सन्दर्भ- लेनिन का लेख "साम्राज्यवाद ,पूंजीवाद चरम अवस्था" के सौ वर्ष
स्वदेश कुमार सिन्हा
लेनिन ने अपना प्रसिद्ध निबन्ध ’साम्राज्यवाद पॅूजीवाद की चरम अवस्था’ का लेखन जनवरी-जून 1916 में -ज्यूरिख स्विटजरलैण्ड’ में किया था। लेनिन ने पॅूजीवाद के विकास में उत्पन्न हो
रही नयी परिघटनाओ को प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने से बहुत पहले ही देख लिया था। 19वीं शती के आठवे दशक के पूर्व पूंजीवाद
स्वतंत्र प्रतियोगिता की मंजिल में था। इसके बाद स्वतंत्र प्रतियोगिता निर्बाध गति
से एकाधिकार के रूप में विकसित हो गयी। लेनिन इस लेख में यह सिद्ध किया कि (1914-18)
का प्रथम विश्व युद्ध दोनो पक्षो की ओर से
साम्राज्यवादी युद्ध था। यह युद्ध दुनिया के बॅटवारे के लिए ,उपनिवेशो ,वित्तिय पूँजी के प्रभाव क्षेत्रो और पूँजी के विभाजन
पुर्नविभाजन के लिए लड़ा गया था। यह आधुनिक पैमाने पर इजारेदार पूँजीवाद का नतीजा
है और इस नतीजे से साबित होता है कि ऐसी अवस्था के अन्दर जब तक उत्पादन के साधनो
पर निजी स्वामित्व का अस्तित्व है, साम्राज्यवादी
युद्धो का होना अनिवार्य है। पूँजीवाद आज विकसित होकर मुट्ठीभर ’’उन्नत ’’ देशो द्वारा दुनिया की आबादी की विशाल बहुसंख्या के
औपनिवेशिक उत्पीड़न और वित्तिय नागपाश की विश्वब्यापी व्यवस्था का रूप धारण कर
चुका है। ’’लूट के माल ’’का बॅटवारा सिर से पैर तक हथियारो से लैस दो
तीन शक्तिशाली लुटेरो (अमेरिका,ब्रिटेन,जापान) में हो रहा है। जो अपने लूट के माल के
बॅटवारे के लिए अपनी लड़ाई में सारी दुनिया को घसीट रहे हैं। ( लेनिन की रचना साम्राज्यवाद पूँजीवाद की चरम
अवस्था से उदधृत )।
साम्राज्यवाद का
उदय और उसकी आर्थिक ,राजनैतिक अभिलाक्षणिकतायें
विश्व इतिहास के इस पूरे विकास प्रक्रिया का सार संकलन करते
हुए इस युग की अभिलाक्षणिक विशिष्टताओं के रूप में कुछ प्रमुख तथ्यो को रेखंाकित
किया जा सकता है। पहला इस दौरान पूँजी ने पूरे विश्व को अपने आधीन कर लिया। दूसरा
पश्चिमी यूरोप ,अमेरिका और जापान
को मिलाकर पूंजीवादी विश्व विकसित हुआ। तीसरा इन देशो में पूँजीवादी राष्ट्रीय
राज्यो का उदय हुआ। चैथा दुनिया का उपनिवेशो में बॅटवारा हो गया। एशिया ,अफ्रीका ,लैटिन अमेरिका के देश किसी न किसी पूंजीवादी देश के उपनिवेश
बन गये। पाचवां इस दौरान पॅूजीवादी देशो ने व्यापार से औपनिवेशिक लूट के साथ पूँजी
के निर्यात तक की यात्रा पूरी की। पूँजी ने उपनिवेशो में प्रवेश किया और हजारो
वर्षो से चली आ रही इन देशों की प्राकृतिक अर्थव्यवस्था को तोड़ डाला, तथा एक नयी औपनिवेशिक व्यवस्था खड़ी की गयी
जिसमें पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली बाधित एवं सीमित ढंग से केवल उस हद तक विकसित की
गयी जिस हद तक वह उपनिवेशवादियों के अनुकूल हो। इन देशो के सामंतवाद ने
अर्द्धसामन्तवाद की शक्ल अख्तियार कर ली। दोनो प्रणालिया विद्यमान रही , पर सामन्तवाद प्रधान बना रहा। छठा इस दौरान दुनिया
में तीन तरह की सामाजिक आर्थिक ढ़ांचे विद्यमान रहे। पहला पॅजीवादी सामाजिक आर्थिक ढ़ांचा
जो पश्चिमी यूरोप अमेरिका और जापान में मौजूद था।
