Monday, December 15, 2014

दस्तारबंदी और मुस्लिम समुदाय में नेतृत्व को लेकर कुछ सवाल

जावेद अनीस


पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने इमाम अहमद बुख़ारी द्वारा अपने पुत्र को नायब इमाम नामित करने के लिए किये जा रहे ‘दस्तारबंदी’ समारोह पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि वे जो कुछ करने जा रहे हैं उसकी कोई कानूनी मान्यता नहीं है और इस आयोजन का मतलब नायब इमाम की नियुक्ति नहीं है। इस सम्बन्ध में याचिकाकर्ताओं और सरकार द्वारा दलील दी गयी थी कि चूंकि जामा मस्जिद वक्फ बोर्ड की प्रॉपर्टी है इसलिए इसका उत्तराधिकारी इमाम नहीं तय कर सकते, यह वक्फ बोर्ड की जिम्मेदारी है। हालांकि यह अंतिम फैसला नहीं है इस मामले में आगे भी सुनवाई होनी है, जो की 28 जनवरी को होने वाली है जिसमें कोर्ट द्वारा सभी पक्षों को नोटिस भेजकर हलफनामा दायर कर अपना-अपना पक्ष रखने को कहा गया है।

कुल मिलकर कर इस फैसले का सार यह है कि बुखारी 22 नवंबर को होने वाली दस्तारबंदी का आयोजन तो कर सकते हैं लेकिन फिलहाल इसकी कानूनी मान्यता नहीं होगी इस बारे में स्थिति 28 जनवरी को होने वाली सुनवाई में ही साफ हो पायेगी।

इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई जब पिछले दिनों जामा मस्जिद के विवादास्पद “शाही इमाम” सैयद अहमद बुखारी द्वारा अपने उन्नीस वर्षीय बेटे सैयद शाबान बुखारी को अपना जांनशीन बनाने की घोषणा करते हुए कहा गया था कि 22 नवंबर 2014 को दस्तारबंदी की रस्म के साथ उन्हें नायब इमाम घोषित किया जाएगा। विवाद और गहराया जब बुखारी ने बात का खुलासा किया कि इस दस्तारबंदी रस्म में शामिल होने वाले मेहमानों की उनकी सूची में भारत के प्रधानमंत्री का नाम शामिल नहीं है, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को इसमें बुलाया गया है, सैयद अहमद बुखारी का कहना था कि ‘चूंकि यह उनका निजी कार्यक्रम है और वे किसे दावत में न्यौता भेजेंगे और किसे नहीं यह उनका अपना निर्णय है।‘ जैसा कि अपेक्षित था बुखारी के इस निर्णय को लेकर जबरदस्त विवाद हुआ और इस बहाने सैयद अहमद बुखारी एक बार फिर सुर्खियों में आ गये। 

यह वही जामा मस्जिद है जहाँ 1947 में जब दिल्ली के मुसलमान बड़ी संख्या में पाकिस्तान जा रहे थे, तब देश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इसकी प्राचीर से मुसलमानों को संबोधित किया था, उनके इस भाषण का लोगों पर बहुत गहरा असर हुआ और बड़ी तादाद में मुसलमान जो पाकिस्तान जाने के लिए अपना सामान बाँध कर तैयार थे उन्होंने हिन्दुस्तान को चुन लिया। उनके इस मशहूर भाषण के शब्द कुछ इस प्रकार हैं- "जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही हैं कि जा रहे हो...कल तक तुम यमुना के तट पर वजू किया करते थे और आज तुम यहाँ रहने से डर रहे हो। याद रखो कि तुम्हारे ख़ून में दिल्ली बसी है। तुम समय के इस झटके से डर रहे हो...वापस आओ यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा देश”।

लेकिन आज इसी जामा मस्जिद से एक दूसरी तरह की आवाज निकल रही है दरअसल इमाम बुखारी अपनी इस कवायद से भारतीय मुसलामानों को गुमराह करना चाहते थे, इसमें फिरकापरस्ती की बू आती है। इस विवाद को पैदा करने के पीछे उनका असली मकसद तो खुद को नरेंद्र मोदी के बरक्स मुसलमानों के नेता के तौर पर पेश करना था, लेकिन उनका यह दावं पूरी तरह फेल रहा, मुस्लिम समुदाय द्वारा इस पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी। दस्तारबंदी में भारतीय प्रधानमंत्री की जगह पाकिस्तान के प्रधनमंत्री को बुलाये जाने को लेकर उनकी मंशी पर सवाल उठाया गया और भारत के प्रधानमंत्री नामक संस्था के अपमान को लेकर उनकी आलोचना की गयी। 

