Wednesday, January 4, 2012

झूठ का सत्तातन्त्र व भरतीय राज्य

[Note: This short piece was published in CRITIQUE, Vol-1, Issue-3. Critique is a Quarterly brought out by the Delhi University Chapter of New Socialist Initiative (NSI)]

संजय कुमार

बिनायक सेन व पीयुष गुहा की जमानत याचिका छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने फरवरी 10 2011 को रद्द कर दी। उनको व नारायण सान्याल को एक निचली अदालत ने देशद्रोही करार किया है तथाआजीवन कारावास की सजा सुनायी है। अखबारों व मीडिया में बिनायक सेन पर मुकदमे पर बहुत कुछ चर्चा हुई है। बिनायक सेन के समर्थन में प्रदर्शनों का सिलसिला भी पिछले लगभग तीन सालों से चलता रहा है। बिनायक सेन पर माओवादियों का समर्थक व सहायक होने का आरोप पीयूष गुहा द्वारा पुलिस को दी गयी कथित गवाही पर आधारित है, जिसमें उसने कहा था कि उसके पास से प्राप्त पत्र बिनायक सेन ने उसे दिये थे। क्योंकि पुलिस को दी गयी गवाही को सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, इसलिये एक स्वतन्त्र गवाह अनिल कुमार भी न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया। जज महोदय ने पीयुष गुहा द्वारा पुलिस को कथित दिये ब्यान को तो पूरी तवज्जो दी, लेकिन उसी के द्वारा एक मैजिस्ट्रेट के सामने दिये गये ब्यान को कोई महत्व नहीं दिया जिसमें उसने कहा था कि उसे छतीसगढ़ पुलिस ने रायपुर के एक होटल से जबरदस्ती उठा कर आंख पर पटटी बान्ध कर गैर कानूनी हिरासत में सात दिन रखा था। गुहा को कहा गया कि उसके पास इस दावे का कोई स्वतन्त्र गवाह नहीं है। जबकि पुलिस के पास अपने दावे के लिये अनिल कुमार नाम का गवाह था। अगर पुलिस के गवाह के कथनों तथा उसी पुलिस द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिये गये एक हल्फनामे में तालमेल नहीं बैठा कि गुहा को कहां से गिरफ्तार किया गया था, तो जज महोदय ने पुलिस की दलील को सहर्ष स्वीकार कर लिया कि यह भेद टाईप की गलती के कारण हो गया होगा। पुलिस के प्रति जज महोदय की दरियादिली एक और अहम सबूत को लेकर भी भरपूर दिखती है। पुलिस दावा कर रही है कि सेन के घर छापे के दौरान उसे माओवादियों की केन्द्रीय समिति द्वारा सेन को लिखा गया एक पत्र प्राप्त हुआ है। अव्वल तो इस पत्र पर हस्ताक्षर आदि का कोई सबूत नहीं है जिसके आधार पर यह माना जा सके कि यह पत्र माओवादियों की केन्द्रीय समिति ने ही जारी किया है। दूसरे, छापे के दौरान जब्त की गयी चीजों के पन्च नामे में इस पत्र का कोई जिक्र नहीं है। इस सम्दर्भ में जज महोदय ने पुलिस की दलील को आसानी से मान लिया कि शायद यह पत्र अन्य जब्त दस्तावेजों में दबा रहा होगा, इस लिये पंचनामे में नहीं दर्ज हुआ। सच को झूठ से अलग करने के लिये आवश्यक न्याय का तराजू छत्तीसगढ के जज वर्मा के हाथों में पुलिस की तरफ अधिक झुका प्रतीत होता है। तब यह किस प्रकार पुलिस या सेन के सच या झूठ में भेद कर सकता है, सोचने की बात है?