दूसरा प्रबल सामंती अवशेषो के
साथ पूंजीवादी सामाजिक आर्थिक ढ़ांचा था। जो पूर्वी यूरोप रूस ,स्पेन ,पुर्तगाल एवं ग्रीस में मौजूद था। इन देशो में पूजीवादी राष्ट्रीय राज्य उभरने
की प्रक्रिया में थे। तीसरा औपनिवेशिक सामाजिक ढ़ांचा था जिसमें प्राक पूंजीवादी संरचना
मौजूद थी। इस युग के अन्तिम चरण में पूंजीवाद ने साम्राज्यवाद ’’ की अवस्था में प्रवेश किया। इसी दौर में फरवरी 1917 में रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति हुयी तथा
इसी वर्ष अक्टूबर में सर्वहारा के नेतृत्व में दुनिया की पहली सामजवादी क्रान्ति
सम्पन्न हुयी। यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि रूस अभी विकसित पूंजीवादी देश नही
था। कार्ल मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत पहली समाजवादी क्रान्ति फ्रांस ,
ब्रिटेन या जनवरी में न होकर रूस में हुयी जहाँ
उत्पादक शक्तियां पिछड़ी हुयी थी तथा ’राष्ट्रीय बाजार) बनने की प्रक्रिया में था।
रूसी क्रान्ति ने दुनिया पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। इसने उपनिवेशो में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति युद्धो को
बड़े पैमाने पर प्रभावित किया तथा बल प्रदान किया।
दुसरे विश्वयुद्ध (1936से 1945 ) के साथ ही
ब्रिटेन जो प्रथम विश्वयुद्ध तक अपने प्रभाव तथा पूर्व स्थिति बनाये रखने में सफल
रहा था, द्वितीय विश्वयुद्ध
समाप्त होते-होते सोवियत संघ ने जिसने नात्सी शक्तियों को पराजित करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभायी थी। युद्ध में विजयी होकर एक महाशक्ति के रूप में उभरा। दूसरी तरफ दुनिया
में ब्रिटिश प्रभुत्व और यूरोप की प्रधान भूमिका की जगह अमेरिका पूँजीवाद विश्व का
नया नेता होकर उभरा। युद्ध में जर्मनी जापान और इटली ध्वस्त हो चुके थे, अधिकांश यूरोप तबाह हो चुका था, ब्रिटेन को ब्यापक क्षति पहुॅची थी, युद्ध का अन्त होते -होते वह दिवालियापन की
स्थिति में पहुंच चुका था। केवल अमेरिका ही युद्ध की तबाही से बच निकला था। ’पल्र्स हार्बर ’ पर जापानी बमबारी के अतिरिक्त वह वास्तविक संघर्ष से दूर
रहा। अमेरिका द्वारा मित्र शक्तियों को युद्ध
सामग्रियों की निरतर आपूर्ति ने चैथे दशक की मन्दी और दुष्चक्रीय निराशा के
दुःस्वप्नो से छुटकारा दिलाने में योगदान किया था। उत्पादक शक्तियों के भौतिक
विनाश बचा ले जाने और युद्ध आवश्यकताओ की पूर्ति में सन्नद्ध कर दिये जाने के कारण
अमेरिकी उद्योग धन्धे फल-फूल रहे थे। ध्वस्त हो चुके यूरोप व जापान के रूप में अमेरिकी
पूजी को और अधिक अवसर प्रदान किये थे।
इसी आर्थिक यथार्थ और आर्थिक शक्ति सन्तुलन को 1944 के ’बे्रट्टन बुडस ’ समझौते में संहिताबद्ध
किया गया। डालर की शक्ति पूजीवादी विश्व द्वारा स्वीकार की गयी और विश्व वित्तिय
व्यवस्था में डालर ’स्वर्णमानक ’
लागू हुआ। दूसरी तरफ युद्ध के बाद एक शक्तिशाली
समाजवादी खेमा उतरा जिसकी ताकत तेजी से बढ़ी। नात्सी जर्मनी का प्रमुख विजेता
सोवियत संघ एक महान शक्ति के रूप में उभरा। पूरी यूरोप के देशो में जनता के जनवादी
राज्य स्थापित हुए। 1949 में चीन में माओ
