Saturday, May 26, 2018

दक्षिणपंथ की कीलें



जावेद अनीस

Courtesy-dailyo.in


मोदी सरकार के चार साल हो चुके हैं, भारतीय राजनीति और समाज के लिये यह एक भारी उठा-पठक वाला दौर साबित हुआ है. इस दौरान हिन्दू दक्षिणपंथियों के बेलगाम रथ ने एक के बाद एक झंडे गाड़ने में व्यस्त रहा है. उनकी उपलब्धियां अभूतपूर्व है, आज देश में राष्ट्रपति,  उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और 15 राज्यों में मुख्यमंत्री सीधे तौर पर भगवा खेमे से हैं और 6 राज्यों में सहयोगी दलों के साथ उनकी सरकारें हैं. भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी तो पहले से ही है अब वो राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है.


लेकिन यह सफलता महज चुनावी विस्तार और सत्ता की लड़ाई तक सीमित नहीं है बल्कि विचार और नजरिये की भी जीत है. 2014 के बाद से बहुत ही सजग तरीके से इस देश, समाज और राज्य को रीडिफाइन करने की कोशिशें की गयी हैं. आज देश की राजनीति और समाज में दक्षिणपंथी विचारधारा का दबदबा है. अब संघ परिवार अपने उन एजेंडों के साथ खुलकर सामने आ रहा है जो काफी विवादित रहे है और इनका सम्बन्ध धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों, इतिहास, संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के उनके पुराने सपने से है. तो क्या आज हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वाले अपने ख्वाब के सबसे करीब पहुँच चुके हैं ?

असली चेहरा

भाजपा के लिये आक्रामक राष्ट्रवाद के साथ विकास का मिश्रण बहुत हिट साबित हुआ है, 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष के रूप में जबरदस्त छवि निर्माण की गयी थी जिसमें कारपोरेट घरानों, मीडिया, पब्लिक रिलेशन एजेंसियों और संघ परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका थी. वे “सबका साथ, सबका विकास” और  “अच्छे दिनों” के नारे के साथ सत्ता में आये थे, लेकिन फिर जल्दी ही सारे वायदे ताक पे रख दिए गये और इसकी जगह पर गाय, मंदिर, हिन्दू राष्ट्र, असहिष्णुता और संस्थानों के भगवाकरण जैसे मुद्दों को विमर्श के केंद्र में ले आया गया. यह एक ऐसा फरेब था जिसे समझने में आर्थिक उदारवादियों को तीन साल लग गये और फिर अंतरराष्ट्रीय कारोबारी पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने गुत्थी सुलझाते हुये यह घोषणा कर ही दी कि दरअसल नरेंद्र मोदी “आर्थिक सुधारक के भेष में हिंदू कट्‌टरपंथी हैं.”

दरअसल भारत के राजनीति के केंद्र में अब “राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ” नाम का संगठन और उसकी विचारधारा है जो बहुत ही अनौपचारिक तरीके से अपने नितांत औपचारिक कामों को अंजाम देता है. भारतीय जनता पार्टी तो उसके लिये चुनावी राजनीति के फ्रंट पर एक अघोषित विंग है लेकिन मात्र चुनाव ही आरएसएस की राजनीति नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्तमान के किसी राजनीतिक पार्टी, सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में फिट नहीं बैठता है इसलिये उसे समझने में हमेशा चूक कर दी जाती है. आरएसएस के 80 से ज्यादा आनुषांगिक संगठन हैं जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है, ये संगठन जीवन के लगभग हर क्षेत्र में सक्रिय हैं, यह सभी संगठन संघ की आइडीयोलोजी से संचालित होते हैं और इन्हीं के जरिये संघ परोक्ष रूप से हर क्षेत्र में हस्तेक्षप करता हैं. इन सभी संगठनों के प्रतिनिधि हर साल आयोजित होने वाले संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में शामिल होकर अपने कामों के बारे में जानकारी देते हैं. इस तरह से आरएसएस भारत की एक मात्र आइडीयोलोजिकल संगठन है जो चुनावी राजनीति सहित जीवन के सभी हलको में काम करती है.

