विचारगोष्ठी
‘दलित उभार पर हिन्दुत्व का हमला’
शनिवार, 13 फरवरी, 5 बजे शाम, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 110002
अध्यक्षता
आम्रपाली (तारा)बासुमतारी
(प्रवक्ता, किरोड़ीमल कालेज /न्यू सोशालिस्ट इनिशिएटिव)
वक्तव्य
डा धरमवीर गांधी
(सांसद, पटियाला, पंजाब)
प्रोफेसर विवेक कुमार
(प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय)
सुभाष गाताडे
(लेखक, कार्यकर्ता, न्यू सोशालिस्ट इनिशिएटिव)
नकुल साहनी
(फिल्मनिर्माता और एक्टिविस्ट)
पृष्ठभूमि: रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार घटनाओं के सिलसिले से हम सभी वाकीफ हैं। हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी का अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन, जिसका रोहिथ अगुआ सदस्य था, उसने मुजफफरनगर दंगों में हिन्दुत्ववादी संगठनों की विवादास्पद भूमिका को लेकर बनी डाक्युमेण्टरी पर चर्चा का आयोजन किया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' ने इस चर्चा का विरोध किया । अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन के बीच टकराव हुआ , जिसे पुलिस में दर्ज शिकायत में 'अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन' द्वारा किए गए हमले के तौर पर प्रस्तुत किया गया । युनिविर्सिटी द्वारा की गयी पहली आन्तरिक जांच हमले की बात को अस्वीकार किया , लेकिन तब तक केन्द्र में सत्तासीन भाजपा और उसके स्थानीय प्रतिनिधि सक्रिय हुए। स्थानीय सांसद, जो केन्द्र सरकार में मंत्राी भी है, उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्राी को पत्र लिखा जिसमें 'अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन' पर ‘जातिवाद, अतिवाद और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों’ के आरोप मढ़ दिए गए। इसीसे गोया संकेत पाकर मानव संसाधन मंत्रालय ने हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी प्रशासन को कई पत्र लिखे। इन पत्रों के बाद आज्ञाकारी की तरह युनिवर्सिटी प्रशासन ने रातोंरात अपना रूख बदला , अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन के सक्रिय सदस्यों को छात्रावास, कैफेटेरिया और सामाजिक सम्वाद की अन्य जगहों से निलंबित किया । यूनिवर्सिटी प्रशासन के इस दिसम्बर की कड़ाके की ठंड में यह छात्र प्रशासनिक बिल्डिंग के बाहर तम्बू डाल कर अपना विरोध प्रदर्शन शुरू किये । विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस विरोध पर अड़ियल रुख अख्तियार किया और छात्रों की मांग और उन्हें झेलनी पड़ रही दिक्कतों पर पुनर्विचार करने से इन्कार किया ; जैसा ठंडा रूख भारत की नौकरशाही आम वक्त़ अख्तियार करती है वही रूख यहां भी दिखाई दिया । इन सभी घटनाओं से उद्वेलित ने रोहिथ आत्महत्या की।
यह घटना न केवल हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी का संचालन करनेवाले संकीर्णमना नौकरशाहों के चिन्तन एवं व्यवहार पर बल्कि केन्द्र में सत्ता की बागडोर सम्भाले अहंकारी तथा कम जानकार हिन्दुत्ववादियों पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देती है। सवाल जाति आधारित हिन्दु समाज के बुनियाद पर और उच्च शिक्षा में उसके संस्थागत प्रतिबिम्बन पर भी खड़े होते हैं। अगर हम रोहिथ द्वारा अपनी जिन्दगी की डोर अधबीच में ही तोड़ देने के प्रसंग को अलग रख कर सोचें तो यह दिखता है कि हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी में जो कुछ चला है उस घटनाक्रम के साथ आई आई टी मद्रास में पिछले अप्रैल में जो कुछ हुआ, उसके साथ बहुत समानता है। वहां पर भी दलित-बहुजन विद्यार्थियों के संगठन ‘अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल’ की मान्यता को प्रशासन द्वारा समाप्त किया गया, जब केन्द्र सरकार की तरफ से उनके