Tuesday, November 3, 2015

क्या जाति का उन्मूलन संभव है ?

- सतीश देशपाण्डे

[Editors' Note: This is the text of a speech which Prof. Satish Despande delivered in a public meeting - "Can Caste be Swept Away" - organised by New socialist Initiative. Later, it was published in CRITIQUE Magazine (Vol: 3, No: 2, March-August 2015) brought out by the Delhi University chapter of New Socialist Initiative.] 

I feel that as social scientists we should be trying to do more with Indian languages in the social sciences, and while it is very difficult and long process to do it in our formal curriculum, we should try to take advantage of informal occasions like this whenever we can. तो इसलिए मैं अपनी बात हिन्दी में ही कहूंगा। हालांकि मुझसे किसी ने नहीं कहा कि मैं हिन्दी में बोलूं। मैं अपनी मर्जी से बोल रहा हूं। मेरे लिए यह थोड़ा असुविधाजनक जरूर है लेकिन मेरा मानना है कि जब तक हम भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञान को विकसित नहीं करते हमारा समाज विज्ञान जहां है वहीं रहेगा और इस तरह के प्रयास में यह एक बहुत छोटा सा कदम है, असुविधा कोई बड़ी कीमत नहीं है। इसलिए मैं हिन्दी में बोलने का प्रयास कर रहा हूं और आशा करता हूं कि आप मेरा साथ देंगे। यहां मेरा एक मकसद यह भी है कि भारतीय भाषाओं को कई बार समाज विज्ञान के लायक नहीं समझा जाता। यानि भारतीय भाषाओं को किसी आम भाषा में कम पढे़-लिखे लोगों को भाषण देने लायक समझा जाता है, या फिर इन्हें साहित्य और कला की भाषा समझा जाता है, लेकिन समाज विज्ञान के लायक नहीं समझा जाता है। इसलिए मैं आजकल हिन्दी में लिखने-बोलने की कोशिश करता हूं ताकि हमारे सामूहिक प्रयासों से किसी दिन भारतीय भाषाएं भी हमारे सोच विचार की और खासकर समाज विज्ञान की भाषाएं बनें। भाषा पर इतना ही, इस पर मैं और कुछ नहीं बोलूंगा।

मैं आज के फौरी मुद्दे से-यानी इस झाड़ू प्रकरण या प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान से कुछ हटकर बोलना चाहता हूं। हमारे विषय या अनुशासन का सौभाग्य या दुर्भाग्य, आप जो भी मानें- है कि जाति नामक विषय हमारे पाले में डाल दिया गया है, या इसका अधिकांश भाग हमारे पाले में है। इस खास जिम्मेदारी से हम दबे हुए रहते हैं। इसलिए मेरा फर्ज बनता है कि मैं जाति पर एक समाजशास्त्री की हैसियत से कुछ बोलूं और मैं जिस विषय पर बोलना चाहता हूं, वह लगभग शब्दशः आज के शीर्षक में दिया गया है। मेरा प्रश्न भी वही है जो शीर्षक में दिया गया है। ‘क्या जाति का उन्मूलन संभव है़’, वैसे तो हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है- खासकर अब जब हम एक “महाशक्ति” बनने जा रहे हैं- कि हम इस सवाल का जवाब हां में दें, कि हां, इसका उन्मूलन हो सकता है। लेकिन साथ ही साथ हम यह भी जानते हैं कि जाति जैसी चीज का उन्मूलन कोई आसान काम नहीं है यह बहुत ही पेचीदा और जटिल है। यह पेचीदा और जटिल क्यों है - मैं आपके संग इसका जवाब ढूंढ़ना चाहूंगा।