भगवा मंसूबे
संघ एक लचीला संगठन साबित हुआ है. 1925 में अपनी स्थापना के बाद से लेकर आज तक संघ ने समय और परिस्थितयों के साथ अपने आप को बखूबी ढाला है लेकिन अपने करीब नौ दशक की यात्रा में आर.एस.एस. कभी अपनी राह से भटका भी नही और यहाँ तक पहुँचने में उसने जबरदस्त धैर्य और लचीलेपन का परिचय दिया है. वो बहुत ही ख़ामोशी के साथ आधुनिक लोकतान्त्रिक और बहुलतावादी भारत के समानांतर नैरेटिव के तौर पर काम करता रहा है. आज भी उसे कोई हड़बड़ी नहीं है और वो बहुत सघनता के साथ अपने अंतिम लक्ष्य को साधने में लगा हुआ है. संघ का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नही है वे भारतीय समाज का पूरी तरह से ट्रांसफॉर्मेशन चाहते हैं. इसे वे समाज में “हिन्दुत्व” की चेतना का विकास कहते हैं.

यकीनन मोदी सरकार आजाद भारत की पहली बहुसंख्यकवादी और सम्पूर्ण दक्षिणपंथी सरकार है, यह पिछले सभी सरकारों से कई मायनों में अलग है. अपने आप को संघ विचारक के तौर पर प्रस्तुत करने वाले राकेश सिन्हा कहते हैं कि ‘2014 का सत्ता परिवर्तन एक महत्वपूर्ण अध्याय है.यह केवल भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का सत्ता में आना नहीं है, बल्कि ये एक वैचारिक परिवर्तन है,अब भारत ने नए युग में प्रवेश कर लिया है यह भगवा युग है”. शायद इसीलिये संघ परिवार के लोग अब यह नहीं कहते है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है वे अब इसे स्वभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र बताने लगे हैं. सरसंघचालक मोहन भागवत कई बार यह दोहरा चुके हैं कि ‘भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दुत्व ही इसकी पहचान है.’

“अच्छे दिनों” का नारा अबनया भारत” में तब्दील हो चूका है, प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2022 यानी आजादी की 75वीं वर्षगांठ तक नया भारतबनाने का संकल्प लिया है. मोदी बहुत अच्छे से जानते हैं कि चुनाव जीतने के लिये हर बार नये सपने बेचने की जरूरत पड़ती है. नया भारत का नारा 2019 के चुनाव का नारा है लेकिन यह इतना भर नहीं है. उम्मीद जताई जा रही है कि भाजपा को 2020 तक राज्य सभा में भी बहुमत हासिल हो जाएगा तब शायद नरेंद्र मोदी की सरकार को अपने एजेंडे को आगे बढ़ने में कोई रूकावट नहीं होगी.  
लक्ष्य स्पष्ट है संघ प्रमुख मोहन भागवत भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप बनाने की वकालत करते रहे हैं और अब केंद्र सरकार के मंत्री भी अपने मंसूबों को बहुत खुले तौर पर सामने लाने लगे हैं. भारत सरकार के मंत्री अनंत कुमार हेगड़े स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि “भाजपा संविधान बदलने के लिए ही सत्ता में आई है और निकट भविष्य में ही ऐसा किया जाएगा”.

