राजनीतिक उत्पीड़न और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के
लिए तालाबंदी के इस्तेमाल के ख़िलाफ़
सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों का संयुक्त आह्वान
महामारी से मुक्ति के लिए जन-एकजुटता का निर्माण करो!
तालाबंदी के दौरान जेलबंदी
महामारी और तालाबंदी के इस दौर में समूचे देश का ध्यान
एकजुट होकर बीमारी का मुक़ाबला करने पर केन्द्रित है.
लेकिन इसी समय देश के जाने माने बुद्धिजीवियों, स्वतंत्र पत्रकारों, हाल ही के सीएए-विरोधी आन्दोलन में सक्रिय
रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं की ताबड़तोड़ गिरफ़्तारियों ने
नागरिक समाज की चिंताएं बढ़ा दी हैं.
बुद्धिजीवियों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारियां सरकारी
काम में बाधा डालने (धरने
पर बैठने) जैसे
गोलमोल आरोपों में और अधिकतर
विवादास्पद यूएपीए क़ानून के तहत की जा रही हैं. यूएपीए
कानून आतंकवाद से निपटने के लिए लाया गया था. यह
विशेष क़ानून ‘विशेष
परिस्थिति में’ संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों को
परिसीमित करता है. जाहिर
है, इस क़ानून का इस्तेमाल
केवल उन्हीं मामलों में किया जाना चाहिए जिनका
सम्बन्ध आतंकवाद की किसी वास्तविक परिस्थिति से हो. दूसरी तरह
के मामलों में इसे लागू करना संविधान के साथ छल करना है. संविधान लोकतंत्र में राज्य की सत्ता के
समक्ष नागरिक के जिस अधिकार की गारंटी करता है, उसे
समाप्त कर लोकतंत्र को सर्वसत्तावाद में बदल देना है.
गिरफ्तारियों के लगातार जारी सिलसिले में सबसे ताज़ा नाम
जेएनयू की दो छात्राओं, देवांगना कलिता और नताशा नरवाल के हैं. दोनों शोध-छात्राएं प्रतिष्ठित नारीवादी
आन्दोलन ‘पिंजरा
तोड़’ की
संस्थापक सदस्य भी हैं. इन्हें पहले
ज़ाफ़राबाद धरने में अहम
भूमिका अदा करने के नाम पर 23 मई
को गिरफ्तार
किया गया. अगले ही दिन अदालत से जमानत मिल जाने पर तुरंत अपराध शाखा की स्पेशल
ब्रांच द्वारा क़त्ल और दंगे जैसे आरोपों के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया ताकि अदालत
उन्हें पूछ-ताछ के लिए पुलिस कस्टडी में भेज दे. आख़िरकार
उन्हें दो दिन की पुलिस कस्टडी में भेज दिया गया है.
हम जानते हैं कि कुछ ही समय पहले जेएनयू के एक महिला
छात्रावास में सशस्त्र हमला करने वाले अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद के
जाने पहचाने गुंडों में से किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया गया है .
कुछ ही समय पहले जामिया मिलिया इस्लामिया के पूर्व-छात्रों
के संगठन के अध्यक्ष शिफ़ा-उर रहमान को ‘दंगे
भडकाने’ के
आरोप में गिरफ़्तार किया गया था.
गुलफ़िशा, ख़ालिद
सैफी, इशरत
जहां, सफूरा ज़रगर और मीरान हैदर को पिछले कुछ हफ़्तों के
दौरान गिरफ़्तार किया गया है. ये
सभी सीएए-विरोधी आन्दोलन के सक्रिय कर्मकर्ता रहे हैं. यहाँ याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि सीएए की संवैधानिकता और मानवीय वैधता पर दुनिया भर में सवालिया निशान लगाए जाते रहे
हैं. सुप्रीम
कोर्ट के पास भी यह मामला विचाराधीन है.
गुलफ़िशा, सफूरा
और मीरान को यूएपीए के तहत गिरफ्तार लिया गया है. सफूरा
और मीरान जामिया को-ओर्डिनेशन कमेटी के सदस्य हैं.
एम फिल की शोध-छात्रा सफूरा
गिरफ्तारी के समय गर्भवती थीं. इस
बीच संघ-समर्थक ट्रोल सेना ने सफूरा के मातृत्व के विषय में निहायत घिनौने हमले कर
उनके शुभ-चिंतकों का मनोबल तोड़ने की भरपूर कोशिश की है. यह निकृष्टतम श्रेणी की साइबर-यौन-हिंसा है, लेकिन सरकार-भक्त हमलावर आश्वस्त हैं कि उनके ख़िलाफ़ कोई
कार्रवाई नहीं हो सकती.