संक्षेप में कहें तो समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से जाति उन्मूलन की जटिलता का जो मुख्य कारण नजर आता है, वो यह है कि जाति एक ऐसा संस्थान है जो बुनियादी तौर पर पारस्परिक है। Caste is fundamentally a relationship, it a relational institution. यह कोई तत्व या गुण नहीं है। Caste is not a thing or a quality, it is a relationship. चूंकि यह परस्पर है तो जाहिर है कि इसके दो छोर होंगे ही और जाति के उन्मूलन में इन दोनों छोरों का शरीक होना अनिवार्य है। इसके बिना जाति का उन्मूलन संभव नहीं है। यह तो पहला कारण हुआ और यह कारण भी अपने आप में पेचीदा क्यों है, इसलिए कि जाति एक ऐसा संस्थान है जो अप्रतिसम है। जैसे आईने में जो छवि आपको दिखती है वो पल्टा हुआ उल्टा होता है। लेकिन उल्टा होने के बावजूद वह प्रतिसम (symmetrical) होता है- दाहिने तरफ जो है वो बाएं नजर आता है और बाएं तरफ जो है वो दाहिनी तरफ नजर आता है, लेकिन दाएं व बाएं का अनुपात नहीं बदलता और इस तरह आईने की छवि प्रतिसम ही रहती है। जाति ऐसा संस्थान है जिसके दो छोर अप्रतिसम हैं और इसके वजह से दोनों छोरों को उन्मूलन प्रक्रिया में एक साथ शरीक करना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह क्यों होता है दोनों छोर समान रूप से उन्मूलन प्रक्रिया में क्यों शरीक नहीं हो पाते, क्यों हम दोनेां को एक साझा न्यौता नहीं दे पाते या उस न्यौते को दोनों छोर स्वीकार नहीं पाते, यह अप्रतिसमता के नतीजों से जुड़ा सवाल है। 

सबसे पहला मुद्दा यह है कि उच्च जातीय कोण या परिप्रेक्ष्य और निम्न जातीय कोण या परिप्रेक्ष्य अप्रतिसम तो है ही, लेकिन ये एक दूसरे से भिन्न भी हैं। क्योंकि आजादी के बाद हमारे सामने एक तरह की दुविधा थी, जाति को लेकर, किसी भी आधुनिक कहलाने वाले समाज के आगे यही दुविधा रहती है। जाति एक ऐसी व्यवस्था है जिसके बारे में एक प्रकार की सतही सर्वसम्मति आजादी से पहले ही बन गई कि इसमें काम की कोई चीज नहीं है, यह पूरी तरह से नकारे जाने के लायक है और इसके प्रति हमारा सार्वजनिक फैसला यही है कि हम इसका उन्मूलन चाहते हैं। यह उन्मूलन कैसे संपन्न होगा, यह तो बराबरी के साथ ही हो सकता है और बराबरी का मतलब एक ऐसी आदर्श स्थिति है जहां जातिभेद की कोई प्रासंगिकता न रह जाए, उसके कोई मायने न रह जाएं और जातिभेद निरर्थक हो जाए। यानि, अगर दर्शनशास्त्र की भाषा में कहें तो हम सार्वभौम की तरफ बढ़ना चाहते हैं। The annihilation of caste is a move towards the universal. तो हम जाति को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं क्योंकि हम एक आदर्श सार्वभौम की तरफ बढ़ना चाहते हैं। यह हमारा रास्ट्रीय आदर्श है, लक्ष्य है। और तात्कालिक तौर पर जहां हम खडे़ थे, वहां से हमें ऐसा लगने लगा कि सार्वभौम की ओर बढ़ने के लिए जरूरी है कि हम जातिभेदों की ओर ध्यान न दें। यानि हम जाति के प्रति अंधे हो जाएं। स्वतंत्रता के बाद हमारे राज्य ने यही फैसला लिया कि वह जाति के प्रति अंधी हो जाएगी। जैसे कहते हैं कि कानून अंधा होता है, उसी प्रकार जाति के प्र्रति राज्य अंधा हो गया। तो यह जाति उन्मूलन का एक पहलू है।

