- किशोर झा
भारतीय जनता पार्टी ने अडवाणी को लोकसभा चुनाव में गाँधी नगर से प्रत्याशी बनाने का फैसला किया है. कहा जा रहा है कि यह निर्णय अडवाणी की असहमती होने के बावजूद मोदी के इशारे पर लिया गया है. अटकलों का बाज़ार गरम है कि वो गाँधी नगर से चुनाव नहीं लड़ना चाहते क्योंकि उन्हें आशंका है कि मोदी उन्हें इस सीट पर हरवाने का प्रयास कर सकते हैं . यह मुद्दा कोई नया नहीं है बल्कि इसकी शुरुआत अडवाणी की इच्छा के विरुद्ध पार्टी द्वारा नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय चुनावों की कमान सौपने के साथ हुई थी . उस समयइसकी प्रतिक्रिया में अडवाणी के इस्तीफे देने और थोड़े नाटक के बाद वापस लेने और अब सीट के मुद्दे पर इस तनाव के कई आयाम है, जिन्हें बारीकी से देखने की जरूरत है, पर हमारा मीडिया सिर्फ इसे मोदी बनाम आडवाणी के रूप में पेश करना चाहता है ..
एक समय मोदी और अडवाणी दोनों को बी जे पी के भीतर एक ही ख़ेमे के खिलाडियों के तौर पर जाना जाता था. बी जे पी में प्रगतिशील राजनीति का पक्षधर तो कभी कोई नहीं रहा पर मोदी और अडवाणी दोनों को पार्टी में घोर कट्टरपंथी ख़ेमे के तौर पर जाना जाता रहा है और बाजपेयी जैसे नेताओं को नरमपंथी ख़ेमे के तौर पर. गुजरात जनसंहार के बाद बाजपेयी ने जरूर राजधर्म की आड़ में मोदी की छुपे तौर पर आलोचना की थी पर आडवाणी ने हमेशा मोदी साथ दिया है .
इन दोनों नेताओं की मुलाकात आपातकाल के दौरान हुई थी और तब से लेकर 2005 तक आडवाणी मोदी का समर्थन और संरक्षण करते आये थे. सिर्फ समर्थन ही नहीं मोदी की उंगली पकड़ के उन्हें सत्ता के गलियारों की उचाईयों तक पहुचाने में भी आडवाणी की अहम भूमिका रही है. केशुभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला जैसे दिग्गजों को पछाड कर मोदी को गुजरात के राजनैतिक पटल पर चमकाने में भी आडवाणी की भूमिका रही है .मोदी ने भी 1991 में आडवाणी को गांधीनगर से चुनाव जितवा कर और आडवाणी की रथयात्रा को सफल बनाने में योगदान देकर अपने शिष्य धर्म को बखूबी निभाया था .
2005 में पाकिस्तान में आडवाणी के जिन्ना पर दिए गए बयान के बाद दोनों नेताओं के संबंधों में दरार दिखनी शुरू हुई थी और ये मतभेद 2011 में मोदी के सदभावना उपवास के दौरान साफ़ साफ़ नज़र आने लगे. प्रश्न ये उठता है जब दोनों एक ही ख़ेमे से सम्बन्ध रखते थे तो इनका आपस में द्वन्द कैसा? सच्चाई ये है कि पिछले कई वर्षों से गठबंधन की राजनीति करते करते आडवाणी के तेवर थोड़े नरम हुए है और वो अब सामजस्य की रणनीति में ज्यादा यकीन करते है. आडवाणी के शिष्य ने मजबूत और दबंग नेता की अपनी छवि के सहारे अपने गुरु को पठ्खनी देकर अपने लिए राष्ट्रीय राजनीति का रास्ता साफ़ किया है.
