Monday, January 24, 2022

Prof Irfan Habib on Democracy Dialogues, Sunday, January 30, 2022, at 6 PM IST


Democracy Dialogues Lecture Series (Online )
Organised by New Socialist Initiative

14th Lecture

Topic: 'Doctored History : From Ancient Times till Today'

Speaker: Prof Irfan Habib 

Date and Time:  30th January 2022 at 6 PM (IST).

Facebook Live on - http://fb.com/newsocialistinitiative.nsi




The 14th Lecture in the Democracy Dialogues Series  organised by New Socialist Initiative will be delivered by Prof Irfan Habib, Marxist Historian and Public Intellectual, on Sunday  30 th January 2022 at 6 PM (IST).

 Prof Habib would be speaking on 'Doctored History : From Ancient Times till Today'

 About the Speaker :

 Prof Irfan Habib ( Professor of History at the Aligarh Muslim University, Retd) is a well-known historian and author of the The Agrarian System of Mughal India ( 1963), An Atlas of the Mughal Empire ( 1982), Essays in Indian History : Towards a Marxist Perception ( 1985) , The Economic History of Medieval India : A Survey ( 2001) ,  Medieval India : The Study of a Civilisation ( 2008), a multivolume study titled 'People's History of India' etc and has edited many books.

The lecture will be live on  facebook.com/newsocialistinitiative.nsi.

The zoom invite will be shared individually. 

Please write to us at @ democracydialogues@gmail.com if you are interested in attending the lecture.


About the Democracy Dialogues Series :

The idea behind this series - which we would like to call 'Democracy Dialogues' - is basically to initiate as well as join in the on-going conversation around this theme in academic as well as activist circles.

We feel that the very idea of democracy which has taken deep roots across the world, has come under scanner for various reasons. At the same time we have been witness to the ascendance of right-wing forces and fascistic demagogues via the same democratic route. There is this apparently anomalous situation in which the spread and deepening of democracy have often led to generating mass support for these reactionary and fascistic forces.

Coming to India, there have been valid concerns about the rise of authoritarian streak among Indians and how it has helped strengthen BJP's hard right turn. The strong support for democracy here is accompanied by increasing fascination towards majoritarian-authoritarian politics. In fact, we would like to state that a vigorous electoral democracy here has become a vehicle for hindutva-ite counterrevolution.


All videos  of  the Democracy Dialogues  series  lectures are available on  New Socialist Initiative YouTube channel 

Thursday, January 20, 2022

(सन्धान व्याख्यानमाला वीडियो) हिंदी की मार्क्सवादी बहसें : ‘विचारधारा’ से विचारधारा तक: संजीव कुमार

 
हिन्दी इलाके को लेकर विचार-विमर्श के लिये शुरू हुयी  “सन्धान व्याख्यानमाला” का दूसरा आयोजन 15 जनवरी 2022 को किया गया  जिसमें श्री संजीव कुमार (आलोचक,संयुक्त महासचिव, जनवादी लेखक संघ) द्वारा  हिंदी की मार्क्सवादी बहसें : ‘विचारधारा’ से विचारधारा तक  विषय पर व्याख्यान दिया गया



इस व्याख्यान का वीडियो हमारे यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है.




सारांश

क्या वजह है कि हिंदी में पिछली सदी के 40 और 50 के दशक में प्रगतिशीलों के बीच जितने मुद्दों पर मतभेद उभरे, उनमें वही मत संख्याबल से विजयी रहा (और कमोबेश अभी तक है) जो हिंदी लोकवृत्त की स्थापित मान्यताओं के प्रति पूरी तरह से अनालोचनात्मक था? क्या यह एक परिवर्तनकामी वैचारिकी का परचम लहरानेवालों के भीतर वर्चस्व की प्रदत्त व्यवस्था का पोषण करनेवाली विचारधारा की सुप्त मौजूदगी थी जो भक्ति आंदोलन की विभिन्न धाराओं के रिश्ते, कथित हिंदी नवजागरण में भारतेन्दु और उनके मंडल के योगदान, हिंदी-उर्दू और उनके इलाक़े की सभी भाषाओं के आपसी संबंध, साहित्य में यौन-नैतिकता जैसे तमाम मसायल पर सभी असहज करनेवालों सवालों को हाशिये पर धकेल रही थी? क्या प्रगतिशील और मार्क्सवादी होने में अपने ‘संस्कारों’ के साथ एक तकलीफ़देह लड़ाई लड़ने और उपलब्ध सहूलियतों-रियायतों का त्याग करने की जो अपेक्षा निहित होती है, यह उससे पल्ला छुड़ाना था? या कि यह प्रगतिशील आंदोलन को वर्चस्वशाली बनाने के लिए सबको अपने साथ ले चलने की एक कार्यनीतिक पहल थी जो कि शायद सफल भी रही?