उन्मूलन का दूसरा पहलू है कि जाति की घोर विषमताओं ने जिस प्रकार एक शोषण और अत्याचार पर आधारित समाज तैयार किया है, उस समाज का कोई इलाज किया जाए। इसका इलाज कैसे होगा, इसका इलाज इसी षर्त पर हो सकता है कि आप जातिभेदों को प्रत्यक्ष तौर पर पहचानें, उन्हें संज्ञान में लें। तो दुविधा यही है कि एक तरफ सार्वभौम की चाह आपको कहती है कि जातिभेदों के प्रति आप अंधे हो जाओ, दूसरी तरफ समता का तकाजा है कि जातिभेदों को पहचानें, उन्हें संजीदगी से लें। जाति-जनित विषमताओं को मिटाने के लिए नीतियां बनाएं, ठोस कदम उठाएं । तो यह दोनों पहलू अपने आप वैचारिक तौर पर और व्यवहारिक तौर पर भी विरोधाभासी लगते हैं। पर क्या हमारे पास इसका कोई विकल्प है, क्या हम सार्वभौम के इस सुनहरे कल तक, अपने आज के जातिग्रस्त माहौल से गुजरे बिना, किसी पैराशूट द्वारा किसी आसमानी रास्ते से पहुंच सकते हैं, जाहिर है कि ऐसा कोई जादुई रास्ता नहीं है जो हमें अपने वर्तमान से जूझे बिना अपने लक्ष्य तक पहुंच सके। उस भविष्य की ओर जो एकमात्र रास्ता जाता है वह हमारे वर्तमान से ही जाता है, हमारे आज से ही निकलता है वो रास्ता। और हमारे आज का तकाजा है कि हम जातिभेदों को पहचानें। उनके बारे में हम कुछ करें, ताकि वह सुबह आ सके जब हमें जातिभेदों पर ध्यान न देना पडे़, जब जातिभेद निरर्थक हो जाएं।

आजादी के बाद के दशकों में भारतीय राज्य ने इस दुविधा से निपटने का जो तरीका चुना है, वो मूलतः जाति-निरपेक्षता पर आधारित था और इस मूल नीति में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण एक प्रकार का अपवाद था जिसके जरिए जाति विषमता की समस्या को हल किया जाना था। इस रणनीति के कारण नेहरू युग (कथित) उच्च जातियों के लिए एक प्रकार का स्वर्णयुग साबित हुआ। यह मैं क्यों कह रहा हूं, इसलिए कि नए संविधान ने उच्च जातियों को एक तरफ उनकी जातीय प्रस्थिति (caste status) के जरिए हासिल की गई जो संपत्ति थी उसे जब्त करने से इंकार कर दिया। थोड़ी बहुत कोशिशें हुईं, सरकार ने अनमने ढंग से भूमिसुधार नीतियों के तहत बडे़ जमींदारों से कुछ जमीन लेने की कोशिश की और विनोभा भावे जी जैसे गांधीवादी संत भटकते रहे कि कुछ जमीन दान में मिल जाए जमींदारों से गरीबों में बांटने के लिए। लेकिन जैसा कि आपको पता है कि भूदान और सरकारी योजनाओं से कुल मिलाकर भारत की काष्त- योग्य जमीन के एक प्रतिषत से भी कम जमीन मिल सकी, आवंटन के लिए। तो कुल नतीजा यह निकला कि जो भी संपत्ति सीधे तौर पर जाति- जनित थी, यानि जाति प्रस्थिति के भेदभाव के बिना, उस तरह की संपत्ति के अर्जित करने का सवाल ही नहीं उठता था- उस संपत्ति को सरकार ने बरकरार रखा। बल्कि संविधान की औपचारिक समता की उदारवादी धारणा और उससे उत्पन्न कानूनी व्यवस्था के तहत यह सारी संपत्ति- चाहे वह सामाजिक संपत्ति हो (जैसे शिक्षा का लाभ) या आर्थिक संपत्ति (जैसे जमीन-जायदाद) - यह संपत्ति मूल रूप से सुरक्षित थी। उनकी रक्षा के लिए संविधान का वर्दहस्त मौजूद था। 