यहां एक बेनामी पत्र पहुंचा। याद रहे कि इस पत्र में ‘अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल’ पर परिसर में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों मंे संलिप्तता के आरोप लगाए गए थे और इन्हीं आरोपों के चलते मानव संसाधन मंत्रालय अत्यधिक सक्रिय हो उठा था। भाजपा द्वारा दलित छात्र संगठनों के खिलाफ राज्य सत्ता के बढ़ते इस्तेमाल की बात इस वजह से भी पुष्ट होती है कि हालांकि हाल के समय में कई उच्च शिक्षा संस्थानों में दलित छात्रों द्वारा आत्महत्या की ख़बरें आयी हैं, यह पहली दफा था कि इसमें केन्द्र सरकार सीधे शामिल दिख रही थी। और जब हैद्राबाद सेन्टल युनिवर्सिटी और केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों ने राष्ट्रव्यापी शक्ल धारण की, तब हिन्दुत्ववादी नेता यह साबित करने में जुट गए कि दरअसल रोहिथ दलित नहीं था क्योंकि उसके पिता पिछड़े समुदाय से ताल्लुक रखते थे। आखिर किस वजह से हिन्दुत्ववादी संगठन दलित संगठनों से इस कदर आतंकित दिखते हैं और जागरूक दलित संगठनों पर इतनी आक्रामकता के साथ हमला करते दिख रहे हैं।
दरअसल जनाब नरेन्द्र मोदी की चुनावी जीत ने हिन्दुत्ववादी संगठनों को उन्माद से भर दिया है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारधारात्मक और राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ वह सभी किस्म की आक्रामकता - फिर चाहे राज्य एजेंसियों का इस्तेमाल हो, सड़कों पर खुलेआम गुंडागर्दी हो या निशाना बना कर की जानेवाली हिंसा हो - का इस्तेमाल कर रहे हैं। ‘घर वापसी’ और बीफ पर पाबन्दी के नाम पर अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं, हिन्दुत्व की साम्प्रदायिक हिंसा के विरोध में खड़े कार्यकर्ताओं के खिलाफ फर्जी मुकदमे कायम किए जा रहे हैं, हिन्दुत्ववादी कर्णधारों के अन्धराष्ट्रवाद और उनके द्वारा अंजाम दी जा रही हिंसा की मुखालिफत करनेवाले हर शख्स को राष्ट्रविरोधी घोषित किया जा रहा है। भारत को हिन्दु राष्ट्र बनाने के उनके इरादे के खिलाफ खड़े सभी समुदायों, संगठनों और विचारधाराओं के खिलाफ हिन्दुत्ववादी संगठन निरन्तर हमले की मुद्रा में हैं। हालांकि यहां इस सच्चाई को समझना जरूरी है कि हम जागरूक दलित संगठनों पर हिन्दुत्ववादी हमले के आधार को समझें क्योंकि इन हमलों के जरिए उन्हींका नैतिक दिवालियापन उजागर होता है , उनकी घातक योजनाआंे और उनकी कमजोर कड़ियों का खुलासा होता है।
कई कोणों से देखें तो अम्बेडकर स्टुडेंटस एसोसिएशन द्वारा आगे बढ़ायी जा रही रैडिकल दलित राजनीति एक तरह से हिन्दुत्व के सीधे खिलाफ खड़ी होती है। हिन्दू सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्र को लेकर उनके लम्बे चौडे़ दावे, रैडिकल दलित राजनीति के सामने बिल्कुल फुस्स साबित होते हैं। फुले के वक्त़ से ही, रैडिकल दलित विमर्श ने हिन्दू समाज, संस्कृति और सभ्यता के अस्तित्व को ही सीधे प्रश्नांकित किया है। ब्राहमणवादी आध्यात्मिकता की महानता के दावों के बरअक्स इस विमर्श ने जाति बर्बरता की प्रणाली को स्थापित करनेवाली एवं औचित्य प्रदान करनेवाली वेदों और स्मृतियों की अमानवीयता को बेपर्द किया है। एकीकृत हिन्दू दुनिया के जोर शोर से किये जा रहे दावों के बरअक्स, इस विमर्श ने बौद्ध धर्म, श्रमण परम्पराओं, भक्ति आन्दोलन के रैडिकल हिस्सों आदि द्वारा ब्राहमणवाद के खिलाफ उठती रही प्रतिरोध की आवाज़ों को रेखांकित किया है। अपने उदार और वाम विरोधियों के विपरीत, हिन्दुत्व ताकतों के लिए यह मुमकिन नहीं होता कि वह रैडिकल दलित राजनीति को पश्चिमीकृत अभिजातों या वर्गहीन बुद्धिजीवियों के षडयंत्र के तौर पर पेश करें। वह पूरी तरह से भारतीय है और देश के छठवें सबसे हाशियाक्रत और गरीब लोगों के वास्तविक जीवन के अनुभवों का नतीजा है।
