Tuesday, November 12, 2013

मध्य प्रदेश में बदस्तूर जारी है शिक्षा का भगवाकरण

- जावेद अनीस

हमारे संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। उसके विपरीत संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने का अधिकार प्रदान करता है। 

लेकिन मध्यप्रदेश में इसका ठीक इसका बिलकुल उल्टा हो रहा है।पिछले करीब एक दशक से भाजपा शासित सूबे मध्य प्रदेश में शिक्षण संस्थानो में एक खास तरह का राजनीतिक एजेंडा बड़ी खामोशी से लागू किया जा रहा है। 

इस की ताजा बानगी एक बार फिर से तब देखने को मिली जब बीते 1 अगस्त 2013 को प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने मध्यप्रदेश राजपत्र में अधिसूचना जारी कर मदरसों में भी गीता पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था, जिसमें मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त सभी मदरसों में कक्षा तीन से कक्षा आठ तक सामान्य हिन्दी की तथा पहली और दूसरी की विशिष्ट अंग्रेरजी और उर्दू की पाठयपुस्तकों में भगवत गीता में बताये प्रसंगों पर एक एक अध्याय जोड़े जाने की अनुज्ञा की गयी थी और इसके लिए राज्य के पाठ्य पुस्तक अधिनियम में बकायदा जरूरी बदलाव भी किए गए थे। विधानसभा चुनावों से मात्र चार महीने पहले लिए गए इस फैसले ने बड़ा विवाद पैदा कर दिया था और खुद को भाजपा के “वाजपेयी इन वेटिंग” बनाने में लगे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भारी विरोध और अपनी अपेक्षाकृत “उदार छवि” को नुकसान पहुचने के डर के चलते बड़ी आनन –फानन में अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। 

दरअसल मध्य प्रदेश के सरकारी स्कलों में पहले से ही गीता पढ़ाई जा रही है. राज्य सरकार द्वारा 2011 में गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की घोषणा की थी. इंदौर में 13 नवंबर 2011 को स्कूलों में गीता पढ़ाने के निर्णय की घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा था कि “हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ गीता” स्कूलों में पढ़ाया जाएगा भले ही इसका कितना ही विरोध क्यों न हो।” इसका भी नागरिक संगठनो और अल्पसंख्यक समाज द्वारा पुरजोर विरोध किया था। यह मामला हाई कोर्ट तक भी गया था। यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि माननीय उच्च न्यायालय ने मध्यप्रदेश शासन के राज्य के स्कूलों में “गीता सार” पढ़ाने के निर्णय पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि “गीता मूलतः भारतीय दर्शन की पुस्तक है” किसी भारतीय धर्म की नहीं। । अदालत का यह निर्णय कैथोलिक बिशप काउंसिल द्वारा दायर एक याचिका पर आया था जिसमें यह मांग की गई थी कि केवल गीता ही नहीं बल्कि सभी धर्मों में निहित नैतिक मूल्यों से स्कूली विद्यार्थियों को परिचित कराया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि चूंकि गीता दार्शनिक ग्रंथ है,धार्मिक नहीं इसलिए राज्य सरकार गीता का पठन-पाठन जारी रख सकती है और स्कूलों में अन्य धर्मों द्वारा प्रतिपादित नैतिक मूल्यों का ज्ञान दिया जाना आवश्यक नहीं है। इस आदेश के बाद सरकार के शिक्षा विभाग का हौसला बढा जिसका परिणाम ये एक अगस्त की अधिसूचना थी जिसमें गीता के पाठ पढाये जाने को मदरसों में भी अनिवार्य बनाया गया था।

इसी तरह राज्य सरकार ने शासकीय स्कूलों में योग के नाम पर “सूर्य नमस्कार” अनिवार्य कर दिया गया था बाद में उसे ऐच्छिक विषय बना दिया गया। परंतु चूंकि अधिकांश हिन्दू विद्यार्थी शालाओं में योग सीखते हैं अतः अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं का स्वयं को अलग-थलग महसूस करना स्वभाविक ही होगा। इसी तरह स्कूल शिक्षकों के लिए ऋषि संबोधन चुना गया था।

इसी कड़ी में राज्य की शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस द्वारा राज्य के सभी सरकारी स्कूलों को दिया गया यह आदेश भी काफी विवादित रहा था कि स्कूलों में मिड डे मील के पहले सभी बच्चे भोजन मंत्र पढ़ेंगे. 

इसी तरह से वर्ष 2009 में मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका देवपुत्र को सभी स्कूलों में अनिवार्य तौर पर पढ़ाए जाने का फैसला लिया था। 

हाल ही में इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए बीते 29 जुलाई 2013 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश योग परिषद की बैठक को संबोधित करते हुए घोषणा की थी कि “प्रदेश की शालाओं में पहली से पांचवी कक्षा तक योग शिक्षा अनिवार्य की जाएगी” उन्होंने योग परिषद को निर्देश भी दिया की वह व्यवहारिक और सिद्धांतिक योग शिक्षा के लिए पाठयक्रम तैयार करे ! 