-त्से-तुंग के नेतृत्व में नव जनवादी क्रान्ति हुई। एक पिछड़े तथा अल्पविकसित देश में
क्रान्ति पहली बार किसानो के नेतृतव में हुयी। यहाँ पर यह गौर करने की बात है कि
एशिया के देशो चीन ,उत्तरी कोरिया ,कम्बोडिया , लाओस तथा लैटिन अमेरिकी देश ,क्यूबा जहाँ भी क्रांतियाँ सम्पन्न हुयी वे विकसित पूंजीवादी
देश न होकर पिछड़े तथा अविकसित देश थे। रूस में खुद क्रान्ति के समय पूंजीवादी विकास हो रहा था।
आज की दुनिया में
साम्राज्यवाद
नब्बे के दशक में सोवियत संघ तथा सम्पूर्ण पूरी यूरोप के
देशो में समाजवादी सत्ताओ का पराभव हो गया। 1976 में माओ-त्से-तुग की के साथ ही चीन में भी पूँजीवाद की पुर्नःस्थापना हो गयी। आज सारे विश्व में समाजवादी
खेमा समाप्त हो गया है। क्यूबा तथा उत्तरी कोरिया में समाजवादी राज्य अवश्य है ,परन्तु वे भी मूलतः समाजवादी नही कहे जा सकते।
वे अपनी सैन्य ताकत के बल पर ही सत्ता में टिके हैं ।
आज अमेरिका एक धु्रवीय महाशक्ति बनकर अवश्य उभरा परन्तु
हमें यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि एक शताब्दी या यह कहे अर्द्ध शताब्दी के बीच दुनिया
पूरी तरह बदल चुकी है। दक्षिण अफ्रीका तथा नामीबिया की आजादी के बाद सारी दुनिया
में प्रत्यक्ष उपनिवेश पूर्ण रूप से समाप्त हो गये हैं। आज पुराने तरह की उपनिवेश
बनाना किसी भी महाशक्ति के लिए संभव नही है न ही आज इसकी आवश्यकता है। इराक ,अफगानिस्तान जैसे कुछ अपवादो में भी
साम्राज्यवादी अमेरिका उन पर बहुत दिन तक प्रत्यक्ष अधिकार जमा कर नही बैठ सका। आज
की दुनिया में औपनिवेशिक संरचना पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है तथा ’सार्वभौम’ स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यो’’ पर आधारित वैश्विक संरचनाओ का जन्म हुआ है। इन स्वतंत्र
राष्ट्र राज्यो में सामंती संरचना की समाप्ति तथा पूजीवादी संरचना का जन्म हुआ है।
आज पूँजी का प्रवाह स्वतंत्र बेरोकटोक सारी दुनिया में हो रहा है। यह पहली बार हुआ
है कि पूँजीवाद ने आज सारी दुनिया में
कोने-कोने तक में अपनी जड़े जमा ली है। इन देशो में सामंती मूल्यों की गहरी मौजूदगी
अधिरचना में जरूर है परन्तु यह पूँजी के
निर्बाध प्रवाह में कही बाधक नही है। आज के साम्राज्यवाद के मुख्य लक्षणो पर गौर
करने पर निम्न प्रवुत्तियां प्रमुख रूप से देखने को मिलती हैं-
सार्वभौम स्वतंत्र
राष्ट्र-राज्यो की उत्पत्ति
आज स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य राजनीतिक रूप से आजाद हैं।
साम्राज्यवादी मुल्को द्वारा हाथ मरोड़ने ,डराने धमकाने की स्थिति आती रहती है परन्तु यह पहलू प्रधान नहीं है। सैनिक
ताकत के बल पर अमेरिका का दुनिया पर वर्चस्व जरूर है पर आर्थिक रूप से वह दुनिया
का सबसे बड़ा कर्जदार मुल्क भी है। चीन ,भारत ब्राजील , मैक्सिको ,
जैसे देश भी बड़ी अर्थव्यवस्थाओ के रूप में उभरे
हैं। अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन
अमेरिका में साम्राज्यवादी लूट में इनकी भी समान रूप से भागीदारी है आज भारत तथा
चीन की अनेक कम्पनियां तथा कारपोरेट बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा बड़े-बड़े विशाल
