Wednesday, December 30, 2020

मौजूदा किसान आन्दोलन पर वक्तव्य - रवि सिन्हा

 

'किसानों के पक्ष में लेखक- कलाकार'
29 दिसंबर 2020
ऑनलाइन सभा में प्रस्तुत वक्तव्य 

 



किसानों के इस आन्दोलन को उसके तात्कालिक उद्देश्यों और सम्भावनाओं मात्र के सन्दर्भ में देखें तो भी यह ऐतिहासिक है. अपनी अंतिम और सम्भावित सफलता से स्वतन्त्र इसकी उपलब्धियाँ अभी ही ऐतिहासिक महत्त्व की साबित हो चुकी हैं. लेकिन इस आन्दोलन के अर्थ और इसकी सम्भावनायें और भी बड़ी हैं. भारत की दुर्दशा के इस घोर अँधेरे में, जहाँ अधिनायकवादी फ़ासिस्ट शक्तियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की सम्भावनााओं को एक के बाद एक कुचल दिया जाता रहा है, यह आन्दोलन एक मशाल बनकर सामने आया है. किसानों से शुरू होकर यह आन्दोलन सिर्फ़ किसानों का नहीं रह गया  है. पंजाब और हरियाणा के किसानों के द्वारा दिल्ली को घेरने से शुरू हुई यह मुहिम अब दिल्ली की सत्ता को घेरने वाली चौतरफ़ा मुहिम का रूप लेती जा रही है. हम किसानों के इस आन्दोलन को सर्वप्रथम इसलिए समर्थन देते हैं और उसमें इस लिये शामिल हैं कि उनकी माँगें जायज़ हैं और इस सरकार द्वारा ज़बरदस्ती लाये गये तीनों क़ानूनों को लेकर उनकी आशंकायें वास्तविक हैं. और हम इस आन्दोलन को इसलिये सलाम करते हैं और इससे प्रेरणा लेते हैं कि यह अँधेरे में रौशनी की मशाल बनकर सामने आया है. 

 अगर हम आंदोलन की तात्कालिक माँगों और उद्देश्यों की विस्तृत चर्चा यहाँ नहीं करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि इनके जायज़ और ऐतिहासिक महत्त्व के होने में हमें कोई संदेह है. अब यह जगज़ाहिर है कि ये तीनों क़ानून उस शैतानी योजना का हिस्सा हैं जिसके तहत कृषि क्षेत्र को कारपोरेट पूँजी के प्रत्यक्ष आधिपत्य में ले जाने की तैयारी है. यह न केवल किसानों की रही-सही आर्थिक सुरक्षा को समाप्त करेगा, सरकार को उसकी जिम्मेदारी से मुक्त करेगा और न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा राज्य-संचालित मंडियों की व्यवस्था को तोड़ देगा, बल्कि यह पूरे देश की आम जनता की खाद्य-सुरक्षा - जितनी भी है और जैसी भी है - को ख़तरे में डाल देगा. साथ ही ये क़ानून भारत के संघीय ढाँचे के विरुद्ध भी हैंऔर केन्द्र द्वारा राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण हैं. यह सब आप सभी को मालूम है और इन कारणों से ही इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ है. 

 लेकिन जैसा कि मैंने कहा, इस आन्दोलन का महत्त्व अधिक व्यापक और अधिक गहरा है. इसकी सम्भावनायें दूरगामी हैं. इसके राजनैतिक महत्त्व को और इसकी ऐतिहासिक भूमिका को समझा जाना चाहिये और समझाया जाना चाहिये. 