बिनायक सेन का केस अभी कई वर्ष और भारतीय न्यायपालिका की कचहरियों के चक्कर लगायेगा। इस केस के सच व झूठ के मूल्यांकन को हम फिलहाल स्थगित करते हैं। लेकिन एसे बीसियों केस हैं जिनमें देश के हुक्मरानों का झूठ सफेद चमकता है। कहीं भी बम्ब विस्फोट हो, हैदराबाद की मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर शरीफ, समझौता एक्सप्रेस, या जयपुर, देश के सभी राज्यों की पुलिस धड़ल्ले से मुस्लिम युवकों की धर पकड़ करने लग जाती है। महाराष्ट्र के पुलिस अफसर करकरे की हिम्मत की बदौेलत हिन्दुत्व आतंकवाद का खुलासा होने पर इन वारदातों के पीछे हिन्दु संगठनों से जुड़े आतंकवादियों का हाथ दिखायी दे रहा है। ल्ोकिन इस बीच सैंकड़ों मुस्लिम युवक वर्षों कारावास काट चुके हैं। न्यायधीशों ने जमानत याचिकायें रद्द की हैं, उन्हें फंसाने वाले पुलिस अफसरों की पदोन्नतियां हो चुकी हैं। देश के सर्वोच्च न्यायाधीशों पर आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोप लगे हैं, तथा सर्वोच्च न्यायलय इन आरोपों का सामना करने में हिचकिचाता दिखायी दे रहा है। आन्ध्र प्रदेश में जजों की पदोन्नति के लिये परीक्षा में नकल करते जजों की तस्वीरें टेलीविजन में पिछले साल प्रसारित की गयी थीं। 

राज्य की कानून व्यवस्था का झूठ उन्हीं व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लंघन करता है जो उसके चंगुल में फंसते हैं। राज्य की कार्यपालिका का झूठ सारे समाज को लूटता है। शायद ही कोई सांसद या विधायक होगा जिसने चुनाव में कानूनी सीमा से अधिक व्यय नहीं किया होगा, तथा इस बारे में झूठा हलफनामा नहीं दिया होगा। हमारे देश के प्रधानमन्त्री असम का निवास स्थान दिखा कर राज्य सभा सदस्य बनते रहे हैं, जबकि सबको पता है वे दशकों से दिल्ली निवासी हैं, दिखाने भर के लिये गौहाटी में किराये का मकान ले रखा है। जबकि वर्तमान प्रधानमन्त्री को अब तक के प्रधानमन्न्त्रियों में सबसे स्वच्छतम छवि वालों में गिना जाता है। प्रधानमन्त्री का झूठ उन सांसदों व विधायकों के झूठों के सामने बेशक नगण्य दिखता है जिन पर हत्या, डकैती, अपहरण जैसे संगीन आरोप हैं। लेकिन झूठ तो झूठ है।

भारतीय राज्य सत्त्ता से जुड़े अन्य झूठ विचारधाराटमक हैं। राष्ट्र का महिमामन्डन व सश्स्त्र बलों की क्षमताओं को बढ़ा चढ़ा कर दर्शाना सभी राज्य करते हैं। भारत में राष्ट्रहित के बहाने कई अप्रिय असत्यों को छुपाना आम है। भारतीय जनता पार्टी के राजसत्ता में आने के बाद भारतीय राज्य की विचारधारा में एक अन्य झूठ का महाद्वीप सम्मिलित हो गया है। यह है मुस्लिम विरोधी झूठ, जो पाठय पुस्तकों से लेकर सरकारी दस्तावेजों में दिखता है। गुजरात में मुस्लिमों के नर संहार के बाद तो हिन्दु राष्ट्रवाद के दूसरे लौह पुरूष के झूठों का क्या कहना। वैसे झूठ श्री मोदी की प्रकृति का एक अभिन्न अंग दिखता है। वर्ना चुनावी सभाओं में अपनी ‘छप्पन इन्च की छाती’ का बखान करने का क्या कारण होगा। क्या गुजरात में इन्च अन्य जगहों से छोटा है, क्योंकि छप्पन इन्च की छाती तो दारा सिंह की भी नहीं होगी। गुजरात के मुख्यमन्त्री के पौरुष का झूठा बखान वहां के हिन्दु पुरुषों को पता नहीं क्या ढांढस देता है ?