कारपोरेटो में बदल रहे हैं। अकेले 2015 में ही भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अमेरिका में 15 अरब डालर का निवेश किया। जिससे वहां पर 91 हजार नौकरियां सृजित हुई। आज अफ्रीका की
प्रत्यक्ष लूट में कई भारतीय कारपोरेट कम्पनियाँ भी शामिल हैं। अनेको की लूट के खिलाफ
अफ्रीकी देशो में आन्दोलन भी चल रहे हैं। आज अमेरिका जैसे महाबली देश को इरान ,क्यूबा , दक्षिणी कोरिया जैसे छोटे देशो से भी अनेक मुद्दो पर
शर्मिन्दगी उठानी पड़ी है। अमेरिका द्वारा समर्थित संयुक्त राष्ट्रसंघ के
प्रतिबन्धो के बावजूद दक्षिण कोरिया अपने परमाणु तथा मिसाईल कार्यक्रम को जारी रखे
हुए है। लम्बी दूरी के मिसाइलो के मुददे पर अमेरिका को ईरान की शर्तो पर उस पर
आर्थिक प्रतिबन्ध हटाने पडे हैं। इस तरह यह हम देखते हैं कि यह ’’राष्ट्र न तो साम्राज्यवाद के दलाल हैं और न ही
उनके कमीशन एजेण्ट’’ जैसा कि अनेक
वामपंथी विचारक और वामपंथी राजनीति पार्टियां मानती हैं।
पूँजी का
भू-मण्डलीकरण
नब्बे के दशक तक
तीसरी दुनिया के अधिकांश स्वतंत्र राष्ट्रो ने पूँजी के निर्बाध आगमन के लिए अपनी
सारी बाधाये समाप्त कर उनके लिये दरवाजे खोल दिये। इसे पूँजी के वैश्वीकरण अथवा
भूण्डलीयकरण का नाम दिया गया। भारत के सन्दर्भ से हम इसे आसानी से समझ सकते हैं।
औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद अधिकांश स्वतंत्र राष्ट्र के पूंजीपतियों को
अपनी प्रारम्भिक पूँजी संचय के लिए सार्वजनिक जनता की पूँजी की जरूरत थी। इसके लिए
मिश्रित अर्थव्यवस्था यानी सार्वजनिक और निजी पूँजीवाद की शुरूआत की गयी। इसके
अन्तर्गत जनता की पूँजी से बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गये। नब्बे के
दशक आते-आते पूंजीपति वर्ग का आत्मविश्वास बढ़ा अब उसे मिश्रित पूँजी की
अर्थव्यवस्था की जरूरत नही थी तथा यह उसके लिए अवरोध बन गयी। इसलिए नब्बे के दशक में
नेहरूवादी कोठा परमिट की नीति को समाप्त करके तथा संरचनागत समायोजन के नाम पर
बहुराष्ट्रीय पूॅजी के लिए सारे अवरोध हटा
दिये। भारत ,चीन जैसे देशो में
’विशेष आर्थिक क्षेत्र ’
(सेज) की स्थापना की जाने लगी। जिसमें कोई राष्ट्रीय कानून, श्रम कानून आदि नही लागू होते हैं। वास्तव में इन देशो में
एक बड़ा मध्यवर्ग पैदा हुआ जो यूरोप की कुल आबादी से बड़ा है। पश्चिमी जगत में पूँजी
निवेश की संभावना समाप्त हो गयी परन्तु तीसरी दुनिया के इन देशो में अभी भी इसकी
अपार संभावना है। आज उदारीकरण के 25 वर्ष बीत जाने
के बाद छोटे किसान व्यापारी दूकानदान तथा निम्न मध्यवर्गीय एक बड़ी आबादी निजीकरण
के इस होड़ में तबाह बर्बाद जरूर हुयी है परन्तु सारे बड़े राजनीतिक दल क्षेत्रीय पार्टियों
का छोटे -मोटे मतभेदो को छोड़कर इन नीतियों को जबरदस्त समर्थन प्राप्त है। एक बड़ा
मध्यवर्ग भी इसका समर्थक है। जिसे इन सुधारो से व्यापक लाभ हुआ है।
पूंजीवादी लोकतंत्र का प्रसार-पूँजी के निर्बाध प्रसार तथा जनअसन्तोष को नियंत्रण
में रखने के लिए पूंजीवादी लोकतंत्र से अच्छी कोई व्यवस्था नही है। सन् 2011 व 2012 में ,मिस्र ,टयूनिशिया,
