( किसान आंदोलन की माँगों और 8 तारीख के भारत बंद के समर्थन में न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव, दलित लेखक संघ, अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच, प्रगतिशील लेखक संघ, जन
संस्कृति मंच, इप्टा, संगवारी, प्रतिरोध का सिनेमा और जनवादी लेखक संघ द्वारा जारी बयान )
तीन जनद्रोही कृषि-क़ानूनों के खिलाफ़ किसानों के ऐतिहासिक
आन्दोलन का साथ दें!
केन्द्र सरकार के कार्पोरेटपरस्त एजेण्डा के विरोध में अपनी
आवाज़ बुलन्द करें!
8 दिसम्बर के भारत बंद को सफल बनाएं!
हज़ारों-लाखों
की तादाद में उसके नुमाइन्दे राजधानी दिल्ली की विभिन्न सरहदों पर धरना दिए हुए
हैं और उन तीन जनद्रोही क़ानूनों की वापसी की मांग कर रहे हैं जिनके ज़रिए इस हुकूमत
ने एक तरह से उनकी तबाही और बरबादी के वॉरंट पर दस्तख़त किए हैं। अपनी आवाज़ को और
बुलंद करने के लिए किसान संगठनों की तरफ़ से 8 दिसम्बर को भारत बंद का ऐलान किया
गया है।
सरकार भले ही
यह दावा करे कि ये तीनों क़ानून - जिन्हें महामारी के दिनों में पहले अध्यादेश के
ज़रिए लागू किया गया था और फिर तमाम जनतांत्रिक परंपराओं को ताक़ पर रखते हुए संसद
में पास किया गया - किसानों की भलाई के लिए हैं, लेकिन यह बात बहुत साफ़
हो चुकी है कि इनके ज़रिए राज्य द्वारा अनाज की खरीद की प्रणाली को समाप्त करने और
इस तरह बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए ठेका आधारित खेती करने तथा आवश्यक खाद्य
सामग्री की बड़ी मात्रा में जमाखोरी करने की राह हमवार की जा रही है।
लोगों के सामने
यह भी साफ़ है कि यह महज़ किसानों का सवाल नहीं बल्कि मेहनतकश अवाम के लिए अनाज की
असुरक्षा का सवाल भी है। अकारण नहीं कि किसानों के इस अभूतपूर्व आन्दोलन के साथ
खेतमज़दूरों, औद्योगिक मज़दूरों के संगठनों तथा नागरिक समाज के तमाम लोगों, संगठनों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित की है।
आज की तारीख
में सरकार किसान संगठनों के साथ वार्ता करने के लिए मजबूर हुई है, मगर इसे असंभव करने की हर मुमकिन कोशिश सरकार की तरफ़ से अब तक की जाती रही है।
उन पर लाठियां बरसायी गयीं,
उनके रास्ते में तमाम बाधाएं खड़ी की गयी, यहां तक कि सड़कें भी काटी गयीं। यह किसानों का अपना साहस और अपनी जीजीविषा ही
थी कि उन्होंने इन कोशिशों को नाकाम किया और अपने शांतिपूर्ण संघर्ष के काफ़िलों को
लेकर राजधानी की सरहदों तक पहुंच गए।
किसानों के इस
आन्दोलन के प्रति मुख्यधारा के मीडिया का रवैया कम विवादास्पद नहीं रहा। न केवल
उसने आन्दोलन के वाजिब मुद्दों को लेकर चुप्पी साधे रखी बल्कि सरकार तथा उसकी
सहमना दक्षिणपंथी ताक़तों द्वारा आन्दोलन को बदनाम करने की तमाम कोशिशों का भी जम
कर साथ दिया। आंदोलन को विरोधी राजनीतिक पार्टी द्वारा प्रायोजित बताया गया, किसानों को खालिस्तान समर्थक तक बताया गया।
दरअसल, विगत कुछ सालों यही सिलसिला आम हो चला है। हर वह आवाज़ जो सरकारी नीतियों का
विरोध करती हो – भले ही वह नागरिकता क़ानून हो, सांप्रदायिक दंगे हों, नोटबंदी हो – उसे बदनाम करने और उसका विकृतिकरण करने की साज़िशें रची गयीं। किसानों का
आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है।
यह सकारात्मक
है कि इन तमाम बाधाओं के बावजूद किसान शांतिपूर्ण संघर्ष की अपनी राह पर डटे हैं।
हम
सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन किसानों के इस अभूतपूर्व आन्दोलन के प्रति अपनी एकजुटता
प्रगट करते हैं। हम जनता तथा जनता के संगठनों, पार्टियों से अपील करते हैं कि वे
इस आन्दोलन के साथ जुड़ें और 8 दिसम्बर के भारत बंद को सफल बनाकर
केंद्र सरकार को एक स्पष्ट संदेश दें।
हम सरकार से यह
मांग करते हैं कि वह अपना अड़ियल रवैया छोड़े और तीन जनद्रोही कृषि-क़ानूनों को रद्द
करने का ऐलान करे।
जीत न्याय की
होगी ! जीत सत्य की होगी !! जीत हमारी होगी !!
न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव दलित लेखक संघ
अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच प्रगतिशील लेखक संघ जन
संस्कृति मंच इप्टा संगवारी
प्रतिरोध का सिनेमा जनवादी लेखक संघ
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