बीते चौदह अप्रैल को आनंद तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा जैसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के समाज-चिंतकों को गिरफ़्तार
किया गया. यूएपीए
के प्रावधानों के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार कर
दिया था.
हाल ही में कश्मीर के चार पत्रकारों के ख़िलाफ़ प्रथम
सूचना रिपोर्ट दाख़िल की
गयी है. इनमें
से दो, मसरत
ज़हरा और गौरव गिलानी, को
यूएपीए के तहत आरोपित किया गया है.
उत्तर पूर्वी दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक
हिंसा से जुड़े एक मामले में दिल्ली पुलिस ने जामिया के छात्रों मीरान हैदर और
जेएनयू के छात्र नेता उमर ख़ालिद के ख़िलाफ़ भी यूएपीए
कानून के तहत मामला दर्ज किया है. इन
पर दंगे की कथित ‘पूर्व-नियोजित
साजिश’ को
रचने और अंजाम देने के आरोप हैं.
उधर मणिपुर सरकार ने जेएनयू के ही एक और छात्र मुहम्मद
चंगेज़ खान को राज्य सरकार की आलोचना करने के कारण गिरफ़्तार किया है. गुजरात पुलिस ने मानवाधिकारवादी वकील प्रशांत
भूषण के खिलाफ़ उनके
एक ट्वीट के लिए रपट लिखी है. इसी
तरह गुजरात पुलिस ने जनवादी सरोकारों के लिए चर्चित
पूर्व-अधिकारी कन्नन गोपीनाथन और समाचार सम्पादक ऐशलिन मैथ्यू के ख़िलाफ़ भी
प्राथमिकी दर्ज की है.
इसी तीन अप्रैल को दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने दिल्ली के
पुलिस कमिश्नर को दिल्ली की दंगा-प्रभावित गलियों से हर दिन दर्जनों नौजवानों के गिरफ्तार किये जाने का संज्ञान लेते हुए नोटिस जारी किया है.
इसी के साथ ‘द वायर’ के
सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन के घर यूपी पुलिस द्वारा दी गयी दस्तक को भी जोड़ लेना
चाहिए.
कोयम्बटूर में ‘सिम्पल
सिटी’ समाचार पोर्टल के संस्थापक
सदस्य एंड्रयू सैम राजा पांडियान को कोविड-19 से
निपटने के सरकारी तौर-तरीकों की आलोचना करने के लिए गिरफ़्तार किया गया है .
उत्तर प्रदेश में पत्रकार प्रशांत कनौजिया के ख़िलाफ़ भी
मुक़दमा दर्ज हुआ है, हालांकि
हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी पर फिलहाल रोक लगा रखी है.
इसी तरह दिल्ली में आइसा की डीयू अध्यक्ष कंवलप्रीत कौर समेत डीयू और जेएनयू अनेक
छात्र-नेताओं के मोबाइल फोन बिना उचित कानूनी प्रक्रिया अपनाए पुलिस द्वारा जब्त
कर लिए गए हैं. ये
नेतागण छात्र-छात्राओं की आवाज़ उठाते रहे हैं. यह
पुलिसिया ताक़त का बेजा इस्तेमाल करते हुए राजनीतिक असंतोष का दमन करने के लिए उनकी
निजता में सेंध लगाने की ऐसी नाजायज कोशिश है जिसकी
किसी लोकतंत्र में कल्पना भी नहीं की जा सकती.
बेहद चिंता की बात यह है कि ज़िला अदालत ने तालाबंदी के दौरान किए गए इस
पुलिसिया अनाचार के खिलाफ़ पीड़ितों को भी किसी भी तरह की राहत मुहैया करने से यह कह
कर इनकार कर दिया है कि तालाबंदी के दौरान अदालत पुलिस कार्रवाई की मोनीटरिंग नहीं
कर सकती! यानी
जब तालाबंदी के दुरुपयोग के ख़िलाफ़ राहत माँगी जा रही हो, तब उसी तालाबंदी को क़ानून-सम्मत राहत न देने
का आधार बनाया जा रहा है!