सीरिया तथा सम्पूर्ण अरब जगत में चले आन्दोलनो
का भी पूंजीवादी लोकतंत्र स्थापित करना मुख्य कार्यभार था। आज सारी दुनिया में
इसकी हवा चल रही है। अनेक देशो के सैनिक शासको तथा दमनकारी व्यवस्थाओ में भी शासक
वर्गो को जन दबाव में लोकतांत्रिक अधिकार देने पड़ रहे हैं ।
अनुदारवाद धार्मिक कट्टरवाद और फांसीवाद का उदय -समकालीन
विश्व में आज यह तीनो प्रवृत्तियाँ एक साथ देखने को मिल रही हैं । वास्तव में यह
साम्राज्यवाद के बढ़ते आर्थिक तथा सामाजिक संकट की एक अभिव्यक्ति है। यूरोप और
अमेरिका में एक खास किस्म की धुर दक्षिणपंथीं पार्टियों का उभार दिख रहा है। करीब
दर्जन भर देशो में अन्ध-राष्ट्रवादी पार्टियां और राजनेता मजबूत हुए हैं। यह पार्टियाँ
और राजनेता लोगो में छायी निराशा आशंका और असुरक्षा बोझ की वास्तविक वजहो की चर्चा
में न जाकर इनकी वजह घोषित कर रहे है। अप्रवासियों की तथाकथित सैलाब केा मुक्त
व्यापार को कमजोर नेतृत्व को वे राष्ट्रीय सीमाओें और संस्कृतियों को अप्रवासियों तथा
अन्य खतरो से बचाने का वितण्डा खड़ा कर रहे हैं। ऐसी पार्टियों और राजनेताओ में है
अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के डानाल्ड ट्रम्प ,फ्रांस में नेशनल पार्टी फ्रन्ट और उसकी नेता मारीन लेपेन
नीदरलैण्ड के गीर्ट बिल्डर्स ,बेल्जियम के
व्लैम्स ब्लाक ,आस्ट्रिया की
फ्रीडम पार्टी ,स्वीडन के स्वीडन
डेमोक्रेट ,डेनमार्क की डेनिस पार्टी
इसके अलावा पोलैण्ड, हंगरी ,तुर्की आदि में इसी तरह की पार्टियों की भारी
लोकप्रियता बढ़ रही है। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार बनने के दौर
में आगे निकल चुके डोनाल्ड ट्रम अमेरिका में मुस्लिम अप्रवासियोें को नागरिक
सुरक्षा और सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा बताकर उनपर अमेरिका में रोक लगाने की मांग कर
रहे हैं।
समूचे एशिया ,पश्चिमी एशिया ,अफ्रीका में आज इस्लामिक कट्टरवादी आन्दोलन ’बोकोहरम’ ’अलकायदा’ ’इस्लामिक स्टेट’
(आई0एस0) की गतिविधियों में समूचे
इलाके में अस्थिरता पैदा कर दी है। पाकिस्तान , बांग्लादेश,अफगानिस्तान से
लेकर सीरिया, इराक, लीबिया ,तुर्की ,अफ्रीका ,तंजानिया ,मिश्र तक में इन संगठनो की आतंकवादी कार्यवाहियों ने पूरे
इस क्षेत्र में भयानक संकट पैदा कर दिया है। म्यांमार (वर्मा) में बौद्ध कट्टरवाद
का उभार हो रहा है। वहां के बौद्ध कट्टरवादी नेता ’विरातु’ को म्यांमार का
ओसामा बिन लादेन कहा जा रहा है। उसके अनुयायी वहां बड़े पैमाने पर मुसलमानो की
हत्यायें कर रहे है।
पूंजीवादी लोकतंत्र में फांसीवाद तथा कट्टरतावाद आसानी से
पनपता है। विगत इतिहास मे जर्मनी तथा इटली में हम यह देख चुके हैं। आज इसका सबसे
अच्छा उदाहरण भारत बना है। जहाँ संघ परिवार की फांसीवादी पार्टी भाजपा चुनाव लकर
सत्ता में आयी तथा बड़े पैमाने पर वामपंथियों ,तर्कवादियों तथा अल्पसंख्यको के ख्लिाफ नफरत के बीज बो रही
है। अनेक वामपंथी संगठनो तथा विचारको का मानना है कि पश्चिमी एशिया सहित सारी दुनिया
में मुस्लिम कट्टरवाद के लिए अमेरिका तथा पश्चिमी जगत एक मात्र जिम्मेदार है।