“शाह” तो कब के खत्म हो गये लेकिन “शाही इमाम” के दस्तारबंदी का चलन अब भी कायम है। दरअसल बुखारी खानदान ने जामा मस्जिद के इमामत जैसे विशुद्ध धार्मिक मसले को सियासी और खानदानी बना रखा है, दिल्ली के जामा मस्जिद इंडो- इस्लामिक वास्तुशिल्प का शानदार नमूना है, मुस्लिम समुदाय के लिए इसका धार्मिक महत्व तो है ही, साथ ही देश के दूसरे समुदायों का राष्ट्रीय धरोहर के रूप में इससे लगाव जगजाहिर है। जामा मस्जिद के एतिहासिक महत्त्व और देश के सियासी दलों और मीडिया के नजरों में बसे होने के कारण इसके इमाम भारत के मुसलमानों के इमाम होने का भी भ्रम फैलाते रहते है, जबकि हकीकत यह है कि उनका प्रभाव जामा मस्जिद के आस पास के इलाकों में भी नहीं है। उनकी मौकापरस्ती तो जग जाहिर है, ऐसा कोई भी दल नहीं बचा है जिसके पक्ष में उनके द्वारा फ़तवा न जारी किया गया हो। 

हमारे मुल्क में धर्म और जाति के नाम पर राजनीति का फार्मूला हिट है, एक ऐसे दौर में जब बहुसंख्यक समुदाय के कट्टरवादी संगठनों का सबसे प्रिय जुमला “पाकिस्तान भेज देंगें” हो गया हो, सैयद अहमद बुखारी का पाकिस्तान प्रधानमंत्री के प्रति उमड़ा प्रेम कई सवाल खड़े करता है, क्या वे ऐसे संगठनों द्वारा लगाये गए आग को हवा दे रहे थे जिसकी आंच पर रोटियाँ सेंकी जा सके। दोनों तरफ के कट्टरपंथी तंजीमों का इतिहास रहा है कि वे पहले अपने अपने समुदायों की एक दूसरे को लेकर डर की मनोग्रन्थी को उभरती हैं फिर इसी के बल पर उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं, इसके लिए वे परोक्ष–अपरोक्ष रूप एक दूसरे की भरपूर मदद करती भी नज़र आती हैं।

शाही इमाम जैसे मजहबी लीडरान और उनके सियासी परस्तार भारतीय मुसलमानों के मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं, ये समुदाय में सामाजिक तरक्की को नापसंद करते हैं ताकि लोग जागरूक ना हो सकें और इन्हें अपने हिसाब से हांका जा सके। देश के बंटवारे के बाद जिन्ना के पाकिस्तान को नकारते हुए भारत को अपना मादरे वतन चुनने वाले मुसलमानों ने मज़हब के नाम पर बने किसी सियासी जामत के साथ जाना पसंद नहीं किया, बल्कि उन्होंने यहाँ के मुख्यधारा के सियासी पार्टियों के लीडरान को ही अपना लीडर माना लेकिन यह बड़ी विडम्बना है कि मुख्यधारा के राजनीति ने जाने–अनजाने उनपर शाही इमाम जैसे मजहबी लीडरान को बार–बार थोपने की कोशिश की है। इस दौरान इन्हें एक ऐसा वोट बैंक समझ लिया गया है जिसके सियासी हित मज़हबी लीडर को सौप दिए गये हैं, इसके नतीजे में हम देखते हैं कि देश के अन्य समुदायों की तरह इस समुदाय की तरफ से नागरिकों अधिकारों को लेकर मांग निकल कर सामने नहीं आ पाते हैं लेकिन भावनात्मक और मज़हबी मसला आने यह बहुत आसानी से सड़कों पर आ जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मुस्लिम समुदाय को धार्मिक पहचान से परे एक नागरिक के रूप से ढलने का उतना मौका नहीं मिल पाया है और इसका मुख्य कारण समुदाय में गैर–मजहबी कयादत (नेतृत्व) का ना उभर पाना है।