दक्षिणपंथ की कीलें  

दक्षिणपंथियों ने इन चार सालों का इस्तेमाल अपनी किले को मजबूत करने और नयी कीलों को ठोकने में किया है. आज संस्कृति, समाज, विचारधारा, अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्रों में दक्षिणपंथ हावी है और ऐसा उन्होंने उदारवादी लोकतंत्र के सभी संस्थानों का उपयोग करते हुए किया है. उदारवादी संस्थाओं के द्वारा अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में महारत वे पहले ही हासिल कर चुके थे इसलिए आज भारत की सत्ता पर काबिज होने के बावजूद उन्हें उदारवादी लोकतान्त्रिक संस्थाओं के बाहरी शेल को खत्म करने की जरूरत नही है.दीमक की तरह इसे खोखला बना रहे हैं और फिर उसी की मलबे के ढेर पर “महान हिन्दू राष्ट्र” का निर्माण किया जाएगा.
सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार और संघ परिवार ने मिलकर देश का नैरेटिव बदल दिया है. उनका पूरा जोर आजादी के लडाई के दौरान निकले सेक्युलर और प्रगतिशील भारतीय राष्ट्रवाद की जगह हिन्दू राष्ट्रवाद को स्थापित करने पर है. इस दौरान संघ परिवार की ओर से बार-बार दोहराया गया है किभारतीय राष्ट्रीयता का आधार हिन्दुत्व है’. पिछले चार सालों के दौरान मोदी सरकार के रवैये, उठाये गये कदमों तथा संघ परिवार के हरकतों से यह आशंका सही साबित हुई है कि राष्ट्र के तौर पर हम ने अपना रास्ता बदल लिया है. इस दौरान धार्मिक अल्पसंख्यकों दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है और उनके बीच असुरक्षा की भावना मजबूत हुई है, देश के लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर हमले हुए हैं और भारतीय संविधान के उस मूल भावना का लगातार उल्लंघन हुआ है जिसमें देश के सभी नागरिकों को सुरक्षा, गरिमा और पूरी आजादी के साथ अपने-अपने धर्मों का पालन करने की गारंटी दी गयी है. भारतीय संविधान के अनुसार राज्य का कोई धर्म नहीं है लेकिन इन सब पर बहुत ही सुनोयोजित तरीके से हमले हो रहे हैं. भारत की विविधता पर बहुसंख्यकवाद को थोपा जा रहा है और राज्य अपने आपको हिंदू धर्म के संरक्षक के तौर पेश कर रहा है. पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश की गयी और अब खान पान और रहन-सहन को निशाना बनाया जा रहा है. हिंदू पुनरुत्थान के लिए भव्य आयोजन हो रहे हैं.
भारत और भारतीयता की नयी परिभाषा

26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ तो इसने नागरिक होने के आधार पर सभी भारतीयों को बराबरी का दर्जा दिया. असमानताओं से पटे इस पुरातन देश में शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब अलग-अलग धर्म, जाति, उपजाति, लिंग, वर्ग और क्षेत्र के होने के बावजूद सभी भारतीय एक नागरिक के तौर पर समान माने गये और इसकी गारंटी कोई और नहीं बल्कि भारत का संविधान देता है.