राजधानी के मन्त्रियों से ल्ोकर गांव के पटवारी तक अपने प्रशासनिक कामोें में झूठ में लिप्त मिलेंगे। कोई झूठे दस्तावेजों के आधार पर लाइसेंस आवंटित कर रहा है, कोई झूठा काम दिखा कर विदेशी दौरे कर रहा है तो कोई झूठे कागजों पर अपनी मुहर लगा रहा है। केन्द्रीय व राज्य सरकारों के एक करोड़ के करीब कारिन्दों की दैनिक कार्यकलापों में झूठ इस कदर घुलामिला है कि झूठ गढ़ने में दक्षता तथा इसे सहने की क्षमता, लिखने पढ़ने की योग्यताओं के समान ही नौकरी में बने रहने के लिये आवश्यक हैं। क्यों हमारे देश का राज्यतन्त्र इतनी प्रचूर मात्रा में छोटे बड़े झूठों को प्रतिदिन पैदा करता है तथा न्यायपालिका, आडिट, तथा विजिलेन्स विभागों की बड़ी फौज के बावजूद बड़े बड़े झूठों को इतनी आसानी से पचा जाता है?

झूठ का मनोविज्ञान व झुठ के तन्त्र का सामाजिक आधार

जो स्थिति जैसी है उसे वैसा बताने व कहने में सच निहित होता है। जबकि झूठ निरा मानव मस्तिष्क की उपज होता है, यह मनुष्य की कल्पनाशक्ति का फल होता है। झूठ हमेशा गढ़ा जाता है, झूठ का आडम्बर रचा जाता है। सच बहुधा नीरस होता है, विशेषकर एसा सच जो सबको पता हो। मानव मस्तिष्क की तर्क शक्ति व अन्वेषण की चाह से पाये गये सच का अपना अलग रस होता है, लेकिन वो दूसरा मुद्दा है जिसकी चर्चा का यह स्थान नहीं है। लगभग सभी मनोरंजन के साधनों, हास्य कलाओं, व खेलों में एक प्रकार के आधे झूठों के कारण ही रस व रोमांच आता है। अगर फुटबाल के किसी मैच में खिलाड़ी डाज न करें, सिर्फ गति, ताकत व दक्षता के आधार पर ही खेलें तो मैच का आधा मजा चला जायेगा। अतिशयोक्ति को बिना चुटकले असंभव है, उपमाओं के बिना कविता। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार झुठ बोलना एक कला है। बच्चे विशेष आयु में इसका उपयोग सीखते हैं तथा इसके फायदों से अवगत होते है। अगर खेल, कला व परिहास के अर्धअसत्यों को अलग कर दिया जाये तो झूठ बोलने के पीछे मुख्य कारण डर व लालच होते हैं। बहुत से झूठ दिलासा देने या बहलाने के लिये कहे जाते हैं। सच नीरस ही नहीं कई बार कड़वा भी होता है। इस कड़वाहट से बचने में मीठे झूठ बहुत कारगर होते है। जब तक मनुष्यों को डर है, लालच है, या उन्हें झूठी दिलासा की आवश्यकता है, झूठ का कारोबार होता रहेगा। इन्हीं के कारण सच, जो वैसे एक स्वतः स्फूर्त, स्वभाविक व्यवहार दिखता है, एक नैतिक कर्म बन जाता है। जब व जहां सत्य बोलने को नैतिकता के प्रथम सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित किया गया हो, वहां मान लेना चाहिये कि झूठ के आक्रमणों से सत्य रक्षात्मक मुद्रा में चला गया है। गांधी की आत्मजीवनी ‘My Experiments with Truth’ तथा भारतीय राज्य की मुहर पर ‘सत्यमेव जयते’ वास्तव में सत्य की संकट ग्रस्त स्थिति के द्योतक हैं। 

