Thursday, May 12, 2022

(वीडियो) संस्कृति और राजनीति : प्रणय कृष्ण

 “सन्धान व्याख्यानमाला” का चौथा आयोजन 10 अप्रैल  2022 को किया गया  जिसमें प्रणय कृष्ण (प्रोफेसर , हिन्दी विभाग , इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पूर्व महासचिव, जन संस्कृति मंच) द्वारा  “संस्कृति और राजनीति “विषय पर व्याख्यान दिया गया.


इस व्याख्यान का वीडियो हमारे यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है.



सारांश 

‘संस्कृति’ कोई सुनिश्चित अवधारणा नहीं है, उसके अर्थ का विस्तार और संकोच समय समय पर होता रहा है. उसे महसूस तो हर कोई करता है लेकिन उसे परिभाषित करना कठिन काम है. फिर भी, सुविधा और सरलता के लिए उसे ‘ जीने के दंग’ या जीवन पद्धति कहा जा सकता है. भारत या अमेरिका जैसे देश ‘ बहुसांस्कृतिक’ हैं, अर्थात यहां अनेक जीवन पद्धतियां एक साथ विद्यमान है जिनमें अंतर्बाह्य संघर्ष भी चला करता है. कुछ लोगों की मान्यता है कि आमूल परिवर्तनकारी राजनीति जिन दौरों में कमज़ोर पड़ती है, उन दौरों में राजनीति सांस्कृतिक मोड़ लेती है अर्थात संस्कृति के प्रश्न राजनीतिज प्रश्न बन जाते हैं. वर्तमान भारत में तो सत्ताधारी दल ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के झंडे तले राजनीति कर रहा है. ऐसे में संस्कृति और राजनीति के अंतर्संबंधों पर फिर से विचार करना और उसकी चुनौतियों को रेखांकित करना और जन संस्कृति के विकास की रणनीतियों पर चर्चा वक्त की ज़रुरत है.

सन्धान व्याख्यानमाला के बारे में

“सन्धान व्याख्यानमाला” का प्रस्ताव यूँ है कि हिन्दी सभ्यता-संस्कृति-समाज को लेकर हिंदी भाषा में विचार की अलग से आवश्यकता है. हिन्दी में विचार अनिवार्यतः साहित्य से जुड़ा है और हिन्दी मनीषा के निर्माण में साहित्यिक मनीषियों की अग्रणी भूमिका है. हम हिन्दी साहित्य-जगत के प्रचलित विमर्शों-विवादों से थोड़ा अलग हटकर साहित्य के बुनियादी मसलों से शुरुआत करना चाहते हैं. प्रगतिशील बिरादरी का हिस्सा होते हुए भी हम यह नहीं मानते कि साहित्य की भूमिका क्रान्तियों, आन्दोलनों और ऐतिहासिक शक्तियों के चारण मात्र की है. हम यह नहीं मानते कि साहित्यकार की प्रतिबद्धता साहित्य की उत्कृष्टता का एकमात्र पैमाना हो सकता है. हम अधिक बुनियादी सवालों से शुरू करना चाहते हैं, भले ही वे पुराने सुनायी पड़ें. मसलन, साहित्य कहाँ से आता है – ऐसा क्यों है कि मानव सभ्यता के सभी ज्ञात उदाहरणों में साहित्य न केवल पाया जाता है बल्कि ख़ासकर सभ्यताओं के शैशव काल में, और अनिवार्यतः बाद में भी, उन सभ्यताओं के निर्माण और विकास में महती भूमिका निभाता है. साहित्य के लोकमानस में पैठने की प्रक्रियाएँ और कालावधियाँ कैसे निर्धारित होती हैं? क्या शेक्सपियर के इंग्लिश लोकमानस में पैठने की प्रक्रिया वही है जो तुलसीदास के हिन्दी लोकमानस में पैठने की? निराला या मुक्तिबोध के लोकमानस में संश्लेष के रास्ते में क्या बाधाएँ हैं और उसकी क्या कालावधि होगी? इत्यादि. हमारा मानना है कि “जनपक्षधर बनाम कलावादी” तथा अन्य ऐसी बहसें साहित्य के अंतस्तल पर और उसकी युगीन भूमिका पर सम्यक प्रकाश नहीं डाल पातीं हैं. बुनियादी और दार्शनिक प्रश्न संस्कृतियों और सभ्यताओं पर विचार के लिए अनिवार्य हैं. इस व्याख्यानमाला में हम विचार-वर्णक्रम के विविध आधुनिक एवं प्रगतिशील प्रतिनिधियों को आमन्त्रित करेंगे. ज़रूरी नहीं है कि वक्ताओं के विचार हमारे अपने विचारों से मेल खाते हों. हमारी मंशा गम्भीर विमर्श और बहस-मुबाहिसे की है.



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