Wednesday, December 4, 2013

आउटलुक में प्रकाशित राकेश सिन्हा के लेख का जवाब - "संघ के बारे में अध्यन करने को लेकर डर किसी और का नहीं बल्कि संघ का ही है"

जावेद अनीस

सन्दर्भ -आउटलुक नवम्बर( 2013) के कालम “अभिमत” में प्रकाशित राकेश सिन्हा का लेख “संघ के बारे में अध्यन से डर कैसा”

आउटलुक हिंदी के नवम्बर  2013 के अंक
 में प्रकाशित राकेश सिन्हा का लेख 
आउटलुक नवम्बर( 2013) के कालम अभिमत में प्रकाशित लेख “संघ के बारे में अध्यन से डर कैसा” में राकेश सिन्हा जी इस बात को लेकर बहुत चिंतित हो रहे हैं की देश के विश्वविद्यालयों में संघ पर अध्यन नहीं किया जा रहा है .

दरअसल उनकी चिंता बहुत ही उचित है लेकिन सकंट यह है की संघ की पृकृति एक फासीवादी संगठन की है और कोई भी फासीवादी संगठन अपनी आलोचना बर्दास्त नही करता हैं। इसलिए अकादमीक क्षेत्र में किसी की हिम्मत नही पड़ती है कि उस पर अध्ययन करैं . अगर अध्ययन करेगें और उसमें जरा सा भी निष्पक्ष आलोचना हो गयी तो तो संघ व उसके तमाम संगठन शोघकर्ता,शोध कराने वाले गाईड और विष्वविधालय के पीछे पड़ जायेंगें । 

संघ पर कई अच्छे अध्ययन हुए हैं,जिसमें इटली की लेखिका मारिया कासोलारी का शोध लेख ‘हिंदुत्वाज़ फ़ौरन टाइ-अप इन द थर्टीज़’ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, जो की इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली 22 जनवरी, 2000 के अंक में प्रकाशित हो चूका है। लेख के अनुसार 1930 के दशक में जब आर.एस.एस. अपने संगठन को मजबूत बनाने की योजनाएँ बनाने में लगा था, इनके शीर्ष नेता वास्तव में इटली में जाकर मुसोलिनी से मिले, उसकी सेनाओं की प्रशिक्षण-पद्धति को जाना-समझा तथा यहाँ भारत में वापिस आकर उसी पद्धति को लागू करने का प्रयास किया। शोध लेख के अनुसार संगठन का कोई संविधान नहीं है; इसके लक्ष्य और उद्देश्यों को कभी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया। आम लोगों को सामान्यतः बताया जाता है कि इसका उद्देश्य केवल शारीरिक प्रशिक्षण है, लेकिन असली उद्देश्य आरएसएस के आम सदस्यों को भी नहीं बताए जाते। केवल ‘अंदरूनी हलकों’ को ही विशवास मैं लिया जाता है।

राकेश जी के इस बात को लेकर भी में पूरी तरह सहमत हूँ की संघ और राजनीति को लेकर बहस पूरानी है। राजनीति को प्रभावित करना और किसी चुनावी राजनीतिक संगठन के द्वारा राजनीति और व्यवस्था पर नियंत्रित करने की महत्वकांक्षा में बहुत फर्क होता है। अगर सांस्कृतिक संगठन का तात्पर्य झाल मंजीरा बजाने वाला संगठन ना होना है तो इसका तात्पर्य यह भी है कि आप सीधे तौर पर यह ना तय करने लगें की किसी एक पार्टी का अध्यक्ष व प्रधानमंत्री कौन होगा ! दरअसल संघ कभी सांस्कृतिक संगठन रहा ही नही । संघ विशुद्ध रुप से एक राजनैतिक संगठन हे और भाजपा उसका चुनावी (राजनीतिक) संगठन है। यद्यपि आरएसएस प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में भाग नहीं लेता व इसलिए औपचारिक या तकनीकी अर्थ में उसे राजनैतिक पार्टी नहीं कहा जा सकता, परंतु व्यावहारिक तौर पर संघ और राजनैतिक दलों में कोई विशेष अंतर नहीं है। संघ की गतिविधियां किसी राजनैतिक संगठन जैसी ही हैं। भाजपा और उसके पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ का निर्माण संघ ने इसलिए किया था ताकि वे उसकी ओर से चुनावी राजनीति में भाग ले सकें। जनसंघ और भाजपा उन दर्जनों संगठनों में से हैं जिन्हें संघ ने समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपने संदेश को फैलाने और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गठित किया है। संघ अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों को इन संगठनों में डेप्यूटेशन पर भेजता है और उनके हुक्म पर ही ये संगठन चलते हैं!

इस सन्दर्भ में गुरू गोलकरकर का एक वक्तव्य मेरे इस तर्क को समझने में मददगार साबित हो सकता है गुरू गोलकरकर के अनुसार “हमें यह भी मालूम है, कि अपने कुछ स्वयं सेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलूस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परन्तु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है। यहां तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अतः हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल-कूद कर सकते हैं, परन्तु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे।"
आउटलुक हिंदी , दिसम्बर  2013

यह महज इत्तेफाक नहीं है की यूरोपीय देश नॉर्वे के नवनाजीवादी सामूहिक हत्यारे एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक ने भारत के ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ आंदोलन को विश्व भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुचलने के अभियान में प्रमुख सहयोगी करार दिया है नॉर्वे में भयंकर जनसंहार करने से पहले इस हत्यारे ने 1518 पृष्ठ का एक मेनीफेस्टो (घोषणापत्र) जारी किया था जिसमें 102 पृष्ठों में भारत के हिन्दुत्ववादी आंदोलन की चर्चा और प्रशंसा की गई है !

अंत में बस इतना ही कि कोई भी विचारधारा या राजनीति केवल इस आधार पर ही महान नही हो जाती है कि उसे व्यापक रुप से जनसमर्थन मिल रहा है। हिटलर का जनसमर्थन तो संघ और मोदी से कहीं बड़ा था.
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लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं और भोपाल में रहते हैं .

Courtesy- प्रस्तुत लेख का संक्षिप्त रूप आउटलुक हिंदी के दिसम्बर 2013 के अंक में भी प्रकाशित हो चूका है -


1 comments:

Subhash Gatade said...

Nice Rejoinder. Congrats.

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