मानवता के इतिहास व समाज पर दृष्टि डाली जाये तो अचम्भा होता है कि इतने समय से, इतने सारे मनुष्य, इतने भिन्न भिन्न प्रकारों के वीभत्स झूठों को स्वीकार करते आ रहे हैं। धर्म के बारे में वाल्टेयर ने कहा है कि ये तब पैदा हुआ जब एक व्यक्ति ने दूसरे को झुठ बोला तथा दूसरे ने उसे स्वीकार कर लिया। दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज की जमीन के हिस्से को गैर कानूनी ढंग से घेर कर एक हनुमान मन्दिर बनाया गया है। तीस चालीस साल पहले एक छोटी सी मुर्ति से शुरू हुये इस मन्दिर ने धीरे धीरे विशालकाय रूप ले लिया है। अगर कालेज की चारदीवारी को और पीछे धकेलना कठिन हो गया है तो इस मन्दिर की इमारत सड़क हथियाने लगी है। मन्दिर की हर बात, इसकी उत्पत्ति तथा विकास, कर्ताधर्ताओं के हेर फेर, फिसलती जुबान में पुजारियों का अधपका मन्त्रोच्चारण, वार्षिक परीक्षाओं से पहले हजारों विद्यार्थियों का इसकी पत्थर की मूर्ति के सामने आंख बन्द करके बुदबुदाना, मंगलवार को ट्रैफिक जाम में फंसे लोगों द्वारा भी मन्दिर की तरफ नमन करने की मुद्रायें, ये सभी झूठ में ओत प्रोत दिखते हैं। लेकिन विश्वविद्यालय में अध्यात्मिकता का यह एक प्रमुख केन्द्र है। इस मन्दिर जैसी घटनायें प्रतिदिन देश की लाखों मस्जिदों, गुरूद्वारों, गिरजों, दरगाहों व डेरों और आश्रमों में होती हैं। सन दो हजार के सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में दस सालों में नये विद्यालयों से अधिक नये पूजा स्थान बनाये गये थे। 

धर्म के रूप में झूठ के आडम्बर का कारोबार सहस्राब्दियों से चलता आ रहा है। धार्मिक विश्वास के आलोचक बहुधा इसे अज्ञानता, व्यक्तियों की मनोस्थिति व निजी चुनावों तक सीमित करके देखते रहे हैं। जो गलत है। जैसे माक्र्स अपने प्रसिद्ध कथन ‘धर्म लोगों के लिये अफीम है’ से पहले लिखता है, धर्म उस सामाजिक व्यवस्था का प्रतिफलन है जिसमें मनुष्यों को धर्म जैसी झूठी मान्यताओं की आवश्यकता पड़ती है। हम साफ देखते हैं कि समाज में झूठ धर्म तक ही नहीं लेकिन कई अन्य प्रकार की गैर धार्मिक मान्यताओं के भी केन्द्र में है। विरोधाभासों में कंटी फटी, असमान सत्ता के चैनलों में बन्धी, शोषण व उत्पीड़ित पर आधारित हमारी सामाजिक व्यवस्था की मशीन के सुचारू चलने में झूठ के तेल का बड़ा हाथ है। अगर गरीब व उत्पीड़ित अपनी स्थिति को नियति का फल न मान लें, या न मान लें कि मौजूदा व्यवस्था में ही वे सफल हो सकते हैं, तो हर दिन विद्रोह होते रहेंगे। अगर अमीर व हुक्मुरान, यानि वे लोग जिनके हाथों में अर्थव्यवस्था व समाज की ताकत है, अपने आप को वास्तव में अन्य लोगों से बेहतर न समझें तो व्यवस्था को चलाने के लिये जिस प्रकार से मार काट, डराने धमकाने, या पुचकारने की आवश्यकता पड़ती है, उस जूरूरत को वे पूरा नहीं कर पायेंगे। 

झूठ की कारगरता तथा कार्यप्रनाली पर आधुनिकता दो प्रकार के प्रभाव डालती है। तार्किकता, यानि सभी प्रकार के दावों को परखने की मांग आधुनिकता का प्रमुख चरित्र है। सार्वजनिक तार्किकता के आधार पर आधुनिकता एक विशेष प्रकार की सार्वजनिकता का निर्माण करती है, जो सामन्ती रूढ़ियों तथा विभाजनों से मुक्त होती है, जिसका धरातल भाग लेने वाले सभी मनुष्यों के लिये समतल होता है। आधुनिकता की सार्वजनिक तार्किकता झूठ के फलने फूलने को मुश्किल बनाती है। उदाहरण के लिये धार्मिक मान्यतायें हमेशा से अधुनिकता के निशाने पर रही हैं। लेकिन जैसे आधुनिक समाज भी शोषण व उत्पीड़न पर आधारित रहे हैं, उन्हें भी असमानता को जायज दिखाने व दिलासा के लिये झूठ की आवश्यकता रहती है। आधुनिक राज्यतंत्र व पूंजीवाद में झूठ सतही, कोरा या सफेद नहीं होता, ब्लिक घुमावदार होता है। 