असली अपराधियों को बचाने का खुला खेल
नागरिक-समाज की चिंता का दूसरा ठोस कारण यह है कि ये
गिरफ्तारियां निहायत इकतरफा ढ़ंग से की जा रही हैं. भीमा
कोरेगांव हिंसा से लेकर दिल्ली दंगों तक के मामलों में हिन्दूकट्टरतावादी विचारधारा से जुड़े कुख्यात आरोपी
खुले घूम रहे हैं. उधर
मोदी सरकार के आलोचक बुद्धिजीवियों और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को यूएपीए जैसे
कठोर कानूनों के तहत पुलिसिया कार्रवाई का निशाना बनाया जा रहा है, जिनका मकसद बिना किसी आरोप या सबूत के भी आरोपित को लम्बे समय तक जेल में पुलिस-कस्टडी
में रखने के सिवा कुछ और नहीं है.
भीमा कोरेगांव मामले में उत्तेजक भाषणों के जरिये हिंसा भड़काने के आरोप मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े
जैसे झूठे हिंदूवादी नेताओं पर लगे थे. शुरुआती
एफआइआर में इनके नाम भी दर्ज हैं, लेकिन
ये लोग आज तक
छुट्टा घूम रहे हैं.
बाद में इस सारे मामले को ‘अरबन
नक्सल’ का
एक बनावटी और संदिग्ध कोण देकर इस मामले में तेलुगू
कवि वरवरा राव, मानवाधिकार
कार्यकर्ता अरुण फरेरा और वरनन गोंसाल्विस, मज़दूर
संघ कार्यकर्ता और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, नागरिक
अधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और अंबेडकरवादी लेखक आनंद तेलतुम्बड़े को सलाखों के पीछे डाल दिया गया है. नवलखा और आनंद को ठीक महामारी के बीच 14 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया.
हालिया दिल्ली दंगों के बारे में दुनिया जानती है कि वे
भाजपा नेता कपिल मिश्रा के इस बयान के तीन दिनों के भीतर ही शुरू हुए थे – “दिल्ली पुलिस को तीन दिन का अल्टीमेटम- जाफ़राबाद और चांद बाग़ की सड़कें खाली करवाइए, इसके बाद हमें मत समझाइएगा, हम आपकी भी नहीं सुनेंगे. सिर्फ तीन दिन."
लेकिन न कपिल मिश्रा गिरफ्तार हुए, न दंगे के दौरान गलियों में हिंसक उपद्रव मचाने
वाले उनके समर्थक. यहाँ
तक कि जेएनयू में लडकियों के होस्टल में घुस कर उत्पात मचाने वाले सरकार समर्थक
गुंडों के खिलाफ भी आजकल तक कोई कार्रवाई नहीं हुई. जामिया मिलिया इस्लामिया के आसपास सीएए
विरोधी आन्दोलनकारियों पर पिस्तौल से हमला करने वाले, ‘सिर्फ हिन्दुओं की चलेगी’ चिल्लाने वाले नौजवान के खिलाफ भी कोई जांच या कार्रवाई
सामने नहीं आई.
सभी जगह सरकार समर्थक उत्पातियों को संरक्षण और सरकार के
आलोचकों के खिलाफ विवादास्पद कठोरतम कानूनों के तहत कार्रवाई, जिससे कि लम्बे समय तक उन्हें संविधान-सम्मत सुरक्षाएं न मिल सकें, उत्पीड़न के
एक निश्चित पैटर्न को उद्घाटित करता
है. इसे सर्वसत्तावादी सरकार द्वारा पक्षपात और उत्पीड़न का
सार्वजनिक प्रदर्शन कहा जाना चाहिए.
यह सरकारी उत्पीड़न का
नया रूप है. आमतौर
पर सरकारें अपने पक्षपात और उत्पीडन को छुपाने का प्रयास करती रही है. उनपर पर्दा डालती रही हैं. लेकिन वर्तमान सरकार जान बूझ कर पक्षपात और उत्पीड़न का खुला खेल करने
की नीति पर चलती है.
इस तरीके से आलोचकों समेत आम जन तक यह संदेश पहुंचाया जाता
है कि सरकार निष्पक्ष नहीं है और उसके आलोचकों को अपनी आज़ादी और जान-माल की
सुरक्षा के लिए सरकार से उम्मीद नहीं करनी चाहिए. वे
न केवल सरकारी तन्त्र के सामने बल्कि नॉन-स्टेट एक्टरों के सामने भी असहाय हैं.
ऐसे में इन मामलों
का संज्ञान लेने और उनके सुनवाई करने में न्यायालय की तत्परता का महत्व बहुत अधिक
बढ़ जाता है. हालांकि
यूएपीए जैसे कानून न्यायालय के हस्तक्षेप की सम्भावना को भी अत्यंत असरदार तरीके
से सीमित कर देते हैं. इस
तरह एक के बाद एक झूठे मामले बनाकर गिरफ्तारियां करते हुए किसी निर्दोष को ताउम्र जेल में रखा जा सकता है.