लेकिन सिर्फ इतने से ही स्वर्णयुग नहीं बनता। उच्च जातियों को नए संविधान ने संपत्ति से भी बहुत बड़ा जो तोहफा दिया था, वो था एक सामुदायिक चिन्ह-रहित नयी-नवेली अस्मिता जो पूरी तरह आधुनिक है, सार्वभौमिक सामान्य नागरिक की अस्मिता। The unmarked universal citizen. ऐसी हस्ती हमारे समाज के इतिहास में पहले कभी नहीं दिखी थी। इसका जन्म हमारे संविधान के साथ साथ 26 जनवरी 1950 यानि पहले गणतंत्र दिवस पर हुआ। यह एक ऐसा नागरिक था जिसको सरकार बाध्य नहीं कर सकती थी कि वह अपनी सामुदायिक या जातीय अस्मिता बताए। बल्कि इसके विपरीत राज्य और संविधान उसे यह हक दे रहे थे कि कोई उससे पूछ नहीं सके कि उसकी जातीय या अन्य प्रकार की अस्मिता क्या है, और उससे उसको क्या नफा नुकसान हुआ है। इस गुमनामी के फायदे को बखूबी भुनाया। 50-60 के दशक में उच्च जातियों ने स्वाभाविक तौर पर यानि खुलेआम, सामान्य और वैध ढंग से बिना की षडयंत्र के अपनी जातीय प्रस्थिति से उपजे शुभ लाभों की फसल काटी। जब तलक इन जातियों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी आई और अब आप लोगों की पीढ़ी शायद चैथी पीढ़ी होगी, तब तक पूरी तरह से कायाकल्प हो चुका था। उच्च जातियों ने योग्यता तंत्र के जरिए, उच्च षिक्षा के जरिए, आधुनिक व्यवसायों के जरिए, अपनी जातीय अस्मिताओं के स्वरूप को पूरी तरह बदल डाला। वाकई तथ्यगत तौर पर कम से कम उच्च जातियों के अभिजात्य वर्ग के दैनिक जीवन में जाति के लिए प्रत्यक्ष रूप से कोइ्र विशेष स्थान नहीं बचा था। हां, यह शादी ब्याह जन्ममरण आदि के समय याद आ जाती थी लेकिन ऐसे मामले व्यक्तिगत या निजी करार दिए जा सकते थे। आज उच्च जातीय अभिजात्य तबके का सार्वजनिक दैनिक जीवन वास्तव में “जातीय रहित” जान पड़ता है। 

तो इस अभिजात्य तबके की नयी पीढ़ी को और इस पीढ़ी के युवाओं को यह लगने लगा कि उनकी तो कोई जाति है ही नहीं। साथ ही उन्हें यह भी लगने लगा कि जबकि वे स्वयं जाति के प्रति उदासीन हैं और उसमें विश्वास नहीं करते कुछ और लोग हैं जो जाति का जाप जपते फिरते हैं और जाति की राजनीति करते हैं। उनको लगा कि यह मात्र संयोग है कि वे सारे लोग जो मानते हैं कि उनकी कोई जाति नहीं है, वे कथित उच्च जातियों के हैं, और वे सारे लोग जाति से चिपके हुए हैं, वे सब कथित निम्न जातियों के हैं। इस प्रकार के अद्भुत संयोग का परीक्षण की जरूरत उच्च जातीय अभिजात्य तबके को कभी महसूस नहीं हो पाई। यह सब एक स्वाभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत हुआ। राश्ट निर्माण के पवित्र कार्य को संपन्न करते हुए उच्च जातियों ने अपनी जातीय प्रस्थिति को भुनाया। “विकास” की प्रक्रियाएं उच्च जातीय हितों के अनुकूल थीं और इसके जरिए उन्होंने अपनी जाति जनित संपत्ति को आधुनिक सेक्यूलर संपत्ति में परिवर्तित कर दिया। यहां किसी प्रत्यक्ष शडयंत्र की जरूरत ही नहीं थी। क्योंकि सबकुछ अपने आप ही स्वाभाविक ढंग से होता गया और इस ऐतिहासिक दौर ने उच्च जातीय वर्चस्व का आधुनिकीकरण कर डाला।