कानून व नागरिकता आधुनिक राज्य व्यवस्था की स्वछवि के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं। नागरिकता में यह व्यवस्था अपना मूल व लक्ष्य देखती है, संविधान व कानून के खाके में यह व्यवस्था अपनी कार्यप्रणाली के नियम देखती है। नागरिकता की समानता तथा कानून व संविधान की पारदर्शिता के बावजूद आधुनिक समाज कई बार बृहत सार्वजनिक झूठों को स्वीकार करते हैं। उदाहरण के लिये इराक के बारे में सफेद झूठ के बावजूद अमरीका व इन्गलैन्ड के नागरिकों ने जार्जबुश व टोनी ब्ल्ोयर को निर्वाचित किया, ब्ल्कि इन दोनों के झूठ के प्रपंच में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। जर्मनी में हिटलरी फासीवाद, तथा गुजरात में मोदी की साम्प्रदायिकता के झूठों को आम लोगों की सहमति प्राप्त हुई है। ब्लिक इस सहमति के बदौलत ही ये इतने घातक सिद्ध हुये। राजनीतिक स्पैकट्रम में दूसरी ओर देखें तो स्टालिन के काल में पुराने बोल्शेविकों के शो ट्रायलों व पर्जस का झूठ बहुत से सोवियत नागरिकों तथा वामपन्थियों लोगों ने स्वीकारा था। 

जहां एक ओर आधुनिक राज्य नागरिकों के राजनीतिक विवेक को अपनी सत्ता का आधार दिखाते हैं, तथा लिबरल राज्यों में चुनावों द्वारा इस आधार की कियान्वन पद्धति आम तौर पर पारदर्शी ही रहती है ह्यबुश, ब्लेयर या नरेन्द्र मोदी चुनावी धान्धलेबाजियों से सफल नहीं हुये हैं हृ, वहीं दूसरी ओर यह नहीं कहा जा सकता कि नागरिकों का राजनीतिक विवेक तथा चुनावी प्रणाली की पारदर्शिता राज्यतंत्र के झूठों को निरस्त करने में सफल हुये हैं। ब्ल्कि चुनावी प्रकियायें झूठ के प्रति आम सहमति का साधन बनती हैं तथा इनसे किसी विवेक के फलन की बजाये सार्वजनिक झूठ का निर्माण होता अधिक दिखता है। आधुनिक समाजों में राज्य व्यवस्था के झूठ इस व्यवस्था के स्पष्ट पक्षों, जैसे संविधान, कानून तथा चुनावी राजनीति में नहीं दिखते। पूंजीवाद के आर्थिक हितों के विशेषाधिकार, नौकरशाही का प्रभुत्व, सम्पन्न वर्गों के सत्ता गठबन्धन, आम नागरिकों का राजनीतिक एलियेशनआदि बातें किसी संविधान में नहीं होतीं। लेकिन आधुनिक समाजों के ये पक्ष ही इनमें झूठ का आधार हैं।

भारत जैसे देश में आधुनिक कानूनी व्यवस्था की पारदर्शिता राज्य तन्त्र को विशेष तौर पर झूठ का सहारा लेने को मजबूर करती दिखती है। सोहराबुदीन तथा कौसरबी की हत्या के सम्बन्ध में गुजरात पुलिस को तब तक बड़े झूठों की आवश्यकता नहीं पड़ी जब तक यह मामला न्यायालयों में नही फंसा। एक साधारण आदिवासी को जेल में डालने या मारने के लिये छत्तीसगढ़ पुलिस को एफ आई आर के प्रारम्भिक झूठ की भी आवश्यकता नहीं है। बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को जेल में डालने के लिये, जो स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकता है, राज्यव्यवस्था को एक नहीं कई झूठों के जाल की आवश्यकता है। चुनावी राजनीति की लोकरंजकता भी इसी प्रकार झूठ को जन्म देती है। जब तक वोट का अधिकार सम्पन्न वर्गों को ही है, सम्पत्ति के विशेषाधिकार को कानूनी जामा पहनाया जा सकता है। अगर चुनाव जीतने के लिये आम आदमी का हितैषी दिखना जुरूरी है तो पूंजीपतियों का हित साधने के लिये पिछले दरवाजे से लेन देन तथा घोटाले लाजिमी हो जाते हैं। 