2006 में सच्चर कमेटी द्वारा जारी रिपोर्ट आई थी जिसने खुलासा किया था कि प्रमुख मानव विकास सूचकांकों में मुस्लिम समुदाय काफी पीछे है। ना केवल उनकी आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति दयनीय है बल्कि वे व्यापार, रोजगार, सरकारी नौकरियों और सियासी प्रतिनिधित्व के मामले में भी काफी पीछे हैं। हाल ही में सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों के अमल की हक़ीक़त को जानने के लिए गठित प्रोफ़ेसर अमिताभ कुंडू कमेटी की रिपोर्ट आई है,जिसके अनुसार सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों को लागू करने की गंभीर कोशिश नहीं की गयी है, स्कीम वगेरह तो बनाए गये लेकिन जो नतीजा हासिल होने चाहिए थे वे नहीं हुए हैं, कुछ मोर्चों में राहत है लेकिन उन्हें उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। कुंडू कमेटी ने सुझाव दिया कि अत्यंत पिछड़ी मुसलमान जातियों(अजलाफ) को ओबीसी कोटे के दायरे में रखा जाए। इसी तरह मुस्लिम दलितों (अरजाल) को ओबीसी से एससी कोटे में डाला जाए। कुंडू कमेटी की यह सिफारिश बहुत महत्वपूर्ण सिफारिश है, दरअसल मुस्लिम समुदाय को एक ही चश्मे से देखने की प्रवृति हावी है, इस नजरिये को बदलने की जरूरत है। उच्च वर्ग के मुसलमान तबकों के सामने पसमंदा यानि पिछड़े -दलित मुसलमानों की स्थिति बदतर है, इस भेद को ध्यान रखकर ही विकास और कल्याण की योजनाएं, कार्यक्रम और नीतियां बनायीं जानी चाहिए।

बीते दिनों हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हैदराबाद तक सीमित असादुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम ने दो सीटें जीत कर अपना खाता खोला है,पार्टी पांच सीटों पर दूसरे नंबर और नौ सीटों पर तीसरे स्थान पर रही। इस पार्टी की छवि एक सांप्रदायिक पार्टी की है, इसके नेताओं पर आये दिन भड़काऊ बयान देने के आरोप लगते रहते हैं, अगर यह नतीजे एमआईएम जैसे मजहबी जमात का मुसलमानों के मसीहा बनने की दिशा में सन्देश हैं तो इसे खतरनाक संकेत माना जाना चाहिए। भारत में इंडोनेशिया के बाद दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है, पूरी दुनिया में कट्टरवाद के उभार के बावजूद भारतीय मुसलमान अपने आप को रेडिकल होने से बचाये हुए है । लेकिन पिछले दिनों जैसी खबरें आ रही हैं उससे प्रतीत होता है कि अब वे आईएसआईएस और अलकायदा जैसे जिहादी संगठनों के निशाने पर है।

हिंदुस्तान की जम्हूरियत की मजबूती और अमनों-चैन के लिए जरूरी है कि अकलियतों में असुरक्षा की भावना को बढ़ाने/ भुनाने की राजनीति बंद हो, मज़हबी लीडरशिप को उन पर थोपने की जगह सियासी जमातें गैर-मजहबी नेतृत्व को बढ़ावा देते हुए उन्हें उचित प्रतिनिधित्व दें जिससे समुदाय इनसे पिंड छुड़ा सके और अपने वास्तविक समस्यायों को हल करने के लिए राजनीति को एक औजार के तौर पर इस्तेमाल करना सीख सके।

यह मुल्क पहले भी धर्म और बटवारे के राजनीति के सुरंग से गुजर चूका है और हम सब भारतीयों ने इसकी बड़ी कीमत चुकाई है, देश की सियासत को मजहब से दूर रखना होगा वर्ना इस बार तो हमारे पास कोई मौलाना आजाद और महात्मा गाँधी भी नहीं हैं उनकी जगह तो तोगड़िया और बुखारी जैसे लोग कब का ले चुके हैं ।
**********

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं और भोपाल में रहते हैं anisjaved@gmail.com

0 comments:

Post a Comment