रैडिकल दलित विमर्श ने सुधारवादी वर्णवादी हिन्दुओं के कदमों को भी खारिज किया है, जैसे गांधीजी द्वारा पूर्वअस्पृश्यों को ‘हरिजन’ के तौर पर सम्बोधन को उन्होंने कभी नहीं स्वीकारा। जनाब मोदी ने जब अपनी किताब ‘कर्मयोग’ में /2007/ में सफाई के काम में लिप्त होने की तुलना आध्यात्मिक अनुभव से की , तब उनकी जबरदस्त आलोचना हुई थी। अम्बेडकर का यह ऐलान कि ‘यह उनका दुर्भाग्य था कि वह हिन्दू के तौर पर पैदा हुए थे, मगर वह हिन्दू के तौर पर मरेंगे नहीं’ दरअसल हिन्दू धर्म के साथ रैडिकल दलित चेतना के रिश्ते को परिभाषित करता है। आधुनिक समयों में भारतीय समाज पर उंची जाति के हिन्दुओं का वर्चस्व तभी कायम हो सका जब 1932 के पूना करार के तहत जिसमें गांधीजी द्वारा अपनायी गयी भयादोहन की नीति के चलते अम्बेडकर को समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि वर्णमानसिकतावाले हिन्दुओं में दलित नाम से एक आम नफरत की भावना दिखती है, वहीं यहभी सही है कि ब्राहमणवादी हिन्दुत्व के साथ रैडिकल दलित चेतना का अन्तर्विरोध बिल्कुल तीखा है। जहां ब्राहमणवादी हिन्दुत्व की चालक शक्ति साम्प्रदायिक नफरत है जबकि उसका सांगठनिक सिद्धान्त धर्माधारित,पितृसत्तात्मक और हिंसक राष्ट्रवाद पर टिका है जबकि रैडिकल दलित चेतना अपने अम्बेडकरवादी रूप में तर्कशील मानवता की बात करती है और जाति, जेण्डर, नस्लीयता से परे सभी की मुक्ति की बात करती है।
यह सही है कि हिन्दुत्व से विचारधारात्मक और राजनीतिक तौर पर संघर्ष किए बिना, रोहिथ वेमुला की विरासत को आगे नहंीं बढ़ाया जा सकता। उच्च शिक्षा संस्थानों में दलितों के खिलाफ भेदभाव की समाप्ति संघर्ष का तात्कालिक दायरा बनता है। उसकी बड़ी चुनौती जातिविहीन समाज की कल्पना करना और उसके लिए कार्यक्रम बनाने पर टिकी है। इसके लिए मौजूदा स्थितियों का वास्तविक आकलन जरूरी है, जैसा कि रोहिथ के लेखन में, यहां तक कि उसके सुसाइड नोट में दिखता है। भारतीय संविधान ने हिन्दु धर्म में आन्तरिक सुधार की कोशिश की है, जिसमें उसने अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित किया है, मगर जाति को नहीं। इन आधे अधुरे कदमों के चलते दलितों के खिलाफ जातीय हिंसा समाप्त नहीं हो सकी है ; शंकरबिगहा, बथानी टोला, चुन्दूर और ऐसे कई कतलेआमों के हत्यारों को भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली ने बेदाग बरी किया है। इस दौरान बाज़ार, नौकरशाही, स्कूलों और विश्वविद्यालयों जैसी आधुनिक संस्थाओं में जातीय वर्चस्व के नए रूप विकसित हुए हैं। हिन्दुत्व की राजनीतिक सफलताएं जातिवाद, पितृसत्ता, आम हिन्दू सहजबोध की असुरक्षाओं एवं अंधश्रद्धाओं से उपज रही हैं। अब वक्त़ आ गया है कि वे सामाजिक ताकतें - जो हिन्दुत्व के खिलाफ संघर्षरत हैं - वे उसकी जातीय अन्तर्वस्तु को पहचानें और रैडिकल दलित राजनीति पर उसके हमले के स्वरूप को समझें। इसके अलावा आधुनिक भारत में दलित उत्पीड़न का जो विशिष्ट रूप सामने आ रहा है, उसे सीधी चुनौती देने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर, आखिर क्यों रोहिथ जैसे कई प्रतिभाशाली और संवेदनशील युवाओं को दलित उत्पीड़न के तीखे अनुभवों का सामना करना पड़ता है ? हमें उन कारणों की भी शिनाख्त करनी होगी जिसके चलते ऐसे तेजस्वी युवा आत्महत्या करने के लिए मजबूर होते हैं। क्या यह पराजयवाद है, निराशा है या एक ऐसे समाज का प्रतिबिम्बन है जहां युवाओं के सामने कोई चॉईस ही नहीं है। दरअसल ऐसे युवाओं द्वारा उठाए जाने वाले ऐसे एकांतिक कदमों की असली जड़ जाति व्यवस्था द्वारा संवेदनशील लोगों पर पहुंचायी जानेवाले घावों में निहित है। किसी भी मुक्तिकामी आन्दोलन के सामने यह चुनौती है कि वह भारतीय समाज पर जाति व्यवस्था की जबरदस्त जकड़ को समाप्त कर दे।
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