परन्तु यह विचार एक पक्षीय है। यह सही है कि नब्बे के दशक में अफगानिस्तान में
सोवियत फौजो के खिलाफ अमेरिका ने तालिबान तथा अलकायदा को सैनिक साजोसामान का
आपूर्ति कर उन्हे सोवियत फौजा से लड़ने के लिए तैयार किया था। परन्तु हम इस्लामिक
स्टेट (आई0एस0) तथा अल कायदा के उत्थान में इस्लामी जगत में चैदहवी
सदी में इसके जन्म के समय से ही शिया-सुन्नी विवाद को नही भूलना चाहिए। आज आई0एस0. के आतंकवादी बड़े पैमाने पर इराक, सीरिया तथा लीबिया में बड़े पैमाने पर कुर्द तथा शिया मुसलमानो की हत्याये कर
रहे हैं। इसके आतंकवादी अगर आज एक सुन्नी खलीफा राज्य बनाने का स्वप्न देख रहे हैं
तो इसके पीछे इराक के शिया तथा सउदी अरब के सुन्नी अतिवादियों के समर्थन के रूप में
भी देखा जाना चाहिए। बहुत से वामपंथी संगठन इन्हे साम्राज्यवाद विरोधी मानते है
तथा साम्राज्यवाद के खिलाफ उन्हे समर्थन देने की बात करते हैं। उन लोगो को 1979 के ईरान के सबक को नही भूलना चाहिए जहाँ पर
शाह के खिलाफ हुयी इस्लामिक क्रान्ति में कम्युनिस्टों ने कट्टरपथी खुमैनी को
समर्थन दिया था। जिसने सत्ता पाते ही सबसे पहले उन्ही कम्युनिस्टो का दमन तथा
कत्लेआम किया।
आज इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी कार्यवाहियों के खिलाफ
अमेरिका फ्रांस ,रूस सहित पश्चिमी
देशो का गठबंधन ड्रोन तथा आधुनिक विमानो से उनके इलाको पर सीरिया ,लीबिया तथा इराक में बड़े पैमाने पर बमबारी कर
रहे हैं जो पूरी दुनिया को संकट की ओर ढकेल रहा है।
सूचना तथा
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का उदय
पिछले दो दशको में विकसित पूंजीवादी देशो विशेष रूप से
अमेरिका में कम्प्यूटर ,दूर संचार ,इंटरनेट तथा मोबाईल फोन के तेज विकास ने सारी दुनिया
में क्रन्तिकारी परिवर्तन किये हैं। ’’सूचना टेक्नालाजी’’ ने आज सारी दुनिया
को एक ’’ग्लोबल विलेज ’’ में बदल दिया है। युद्धो में इस टेक्नालाजी का
इस्तेमाल विशेष रूप से मानव रहित ड्रोन विमानो ने युद्ध के सम्पूर्ण परिदृश्य को
बदल दिया। बहुत से समाज शास्त्री इस स्थिति को ’’सूचना साम्राज्यवाद’’ तथा ’’सांस्कृतिक
वर्चस्व’’ का नाम भी दे रहे हैं ।
पश्चिमी जगत आज इस नयी तकनीकी के माध्यम से सारे विश्व में एक तरह की संस्कृति
भाषा तथा विचार थोप रहा है। चैबीस घण्टे चलने वाले टी.वी. सारी दुनिया में
उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे हैं । परन्तु सूचना तकनीकी का फायदा अगर
सामा्राज्यवादी उठा रहे हैं तो सामाजिक परिवर्तन की ताकते भी इसका इस्तेमाल कर
सकती हैं । पिछले वर्षो में लोकतंत्र की मांग को लेकर अरब जगत के आन्दोलनो में
इंटरनेट तथा सूचना तकनीकी ने भारी योगदान दिया था।
आज के साम्राज्यवाद से संघर्ष की सम्भावना
आज की दुनिया का समग्र विशेषण करने से यह बात स्पष्ट तौर पर
निकलती है कि लेनिन में 1916 में जिस
साम्राज्यवाद की व्याख्या की थी उसका आर्थिक पक्ष आज भी सटीक तथा सही है। पूँजीवाद
की इजारेदारी कई गुना ज्यादा बढ़ गयी है। ’’सामा्राज्यवाद आज एकल इकाई नही है।’’ वह गम्भीर अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। निरन्तर तथा जल्दी