पिछले साल ही नासिक की एक विशेष टाडा अदालत ने आतंकवाद के ग्यारह आरोपियों
को निर्दोष घोषित
कर बाइज्जत बरी किया, जो
कुल पच्चीस सालों से जेलों में बंद थे!
महामारी और ध्रुवीकरण
महामारी के दौरान हमने यह भी देखा है कि मार्च के महीने में
निजामुद्दीन में हुए मरकज़ के दौरान सामने
आए संक्रमण
के मामलों को सरकारी एजेंसियों और गोदी मीडिया द्वारा लगातार इस तरह पेश किया गया जैसे कोविड-19 के
फैलने के लिए मुसलमान ही सबसे ज़्यादा जिम्मेदार हों. ‘नमस्ते-ट्रंप’ समेत
ऐसे दूसरे राजनीतिक-धार्मिक जमावड़ों को चर्चा से बाहर रखते हुए केवल एक ही जमावड़े
पर निशाना साधा गया और महामारी को ‘कोरोना
जिहाद’ जैसा
नाम तक देने की कोशिश हुई. मुसलमानों
के सामाजिक बहिष्कार की कुछ कोशिशों की खबरें भी सामने आईं .
ठीक उस समय जब दुनिया के सभी देश अपनी जनता को एकजुट कर महामारी का मुक़ाबला करने में लगे हुए हैं, भारत में एक दूसरा ही नज़ारा देखने को मिल रहा
है . यहाँ
सामाजिक ध्रुवीकरण, साम्प्रदायिक
उन्माद और व्यक्तिपूजा का आलम खतरनाक रूप लेता दिखाई दे रहा है. लोग न केवल सरकारी एजेंसियों पर, बल्कि एक दूसरे पर भी भरोसा खोते जा रहे हैं.
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति सरकारी पक्षपात प्रदर्शन
की नीति के साथ मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाती है जिसमें
राजधर्म का अंत हो जाता है, लोकतंत्र
और संविधान की गारंटी पर संशय के बादल मंडलाने लगते हैं और नागरिक अराजकता की जमीन बनने
लगती है. नस्लवाद, फ़ासीवाद और सम्प्रदायवाद जैसे विचार हावी
होने लगते हैं, जिन्हें
उनके भयावह सामाजिक-आर्थिक परिणामों के कारण आज सारी दुनिया घृणा की नजर से देखती
है. साथ
ही, अंतरराष्ट्रीय
समुदाय को भारत की हज़ारों वर्षों से अर्जित उज्जवल प्रतिष्ठा पर कलंक लगाने का
मौक़ा मिल जाता है, जैसा
कि भारत के पुराने मित्र देश सऊदी अरब में हाल ही में देखने को मिला है.
आह्वान और मांगें
सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक नवरचना के लिए कम करने वाले
हम सभी संगठन साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और पक्षपात-प्रदर्शन की हर कोशिश की निंदा
करते हैं. हम
देश के सभी नागरिकों से इस संकट के प्रति सचेत होने तथा हमारी निम्नलिखित मांगों
में शामिल होने का आह्वान करते हैं-
1. यूएपीए
के तहत गिरफ्तार किए गए सभी बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार-कर्मियों, लेखकों, पत्रकारों
और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाए और उनके खिलाफ दर्ज किए गए एफ आइ आर
वापस लिए जाएं .
2. साम्प्रदायिक
बयानों, नफ़रती
तहरीरों और देश के किसी भी समुदाय को निशाना बनाने वाली फ़ेक खबरों
पर सख्ती से रोक लगाई जाए. ऐसे
सभी अपराधों का गम्भीरता से संज्ञान लेते हुए तत्काल निवारक कार्रवाई की जाए .
3. महामारी
से दृढ़ता से मुकाबला करने के लिए नागरिकों की आपसी एकजुटता और नागरिक-समाज तथा
राज्य के बीच बेहतर दोतरफा संवाद के लिए ठोस कदम उठाए जाएं.
4. तालाबंदी
के कारण भूख, अभाव
और दीगर कठिनाइयों का सामना कर रहे मजदूर साथियों को फौरी राहत और स्थायी समाधान
मुहैया करने के लिए वास्तविक कदम उठाए जाएं .
— जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, दलित लेखक संघ, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, प्रतिरोध का सिनेमा और संगवारी द्वारा जारी
0 comments:
Post a Comment