एक आत्मावलोकन से शुरुआत करनेवाला यह वक्तव्य इन प्रश्नों की दिशा में एक प्रस्थान है। 

सन्धान व्याख्यानमाला के बारे में 

“सन्धान व्याख्यानमाला” का प्रस्ताव यूँ है कि हिन्दी सभ्यता-संस्कृति-समाज को लेकर हिंदी भाषा में विचार की अलग से आवश्यकता है. हिन्दी में विचार अनिवार्यतः साहित्य से जुड़ा है और हिन्दी मनीषा के निर्माण में साहित्यिक मनीषियों की अग्रणी भूमिका है. हम हिन्दी साहित्य-जगत के प्रचलित विमर्शों-विवादों से थोड़ा अलग हटकर साहित्य के बुनियादी मसलों से शुरुआत करना चाहते हैं. प्रगतिशील बिरादरी का हिस्सा होते हुए भी हम यह नहीं मानते कि साहित्य की भूमिका क्रान्तियों, आन्दोलनों और ऐतिहासिक शक्तियों के चारण मात्र की है. हम यह नहीं मानते कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता साहित्य की उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो सकता है. हम अधिक बुनियादी सवालों से शुरू करना चाहते हैं, भले ही वे पुराने सुनायी पड़ें. मसलन, साहित्य कहाँ से आता है – ऐसा क्यों है कि मानव सभ्यता के सभी ज्ञात उदाहरणों में साहित्य न केवल पाया जाता है बल्कि ख़ासकर सभ्यताओं के शैशव काल में, और अनिवार्यतः बाद में भी, उन सभ्यताओं के निर्माण और विकास में महती भूमिका निभाता है. साहित्य के लोकमानस में पैठने की प्रक्रियाएँ और कालावधियाँ कैसे निर्धारित होती हैं? क्या शेक्सपियर के इंग्लिश लोकमानस में पैठने की प्रक्रिया वही है जो तुलसीदास के हिन्दी लोकमानस में पैठने की? निराला या मुक्तिबोध के लोकमानस में संश्लेष के रास्ते में क्या बाधाएँ हैं और उसकी क्या कालावधि होगी? इत्यादि. हमारा मानना है कि “जनपक्षधर बनाम कलावादी” तथा अन्य ऐसी बहसें साहित्य के अंतस्तल पर और उसकी युगीन भूमिका पर सम्यक प्रकाश नहीं डाल पातीं हैं. बुनियादी और दार्शनिक प्रश्न संस्कृतियों और सभ्यताओं पर विचार के लिए अनिवार्य हैं.

इस व्याख्यानमाला में हम विचार-वर्णक्रम के विविध आधुनिक एवं प्रगतिशील प्रतिनिधियों को आमन्त्रित करेंगे. ज़रूरी नहीं है कि वक्ताओं के विचार हमारे अपने विचारों से मेल खाते हों. हमारी मंशा गम्भीर विमर्श और बहस-मुबाहिसे की है.

(Democracy Dialogue lecture Video) Voices of Dissent in Pre-Modern and Present Times - Prof Romila Thapar

 

The 13th lecture in the Democracy Dialogues series organized by the New Socialist Initiative was delivered by Prof Romila Thapar  on 19 December 2021 where she  spoke on 'Voices of Dissent in Pre-Modern and Present Times





Internationally renowned scholar of Ancient History, Prof Thapar was elected General President of the Indian History Congress in 1983 and a Fellow of the British Academy in 1999. In 2008, she was awarded the prestigious Kluge Prize of the US Library of Congress which complements the Nobel, in honouring lifetime achievement in disciplines not covered by the latter.  

Thapar has been a visiting professor at Cornell University, the University of Pennysylvania, and the College de France  in Paris and holds honorary doctorates from the University of Chicago, the Institut National des Langues et Civilisations Orientales in Paris, the University of Oxford, the University of  Edinburgh (2004), the University of Calcutta and from the University of Hyderabad

  Here is a select list of Prof Thapar's publications

 Ashoka and the Decline of the Mauryas, 1961 ( Oxford University Press) ; A History of India : Volume 1, 1966 ( Penguin) ; The Past and Prejudice, NBT ( 1975) ; Ancient Indian Social History : Some Interpretations, 1978 ( Orient Blackswan) ; From Lineages to State 1985 : Social Formations of the Mid-First Millenium B.C. in the Ganges Valley, 1985  ( Oxford University Press) ; Interpreting Early India, 1992 ( Oxford University Press) ; Sakuntala : Text, Reading, Historie, 2002 ( Anthem) . Somanatha : The Many Voices of History, Verso ( 2005)  ; The Aryan : Recasting Constructs, Three Essays ( 2008) ; The Past As Present: Forging Contemporary Identities Through History, 2014


Please write to us at democracydialogues@gmail.com if you are interested in getting upadates about the series.



( Here is a playlist of earlier lectures in the Democracy Dialogues Series )