Monday, November 16, 2015

गांधी को गोली, गोडसे की गूंज रही बोली: आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी

[A detailed article by Subhash Gatade in English on glorification of Nathuram Godse by the Hindutva Supremacist forces is available here

- सुभाष गाताडे

पिछले दिनों हिन्दु महासभा ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे को जिस दिन फांसी दी गयी थी, उस दिन को /15 नवम्बर 2015/ ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाया और इस आतंकी के जीवन पर एक वेबसाइट भी शुरू की। महासभा के एक नेता ने बताया कि उन्होंने देश में सौ से अधिक स्थानों पर इसे मनाया और दिल्ली में गोडसे के जीवन पर एक किताब भी जारी की।

रेखांकित करनेवाली बात यही है कि डेढ साल पहले जबसे मोदी सरकार बनी है तबसे इस शख्स का - जिसे समूची दुनिया आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी के तौर पर जानती है - महिमामण्डन बढ़ता ही गया है। अभी पिछले ही साल संसद के पटल पर भाजपा के सांसद साक्षी महाराज ने गोडसे को ‘देशभक्त’ के तौर पर संबोधित किया था। इतनाही नहीं संघ के मल्याली भाषा के मुखपत्रा ‘केसरी’ में लोकसभा चुनाव में चालाकुडी मतदाता संघ से चुनाव लड़े भाजपा के बी गोपालक्रष्णन ने यह लेख लिख कर खलबली मचा दी थी कि ‘गोडसे ने गलत निशाना साधा था उसे गांधी को नहीं बल्कि नेहरू को मारना चाहिए था। (http://www.firstpost.com/politics/nathuram-godse-should-have-killed-nehru-instead-of-gandhi-rss-mouthpiece-1771037.html) जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, भाजपा - जो कुछ समय से गांधी का भी गुणगान करती रहती है - ने अपने इन दो ‘होनहारों’ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

ध्यान रहे कि हिन्दुत्ववादी संगठनों की तरफ से गोडसे को ‘शहीद’ साबित करने, उसके मानवद्रोही कारनामे को वैधता प्रदान करने के प्रयास लम्बे समय से चलते रहे हैं। 


याद करें पिछले साल जबकि अभी मोदी सत्तासीन नहीं हुए थे, जब 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या के 66 साल पूरे होने के अवसर पर देश भर में कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा था, उस दिन गांधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे की ‘आवाज़’ मंे एक आडियो वाटस अप पर मोबाइल के जरिए लोगों तक पहुंचाया गया था। इस मेसेज में उस खतरनाक आतंकी का महिमामण्डन करने की और निरपराधों को मारने की अपनी कार्रवाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश दिखाई दे रही थी। एक अग्रणी अख़बार के मुताबिक ऐसा मैसेज उन लोगों के मोबाइल तक पहुंच चुका था, जो एक ‘बड़ी पार्टी से ताल्लुक रखते हैं और वही लोग इसे आगे भेज रहे हैं।’ मेसेज की अन्तर्वस्तु गोडसे के स्पष्टतः महिमामण्डन की दिख रही थी, जिसमें आज़ादी के आन्दोलन के कर्णधार महात्मा गांधी की हत्या जैसे इन्सानदुश्मन कार्रवाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गयी थी। इतनाही नहीं एक तो इस हत्या के पीछे जो लम्बी चौड़ी सााजिश चली थी, उसे भी दफनाने का तथा इस हत्या को देश को बचाने के लिए उठाए गए कदम के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी थी। निश्चित ही यह कोई पहला मौका नहीं है कि पुणे का रहनेवाला आतंकी नाथुराम विनायक गोडसे, जो महात्मा गांधी की हत्या के वक्त हिन्दु महासभा से सम्बद्ध था, जिसने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से की थी और जो संघ के प्रथम सुप्रीमो हेडगेवार की यात्राओं के वक्त उनके साथ जाया करता था, उसके महिमामण्डन की कोशिशें सामने आयी हैं। महाराष्ट्र एवं पश्चिमी भारत के कई हिस्सों से 15 नवम्बर के दिन - जिस दिन नाथुराम को फांसी दी गयी थी- हर साल उसका ‘शहादत दिवस’ मनाने के समाचार मिलते रहते हैं। मुंबई एवं पुणे जैसे शहरों में तो नाथुराम गोडसे के ‘सम्मान’ में सार्वजनिक कार्यक्रम भी होते हैं। लोगों को यह भी याद होगा कि वर्ष 2006 के अप्रैल में महाराष्ट्र के नांदेड में बम बनाते मारे गए हिमांशु पानसे और राजीव राजकोंडवार के मामले की तफ्तीश के दौरान ही पुलिस को यह समाचार मिला था कि किस तरह हिन्दुत्ववादी संगठनों के वरिष्ठ नेता उनके सम्पर्क में थे और आतंकियों का यह समूह हर साल ‘नाथुराम हौतात्म्य दिन’ मनाता था। गोडसे का महिमामण्डन करते हुए ‘मी नाथुराम बोलतोय’ शीर्षक से एक नाटक का मंचन भी कई साल से हो रहा है।