कुछ लोगों को एक शिष्य की अपने गुरु के प्रति ये गुस्ताखी नागवार हो सकती है पर इस शागिर्द ने राजनीति के ये दाव अपने उस्ताद से ही सीखे हैं. राजनीति में अपने रहबर को अडंगी मारकर आगे निकलने का यह खेल पहली बार नहीं खेला गया. राजनीति के इतिहास में अवसरवादिता के ना जाने ऐसे कितने ही उदहारण मिलेंगे. इस अंतर्कलह की वजह से भाजपा की अनुशासित पार्टी होने की छवि की जो फजीहत हुई है उसे दुनिया देख रही है. हिंदुत्व के मुद्दे पर अपने तीखे तेवर दिखा के मोदी ने संघ परिवार में ज्यादा समर्थन पाया है और पार्टी के अहम निर्णयों में संघ परिवार की क्या भूमिका रहती है ये जग जाहिर है.
पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस की नीतियां आवाम के हक में नहीं रही और उसके कई निर्णय जनविरोधी रहें है. पर भाजपा इन मुद्दों के साथ आवाम को गोलबंद करके ऐसी कोई कारगर राजनीति नहीं कर पाई जिसके चलते जनता उसे कांग्रेस के विकल्प के तौर पर चुने. सरकार के तमाम घोटालों, भ्रष्टाचार और गलत नीतियों के खिलाफ लोगों में गुस्सा है और ये गुस्सा अलग समय में लोगों ने सड़क पर उतर के दिखाया भी है .ये गुस्सा अन्ना हजारे आन्दोलन में स्पष्ट तौर पर देखने में आया था और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने में शासन की नाकामयाबी के विरोध में भी दिखा था. पर ये गुस्सा और आन्दोलन राजनैतिक दृष्टि के आभाव में कोई बड़ा राजनैतिक बदलाव लाने में नाकामयाब रहा. इस गुस्से, असंतोष और आन्दोलन पर अलग अलग राय हो सकती है पर एक बात स्पष्ट तौर पर सामने उभर के आई कि लोग कांग्रेस की शासन व्यवस्था से नाखुश है. . बदकिस्मती से कोई भी राजनैतिक पार्टी जनता के इस गुस्से और असंतोष को राजनैतिक बदलाव के लिए दिशा देने में नाकामयाब रही है . यू पी ऐ की तमाम असफलताओं के बावजूद पिछले साल तक भाजपा समेत कोई भी दल अपने को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश करने में सफल नहीं हुआ था.
राजनैतिक शुन्य की यह स्थिति पिछले कई वर्षों से बनी हुई है और मोदी के उभार और आडवाणी के पतन को भी इसी राजनैतिक रिक्तता के परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. भाजपा को मालूम है कि जनता में गुस्सा है, रोष है और आवाम विकल्प की तलाश में है. आवाम में मौजूद गुस्सा और राजनैतिक रिक्तता की यह स्थिति दक्षिणपंथी और फासिस्ट राजनीति के लिए बहुत ही उपजाऊ ज़मीन है जिस पर कदम रख कर वह सत्ता की फसल उगा सकते हैं . ऐसी परिस्थितियों मैं कई लोग ये भी कहते सुने जाते है इन राजनीतज्ञों से अच्छा तो सेनिक शासन आ जाये जो हमें इन भ्रष्ट राजनीतज्ञों से मुक्त कराये और अच्छी शासन व्यवस्था कायम करे. फासिस्ट ताकते अक्सर ऐसे समय में धर्म की आड़ में साफ़ सुथरा शासन का वायदा करके सत्ता में काबिज होने की कोशिश करते है. दिशा के आभाव में जनता ऐसे करिश्मे की तलाश कर रही है जिससे सब कुछ चुटकियों मैं ठीक हो जाए. इतिहास गवाह है कि इस असंतोष और गुस्से का फायदा फासीवादी ताकते किस तरह उठाती है. जिस कट्टरपंथी ख़ेमे और राजनीति का प्रतिनिधित्व मोदी और आडवाणी काफी समय से करते आ रहे थे उसके लिए एक मजबूत, दबंग और तथकथित करिश्माई नेता की छवि की जरूरत है और उस भूमिका को नरेन्द्र मोदी ज्यादा बेहतर ढंग से निभा रहें हैं. ये तथ्य बी जे पी को अच्छी तरह मालूम है कि इस करिश्मे के भ्रम को अडवाणी जैसे नेता की बजाय मोदी जैसे नेता ज्यादा बेहतर ढंग से फैला सकते हैं . इसी का फायदा उठाने के लिए मोदी को उस करिश्माई और मजबूत नेता के तौर पर दिखाने की कोशिश की जा रही है. इस फैसले के कारण पार्टी एन डी ऐ गठबधन के कई साथियों को खोएगी और पार्टी में भी कुछ उठा पठक हो सकती है. इन सब खतरों के बावजूद भी बीच जे पी ने मोदी के साथ जाने का निर्णय लिया है.