दूसरी ओर निम्न जातीय कोण से देखें तो नजारा बिलकुल अलग दिखता है। नये संविधान और उसकी उदारतावादी औपचारिक समता की धारणा से निम्न जातियों को फौरी तौर पर कुल मिलाकर नुकसान ही हुआ। इस संविधान से कथित निम्न जातियों को जो सबसे बड़ी चीज मिली, वह थी आरक्षण। संविधान के एक खास प्रावधान के तहत निम्न जातियों को नौकरियां और अलग अलग तरह की सुविधाएं उपलब्ध करवाई गई। लेकिन इसका राजनीतिक असर यह हुआ कि जो निम्न जातीय तबके राश्ट और राश्ट की सत्ता और संपत्ति में अपना हिस्सा मांग रहे थे वो यकायक दया के पात्र में तब्दील हो गए। ऐसा लगने लगा कि मानो वो एक ऐसी दीनहीन हस्ती बन गए हैं जो राश्ट के “मालिकों” यानि “उच्च जातियां” और उनकी कृपा पर निर्भर हैं। तो निम्न जातियों को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से आरक्षण की बहुत महंगी कीमत चुकानी पड़ी। लेकिन साथ ही साथ यह भी सही है कि प्रशासनिक तौर पर और व्यवहारिक तौर पर आरक्षण जैसी नीति की सख्त जरूरत थी और आज भी है। इसके बिना हम समतामूलक समाज की कल्पना नहीं कर सकते। जाति विषमता का समाधान नहीं कर पाते। लेकिन दुर्भाग्यवश इस नीति का राजनीतिक असर कुछ हद तक नकारात्मक रहा। 

कथित निम्न जातियों को अपनी साधन विपन्नता और संपत्तिहीन होने की समस्या का सामना करना पड़ा। आखिर जाति का निहितार्थ भी तो यही था कि संपत्ति अर्जित करने के व्यवसाय और वैध तरीके, वे सब उच्च जातियों के हिस्से थे और अन्य जातियों को उनके लाभ से वंचित कर दिया गया था। इसलिए अगर निम्न जातियों के पास संपत्ति के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकने वाली कोई चीज थी तो वह थी उनकी निम्न जातीय अस्मिता। लेकिन इस “संपत्ति” का उपयोग केवल राजनीति के माध्यम से हो सकता था। इसका असर निर्णायक रहा- जहां उच्च जातियों को अपनी सामाजिक पूंजी के आधार पर योग्यता तंत्र का सहारा लेकर अपने को जातीयरहित साबित करने का मौका मिलता है, वहीं निम्न जातियों को एक तरह का श्राप मिलता है कि आपको अपने स्वार्थ को साधने के लिए अपनी जातीय अस्मिता का बार बार आह्वान करते रहना होगा। और जब आप जाति का आह्वान करते रहोगे तो आप आधुनिकता विरोधी कहलाओगे। आप प्रगति के विरोधी कहलाओगे और तमाम जो अच्छी चीजें हैं, उसके विरोधी कहलाओगे। दूसरी तरफ उच्च जातियों को ऐसी अस्मिता तोहफे में मिली जिससे वो सार्वभौम पर कब्जा दावा कर सकते हैं और कह सकते हैं कि हम तो सार्वभौमिक समता चाहते हैं, हम जातिभेद में विश्वास नहीं करते, हमें इससे कोइ्र्र लेना देना नहीं है। हमारा वश चले तो हम जाति को खत्म कर दें, लेकिन कुछ और लोग हैं जो देश को पीछे घसीटते जा रहे हैं और जाति के सवाल को जिंदा रख रहे हैं और ऐसे लोगों की मदद आज की जातिगत राजनीति और मीडिया कर रहे हैं। अगर इस तरह की प्रतिगामी शक्तियां नहीं होतीं तो जाति अगर मरी नहीं भी होती तो कम से कम क्षीण और कमजोर तो हो ही गयी होती। जाति को वही लोग जिंदा रख रहे हैं जिनका स्वार्थ उससे सध रहा है। 