लेकिन अब भारत और भारतीयता को बहुत तेजी से रीडिफाइन किया जा रहा है. संघ की विचारधारा यह मानती है कि हिंदू समाज इस देश का राष्ट्रीय समाज है वो अल्पसंख्यकों के अलग पहचान को नकारते हुए उन्हें दोयम दर्जे का मानती है. संघ के सिद्धांतकार एम.एस. गोलवलकर का विचार है कि भारत हिन्दुओं का एक प्राचीन देश है इस देश में पारसी और यहूदी मेहमान की तरह रहे हैं परन्तु ईसाई और मुसलमान आक्रामक बन कर रह रहे हैं, मुसलमान और ईसाई भारत में रह सकते हैं परन्तु उन्हें हिन्दू राष्ट्र के प्रति पूरे समर्पण के साथ रहना पड़ेगा.
आज भारतीयता का हिन्दुतत्व के साथ घाल-मेल किया जा रहा है जिसे राजसत्ता में शीर्ष पर बैठे हुये लोग ही आगे बढ़ा रहे हैं. पिछले साल उप राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने एक सावर्जनिक कार्यक्रम में कहा था कि “प्राचील काल से हमें जो मिला है वो भारतीयता है. जिसको कुछ लोग हिंदुत्व कहते हैं, इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.”
हमारे संविधान में नागरिकता का आधार भौगोलिक माना गया है यानी जिसने भी भारत भूमि पर जन्म लिया वो भारत का स्वाभाविक और समान नागरिक है, कुछ शर्तों के तहत दूसरे देशों में जन्मा व्यक्ति भी भारत का नागरिक हो सकता है लेकिन इनमें धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं है. अब नागरिकता को भी पुनर्परिभाषित करने की कोशिशें की जा रही हैं. जुलाई 2016 में मोदी सरकर ने नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016’ लोकसभा में पेश किया था. इस विधेयक में ‘अवैध प्रवासियोंकी परिभाषा में बदलाव किया गया है. अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को अवैध प्रवासीनहीं माना जाएगा. दूसरी तरह से देखें तो यह संशोधन सिर्फ पड़ोसी देशों से आने वाले मुस्लिम लोगों को ही अवैध प्रवासीमानता है जबकि लगभग अन्य सभी लोगों को इस परिभाषा के दायरे से बाहर कर देता है.जबकि 1955 के पुराने नागरिकता कानून के अनुसार किसी भी अवैध प्रवासीको भारतीय नागरिकता नहीं दी जा सकती है यानी इसमें मजहब का फर्क नहीं था.फिलहाल यह विधयेक संसदीय समिति के पास विचाराधीन है.
पिछले साल दिसम्बर में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने त्रिपुरा में भारत को हिंदुओं की धरती बताते हुए कहा था कि दुनियाभर से प्रताड़ित हिंदू इस देश में आकर शरण लेते हैं. हिन्दू भूमि कि यह परिकल्पना यहूदियों के इजराइल राष्ट्र  के करीब बैठती है. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी भी अपने विदेशी दौरों के दौरान बहुत बारीकी से यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि विदेशों में रहने वाले भारतीय (जिनमें से अधिकतर हिन्दू हैं और भारत के नागरिक भी नहीं हैं) वृहद भारतीय समुदाय का हिस्सा है और वे भले ही दुनिया के किसी भी भाग में रहते हों लेकिन वे भारत का वैध हिस्सा हैं.
विभाजित और बर्बर समाज

1947 में विभाजन के बाद शायद पहली बार भारतीय समाज इतना विभाजित और आपसी अविश्वास से भरा हुआ नजर आ रहा है लेकिन दुर्भाग्य से यह इतना भर नहीं है, आज हम ऐसे दौर में पहुँच चुके हैं जहाँ अपराधों का भी सामुदायिकरण होने लगा है. इधर सोशल मीडिया ने भी  हमारे समाज की पोल खोल दी है और कहीं अंदर तक छुपे बैठे गंद को सामने ला दिया है. 2014 के बाद से भारत के समाज में  विभाजन बहुत तेजी से बढ़ा है. 'ह्यूमन राइट्स वॉच' की 2018 की वर्ल्ड रिपोर्ट कहती है कि 'सत्तारूढ़ बीजेपी के कई नेताओं ने सभी भारतीयों के बुनियादी अधिकारों की क़ीमत पर हिंदू श्रेष्ठता और कट्टर राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया है.”