अंत में एक ख्याल उनके बारे में जो भारतीय राज्यतंत्र के झूठों को गढ़ते हैं।दिल्ली विश्वविद्यालय के पास क्रिश्चियन कालोनी कोई भी निम्न वर्गीय रिहायशी इलाका हो सकता है। यह इलाका यू पी एस सी की परीक्षा की तैयारी कर रहे दिल्ली से बाहर के युवकों के रहने का प्रमुख केन्द्र है। क्या पता भविष्य के कितने आई ए एस, आई पी एस व अन्य अफसर इस कालोनी के कोठरीनुमा कमरों में किराये पर रह हों। मितव्ययता, कोचिंग क्लासेस, घन्टों मेज पर परीक्षा की तैयारी, कुछ की सफलता का जश्न, लेकिन अधिकतर के लिये असफलता का मातम। जीवन के सबसे उत्पादक वर्षों में देश के लाखों होनहार युवक अपनी क्षमताओं को यू पी एस सी की परीक्षा जैसी लाटरी पर दांव पर लगाते हैं। पिछले दशकों में सरकारी अफसरों के सामाजिक आधार में भारी परिवर्तन आया है। सम्पन्न वर्गों के युवक युवतियों के लिये सरकारी अफसरी पहला चुनाव नहीं रह गया है, वे ग्लोबल पूंजीवाद की कारपारेट नौकरियों की ओर लालायित रहते हैं। आरक्षण की नीतियों ने देश की उत्पीड़ित जातियों व जन जातियों के लिये सरकारी अफसरी के द्वार खोले हैं। पूर्वोतर के मणिपुर जैसे छोट राज्यों के युवक भी इसमें सफलता पा रहे हैं। वर्ग सीढ़ी में आगे बढ़ने की अपनी निजी इच्छा के अलावा ये युवक परिवारिक अपेक्षाओं को भी वहन करते हैं, क्योंकि दो तीन साल कोचिंग व रहने का खर्चा तो इनके परिवारों की सीमित आय से ही आता है। यू पी एस सी परीक्षा की तैयारी एक बेहद नीरस, व गैर रचनात्मक काम है, सफलता की अनिश्चितता इसे और बेमानी बनाती है। हर वर्ष निम्न मध्य वर्ग के लाखों युवकों द्वारा स्वयं को इसमें झोंकना हमारे समाज की वर्गीाय संरचना व संभावनाओं का एक कड़वा सच है। यह कड़वा सच देश की युवा पीढ़ी की रीढ़ की हडडी पर हमला है। जिस उम्र में भगतसिंह जैसे लोग औपनिवेशिक ताकत के झूठ को नंगा करने के लिये अपने जीवन को भी दांव पर लगा रहे थे, उस उम्र में लाखों युवक मोटी तनख्वाह तथा सरकारी नौकरी की निश्चितता के लिये परीक्षाई रटबाजी में फंसे हैं। तो क्या अचरज कि देश के इतने युवा अफसर सच के खतरों से खेलने की बजाय राज्य तंत्र के झूठ की सुरक्षा का चयन करते हैं। मसूरी के प्रशासनिक संस्थान की ट्रेनिंग से कहीं अधिक किश्चियन कालोनी का जीवन तथा मुखर्जी नगर की कोचिंग संस्थायें भारत के युवकों को अफसरी की मानसिकता की तैयारी करवाते हैं।एसी घोटू मानसिकता कि झूठी गवाहियों, बेगुनाहों पर झूठे केसों, व निर्दोषों की झूठी सजाओं से साफ सामना होने पर भी चूं न करे।

0 comments:

Post a Comment