ऐसा लगता है की सरकार की दिलचस्पी शालाओं में शिक्षा का स्तर सुधारने के बजाये इस तरह के विवादित फैसलों को लागू करने में ज्यादा रहती है, अगर सरकार इसी तत्परता के साथ शिक्षा की स्थिति को लेकर गम्भीर होती तो प्रदेश में शिक्षा का हाल इतना बदहाल नहीं होता।शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए तीन साल बीत चुके हैं लेकिन प्रदेश अभी भी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने में काफी पीछे है। म.प्र में शिक्षा की स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इन कुछ आकड़ों से लगाया जा सकता है। 

म.प्र शिक्षकों की कमी के मामले में देश में दूसरे स्थान पर है, शिक्षा के अधिकार कानून के मानकों के आधार पर देखा जाये तो म.प्र. में 42.03 प्रतिशत शिक्षकों की कमी है इस मामले में प्रदेश, अरुणाचल के बाद दूसरे स्थान पर है। 

असर रिर्पोट 2012 के अनुसार म.प्र उन बद्तर राज्यों में चोथे नम्बर पर है जहाँ कक्षा 3 से 5 तक के केवल 23.1 प्रतिशत बच्चे ही गणित में घटाव कर सकते हैं जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 40.7 प्रतिशत है। इसी प्रकार म.प्र उन पांच बद्तर राज्यों में शामिल है जहाँ कक्षा 3 से 5 तक के केवल 39.3 प्रतिशत बच्चे ही कक्षा 1 की किताब पढ़ सकते हैं। म.प्र में 8 कक्षा के केवल 24 प्रतिशत विधार्थी ऐसे है जो अंग्रेजी में वाक्य पढ़ सकते हैं। उपरोक्त आकड़ों से साफ़ जाहिर है की सूबे के स्कूलों में पढाई के नाम पर महज खानापूर्ति हो रही है। 

दूसरी तरफ प्रदेश के शालाओं में बुनियादी अधोसंरचना की भी भारी कमी है प्रदेश के 52.52 प्रतिशत शालाओं के पास स्वंय का भवन नही है, प्रदेश के 24.63 प्रतिशत प्राथमिक एवं 63.44 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में पानी की उपलब्ध्ता नहीं है, प्रदेश के 47.98 प्रतिशत प्राथमिक एवं 59.20 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में शौचालय की अनुपलब्धता है। 

मध्यान भोजन को लेकर भी स्थिति अच्छी नहीं है,मध्यप्रदेश में पिछले साल मध्यान भोजन को लेकर किये गए शिकायतों में से 70 फीसदी शिकायतों पर कार्रवाई नहीं हुई है। तीन साल के आंकड़े देखे तो राज्य शासन तक 239 शिकायतें पहुंची। जिसमें से 90 शिकायतों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है । 

उपरोक्त स्थितियां बताती है मध्यप्रदेश में सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने को लेकर अभी कितना लम्बा सफ़र तय करना है । लेकिन वर्तमान सरकार की दिलचस्पी प्रदेश की शिक्षा सुधारने की जगह किसी ख़ास विचारधारा का एजेंडा लागू करने में ज्यादा दिख रही है । प्रदेश के बच्चों और शिक्षा व्यवस्था के लिए यह दुर्भाग्य है कि शालाओं को इस तरह के राजनीति का अखाड़ा बनाया जा रहा है । 

आम तौर पर खुद को विनम्र और सभी वर्गों का सर्वमान्य नेता दिखाने की कोशिश में लगे रहने वाले भाजपा के “वाजपेयी इन वेटिंग” शिवराजसिंह चौहान बड़ी मुस्तैदी और सावधानी के साथ प्रदेश में संघ का एजेंडा लागू कर रहे है । 

लेकिन जरूरत इस बात की है कि मध्य प्रदेश में शिक्षा को धर्म के साथ घाल- मेल करने की कवायद पर रोक लगायी जाये और शिक्षा में आने वाले वास्तविक अडचनों को दूर करने के लिए गंभीरता से पर्यास किए जायें ताकि सूबे के सभी बच्चों को अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य हासिल किया जा सके । 

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता  हैं। वह न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं और भोपाल में रहते हैं 


1 comments:

Suresh Kumar Sharma said...

http://supportinghands.blogspot.in/2013/11/blog-post_9086.html
एक किसान जब फसल काटता है तो सबसे बढ़िया दाना छाँट कर बीज के रूप में अगली फसल के लिए संजो कर रख लेता है। भारत का शिक्षा तंत्र इस तरह की किसानी में बिलकुल फिस्सडी है। यहाँ हर वर्ष बाजार से सबसे घटिया बीज ( शिक्षक ) ढ़ूँढ कर लाया जाता है। हाथ की मजदूरी से भी सस्ती दर पर काम करने को राजी आदमी यहाँ के स्कूलों में देश का भविष्य निर्माण कर रहे हैं।

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