संघ हमेशा से ही हिंदुओं को उनकी तथाकथित सहनशीलता, कायरता और अल्पसंख्यकों से घुलने-मिलने की उनकी प्रवृत्ति को लेकर उकसाता रहा है और अब वे इसमें सफल होते दिखाई पड़ रहे हैं. आज भारत पर जैसे भीड़ और नफरत भरी भावनाओं का राज हो गया है और इस आधार पर बड़े से बड़ा अपराध करने वाले लोग हमारे नये देवता बन गये लगते हैं. एक राष्ट्र व समाज के तौर पर हम हर रोज अपने आपको शर्मिंदा कर रहे हैं. हालिया घटना जम्मू के कठुआ की है जो किसी भी संवेदनशील इंसान को दर्द और हताशा से भर देने वाली है. एक आठ साल की बच्ची के साथ मंदिर में कई दिनों तक गैंग रेप किया गया और इस दौरान दरिन्दे उस मासूम को बेहोशी के टेबलेट देते रहे फिर उसकी हत्या करके फेंक दिया जाता है, इसके बाद जो होता है उससे हमने अपने आप को एक सभ्य राष्ट्र और समाज कहने का अधिकार खो दिया है. इस बलात्कार और हत्या के आरोपियों के समर्थन में हिंदू एकता मंच के बैनर तले बाकायदा तिरंगा यात्रा निकाली जाती है जिसमें “भारत माता की जय” के नारे लगते हैं और आरोपियों के रिहाई की मांग की जाती है, उनका यह भी कहना होता है कि उन्हें जम्मू-कश्मीर पुलिस के मुस्लिम जांचकर्ताओं पर भरोसा नहीं है. बताया जाता है कि हिंदू एकता मंच नाम के इस  संगठन को बीजेपी नेता लाल सिंह चौधरी और चंदर प्रकाश गंगा (जो कि पीडीपी-बीजेपी सरकार में मंत्री हैं) का संरक्षण प्राप्त है. इस दौरान जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन (जम्मू) भी आरोपियों के पक्ष में बहुत ही उग्र तरीके से सामने आती है, वे आरोपियों के खिलाफ जम्मू-कश्मीर पुलिस क्राइम ब्रांच के उस चार्जशीट का विरोध करते है जिसमें लिखे कारनामें दिल दहला देने वाले हैं. इसके लिये वकीलों द्वारा 11 अप्रैल और 12 अप्रैल को पूरे जम्मू-कश्मीर का बंद बुलाया गया, वकील कठुआ जिला जेल के बाहर भी लगातार प्रदर्शन करते नजर आये.  सोशल मीडिया पर भी नफरत के जहर में डूबे मानसिक रोगी “अच्छा हुआ वो लड़की मर गई, वैसे भी बड़ी होकर आतंकवादी ही बनती” जैसे बातें लिखते नजर आये.

हत्यारे शंभू लाल रैगर के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ था जिसने पिछले साल 6 दिसम्बर को मोहम्मद अफ़राज़ुल नाम के 50 वर्षीय प्रवासी मज़दूर की कुल्हाड़ी से निर्मम हत्या करने के बाद उसके शव को पेट्रोल डालकर जला दिया था. अपने इस कृत्य को उसने फोन के कैमरे में रिकॉर्ड भी किया था जिसे बाद में उसने सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जिसमें वो अपनी करतूत को लव जिहाद के खिलाफ कदम बताते हुए इसे उचित ठहराया हुआ नजर आया. बाद में इसका इसका असर भी देखने को मिला, सोशल मीडिया में शंभू लाल के समर्थन में अभियान चलाया गया,उसे बचाने के लिए चंदा इकट्ठा किया और राजस्थान के जसमंद में उसके समर्थन में उग्र प्रदर्शन किये गये. इस दौरान भीड़ ने कोर्ट के छत पर चढ़ कर भगवा झंडा फहराया. फिर जोधपुर में रामनवमी के दौरान निकाली गयी झांकी में शंभुलाल को भगवान की तरह  दर्शाये जाने की खबरें भी आयीं.
इसी तरह से वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को बेंगलुरु जैसे शहर में उनके घर में घुसकर मार दिया गया था  और फिर दक्षिणपंथी समूहों के लोग सोशल मीडिया पर उनकी जघन्य हत्या को सही ठहराते हुए जश्न मानते नजर आये और गौरी लंकेश को नक्सल समर्थक, देशद्रोही और हिन्दू विरोधी बताते हुए उनके खिलाफ घृणा अभियान चलाया गया. यह हैरान करने वाली बात है कि इस हत्या को जायज़ बताने वालों में वे लोग भी शामिल थे जिन्हें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ट्विटर पर फॉलो करते हैं.
उपरोक्त घटनायें पाकिस्तान का याद दिलाती हैं जहाँ कुछ सालों पहले पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की ईश निंदा क़ानून का विरोध करने के कारण हत्या कर दी गयी थी और उनके कातिल की कोर्ट में पेशी के दौरान वकीलों ने उस पर फूल बरसाते हुये उसके समर्थन में नारे लगाए थे. आज  लगता है हम भी पाकिस्तान के उसी रास्ते पर चल पड़े है जिसका अंजाम बर्बरता और तबाही है.

Courtesy-aaghaazblog.