भाजपा ने जरूर जनता के असतोष का आकलन करके यह विश्लेषण किया होगा कि सत्ता में आने की संभावनाएं किस तरह की राजनीति में है. उसके पास एक विकल्प एन डी ऐ के सभी घटकों के साथ मिलकर महंगाई, गरीबी और मूलभूत सुविधाओं जैसे मुद्दों के इर्द गिर्द चुनाव लड़ने का भी था. पर उसने किसी भी दक्षिणपंथी ताकत की तरह हिंदुत्व और भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था को मुद्दा बना के चुनाव लड़ने की ठानी है. अगर भाजपा का इतिहास देखें तो पाएंगे की इसने जनता के मुद्दों पर लड़ने की बजाय मंदिर मस्जिद को जनता का मुद्दा बनाने की कोशिश ही ज्यादा की है और उसे इसका फायदा भी मिला है .
मामला मात्र आडवाणी बनाम मोदी या दो नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा का नहीं है , जैसा की मीडिया काफी समय से दिखाने की कोशिश कर रही है . मामला पार्टी की राजनैतिक दिशा का है. मुद्दा व्यक्ति विशेष के समर्थन या विरोध का नहीं बल्कि मुद्दा ये है कि पार्टी किस तरह की राजनीति में अपना भविष्य देख रही है. मोदी को चुनावों की कमान सौपने के साथ साथ भाजपा ने ये सन्देश भी दिया है कि वो किन मुद्दों के इर्द गिर्द चुनाव लड़ेगी और पार्टी की राजनैतिक दिशा क्या होगी. मोदी को चुनावों की कमान सौंप कर पार्टी ने तय किया है की वो अगले चुनावों में हिंद्त्व और भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था के घालमेल को मुद्दा बना के चुनाव लड़ेगी.
पिछले कई सालों में मीडिया की मेहरबानी के चलते मोदी की छवि एक ऐसे मजबूत हिंदुत्व समर्थक नेता के तौर पर उभरी है जो राजनैतिक नफे नुक्सान से परे सुशासन और विकास के लिए प्रतिबद्ध है. मौजूदा राजनैतक परिप्रेक्ष्य में भाजपा ये उम्मीद कर रही है की लोग ऐसे नेता को पसंद करेंगे और भाजपा को सत्ता में लाएंगे. नरेन्द्र मोदी की अच्छे शासक और विकास के प्रति समर्पित नेता की छवि कितने तथ्यों पर आधारित है ये चर्चा का विषय हो सकता है पर बी जे पी को लगता है कि इस छवि को भुनाया जा सकता है और इसके जरिये सत्ता में काबिज हो सकते है.