 आप ग़ौर करेंगे कि पूँजीवादी व्यवस्था के अधीन शासक वर्गों में आम तौर पर एक श्रम-विभाजन होता है. आर्थिक संसाधनों के निजी और संकेद्रित स्वामित्व तथा बाज़ार की व्यवस्था द्वारा समाज पर पूँजी का आर्थिक आधिपत्य सुनिश्चित किया जाता है, तो उसी समाज का राजनैतिक प्रबन्धन लोकतान्त्रिक प्रणाली के द्वारा किया जाता है. इस प्रणाली से शासक वर्गों को लोक-स्वीकार्यता हासिल होती है. इसकी कुछ कीमत उन्हें लोकतान्त्रिक अंकुश के रूप में चुकानी पड़ती है. शासक वर्गों की राजनीति का एक प्रमुख उद्देश्य यह होता है कि लोक-स्वीकार्यता और अंकुश के बीच ऐसा सन्तुलन स्थापित हो जिसमें लोक-स्वीकार्यता बढ़े और अंकुश न्यूनतम हो. आज से पचास साल पहले तक यह सन्तुलन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में प्रकट होता था. कम से कम उन्नत पूंजीवादी देशों में तो ऐसी ही हवा थी. इस संतुलन में आर्थिक मुद्दों और राजनैतिक एजेंडा के बीच बहुत बड़ा गैप नहीं होता था. 

 पिछले पचास सालों में दुनिया के पैमाने पर इस संतुलन में बदलाव आया है. आर्थिक मुद्दों को राजनीति के केन्द्र से विस्थापित करने का तरीक़ा निकाला गया है. इसके लिये राजनीति के केन्द्र में पहचान, परंपरा, धर्म, संस्कृति, मिथक, उन्मादी राष्ट्रवाद इत्यादि को स्थापित किया गया है. दुनिया भर में दक्षिणपंथ के उभार के पीछे यह प्रमुख कारण रहा है. पूँजीवादी व्यवस्था को अपने अन्तर्भूत कारणों से पिछले संतुलन में बदलाव की ज़रूरत थी. यह ज़रूरत इस नयी राजनीति ने पूरी की है. इसमें लोक-स्वीकार्यता आर्थिक मुद्दों से इतर कारणों द्वारा हासिल की जाती है. इससे अंकुश वाले पक्ष में भी कमी आती है. जो राजनैतिक शक्तियाँ नग्न रूप में कारपोरेट पूँजी के नौकर की भूमिका में होती हैं और जनता की संपत्ति को, उसके उत्पादन को और उसके आर्थिक-भौतिक जीवन को पूँजी और बाज़ार के हवाले करती जाती हैं उन्हीं को अर्थेतर और वर्गेतर कारणों से जनता का समर्थन भी हासिल होता है. 

 भारत में यह रणनीति हिन्दुत्व की राजनीति के ज़रिये लागू की गयी है. इसकी विडम्बना यह है कि जो जनता पिसती है वह उसी का समर्थन करती है जिसके द्वारा वह पीसी जाती है. यह तो ठीक है कि ऐसा समर्थन हासिल करने के लिये सटीक मौकों पर दंगे-फ़साद, राष्ट्रवादी उन्माद और सांप्रदायिक-सामुदायिक वैमनस्य का सहारा लिया जाता है. लेकिन प्रश्न तो फिर भी बना रहता है कि ये उपाय कारगर क्यों सिद्ध होते हैं. विडम्बना यह भी है कि जो राजनेता जनता के बीच से उभरने का दावा करते हैं, जिनका बचपन ग़रीबी में बीता होता है, जिनकी पैदाइश पिछड़े वर्गों में हुई होती है और जो चाय बेचकर जीविकोपार्जन की कथायें कह सकते हैं, उनके लिए यह तुलनात्मक रूप में आसान होता है कि वे निर्लज्ज रूप में पूँजी की चाकरी करें और आम जनता को नुक्सान पहुंचायें. कुल मिलाकर हमारे लिये यह सब एक कठिन चुनौती है. जो लोग यह सोचते हैं हम जनता के बीच जाकर आसानी से इन आसुरी और शैतानी शक्तियों का पर्दा-फ़ाश कर देंगे और जनता सच सुनते ही हमारे पक्ष में आ जायेगी, वे इस चुनौती को कम कर के आँक रहे हैं. 