-जल्दी आने वाली मंदी उसे और भी समस्याग्रस्त बना रही हैं । अर्थतंत्र से
उपनिवेशवाद तथा सामंतवाद की पूर्ण विदाई हो रही है। पूँजी के साम्राज्य ने आज अपने
आगोश में ले लिया है। पहले की सारी क्रांतियाँ चाहे वह रूस ,चीन ,एशिया तथा लैटिन
अमेरिका में हुयी। वे पूँजीवाद के घोर आर्थिक ,राजनीतिक संबंधो के बीच सम्पन्न हुयी। परन्तु आज स्थितियां बदल
गयी हैं तथा इसका सामना पूंजीवादी देशो
तथा जनतंत्रो से है जिसने इस मंजिल को और कठिन तथा जटिल को बना दिया है। बीती
शताब्दी के सबक और रणनीतियां चाहे जितने भी महत्वपूर्ण हो अब सिर्फ उनसे काम नही
चल सकता। अगली बड़ी क्रान्ति जहाँ भी सम्पन्न होगी वह पूँजीवादके खिलाफ प्रत्यक्ष पहली
क्रान्ति होगी और किसी न किसी किस्म के बुर्जुआ जनतांत्रिक राज्य के खिलाफ होगी।
लेनिन ने लिखा था साम्रज्यवाद का अर्थ युद्ध होता है। यह बात आज भी अपने आप में
सत्य है। आज सारी दुनिया में बड़े पैमाने पर क्षेत्रीय युद्ध तथा गृह युद्ध हो रहे
हैं जो किसी भी विश्व युद्ध की तबाही व बर्बादी से कम नही हैं। सीरिया, इराक लीबिया, अफगानिस्तान, यमन ,तंजानिया ,सूडान आदि युद्ध तथा गृह युद्ध के इलाको से
यूरोप में बढ़ती शरणार्थियों की समस्या में इसका स्पष्ट प्रतिबिम्ब देखा जा सकता
है। अमेरिका के नेतृत्व की आज की अति शोषक साम्राज्यवादी व्यवस्था ( जो आधे दर्जन
दशो से ज्यादा मुल्कों में एक साथ सैन्य हस्ताक्षेप और ड्रोन युद्धो में उलझी हुयी
है जो अपने विशाल नाभिकीय हथियारो को आधुनिक बनाने के लिए अगले दशक तक 200 अरब डालर खर्च करने की योजना बना रही है। )
द्वारा पैदा की गयी अस्थिरता आज कई तरह के युद्धो की सम्भावनाये पैदा कर रही है।
यहा तक कि पर्यावरण में भी बदलाव मानव सभ्यता को अस्थिर होने तथा युद्धो की
सम्भावनाओ को बढ़ाते है। यद्यपि केवल पर्यावरण परिवर्तन ही हमारी धरती तथा सभ्यता
के विनाश का कारण बन सकता है। लेनिन के शब्दो में इन हालतो में वामपक्ष की यह
जिम्मेदारी है वह ’’सिर्फ आर्थिक ही
नही बल्कि राजनैतिक राष्ट्रीय इत्यादि अंतर्विरोधों ,संघर्षो और क्षोभ का भी’’ सामना करें जो लगातार हमारे समय की पहचान बनते जा रहे है।
इसका मतलब जमीनी स्तर से एक ऐसे साहसपूर्ण वैश्विक आन्दोलन को बढ़ाना है जिसकी
मुख्य चुनौती होगी उस साम्राज्यवाद को ध्वस्त करना जिसे हमारे समय के पूँजीवाद की बुनियाद समझा जाता है।
1948 में मार्क्स-एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट घोषणा
पत्र में भी मार्क्स ने अपने-अपने देश के पूंजीवादी निजाम के खिलाफ सर्वहारा वर्ग
को संघर्ष छेड़ने की बात की थी जिसका उद्देश्य एक ज्यादा क्षैतिज ,समतावादी ,शान्तिपूर्ण और टिकाऊ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।
जिसका नियंत्रण खुद सामूहिक उत्पादको के हाथ में होगा।
(प्रस्तुत लेख लेखक के अध्ययन तथा इस विषय के विभिन्न
अध्येताओ से विमर्श पर आधारित है)
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लेखक स्वतंत्र लेखन तथा पत्रकारिता करते हैं और’’न्यू सोशलिस्टइनिसियेटिव से जुड़े हुए हैं
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