लोकतांत्रिक स्तंभों और संस्थाओं पर हमले
पिछले चार सालों के दौरान हमारे लोकतंत्र के स्तंभों और धर्मनिरपेक्ष व उदारवादी संस्थानों को रीढ़हीन बनाने की हर मुमकिन कोशिश की गयी है, फिर वो चाहे न्यायपालिका, चुनाव आयोग और मीडिया जैसे लोकतंत्र के स्तंभ हों या या शैक्षणिक संस्थान.
भारत में न्यायपालिका की साख और इज्जत सबसे ज्यादा रही है जहाँ चारों तरफ से नाउम्मीद होने के बाद लोग इस उम्मीद के साथ अदालत का दरवाज़ा खटखटाते हैं कि भले ही समय लग जाए लेकिन न्याय मिलेगा जरूर लेकिन पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट लगातार गलत वजहों से सुर्ख़ियों में है. जजों की नियुक्ति के तौर-तरीकों को लेकर मौजूदा सरकार और न्यायपालिका में खींचतान की स्थिति शुरू से ही रही है, लेकिन इसका अंदाजा किसी को नहीं था कि संकट इतना गहरा है. 12  जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार सिटिंग जज न्यायपालिका की खामियों की शिकायत लेकर पहली बार मीडिया के सामने आए तो यह अभूतपूर्व घटना थी जिसने बता दिया कि न्यायपालिका का संकट कितना गहरा है  और न्यायपालिका की निष्पक्षता व स्वतंत्रता दावं पर है. इन चार जजों ने अपने प्रेस कांफ्रेंस में  आरोप लगाया था कि ‘सुप्रीम कोर्ट में सामूहिक रूप से फैसले लेने की परंपरा रही है लेकिन अब इससे किनारा किया जा रहा है और महत्‍वपूर्ण मामले खास पसंद की बेंच को असाइन किए जा रहे हैं. इस भेदभावपूर्ण रवैए से न्‍यायपालिका की छवि खराब हुई है.’ जजों ने देश की जागरूक जनता से अपील भी की कि अगर न्यायपालिका को बचाया नहीं गया तो लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा. इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद से स्थिति जस की तस बनी हुई है और हालत सुधरते हुये दिखाई नहीं पड़ते हैं.अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज कुरियन जोसफ ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कहा है कि ‘सुप्रीम कोर्ट का वजूद खतरे में है और अगर कोर्ट ने कुछ नहीं किया तो इतिहास उन्हें (जजों को) कभी माफ नहीं करेगा.
इसी तरह से चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल हैं. कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 की घोषणा के दौरान ऐसा पहली बार हुआ है कि चुनावों की तारीखों की  घोषणा चुनाव आयोग से पहले किसी पार्टी द्वारा किया जाए. दरअसल चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस चल रही थी और मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव की तारीखों का ऐलान करने ही वाले थे  लेकिन भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने ट्वीट के जरिये इसकी घोषणा उनसे पहले ही कर दी. इससे पहले गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख़ तय करने में हुई देरी को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त की नीयत पर सवाल उठे थे. इसी तरह से आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को अयोग्य घोषित करने के मामले में भी चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल उठे थे जिसके बाद आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया था कि सेवानिवृत्त होने के एक दिन पहले तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ए़़ के. ज्योति की मंशा संदेह के घेरे में है और उन्होंने भाजपा के एजेंट के तौर पर असंवैधानिक फैसला लिया है. बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने आप के विधायकों को अयोग्य ठहराने के चुनाव आयोग की सिफ़ारिश को दोषपूर्णबताते हुए अधिसूचना को रद्द कर दिया. इसी क्रम में मोदी सरकार ने “वन नेशन,वन इलेक्शन” का नया शिगूफा पेश किया है जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की जा रही है. यह एक खतरनाक मंसूबा है, मोदी सरकार इसके लिये पूरा जोर लगा रही है और अगर वो इसमें कामयाब हो गयी तो यह भारतीय लोकतंत्र के ताबूत में आखरी कील साबित हो सकती है.