 इस चुनौती के सामने रखिये तो मौजूदा किसान आन्दोलन का महत्त्व समझ में आता है. अनेक परिस्थितियों का सम्मिलन होता है तब ऐसे मौके सामने आते हैं जब शासक वर्गों के घटाटोप वर्चस्व को चुनौती दी जा सकती है. उस पर भी ऐसे मौकों को वाक़ई फलीभूत करने के लिये कुशल और समझदार नेतृत्व की ज़रूरत होती है. मौजूदा किसान आन्दोलन इन शर्तों पर अभी तक तो खरा उतरता दिखाई देता है. इसे हम सभी की भागीदारी की और ज़बरदस्त समर्थन की ज़रूरत है. ज़रूरत इस बात की भी है कि हम सब राजनैतिक परिदृश्य को और राजनैतिक उद्देश्यों को आँख से ओझल न होने दें.

 आन्दोलन के समक्ष चुनौतियाँ और सम्भावित ख़तरे भी मौजूद हैं. सरकार के द्वारा यह कोशिश लगातार बनी हुई है कि आन्दोलन को बदनाम किया जा सके और देश के पैमाने पर जनमत और लोकभावना को उसके विरुद्ध किया जा सके. यह ठीक है कि इस बार सरकार को अपनी साज़िशों में आसानी से सफलता नहीं मिलने वाली है. यह मसला किसानों का है और मेहनतकश लोगों के हर तबके का है. अतः आन्दोलन को आसानी से अलग-थलग नहीं किया जा सकता. ऊपर से किसान संगठनों के नेतृत्व की समझ-बूझ क़ाबिले-तारीफ़ है. लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार के तरकश में तीर बिलकुल नहीं बचे हैं. भले इस बार दंगे-फ़साद या राष्ट्रवादी उन्माद तत्काल कारगर न हो पायेंदूसरे उपाय ज़रूर आजमाए जा सकते हैं. मसलन आने वाले चुनावों की सरगर्मी का इस्तेमाल आन्दोलन पर से देश और दुनिया का ध्यान हटाने के लिए किया जा सकता है. 

 यह भी ग़ौरतलब है कि जन-आन्दोलन अपने राजनैतिक उद्देश्य हासिल करने में हमेशा कामयाब नहीं हो पाते. राजनैतिक कामयाबी के लिए आवश्यक होता है कि आन्दोलन राजनैतिक उद्देश्यों और निरन्तर बदलती परिस्थितियों के बारे में हमेशा सचेत रहे. दुनिया के पैमाने पर अरब स्प्रिंग जैसे अनेक विशाल जन-आन्दोलनों को हम विफल होते देख चुके हैं. वास्तविक मसलों पर खड़े हुए विशाल आन्दोलनों को भी थकाया जा सकता है, उनमें दरार डाली जा सकती है और उनसे जनता का ध्यान हटाया जा सकता है. यह भी भूलने की बात नहीं है कि जनता ने भयंकर अत्याचार, भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था की सज़ा इस सरकार को देने से इनकार किया है. ताज़ा उदाहरण लॉक-डाउन के समय भयंकर त्रासदी झेलने वाले प्रवासी मज़दूरों का है जिन्होंने सारे संकट झेलने के बाद भी सत्तारूढ़ पार्टी को हाल के चुनावों में सज़ा नहीं दी या उस तरह से नहीं दी जैसी कि अपेक्षा थी. 

 आन्दोलन के बीचो-बीच होते हुए ये बातें इसलिए आवश्यक हैं कि इनसे आन्दोलन की सफलता-विफलता का प्रश्न जुड़ा हुआ है. पहली बात तो यह कि आन्दोलन राजनैतिक परिस्थितियों को और उनमें निहित ख़तरों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. मसलन पश्चिम बंगाल के तथा अन्य राज्यों के आने वाले चुनाव न केवल आन्दोलन से जनता का ध्यान हटा सकते हैं बल्कि इन चुनावों में केंद्र में सत्तारूढ़ शक्तियों की जीत आन्दोलन को कमज़ोर करने में और अंततः उसे कुचलने में महती भूमिका निभा सकती है. अतः यह आवश्यक है कि आन्दोलन लम्बे समय तक डटा रहे और चुनावों पर भी वांछित प्रभाव डाले. अपने तात्कालिक हितों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी आन्दोलन को राजनैतिक तौर पर कुशल और सचेत होना पड़ेगा. इसके लिए यह भी आवश्यक है कि फ़ासीवाद और सम्प्रदायवाद की विरोधी जनपक्षधर शक्तियाँ भी किसान आंदोलन से सीख लें और राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय  दें.  