इस तरह से हमारा देश दो खेमों में बंट जाता है, और इन दोनों खेमों के बीच संवाद असंभव है। इस तरह से जाति का उन्मूलन बहुत पेचीदा हो जाता है। क्योंकि जाति एक परस्परवादी चीज है। परस्पर संबंध है। इसलिए कबीर की प्रेमगली के ठीक विपरीत है। कबीर का मशहूर दोहा है-“मैं था तो हरि नहीं, हरि हैं तो मैं नाहीं। प्रेमगली अति सांकरी, जामे दो न समाई। “ पर जाति उन्मूलन की गली ऐसी है कि जब कथित “उच्च” और “निम्न” जातियां इसमें से साथ साथ नहीं गुजरती तब तक मोक्ष नहीं मिलेगा, जाति का नाश नहीं हो सकेगा। क्योंकि हमारे देश का जो (उच्चजातीय) अभिजात्य वर्ग है वो तो कहता है कि जाति से उसका कोई लेना देना नहीं है और यह केवल संयोग है कि ऐसा मानने वाले सभी लोग प्रायः ऊंची जातियों के हैं। दूसरी तरफ कथित निम्न जातियों को लगता है कि जब उनके पास और कोई संपत्ति है ही नहीं तो अगर वे जाति की राजनीति नहीं करते हैं तो मारे जाएंगे। इन दोनों खेमों के बीच संवाद असंभव है, क्योंकि एक को संवाद की आवश्यकता ही नहीं दिखती तो दूसरे को संवाद व्यर्थ लगता है और क्योंकि ऐसे में जाति का उन्मूलन तो संभव नहीं है, उसकी जगह जो होता है, वो है जाति का “अपवादीकरण”, जाति को एक शाश्वत अपवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाना । इस प्रकार जैसे कि हमने देखा, 2 अक्टूबर का दिन एक अपवाद बन जाता है, जब ऐसे लोग झाड़ू लेकर निकलते हैं, जिनका झाड़ू से कोई लेना देना नहीं रहा है और न आगे रहेगा। कहीं कोई जाति के नाम पर अत्याचार होता है, कोई कांड होता है, तो उसे भी एक अपवाद की तरह पेश किया जाता है, एक-दो दिन के लिए सुर्खियां बनती हैं, फिर सामान्य जीवन लौट आता है और मामला भुला दिया जाता है। लेकिन अभिजात्य वर्ग के युवा ईमानदारी से यह मानते हैं कि जाति से हमारा कोई वास्ता नहीं है, हमारे अनुभव में जाति की कोई उपस्थिति नहीं है। वहीं दूसरी तरफ कथित निम्न जातियों के युवाओं को लगता है कि उनके पास सिर्फ जाति-अस्मिता है और वह सार्वभौम, जिसकी तरफ सब बढ़ना चाहते हैं, वह उनके लिए नहीं है। इस वजह से जाति के उन्मूलन के बजाय उसका एक तरह से पुनर्जन्म होता है, उसकी जडे़ं और गहरी होती हैं, विकृत होती हैं। हमारे समाज में जाति अवश्य बदल रही है और यह हमेशा बदलती रहेगी, लेकिन इसका उन्मूलन संभव नहीं है- कम से कम आज तो ऐसा ही लगता है। 

तो मैं आपसे यही अर्ज करना चाहता हूं कि अगर आप मानते हैं कि जाति का उन्मूलन संभव है, तो हमारा कर्तव्य है, खासकर विश्वविद्यालयों में, कि हम यह समझने की कोशिश करें कि यह उन्मूलन क्यों इतना पेचीदा और जटिल है और इसको समझने के बाद हम यह भी सोचें कि इस दिशा में किस प्रकार की पहल कर सकते हैं, कैसे हम जाति के अपवादीकरण में शरीक हुए बिना इसके उन्मूलन के निमित्त बन सकते हैं। वो कितने भी छोटे या साधारण लगे हम अपने सामूहिक प्रयासों से एक ऐसा माहौल बना सकते हैं जिसमें जाति के उन्मूलन की वह दूरघड़ी थोड़ी सी और पास आती दिखे।

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सतीश देशपाण्डे प्रसिद्ध समाजशास्त्री हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र बिभाग में पढ़ाते हैं ।

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