भीमा कोरेगाँव मामले तथा अन्य सभी मामलों
में विचाराधीन लेखकों-मानवाधिकारकर्मियों को रिहा करो !
(न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक
संघ, प्रगतिशील
लेखक संघ, जनवादी लेखक
संघ, जन नाट्य मंच, इप्टा, प्रतिरोध का
सिनेमा और संगवारी की ओर से जारी साझा बयान
)
‘...कब डरता है दुश्मन
कवि से ?
जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं
वह कै़द कर लेता है कवि को ।
फाँसी पर चढ़ाता है
फाँसी के तख़्ते के एक ओर होती है सरकार
दूसरी ओर अमरता
कवि जीता है अपने गीतों में
और गीत जीता है जनता के हृदयों में।’
(वरवर राव, बेंजामिन मोलेस की याद में, 1985)
देश और दुनिया भर
में उठी आवाज़ों के बाद अन्ततः 80 वर्षीय कवि वरवर राव को मुंबई के जे जे अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया है।
राज्य की असंवेदनशीलता और निर्दयता का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि जिस काम को क़ैदियों
के अधिकारों का सम्मान करते हुए राज्य द्वारा खुद ही अंजाम दिया जाना था, उसके लिए लोगों, समूहों को आवाज़ उठानी पड़ी।
विगत 60 साल से अधिक वक़्त से रचनाशील रहे वरवर राव तेलुगू के
मशहूर कवियों में शुमार किए जाते हैं। उनके 15 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से अनेक का तमाम भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी
हो चुका है। साहित्यिक आलोचना पर लिखी उनकी छह किताबों के अलावा उनके रचनासंसार
में और भी बहुत कुछ है।
मालूम हो कि उनके
गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें जमानत पर रिहा करने तथा बेहतर चिकित्सा
सुविधा उपलब्ध कराने की माँग को लेकर अग्रणी अकादमिशियनों - प्रोफेसर रोमिला थापर, प्रोफेसर प्रभात पटनायक आदि
ने महाराष्ट्र सरकार तथा एनआईए को अपील भेजी थी। उसका लब्बोलुआब यही था कि विगत 22 माह से वे विचाराधीन क़ैदी की तरह जेल में बन्द हैं, और इस अन्तराल में बिल्कुल स्वेच्छा से उन्होंने जाँच
प्रक्रिया में पूरा सहयोग दिया है, ऐसी हालत में जब उनका स्वास्थ्य गिर रहा है तो उन्हें कारावास में बन्दी बनाए
रखने के पीछे ‘कोई क़ानूनी वजह’ नहीं दिखती (‘there is no
reason in law or conscience’)।
प्रश्न उठना
स्वाभाविक है कि दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र होने का दावा करनेवाले मुल्क में क्या
किसी विचाराधीन क़ैदी को इस तरह जानबूझ कर चिकित्सा सुविधाओं से महरूम किया जा सकता
है और क्या यह एक क़िस्म का ‘एनकाउंटर’ नहीं होगा - जैसा सिलसिला राज्य की संस्थाएँ खुल्लमखुल्ला चलाती
हैं ?
विडम्बना ही है कि
भीमा कोरेगाँव मामले में बन्द ग्यारह लोग - जिनमें से अधिकतर 60 साल के अधिक उम्र के हैं और किसी न किसी
स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे हैं - उन सभी के साथ यही सिलसिला जारी है।
पिछले माह ख़बर आयी थी कि जानेमाने मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को अचानक
अस्पताल में भरती करना पड़ा था। प्रख्यात समाजवैज्ञानिक, अम्बेडकर वांग्मय के
विद्वान् और तीस से अधिक किताबों के लेखक प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बड़े - जो पहले से साँस की बीमारी का इलाज करवा रहे थे - उन्हें जहाँ अस्थायी तौर पर रखा गया था, वहाँ तैनात एनआईए-कर्मी खुद कोरोना पॉजिटिव निकला
था। किस तरह क़ैदियों से भरे बैरक और बुनियादी स्वच्छता की कमी से जेल में तरह तरह
की बीमारियाँ फैलने का ख़तरा बढ़ जाता है, इस पर रौशनी डालते हुए कोयल, जो सेवानिवृत्त प्रोफेसर शोमा सेन की बेटी है, ने भी अपनी माँ के हवाले से ऐसी ही बातें साझा कीं
थी: ‘‘आख़िरी बार जब मैंने अपनी माँ से बात की, उसने मुझे बताया कि न तो उन्हें मास्क, न ही कोई अन्य
सुरक्षात्मक उपकरण दिया जा रहा है। वह तीस अन्य लोगों के साथ एक ही सेल में रहती
है और वे सभी किसी तरह टेढ़े-मेढ़े सो पाते हैं।’’
तलोजा जेल में बन्द
भीमा कोरेगाँव मामले के नौ कैदी या भायकुला जेल में बन्द दो महिला कैदियों के
बहाने - जो देश के अग्रणी विद्वानों, वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में शुमार किए जाते हैं - अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि कितना कुछ अन्याय हमारे
इर्दगिर्द पसरा होता है और हम पहचान भी नहीं पाते।
उधर असम से ख़बर आयी
