Monday, January 7, 2013

यौनिक हिंसा के परे, मर्दानगी के घेरे।

- प्रवीन वर्मा 

सन्दर्भ एक: 
एक दोस्त जो सोमवार को इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन का हिस्सा होने आ रही थी, को मोटरसाइकिल सवार युवकों ने घूरा (या फिर मर्दों की भाषा में 'देख ही तो रहे हैं की माफ़िक) और आगे बढ गए, इस कृत्य ने इस महिला मित्र को थोडा असहज कर दिया, बहरहाल यह मोटरसाइकिल सवार आगे बढ कर एक आइसक्रीम वाले से इंडिया गेट का रास्ता पूछते हैं, पूछने पर वे उससे बताते है की वह 16 तारीख को हुए गैंगरेप के विरोध प्रदर्शन के लिए जा रहे हैं 

सन्दर्भ दो:
जंतर मंतर पर बहसा- बहसी में एक युवक ने अपनी जांघों की तरफ़ इशारा करके कहा कि इतने छोटे- छोटे कपड़े पहनोगी तो ऐसा ही होगा (उसका इशारा 16 तारीख के बर्बर काण्ड की तरफ था !), इस पर वह महिला भड़क गई, लेकिन वो आदमी कुछ सुनने को ही तैयार नहीं था! जब महिला ने उसकी माँ, बहन का उदहारण दिया तो वह गुस्सा हो गया और गाली- ग़लोच करने लगा! आस-पास खड़े लोग देखते रहे, किसी तरह बीच-बचाव किया गया और उस आदमी को वहा से हटाया गया! 

सन्दर्भ तीन: 
जंतर मंतर पर काफी जमावडे थे, कोई फाँसी- फाँसी चिल्ला रहा था, कोई दोषियों को नपुंसक बनाने की बात कर रहा था, कोई उनके टुकड़े-टुकड़े करने, सरे-आम गोली मारने, सऊदी अरब भेजने की बात कर रहा था, एक तबका ऐसा भी था जो पुरजोर तरीके से कह रहा था कि फाँसी कोई हल नहीं, बलात्कार की इस घटना को पुरुषवादी समाज के बड़े दायरे में देखने की ज़रूरत हैं! कह रहे थे कि सिर्फ 'दामिनी' ही मुद्दा नहीं है; एक लाख से ज्यादा केसेस सड़ रहे है न्याय की आस में और जहा तक न्यायालय तक पहुचने का सवाल है उसका अनुपात हैं 100 में से महज़ 26! खैर कुछ महिला संगठन यहाँ अपनी बात रखने, नारे लगाने साथ देने आये थे, इनमें से कुछ ने जब नारा लगाना चाहा तो आम आदमी पार्टी के एक स्वयंभू वरिष्ठ (घायल) नेता ने उन्हें ऐसा करने से रोका और साथ ही साथ अपने समर्थको को इन नारों में साथ देने को मना किया, इस स्वयम्भू नेता ने कहा कि, आप नारे मत लगाइए, सिर्फ गाना गाइये! 

सन्दर्भ चार: 
कुछ महिलाएं जंतर मंतर पर पोस्टर लेकर घूम रही थी, जिस पर लिखा था "रेप इस नोट कूल, इन नीड प्लीज कॉल 100 और 1091"! आदमियों की एक भीड़ 2-3 महिलाओ को घेर उन पर टूट पड़ीं, कि तुम पुलिस की/ शीला दीक्षित की/ कांग्रेस की दलाल हो! महिलाओ ने पूछा क्यों? सभी मर्दों ने एक आवाज़ में कहा क्योकि तुम्हारे पोस्टर पर पुलिस से मदद मांगना लिखा हैं, तुम इसे यहाँ (जंतर मंतर) पर इस्तेमाल नहीं कर सकती!! पुलिस को इन सबसे दूर रखो! देखते ही देखते जो-जो लोग ये पोस्टर लिए दिखे उन-उन से छीन- छीन कर फाड़े गए और फिर जलाये गए! जंतर मंतर पर लोग तरह-तरह के पोस्टर लिए घूम रहे थे और ऐसा ज़रूरी नहीं था सब एक- दूसरे से सहमत हो, फिर इन महिलाओं से ऐसा बर्ताव क्यों? जिस आक्रामक प्रचंडता के साथ ये मर्द बर्ताव कर रहे थे वह महिलाओं के हितों में तो कतई नहीं था! इसी गहमा-गहमी तनाव घुलने लगा जब ये सभी मर्द एकजुटता से 'भारत माता की जय' के नारे लगाने लगे और महिलाओं को विरोध स्थल से खदेड़ने लगे! इस बीच पुलिस आई और चली गयी! 