 अन्त में, बौद्धिक-सांस्कृतिक-सृजनशील लोगों का दायित्व हमेशा की तरह यहाँ भी विशेष बनता है. हमारी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम इस आन्दोलन का, और व्यापक प्रतिरोध आन्दोलन का, उत्साह बढ़ायें, उसमें आशा का संचार करें, लेकिन साथ ही यथार्थ की यथार्थवादी समझ भी बनायें. ये दोनों उद्देश्य परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं. आशा-उत्साह का संचार सच से आँख चुरा कर नहीं हो सकता और एक दूसरे को वही घिसी-पिटी तथाकथित उत्साहजनक बातें सुनाकर भी नहीं हो सकता जिन्हें हम एक दूसरे को हज़ार बार सूना चुके होते हैं. दूसरी तरफ़ सपनों को साकार करने वाली रणनीति के लिये भी यथार्थ की निर्मम यथार्थवादी समझ की आवश्यकता होती है. 

 मैं यह दुहराये बिना नहीं रह सकता कि यह आन्दोलन भारत के मौजूदा अँधेरे एक मशाल बनकर सामने आया है. मैं एक बार फिर इस गौरवशाली आन्दोलन को सलाम करता हूँ, इसे अपना समर्थन देता हूँ, और तात्कालिक एवं दूरगामी दोनों स्तरों पर इसकी सफलता की कामना करता हूँ. 

 


Tuesday, December 29, 2020

किसानों के पक्ष में लेखक-कलाकार, Writers and Artists For Farmers

 लेखक संगठनों की पहल पर देश के मूर्धन्य लेखकों-कलाकारों की तरफ से किसान आन्दोलन के साथ एकजुटता दिखाने 02 जनवरी 2021 को सिंघु बॉर्डर पहुंचने का आह्वान.


A call to Writers and Artists to reach Singh Border on the 02nd of January 2021to express solidarity with the ongoing Farmers' movement.




Join an online conference of writers and artists on the 29th of December at 06 pm to be part of this call. This conference will be telecasted live here and on following Facebook pages with many others including

 इस आह्वान को देश भर में प्रसारित करने के लिए के लिए 29 दिसम्बर को लेखकों-कलाकारों की एक ऑनलाइन सभा होगी. इस सभा को इस पृष्ठ के अलावा 'समकालीन जनमत' और 'हम देखेंगे'तथा दीगर फेसबुक पन्नों से प्रसारित किया जाएगा. अगर आप किसान आन्दोलन के साथ हैं तो इस गोष्ठी में शरीक होइए .

 

https://www.facebook.com/s.janmat/

 https://www.facebook.com/humdekhengegroup/

 

साझीदार लेखक

Participating Writers/ Artists

 

1.शारिब रुदौलवी Sharib Rudaulvi

2. ममता कालिया Mamta Kalia

3. प्रो. चौथीराम यादव Prof. Chauthiram Yadav

4. वंदना टेटे Vandana Tete

5. प्रो. गुफरान किदवई Prof. Ghufran Kidwai

6. रणेन्द्र Ranendra

7. गीता हरिहरन Geehta Hariharan

8. जंसिता केरकेट्टा Jacinta Kerketta

9. प्रो. रवि सिन्हा Prof Ravi Sinha

10. के. सच्चिदानंदन K. Sachchidanandan

11. प्रियंवद Priaymvad

12. मनोरंजन ब्यापारी Manoranjan Byapari

13. मृदुला गर्ग Mridula Garg

14. मणिमाला Manimala

15. रत्ना पाठक शाह Ratna Pathak Shah

16. नसीरुद्दीन शाह Nasirudin Shah


 निवेदक: प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच, इप्टा, जन नाट्य मंच, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव, सिनेमा ऑफ़ रेजिस्टेंस, संगवारी


Thursday, December 24, 2020

Special lecture on Farm Laws, Farmer protests and agrarian crisis By Dr. Jaya Mehta

