, वैश्वीकरण आदि सभी उसके अपने मुनापफै और वर्चस्व को कायम रखने का साध्न मात्रा हैं। वे अपने रास्ते में बाध बनने वाले हर शख्स का दमन कर रहे हैं। बिनायक सेन के मामले में लोकतंत्रा का खोखलापन खुलकर सामने आ जाता है, जिन्हें भ्रष्ट और गैर-मानवतावादी न्यायापालिका द्वारा राजद्रोह के आरोप में उम्र-कैद की सजा सुनाई गई है। भारतीय राजतंत्रा में झूठ का महत्व शीर्षक लेख इस बात पर विचार करता है कि किस तरह भारतीय लोकतंत्रा झूठ की बुनियाद पर खड़ा है। यहाँ लोकतंत्रा और सेकुलरवाद- दोनों ही दिखावा और बहुमतवाद का पर्याय बनकर रह गए हैं। स्वतंत्रा भारत का इतिहास संप्रदायवाद का भी इतिहास है। ‘ऑन रिहैबिलिटेटिंग सेकुलरिज्म’ शीर्षक लेख में भारत में उत्तर-औपनिवेशिक दौर में सेकुलरवाद-सांप्रदायवाद के अनुभावों पर विचार किया गया है। यह इस पूरे मुद्दे से संबंध्ति व्यापाक वाद-विवाद को भी सामने लाता है।

वर्तमान भारत की अपनी विशिष्ट प्रकृति है। लेकिन सिपर्फ भारत ने ही लोकतांत्रिक मूल्यों का माखौल नहीं बनाया है। इसके शाश्वत ‘अन्य’ यानी पाकिस्तान की स्थिति भी बहुत ही खराब है। हाल की समय में यहाँ धर्मिक हिंसा में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। सलमान तासीर के हत्या की कुख्यात घटनाएँ पाकिस्तान के बढ़ते तालिबानीकरण का उदाहरण हैं। हमारे लिए- दुनिया के सभी भागों के लोगों के लिए यह जरूरी है कि वे इस तरह की हिंसा और अत्याचार के खिलापफ आवाज उठाएँ। यह भी जरूरी है कि पाकिस्तानी नागरिक समाज के उन सदस्यों को समर्थन करना चाहिए जो अल्पमत में हैं और जिन्होंने सार्वभौमिक मानवाध्किारों के पक्ष में खड़े रहने का दुस्साहस किया है। कोई समाज या राष्ट्र तानाशाही शासन और अलोकतांत्रिक स्थिति को हमेशा के लिए स्वीकार नहीं कर सकता है। जहाँ विश्व के ‘औपचारिक’ लोकतंत्रा अपने प्राथमिक सि(ांतों का चालाकी से बदल रहे हैं, वहीं इस साल के शुरूआत में अरब लोगों ने दशकों पुरानी तानाशाही शासन के खिलापफ बगावत कर दी। पूरे अरब क्षेत्रा में लोकतंत्रा की माँग ने जोर पकड़ लिया। इसने इस पश्चिम प्रोपेगेंडा के झूठ को सामने ला दिया जिसमें हमेशा ही यह दावा किया जाता है कि अरब समाज लोकतंत्रा को स्वीकार नहीं कर सकता हैै। यह प्रोेपेगंेडा ऐसा था मानो कोई समुदाय अपने आप में बुनियादी रूप से अलोकतांत्रिक और बर्बर हो सकता है। इस अंक में प्रकाशित वरिष्ठ इजरायली समाजवादी मोशे मैकोवर ;डवेीम डंबीवअमतद्ध का इंटरव्यू ;ग्राउंड्स पफॉर ऑप्टिमिज्म इन द अरब वर्ल्डद्ध हमें सार्वभौमिक लोकतांत्रिक अध्किारों और अरब दुनिया में तानाशाही शासन के अंत के सवाल को समझने के लिए अंतर्दृष्टि देता है। दरअसल, यह खुद क्राँति की संकल्पना को समझने का एक तरीका हो सकता है- ऐसी क्राँति आज की जरूरत है जो स्वतःस्पफूर्त और संगठित हो। अभी अरब जो दशकों पुराने तानाशाहों का हाल हो रहा है, वही हाल पिछली सदी के आखिरी दशक में सुहार्तो के लंबे कार्यकाल के बाद हुआ था। ‘द एंग्री यंग पीपुल’ शीर्षक से लिखे गए गए लेख में सुहातो की तानाशाही के खिलापफ युवाओं के आंदोलन के बारे में बताता है। इससे यह भी पता चलता है कि किस तरह सुहार्तो ने कॉरपोरेट शक्तियों से समझौता करके इंडोनेशिया पर नव-उदारवाद थोपा था। दरअसल, सही मार्गदर्शन मिलने पर युवा लोगों की शक्ति बहुत ज्यादा ताकतवर तानशाहों को भी मात दे सकती है। विश्वविद्यालय अपने विद्यार्थियों और आर्गेनिक बु(िजीवियों के द्वारा एक ज्यादा समतावादी और लोकतांत्रिक भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस संदर्भ में इस अंक में प्रकाशित एक युवा पकिस्तानी विद्यार्थी का लेख ‘पाकिस्तान एट द क्रॉसरोड्सः व्यूज Úॉम अ यंग स्टुडेंट एक्रोस द बॉर्डर’ बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह युवा अपने पाकिस्तान में रैडिकल बदलाव का आह्वान करता है। दरअसल, इसमें यह भावना भी छुपी है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले सभी छात्रों को बदलाव के एजेंट की भूमिका निभानी चाहिए। उन्हें जॉन लेनॉन द्वारा अपने इमेजिन नामक कृति में की गई कल्पना के अनुरूप एक ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमें सभी  भागीदारी करें। ु

अनुवाद: कमल नयन चौबे

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