इस बीच किसी ने कहा कि, "मैडम अगर लेडीज ही ऐसा कहेंगी तो बाकि का क्या होगा?" एक दूसरे मर्द ने पुछा कि क्या हुआ? तो पहले वाले ने जवाब दिया, "कि ये औरतें कह रही है कि रेप हो रहा हो तो पुलिस को बुला लो, दोनों हँसे और दूसरी तरफ मुड़कर भारत माता की जय के नारे लगाने लगे!

Photo: Reuters

निश्चित तौर पर 'दामिनी/निर्भया/अमानत' की मृत्यु के बाद जनता काफी जोश व गुस्से में थी और ये जायज़ भी था, जिसमे एक आशा भी थी कि लोग इस तरीके के घिनौने व जघन्य अपराध के खिलाफ़ घरों से निकलकर बाहर सड़को पर उतर आए और आंदोलित हो उठे! ख़ास तौर काफी संख्या में आदमी इस आन्दोलन का हिस्सा थे, बड़े-बूढ़े, अधेड़, युवा हर आयुवर्ग के! लेकिन जिन संदर्भो का जिक्र मैंने ऊपर किया है कौन लोग थे वे? ये किस तरह के मर्द रहे होंगे जो घरों, ऑफिसों से बाहर तो आये थे इस जघन्य घटना पर अपना-अपना विरोध जताने, और विरोध जताने सत्ता के खिलाफ़, सरकार के खिलाफ़, पुलिस के खिलाफ़, न्यायपालिका के खिलाफ़ फिर भी भिड़ गए महिलाओं से! ठीक उसी उन्माद, मर्दानगी, अक्कड़पन के साथ जो कभी मँगलोर में लड़कियों के ऊपर हिंसा करने वाली भीड़ में रही होगी, असम में क्लब के बाहर उन्मादी भीड़ की रही होगी, असम राइफल्स के 'जवानों' में रही होगी जो उत्तर-पूर्व कि महिलाओं पर यौनिक हिंसा कर रही थी या फिर 16 दिसम्बर की उस शर्मनाक रात को उन 6 बलात्कारियों की रही होगी! 

यहाँ मुद्दा लोगो के जोश और गुस्से की आलोचना नहीं बल्कि उस स्थिति का अवलोकन करना है जहा ये जोश और गुस्सा, उन्माद में तब्दील हो जाता हैं! और ऐसा होता कब और क्यों है! क्यों वो भीड़ जो आई तो थी इस महिलाओं के हितो की बात कहने, उस शर्मनाक घटना का विरोध करने पर उल्टा जा भिड़ी महिलाओं से ही, और वह भी एक साथ, एकटक, एक आवाज़ में! इन्हें एकजुट करने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी, अपने आप सब इक्कठे हो गए बोलने, चिल्लाने और जब इन मर्दों की इन बातों को नहीं माना गया उल्टा उन्ही से बहस की गयी, उनकी बातों का खंडन किया गया फिर यहाँ मर्दानगी सर चढ़कर बोलने लगती हैं, फिर उस खाँचे में आप कोई मुद्दा रख ले सभी का एक सा घोल तैयार होता हैं, चाहे फिर वह जंतर-मंतर हो, मंगलोर हो, असम हो या फिर 16 तारीख की वह रात हो! 