 

Dr Jaya Mehta, economist and activist, has been associated with the Joshi-Adhikari Institute of Social Studies, author of many books who coordinated an all India study of the Agrarian Crisis will be delivering a special lecture on ‘Farm Laws, Farmer Protests and Agrarian Crisis’



 Abstract of talk:

The reforms in agricultural marketing contained in the three farm laws were first announced by the finance minister on 15th May 2020 as Prime Minister’s relief package for the people. When Covid and lock-down had created crisis in the entire economy, migrant workers were walking hundreds of kilometers to reach home and the majority of households desperately needed state support and protection, the Modi government chose to withdraw state intervention and deregulate market forces in agriculture to leave people in complete disarray. After the controversial monsoon session of parliament, the reforms to deregulate market became laws.

 The farmers of Punjab and Haryana started protesting against the farm bills even before they were introduced in the Lok Sabha. They could see that what was recommended by the government as market incentive for farmers was actually a threat to the process of state procurement and guarantee of minimum support price. The farm bills represented a step towards transferring agricultural produce markets entirely in the hands of domestic and multinational agribusiness. From 27th November, the protest against the farm laws has gathered enormous momentum. Not only farmers across the country have joined in, other marginalized sections of rural and urban informal sector have also identified their self- interest as linked to the existing market structure. They do not want it disturbed by the new farm laws. The infrastructure of PDS which offers food security to them, may become redundant if state procurement of grains is undermined.

 Such spread out base of the movement not only makes the existing protest robust and resilient, it also offers a hope that the marginalized section will gather strength and confidence to demand their share in the economic and political space which has been appropriated by big capital.

Although agrarian crisis has precipitated since 1990s, its roots can be traced far behind in the land reform period and early industrialization initiative. Seventy years after independence we still have 50% of the workforce (245 million men and women) dependent on agriculture for their livelihoods. But the main resource base namely land is limited and dignified livelihood cannot be provided through direct farm activities. The industrialization and modernization trajectory in the post-independent period has failed to create requisite employment space for surplus labor which remains confined to agriculture. Resolution of agrarian crisis then demands a radical restructuring of land labor relations and alongside a change in production relations and production process outside of agriculture so that distorted employment pattern can be corrected. This requires a robust political movement but also a delineation of alternative development paradigm and production structure. Formation of collective economic base in agriculture and urban informal sector is a necessary step in this direction.

Zoom meeting  link : https://us02web.zoom.us/j/84816535825...

Zoom meeting ID : 84816535825

Passcode : 881652

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Video of the Democracy Dialogue 6th lecture on Fascism, Democracy and The Left By Comrade Dipankar Bhattacharya


The 6th lecture in the Democracy Dialogues series organized by the New Socialist Initiative was delivered by Com Dipankar Bhattacharya, General Secretary of CPI (ML) Liberation on 20 the December 6 pm (IST) where he spoke on ‘Fascism, Democracy and the Left’

 


Abstract  : ‘Fascism, Democracy, and the Left’

With the rise of the Modi government, BJP has managed to establish a vicious grip on Indian polity. Parliamentary democracy and the constitutional vision of a secular democratic Indian republic have come under fierce attack. Instead of remaining busy with studying historical parallels we should treat the present phase as the rise of the Indian model of fascism and resist it with all our might. While we can locate the present Indian developments in the context of global economic and political trends in the post-Soviet world, there are strong roots in Indian history and society. One should revisit Ambedkar and the warnings he had issued right at the time of adoption of India’s Constitution.

The Left vision and role in politics has been historically identified with ideas and experiments of building socialism, but the challenge for socialism to offer a superior model of democracy has remained fatally neglected. In the face of a fascist offensive, the Left in India must emerge and assert as the most consistent and reliable champion of democracy.

About the Democracy Dialogues Series :

The idea behind this series - which we would like to call 'Democracy Dialogues' - is basically to initiate as well as join in the on-going conversation around this theme in academic as well as activist circles.