नरेन्द्र मोदी के सुशासन और विकास के मॉडल की बात करे बिना ये लेख अधूरा ही रहेगा. तो आइये मोदी शासन के इन दावों की भी चर्चा की जाए. नरेन्द्र मोदी का जिक्र अक्सर आर्थिक विकास के लिए किया जाता है .भारत ने पिछले दो दशकों में मोदी के बिना भी 6-10 % की दर से विकास किया है इसलिए गुजरात में हुआ आर्थिक विकास कोई करिश्मा नहीं है. 2001-2010 के दशक में गुजरात ने 10.5 % की दर से विकास किया जो महाराष्ट्र (10%) या हरियाणा ( 9.17%) से इतना ज्यादा नहीं कि मोदी को विकास-पुरुष की संज्ञा दी जा सके. IIM गुजरात के विश्लेषण पर अगर ध्यान दिया जाए तो यह अंतर ओर मामूली दिखाई पड़ता है क्योंकि गुजरात के पास देश का सबसे बढे समुद्र तट होने का प्राकृतिक लाभ भी है. 1990-2000 के बीच जब गुजरात में कई मुख्यमंत्रियों का राज रहा और तब भी इस प्रदेश की विकास दर लगभग 8.5 % थी. मोदी ने इसे 10.5 % पर पहुंचा कर कोई ऐसे झंडे नहीं गाड़े कि पूरे हिंदुस्तान में मोदी का गुणगान किया जाये. साथ ही यह भी विश्लेषण का विषय यह है कि इस विकास का कितना लाभ देश की आम जनता को मिला है. देश के विकास की तरह ही गुजरात का आर्थिक विकास भी समेकित नहीं रहा है और उसका लाभ आम जनता तक नहीं पहुँच पाया है . गुजरात के ४८ % बच्चे आज भी कुपोषण के शिकार है और लगभग औरतों की आधी आबादी खून की कमी का शिकार है. ध्यान रहे ये आंकड़े देश के औसत आंकडो से कहीं ज्यादा है. और जब मोदी से सवाल पुछा गया कि गुजरात में क्यों इतना कुपोषण है तो उनका जवाब था कि लड़कियां अपना फिगर बंनाने के लिए कम खाती हैं और उनके कुपोषण का कारण उनकी अज्ञानता है. किसानो द्वारा आत्महत्या के मामले में गुजरात सबसे अग्रणी राज्यों में से एक है और अगर एक अखबार की माने तो गुजरात में प्रतिदिन 10 किसान आत्महत्या करते हैं. मानव विकास मानक (Human development Index) के अनुसार गुजरात पहले, दूसरे या तीसरे स्थान पर नहीं बल्कि आठवें स्थान पर है. गुजरात जनसंहार में राज्य कि क्या भूमिका रही थी इसकी चर्चा बहुत हो चुकी है . इसके आलावा और भी ऐसे कई तथ्य हैं जो मोदी के सुशासन की पोल खोलते हैं पर यहाँ मैं उनकी चर्चा नहीं कर रहा. ये चंद आंकड़े इसलिए पेश कर रहां हूँ की मोदी के सुशासन की सच्चाई सामने आ सके जिसके लिए उसे देश के मुखिया के तौर पर पेश किया जा रहा है .
सत्ता में आने का भाजपा के पास ये आखरी रास्ता था और मीडिया की माने तो भाजपा ने सही रास्ता चुना है क्योंकि उन्होंने तो इनको पहले ही विजेता घोषित कर दिया है. पर भाजपा का यह दाव कितना कारगर होगा ये तो चुनावी नतीजे ही बताएँगे. पर यह आशंका भी निराधार नहीं है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उभरी इस लहर और असतोष का लाभ, इन मुद्दों को उठाने वाले गुटों से ज्यादा, दक्षिणपंथी ताकतें ना उठा लें.
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किशोर झा डेवलेपमेंट प्रोफेश्नल हैं और पिछले 20 साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अपने छात्र जीवन के दिनों मैं प्रगतिशील छात्र संघ के सक्रिय सदस्य थे और फिलहाल न्यू सोशिलिस्ट इनिशिएटिव के साथ जुड़े हुए है।
Note: यह आर्टिकल hillele.org में पब्लिश हुई है।
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