जंतर मंतर पर हजारो लोग सैकड़ो किस्म के नारों,पर्चो व पोस्टरों के साथ आये थे, जिनमे सभी, सभी से सहमत नहीं थे, फिर भी वह साथ थे, जिसमे मुद्दा कुछ बड़ा था बनिस्पत के नारे और पर्चे! फिर उन्मादी भीड़ को क्या दिक्कत हो सकती थी उन महिलाओ के पोस्टरों के साथ, किसी ने पूछने की भी कोशिश की होती, समझने को कोशिश की होती! ये कोई विडम्बना नहीं की ये मर्द जो 16 दिसम्बर की घटना का विरोध करने आये थे, को महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ! 
Photo: Bonojit Hussain

भारतीय संस्कृति का पुरुषवादी व्याकरण जहा केवल सीता,राधा, द्रोपदी या रूपकँवर ही औरतें होने की शर्तें पूरी करती हैं, इस खाँचे के बाहर तो बुरे चरित्र वाली होती हैं! और यहाँ तो वे उन्मादी भीड़ से बहस कर रही थी! मर्दानगी को ठेस ना पहुचें, ऐसा हो कैसे? दरअसल सारा मामला यहाँ महिलाओं के साथ व्यवहार को लेकर जुड़ा हैं! लोग महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार को हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं, इसीलिए इन मर्दों को महिलाओं से अभद्र व्यवहार करने में और यौन हिंसा की इस घटना के विरोध में शामिल होने में कोई विरोधाभास नज़र नहीं आता! वैसे भी "ढोल, ग्वार, शुद्र,पशु, नारी..................." ये मामला तो शुरू यही से होता हैं जहा आप महिलाओं को ताड़ना भर के लायक समझते है और भारतीय संस्कृति भी इसमें भरपूर सहायता देती है, वो कहती हैं महिलाएं तो घर की इज्ज़त होती हैं, कुर्बानी देने के लिए होती हैं। जैसे सीता ने दी, जैसे ममता ने दी, जैसे रूप कँवर ने दी इत्यादि इत्यादि। इसके ठीक विपरीत मर्द बनाने वाली फैक्ट्री में समझाया जाता हैं की मर्द तो समाज की आन-बान और शान होतें हैं, मुझे याद हैं कि जब बचपन में कभी भी रोता था तो मुझे और मारा जाता था और कहा जाता था, अबे छोरी कही के, मर्द होके रोव हैं। रोणा तो औरतां का काम हैं, मर्द तो शेर होया करै। यही शेर घर की, समाज की ठेकेदारी ले लेते हैं और औरतों कों रोने भर की आज़ादी देते हैं। हरियाणा की खाप पंचायतों का इतिहास गवाह हैं की औरतों को दरकिनार कैसे किया जाता हैं और उनके सभी निर्णय मर्द अपनी सहूलियतों के हिसाब से ले लेते हैं। जैसे दो साल की शादी को किस तरह से अवैध ठहराया जाता हैं और पति- पत्नी को भाई-बहन बनने पर मजबूर कर दिया जाता हैं, कैसे सभी भाई मिलकर अपनी बहन की निर्मम हत्या कर देते हैं क्योकि उसने अपनी मर्ज़ी से प्रेमविवाह किया था और इस पूरी निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं से एक बार भी नहीं पूछा जाता की वो क्या चाहती हैं? यहाँ तक की उन्हें अपनी बात रखने का भी मौका नहीं दिया जाता। 
Photo: Bonojit Hussain
औरतों पर फ़ब्तिया कसना, ताने देना, छेड़ना तो घर से ही शुरू हो जाता हैं, अपनी माँ के साथ, बहन के साथ और इसका दायरा बढता जाता हैं घर के बाहर, गाँव के बाहर पूरे समाज में। और ये सब हमारे प्रचलित सांस्कृतिक परिवेश में इतना घुल मिल जाता हैं कि महिलाओं से अभद्र व्यवहार मर्दों की संस्कृति का हिस्सा हो जाता हैं और मर्द इसे अपनी बपौती समझ लेते हैं। और इस प्रचलित (मर्दों की) सांस्कृतिक परिवेश को बदलना बड़ा मुश्किल हो जाता हैं। इसी परिवेश के अन्दर ही हर तरह के मुद्दों को रखकर देखा जाता हैं, जिनसे यह परिवेश फला-फूला रहे। इस तरह के विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने को पितृसत्ता या पुरुषवादी सोच की खिलाफत के तौर पर तो कतई नहीं लिया जा सकता, अपितु यह केवल पुरुषवादी समझ की सीमित आलोचना हैं ना की पितृसत्ता को चुनौती! ये उस समझ की आलोचना भर हैं जिसका ये लोग हिस्सा नहीं बनाना चाहते, उदहारण के तौर पर, ये लोग बलात्कार की घटना के खिलाफ तो बाहर आ जायेंगे परन्तु अपनेअपने घरों में, आफिसों में महिलाओं से अभद्र व्यवहार करना नहीं छोड़ेंगे, उन्हें बराबरी का दर्जा देना तो दूर हैं औरतों को घूरने, ताने कसने में इन्हें कोई समस्या नहीं होती क्योकि ये तो उनके परिवेश (मर्दानगी वाले) में दिया गया अधिकार हैं। ठीक इसी तरह खप पंचायते भ्रूण हत्या की सामाजिक रूप से आलोचना तो कर देंगी परन्तु जब उनके समुदाय की महिलायें समुदाय के बाहर विवाह करती हैं तो उनकी निर्मम हत्या करने में उन्हें कोई विरोधाभास नहीं नज़र आता!