We feel that the very idea of democracy which has taken deep roots across the world, has come under scanner for various reasons. At the same time we have been witness to the ascendance of right-wing forces and fascistic demagogues via the same democratic route. There is this apparently anomalous situation in which the spread and deepening of democracy have often led to generating mass support for these reactionary and fascistic forces.

Coming to India, there have been valid concerns about the rise of authoritarian streak among Indians and how it has helped strengthen BJP's hard right turn. The strong support for democracy here is accompanied by increasing fascination towards majoritarian-authoritarian politics. In fact, we would like to state that a vigorous electoral democracy here has become a vehicle for hindutva-ite counterrevolution.

All videos  of  the Democracy Dialogues  series  lectures are available on  New Socialist Initiative YouTube channel


Thursday, December 17, 2020

FASCISM, DEMOCRACY AND THE LEFT : COM DIPANKAR BHATTACHARYA


Democracy Dialogues Lecture Series ( Webinar)
Organised by New Socialist Initiative




The 6th lecture in the Democracy Dialogues series organized by the New Socialist Initiative will be delivered by Com Dipankar Bhattacharya, General Secretary of CPI (ML) Liberation on 20 th December 6 pm (IST) where he will be speaking on ‘Fascism, Democracy and the Left’

Abstract  : ‘Fascism, Democracy, and the Left

With the rise of the Modi government, BJP has managed to establish a vicious grip on Indian polity. Parliamentary democracy and the constitutional vision of a secular democratic Indian republic have come under fierce attack. Instead of remaining busy with studying historical parallels we should treat the present phase as the rise of the Indian model of fascism and resist it with all our might. While we can locate the present Indian developments in the context of global economic and political trends in the post-Soviet world, there are strong roots in Indian history and society. One should revisit Ambedkar and the warnings he had issued right at the time of adoption of India’s Constitution.

The Left vision and role in politics has been historically identified with ideas and experiments of building socialism, but the challenge for socialism to offer a superior model of democracy has remained fatally neglected. In the face of a fascist offensive, the Left in India must emerge and assert as the most consistent and reliable champion of democracy.

Zoom link

https://us02web.zoom.us/j/82956668095?pwd=OWE2L2hvRkpobW1mR21ZSXB0a2RIQT09

 Facebook live link

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Sunday, December 6, 2020

किसान आंदोलन की माँगों और 8 तारीख के भारत बंद के समर्थन में जारी बयान

 


किसान आंदोलन की माँगों और तारीख के भारत बंद के समर्थन में न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव, दलित लेखक संघ, अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, इप्टा, संगवारी, प्रतिरोध का सिनेमा और जनवादी लेखक संघ द्वारा जारी बयान )

 


image courtesy -Reuters

तीन जनद्रोही कृषि-क़ानूनों के खिलाफ़ किसानों के ऐतिहासिक आन्दोलन का साथ दें!

केन्द्र सरकार के कार्पोरेटपरस्त एजेण्डा के विरोध में अपनी आवाज़ बुलन्द करें!

8 दिसम्बर के भारत बंद को सफल बनाएं!

 भारत का किसान जिसके संघर्षों और कुर्बानियों का एक लम्बा इतिहास रहा है आज एक ऐतिहासिक मुक़ाम पर खड़ा है।

हज़ारों-लाखों की तादाद में उसके नुमाइन्दे राजधानी दिल्ली की विभिन्न सरहदों पर धरना दिए हुए हैं और उन तीन जनद्रोही क़ानूनों की वापसी की मांग कर रहे हैं जिनके ज़रिए इस हुकूमत ने एक तरह से उनकी तबाही और बरबादी के वॉरंट पर दस्तख़त किए हैं। अपनी आवाज़ को और बुलंद करने के लिए किसान संगठनों की तरफ़ से 8 दिसम्बर को भारत बंद का ऐलान किया गया है।

सरकार भले ही यह दावा करे कि ये तीनों क़ानून - जिन्हें महामारी के दिनों में पहले अध्यादेश के ज़रिए लागू किया गया था और फिर तमाम जनतांत्रिक परंपराओं को ताक़ पर रखते हुए संसद में पास किया गया - किसानों की भलाई के लिए हैं, लेकिन यह बात बहुत साफ़ हो चुकी है कि इनके ज़रिए राज्य द्वारा अनाज की खरीद की प्रणाली को समाप्त करने और इस तरह बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए ठेका आधारित खेती करने तथा आवश्यक खाद्य सामग्री की बड़ी मात्रा में जमाखोरी करने की राह हमवार की जा रही है।