भारतीय रिज़र्व बैंक सरकार की पहचान से स्वतंत्र संस्था के तौर रही है जो देश की मौद्रिक नीति और बैंकिंग व्यवस्था का संचालन-नियंत्रण करता है लेकिन नोटबंदी के दौरान इसकी साख को काफी नुकसान पहुंचाया गया है और नोटबंदी के दौरान आरबीआई अपने अथॉरिटी को खोती हुयी नजर आयी.

मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी कहा जाता है आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है.भारत की मीडिया अपने आप को दुनिया की सबसे घटिया मीडिया साबित कर चुकी है, रविश कुमार ने इसे गोदी मीडिया का नाम दिया है, इसने अपनी विश्वनीयता पूरी तरह से खो दी है और इसका व्यवहार सरकारी भोंपू की तरह हो गया है. सत्ता और कॉरपोरेट की जी हजूरी में इसने सारे हदों को तोड़ दिया है. आज हालात यह है कि सत्ताधारी इसे झुकने के लिये बोले तो यह पूरी तरह उसके क़दमों में पसर जाता है. इधर एक सुनियोजित तरीके से मीडिया में मोनोपोली भी बढ़ी है जिसके तहत औधोगिक घरानों द्वारा मीडिया समूहों का शेयर खरीद कर उनका अधिग्रहण किया जा रहा है. इस काम में मुकेश अम्बानी का रिलायंस समूह सबसे आगे हैं .    

आज संघ परिवार ने भले ही राजसत्ता हासिल कर ली हो लेकिन बौद्धिक जगत में उसकी विचारधारा अभी भी हाशिये पर है और वहां नरमपंथियों व वाम विचार से जुड़े लोगों का सिक्का चलता है. संघ विचारक राकेश सिन्हा मानते हैं कि ‘वैचारिक रूप से संघ का मुखालफत करने वाले लोग भले ही आज सत्ता में नहीं हैं लेकिन अकादमिक जगत में उनका वर्चस्व हावी है, हमारा अगला लक्ष्य वहां पर वर्चस्व कायम करना है.’ राकेश सिन्हा यहाँ वामपंथियों के बारे में बात कर रहे हैं जिनका आज भी बौद्धिक व अकादमिक जगत में दबदबा है. पीछे चार सालों में सबसे महीन काम इसी क्षेत्र में ही किया जा रहा है. आज हमारे विश्वविद्यालय परिसर वैचारिक संघर्ष की रण भूमि बने हुए हैं.हम लगातार देख रहे हैं कि कैसे हमारे उच्‍च शैक्षणिक संस्‍थानों पर हमले बढ़ते गये हैं. वहां एक खास विचार को थोपने की कोशिशें की जा रही हैं और असहमति की हर आवाज को निर्मम तरीके से दबाया जा रहा है. इसके लिये राज्य  की मशीनरी का खुला इस्तेमाल किया हो रहा है, बहुत ही व्‍यवस्थित तरीके से विश्वविद्यालयों के अनुदानों में कटौती की गयी है और वहां ऐसे लोगों को नियुक्त किया गया है जो इसके लिये काबिल नहीं है और जो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से संस्थान को बर्बाद करने में योग्यदान दे सकें.

2019 का चुनाव निर्णायक है

2025 में संघ की स्थापना के सौ साल पूर हो रहे हैं और इसी के साथ ही वो अपने हिन्दू राष्ट्र की प्रोजेक्ट को पूरा होते हुये देखना चाहेंगें. भगवा खेमे के लिये अपने इस मंसूबो को पूरा करने के लिए 2019 का चुनाव निर्णायक है और इसके लिये वे कुछ भी करेंगे. यह चुनाव इतना भव्य और नाटकीय होगा जिसकी अभी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, मोदी पूरे विपक्ष को अपने बनाये नियमों पर खेलने को मजबूर किये हुए हैं. विपक्ष और समानांतर विचारधाराएँ अभी भी इसका काट नही ढूंढ पायी हैं वे सिर्फ रिएक्ट कर रही हैं उन्हें समझाना होगा की अब ये सिर्फ चुनावी मुकाबला नहीं रह गया है जरूरत भाजपा और उसकी विचारधारा के बरक्स काउंटर नैरेटिव पेश करने की है जो फिलहाल कोई करता हुआ नजर नहीं आ रहा है .

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