ऐसे ढ़ेरो उदाहरण आपको मिल जायेंगे जहा मर्दानगी की पूर्ति हेतु मुद्दा दोयम हो जाता हैं और उन्माद (धार्मिक, सांस्कृतिक, महिला-विरोधी) शक्ल ले लेता हैं! और फिर भूलिए नहीं उनके दिए गए नारे, (भारत माता की जय, वन्दे मातरम, फाँसी दो- फाँसी दो!) मर्दों के इस रवैये का एक कारण मर्द रहे रहने का डर भी हैं क्योकि मर्दानगी हमेशा असुरक्षित होती हैं, जिसमे ख़ासकर महिलाओं की आवाज़, उनकी हरकतों,गतिविधियों का भयंकर डर होता हैं, तभी तो मर्द हमेशा महिलाओं सम्बंधित संदर्भो पर नियंत्रण रखने के लिए पागल रहते हैं। मर्दानगी में एक ख़ास तरह से एकजुट भी होती हैं जो हर वर्ग, वर्ण, धर्म, राजनीति के मर्दों को एकजुट करती हैं, महिलाओं की खिलाफत के लिए एकजुट। चाहे फिर वह dented-painted कांग्रेसी नेता हो, भगवा भागवत हों, नीले राजपाल हो या माकपा नेता, विचारधारा का तो पता नहीं पर जब महिला मुद्दो कि बात आती हैं तो सब चोर-चोर मौसेरे भाई लगते हैं।

प्रवीण वर्मा ने International Institute for the Sociology of Law, Onati, Basque Country से पोस्ट-ग्रेजुएशन किया है और वो New Socialist Initiative के कार्यकर्त्ता हैं।

1 comments:

mahinder pal said...

theek kahaa praveen ! pakhand se bhare samaaaj mein maujooda mard samaaj kisi bhi keemat pe apne andar jhanknaa nahi chahtaa balki vo apni besharmi ko ek nayaa pardaa ya ek nayaa mukhautaa pahnanaa chahtaa hai! bataur insaan sochnaa, inke liye kuchha kaisa hota hai jaise kangaal ho jane ka dar mahsoos karnaa! sahi baat bhi hai ki jo samaaj apne nagriko ko vyakti banne ki bajaay jyadtar aurat aur mard ke roop mein dhaltaa ho, uske liye khaas taur pe mard ke liye, agar usse uski mardngi chhin jaaye ! ye kaise bardast ho sakta hai ?

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