लोगों के सामने यह भी साफ़ है कि यह महज़ किसानों का सवाल नहीं बल्कि मेहनतकश अवाम के लिए अनाज की असुरक्षा का सवाल भी है। अकारण नहीं कि किसानों के इस अभूतपूर्व आन्दोलन के साथ खेतमज़दूरों, औद्योगिक मज़दूरों के संगठनों तथा नागरिक समाज के तमाम लोगों, संगठनों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित की है।

 जनतंत्र और संवाद हमेशा साथ चलते हैं। लेकिन आज यह दिख रहा है कि मौजूदा निज़ाम की ओर से जिस न्यू इंडियाके आगमन की बात की जा रही है, उसके तहत जनतंत्र के नाम पर अधिनायकवाद की स्थापना का खुला खेल चल रहा है।

आज की तारीख में सरकार किसान संगठनों के साथ वार्ता करने के लिए मजबूर हुई है, मगर इसे असंभव करने की हर मुमकिन कोशिश सरकार की तरफ़ से अब तक की जाती रही है। उन पर लाठियां बरसायी गयीं, उनके रास्ते में तमाम बाधाएं खड़ी की गयी, यहां तक कि सड़कें भी काटी गयीं। यह किसानों का अपना साहस और अपनी जीजीविषा ही थी कि उन्होंने इन कोशिशों को नाकाम किया और अपने शांतिपूर्ण संघर्ष के काफ़िलों को लेकर राजधानी की सरहदों तक पहुंच गए।

किसानों के इस आन्दोलन के प्रति मुख्यधारा के मीडिया का रवैया कम विवादास्पद नहीं रहा। न केवल उसने आन्दोलन के वाजिब मुद्दों को लेकर चुप्पी साधे रखी बल्कि सरकार तथा उसकी सहमना दक्षिणपंथी ताक़तों द्वारा आन्दोलन को बदनाम करने की तमाम कोशिशों का भी जम कर साथ दिया। आंदोलन को विरोधी राजनीतिक पार्टी द्वारा प्रायोजित बताया गया, किसानों को खालिस्तान समर्थक तक बताया गया।

दरअसल, विगत कुछ सालों यही सिलसिला आम हो चला है। हर वह आवाज़ जो सरकारी नीतियों का विरोध करती हो भले ही वह नागरिकता क़ानून हो, सांप्रदायिक दंगे हों, नोटबंदी हो उसे बदनाम करने और उसका विकृतिकरण करने की साज़िशें रची गयीं। किसानों का आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है।

यह सकारात्मक है कि इन तमाम बाधाओं के बावजूद किसान शांतिपूर्ण संघर्ष की अपनी राह पर डटे हैं।

हम सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन किसानों के इस अभूतपूर्व आन्दोलन के प्रति अपनी एकजुटता प्रगट करते हैं। हम जनता तथा जनता के संगठनों, पार्टियों से अपील करते हैं कि वे इस आन्दोलन के साथ जुड़ें और 8 दिसम्बर के भारत बंद को सफल बनाकर केंद्र सरकार को एक स्पष्ट संदेश दें। 

हम सरकार से यह मांग करते हैं कि वह अपना अड़ियल रवैया छोड़े और तीन जनद्रोही कृषि-क़ानूनों को रद्द करने का ऐलान करे।

 हम आंदोलनरत किसानों से भी अपील करते हैं कि वे शांति के अपने रास्ते पर अडिग रहें।

जीत न्याय की होगी ! जीत सत्य की होगी !! जीत हमारी होगी !!

 

न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव   दलित लेखक संघ   अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच   प्रगतिशील लेखक संघ   जन संस्कृति मंच   इप्टा   संगवारी   प्रतिरोध का सिनेमा   जनवादी लेखक संघ