-सुभाष गाताडे
अस्सी के दशक में उत्तर भारत के कुछ शहरों में एक
पोस्टर देखने को मिलता था।रामबिलास पासवान के तस्वीर वाले उस
पोस्टर के नीचे एक नारा लिखा रहता था ‘मैं उस घर में दिया जलाने चला हूं, जिस घर में अंधेरा है।’ उस वक्त़ यह गुमान किसे हो सकता था कि
अपनी राजनीतिक यात्रा में वह दो दफा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन
भारतीय जनता पार्टी का चिराग़ रौशन करने पहुंच जाएंगे। 2002 में गुजरात जनसंहार को लेकर
मंत्रिमंडल से दिए अपने इस्तीफे की “गलती” को ठीक बारह साल बाद ठीक करेंगे, और जिस शख्स द्वारा ‘राजधर्म’ के निर्वाहन न करने के चलते हजारों निरपराधों को अपनी जान से हाथ
धोना पड़ा, उसी शख्स को मुल्क की बागडोर सम्भालने
के लिए चल रही मुहिम में जुट जाएंगे।
मालूम हो कि अपने आप को दलितों के अग्रणी के तौर
पर प्रस्तुत करनेवाले नेताओं की कतार में रामबिलास पासवान अकेले नहीं हैं, जिन्होंने भाजपा का हाथ थामने का
निर्णय लिया है।
रामराज नाम से ‘इंडियन रेवेन्यू सर्विस’ में अपनी पारी शुरू करनेवाले और बाद
में हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म का स्वीकार करनेवाले उदित राज, जिन्होंने इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई
में संघ-भाजपा की मुखालिफत में कोई कसर नहीं छोड़ी, वह भी हाल में भाजपा में शामिल हुए हैं। पिछले साल महाराष्ट्र के
अम्बेडकरी आन्दोलन के अग्रणी नेता रिपब्लिकन पार्टी के रामदास आठवले भी
भाजपा-शिवसेना गठजोड़ से जुड़ गए हैं। भाजपा से जुड़ने के सभी के अपने अपने तर्क
हैं। पासवान अगर राजद द्वारा ‘अपमानित’ किए
जाने की दुहाई देते हुए भाजपा के साथ जुड़े हैं तो उदित राज मायावती की ‘जाटववादी’ नीति को बेपर्द करने के लिए हिन्दुत्व
का दामन थामे हैं,
उधर
रामदास आठवले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से खफा होकर भाजपा-शिवसेना के
महागठबन्धन का हिस्सा बने हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कदम से इन नेताओं को सीटों
के रूप में कुछ फायदा अवश्य होगा। पासवान अपने परिवार के जिन सभी सदस्यों को टिकट
दिलवाना चाहते हैं, वह
मिल जाएगा, वर्ष 2009 के चुनावों में जो उनकी दुर्गत हुई थी तथा वह
खुद भी हार गए थे,
वह
नहीं होगा ; उदित राज सूबा यू पी से कहीं सांसदी का
चुनाव लड़ लेंगे और अपने चन्द करीबियों के लिए कुछ जुगाड़ कर लेंगे या आठवले भी
चन्द टुकड़ा सीटें पा ही लेंगे। यह तीनों नेता अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकेंगे, भले ही इसे हासिल करने के लिए सिद्धान्तों
को तिलांजलि देनी पड़ी हो।
इसके बरअक्स विश्लेषकों का आकलन है कि
इन नेताओं के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा के साथ जुड़ने से
उसे एक साथ कई फायदे मिलते दिख रहे हैं।
अपने चिन्तन के मनुवादी आग्रहों और अपनी विभिन्न
सक्रियताओं से भाजपा की जो वर्णवादी छवि बनती रही है, वह तोड़ने में इनसे मदद मिलेगी; दूसरे, 2002 के दंगों के बाद यह तीनों नेता भाजपा की
साम्प्रदायिक राजनीति की लगातार मुखालिफत करते रहे हैं, ऐसे लोगों का इस हिन्दुत्ववादी पार्टी
से जुड़ना, उसके प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी की विवादास्पद छवि के
बढ़ते साफसुथराकरण अर्थात सैनिटायजेशन में भी मदद पहुंचाता है। यह अकारण नहीं कि
कुछ ने संघ-भाजपा के इस कदम को उसकी सोशल इंजिनीयरिंग का एक नया मास्टरस्ट्रोक कहा
है। एक अख़बार में प्रकाशित एक आलेख ‘नरेन्द्र मोदी की आर्मी’ में - जिसने दलित वोटों का प्रतिशत भी दिया है, जिसका फायदा भाजपा के प्रत्याशियों को
मिलेगा।