हिन्दी इलाके को लेकर विचार-विमर्श के लिये शुरू हुयी “सन्धान व्याख्यानमाला” का दूसरा आयोजन 15 जनवरी 2022 को किया गया जिसमें श्री संजीव कुमार (आलोचक,संयुक्त महासचिव, जनवादी लेखक संघ) द्वारा हिंदी की मार्क्सवादी बहसें : ‘विचारधारा’ से विचारधारा तक विषय पर व्याख्यान दिया गया
इस व्याख्यान का वीडियो हमारे यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है.
सारांश
क्या वजह है कि हिंदी में पिछली सदी के 40 और 50 के दशक में प्रगतिशीलों के बीच जितने मुद्दों पर मतभेद उभरे, उनमें वही मत संख्याबल से विजयी रहा (और कमोबेश अभी तक है) जो हिंदी लोकवृत्त की स्थापित मान्यताओं के प्रति पूरी तरह से अनालोचनात्मक था? क्या यह एक परिवर्तनकामी वैचारिकी का परचम लहरानेवालों के भीतर वर्चस्व की प्रदत्त व्यवस्था का पोषण करनेवाली विचारधारा की सुप्त मौजूदगी थी जो भक्ति आंदोलन की विभिन्न धाराओं के रिश्ते, कथित हिंदी नवजागरण में भारतेन्दु और उनके मंडल के योगदान, हिंदी-उर्दू और उनके इलाक़े की सभी भाषाओं के आपसी संबंध, साहित्य में यौन-नैतिकता जैसे तमाम मसायल पर सभी असहज करनेवालों सवालों को हाशिये पर धकेल रही थी? क्या प्रगतिशील और मार्क्सवादी होने में अपने ‘संस्कारों’ के साथ एक तकलीफ़देह लड़ाई लड़ने और उपलब्ध सहूलियतों-रियायतों का त्याग करने की जो अपेक्षा निहित होती है, यह उससे पल्ला छुड़ाना था? या कि यह प्रगतिशील आंदोलन को वर्चस्वशाली बनाने के लिए सबको अपने साथ ले चलने की एक कार्यनीतिक पहल थी जो कि शायद सफल भी रही?
एक आत्मावलोकन से शुरुआत करनेवाला यह वक्तव्य इन प्रश्नों की दिशा में एक प्रस्थान है।
सन्धान व्याख्यानमाला के बारे में
“सन्धान व्याख्यानमाला” का प्रस्ताव यूँ है कि हिन्दी सभ्यता-संस्कृति-समाज को लेकर हिंदी भाषा में विचार की अलग से आवश्यकता है. हिन्दी में विचार अनिवार्यतः साहित्य से जुड़ा है और हिन्दी मनीषा के निर्माण में साहित्यिक मनीषियों की अग्रणी भूमिका है. हम हिन्दी साहित्य-जगत के प्रचलित विमर्शों-विवादों से थोड़ा अलग हटकर साहित्य के बुनियादी मसलों से शुरुआत करना चाहते हैं. प्रगतिशील बिरादरी का हिस्सा होते हुए भी हम यह नहीं मानते कि साहित्य की भूमिका क्रान्तियों, आन्दोलनों और ऐतिहासिक शक्तियों के चारण मात्र की है. हम यह नहीं मानते कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता साहित्य की उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो सकता है. हम अधिक बुनियादी सवालों से शुरू करना चाहते हैं, भले ही वे पुराने सुनायी पड़ें. मसलन, साहित्य कहाँ से आता है – ऐसा क्यों है कि मानव सभ्यता के सभी ज्ञात उदाहरणों में साहित्य न केवल पाया जाता है बल्कि ख़ासकर सभ्यताओं के शैशव काल में, और अनिवार्यतः बाद में भी, उन सभ्यताओं के निर्माण और विकास में महती भूमिका निभाता है. साहित्य के लोकमानस में पैठने की प्रक्रियाएँ और कालावधियाँ कैसे निर्धारित होती हैं? क्या शेक्सपियर के इंग्लिश लोकमानस में पैठने की प्रक्रिया वही है जो तुलसीदास के हिन्दी लोकमानस में पैठने की? निराला या मुक्तिबोध के लोकमानस में संश्लेष के रास्ते में क्या बाधाएँ हैं और उसकी क्या कालावधि होगी? इत्यादि. हमारा मानना है कि “जनपक्षधर बनाम कलावादी” तथा अन्य ऐसी बहसें साहित्य के अंतस्तल पर और उसकी युगीन भूमिका पर सम्यक प्रकाश नहीं डाल पातीं हैं. बुनियादी और दार्शनिक प्रश्न संस्कृतियों और सभ्यताओं पर विचार के लिए अनिवार्य हैं.
इस व्याख्यानमाला में हम विचार-वर्णक्रम के विविध आधुनिक एवं प्रगतिशील प्रतिनिधियों को आमन्त्रित करेंगे. ज़रूरी नहीं है कि वक्ताओं के विचार हमारे अपने विचारों से मेल खाते हों. हमारी मंशा गम्भीर विमर्श और बहस-मुबाहिसे की है.
0 comments:
Post a Comment