है कि विगत आठ माह से जेल में बन्द कृषक श्रमिक संग्राम समिति के जुझारू नेता अखिल
गोगोई और उनके दो अनन्य सहयोगी बिट्टू सोनोवाल और धरज्या कोंवर, तीनों टेस्ट में
कोविड पोजिटिव पाए गए हैं।
गोरखपुर के जनप्रिय
डॉक्टर कफ़ील खान जो विगत पाँच महीने से अधिक वक्त़ से मथुरा जेल में बन्द हैं तथा
जिन पर सीएए विरोधी आन्दोलन में भाषण देने के मामले में गंभीर धाराएँ लगा दी गयी
हैं, उनके नाम से एक विडियो भी जारी हुआ है जिसमें वे
बताते हैं कि जेल के अन्दर हालात कितने ख़राब हैं और कोविड संक्रमण के चलते अनिवार्य
ठहराए गए तमाम निर्देशों को कैसे धता बताया जा रहा है।
तय बात है कि जहाँ तक स्वास्थ्य के लिए ख़तरों का सवाल है, हम किसी को अलग करके नहीं देख सकते हैं।
हर कोई जिसे वहाँ
रखा गया है - भले ही वह विचाराधीन कैदी हो या दोषसिद्ध व्यक्ति - उसकी स्वास्थ्य की कोई भी समस्या आती है, तो उसका इन्तज़ाम करना जेल प्रशासन का प्रथम कर्तव्य
बन जाता है। कोविड 19 के भयानक संक्रामक
वायरस से संक्रमण का ख़तरा जब मौजूद हो और अगर इनमें से किसी की तबीयत ज्यादा ख़राब
हो जाती है तो यह स्थिति उस व्यक्ति के लिए अतिरिक्त सज़ा साबित हो सकती है।
यह सवाल उठना लाज़िमी
है कि जेलों में क्षमता से अधिक संख्या में बन्द क़ैदी, स्वास्थ्य सेवाओं की पहले से लचर व्यवस्था और कोविड
संक्रमण का बढ़ता ख़तरा, इस स्थिति को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मार्च
माह में दिए गए आदेश पर गंभीरता से अमल क्यों नहीं शुरू हो सका है? याद रहे कि जब कोविड महामारी फैलने लगी थी और इस
बीमारी के बेहद संक्रामक होने की बात स्थापित हो चुकी थी, तब आला अदालत ने हस्तक्षेप करके आदेश दिया था कि इस
महामारी के दौरान जेलों में बन्द क़ैदियों को पैरोल पर रिहा किया जाए ताकि जेलों के
अन्दर संक्रमण फैलने से रोका जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट किया
था कि ऐसे कैदियों को पैरोल दी जा सकती है जिन्हें सात साल तक की सज़ा हुई है, या वे
ऐसे मामलों में बन्द हैं जहाँ अधिकतम सज़ा सात साल हो।
ऐसा प्रतीत हो रहा
है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को कागज़ी बाघ में तब्दील कर दिया गया है। दिल्ली
की जेल में एक सज़ायाफ़्ता क़ैदी की कोविड से मौत हो चुकी है। क्या सरकारें अपनी
शीतनिद्रा से जगेंगी और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की रौशनी में जेलों के अन्दर
बढ़ती भीड़ की गंभीर समस्या को सम्बोधित करने के लिए क़दम उठाएँगी?
कवि वरवर राव के बद
से बदतर होते स्वास्थ्य के चलते एक बार नए सिरे से लोगों का ध्यान जेल के अन्दर
विकट होती जा रही स्थिति और कोविड 19 के चलते उत्पन्न स्वास्थ्य के लिए ख़तरे की तरफ गया है और मानवाधिकारों के
बढ़ते हनन की तरफ गया है। हमें इस ख़तरे से चेत जाने की ज़रूरत है।
कोविड 19 के बहाने हर तरह के
विरोध के दमन का जो सिलसिला सरकार ने तेज़ किया है, उसी का प्रतिबिम्बन पुलिस की इस कार्रवाई में भी दिखता है कि वह जमानत का
आदेश मिलने के बावजूद क़ैदियों को रिहा नहीं करती और तीन चार दिन के अन्तराल में
कुछ नयी ख़तरनाक धाराएँ लगा कर उन्हें जेल में ही बन्द रखती है। फिलवक्त़ मानस
कोंवर, जो कृषक मुक्ति संग्राम समिति की छात्रा शाखा के अध्यक्ष हैं, का मामला सुर्खियों में है - उन्हें एनआईए अदालत ने
जमानत दी है मगर जेल अधिकारियों ने बहाना बना कर रिहा नहीं किया है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिन ख़तरनाक धाराओं में भीमा कोरेगाँव, उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगे, कृषक मुक्ति संग्राम समिति आदि मामले में कार्रवाई की
गयी है और लोगों को जेल में ठूँसा गया है, उन ख़तरनाक क़ानूनों का हश्र यही होता है कि 99 फ़ीसदी मामलों में लोग बेदाग छूट जाते हैं।
तो फिर, क्या इन्हें
लागू करने का मक़सद महज प्रक्रिया को सज़ा में रूपांतरित करना है?
देश भर में सक्रिय हम
सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन यह माँग करते हैं कि
1. वरवर राव को तत्काल बिना शर्त रिहा किया जाए।
2. ‘बेल नियम है और जेल अपवाद’ - इस समझ के साथ,
भिन्न-भिन्न मामलों में बिना अपराध साबित हुए जेल की सज़ा काट रहे बुद्धिजीवियों,
लेखकों और मानवाधिकार-कर्मियों को जमानत दी जाए।
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