स्मृतिलोप के इस समय में जबकि मुल्क की राजनीति में जबरदस्त उथलपुथल के संकेत मिल रहे हैं और दक्षिणपंथी ताकतें सर उठाती दिख रही हैं, यह जरूरी हो जाता है कि इस मसले से जुड़े तथ्य लोगों के सामने नए सिरेसे रखें जाएं तथा यह स्पष्ट किया जाए कि यह किसी सिरफिरे आतंकी की कार्रवाई नहीं थी बल्कि उसके पीछे हिन्दुत्ववादी संगठनों की साजिश थी, जिसके सरगना सावरकर थे। पिछले दिनों इस हत्या को लेकर ‘बियांड डाउट: ए डोशियर आन गांधीज असासिनेशन’ नाम से लेखों का संकलन /सम्पादन तीस्ता सितलवाड/ द्वारा प्रकाशित हुआ है / तुलिका प्रकाशन, 2015/ जो इस सिलसिले पर विधिवत रौशनी डालता है।

हर अमनपसन्द एवं न्यायप्रिय व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि महात्मा गांधी की हत्या आजाद भारत की सबसे पहली आतंकी कार्रवाई कही जा सकती है। गांधी हत्या के महज चार दिन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबन्दी लगानेवाला आदेश जारी हुआ था -जब वल्लभभाई पटेल गृहमंत्राी थे - जिसमें लिखा गया था:
संघ के सदस्यों की तरफ से अवांछित यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दिया गया है। यह देखा गया है कि देश के तमाम हिस्सों में संघ के सदस्य हिंसक कार्रवाइयों में - जिनमें आगजनी, डकैती, और हत्याएं शामिल हैं - मुब्तिला रहे हैं और वे अवैध ढंग से हथियार एवं विस्फोटक भी जमा करते रहे हैं। वे लोगों में पर्चे बांटते देखे गए हैं, और लोगों को यह अपील करते देखे गए हैं कि वह आतंकी पद्धतियों का सहारा लें, हथियार इक्ट्ठा करें, सरकार के खिलाफ असन्तोष पैदा करे ..
27 फरवरी 1948 को प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने ख़त में -जबकि महात्मा गांधी की नथुराम गोडसे एवं उसके हिन्दुत्ववादी आतंकी गिरोह के हाथों हुई हत्या को तीन सप्ताह हो गए थे - पटेल लिखते हैं:
"सावरकर के अगुआईवाली हिन्दु महासभा के अतिवादी हिस्से ने ही हत्या के इस षडयंत्रा को अंजाम दिया है ..जाहिर है उनकी हत्या का स्वागत संघ और हिन्दु महासभा के लोगों ने किया जो उनके चिन्तन एवं उनकी नीतियों की मुखालिफत करते थे।" 
वही पटेल 18 जुलाई 1948 को हिन्दु महासभा के नेता एवं बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता एवं समर्थन से भारतीय जनसंघ की स्थापना करनेवाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखते हैं: 
‘‘..हमारी रिपोर्टें इस बात को पुष्ट करती हैं कि इन दो संगठनों की गतिविधियों के चलते खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चलते, मुल्क में एक ऐसा वातावरण बना जिसमें ऐसी त्रासदी (गांधीजी की हत्या) मुमकिन हो सकी। मेरे मन में इस बात के प्रति तनिक सन्देह नहीं कि इस षडयंत्रा में हिन्दु महासभा का अतिवादी हिस्सा शामिल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियां सरकार एवं राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं। हमारे रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करते हैं कि पाबन्दी के बावजूद उनमें कमी नहीं आयी है। दरअसल जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है संघ के कार्यकर्ता अधिक दुस्साहसी हो रहे हैं और अधिकाधिक तौर पर तोडफोड/विद्रोही कार्रवाइयों में लगे हैं।"
प्रश्न उठता है कि गांधी के हत्यारे अपने इस आपराधिक काम को किस तरह औचित्य प्रदान करते हैं। उनका कहना होता है कि गांधीजी ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य के विचार का समर्थन दिया और इस तरह वह पाकिस्तान के बंटवारे के जिम्मेदार थे, दूसरे, मुसलमानों का ‘अड़ियलपन’ गांधीजी की तुष्टिकरण की नीति का नतीजा था, और तीसरे, पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए आक्रमण के बावजूद, गांधीजी ने सरकार पर दबाव डालने के लिए इस बात के लिए अनशन किया था कि उसके हिस्से का 55 करोड़ रूपए वह लौटा दे।

ऐसा कोईभी व्यक्ति जो उस कालखण्ड से परिचित होगा बता सकता है कि यह सभी आरोप पूर्वाग्रहों से प्रेरित हैं और तथ्यतः गलत हैं। दरअसल, साम्प्रदायिक सद्भाव का विचार, जिसकी हिफाजत गांधी ने ताउम्र की, वह संघ, हिन्दु महासभा के हिन्दु वर्चस्ववादी विश्वदृष्टिकोण के खिलाफ पड़ता था और जबकि हिन्दुत्व ताकतों की निगाह में राष्ट्र एक नस्लीय/धार्मिक गढंत था, गांधी और बाकी राष्ट्रवादियों के लिए वह इलाकाई गढंत था या एक ऐसा इलाका था जिसमें विभिन्न समुदाय, समष्टियां साथ रहती हों।

दुनिया जानती है कि किस तरह हिन्दु अतिवादियों ने महात्मा गांधी की हत्या की योजना बनायी और किस तरह सावरकर एवं संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर को नफरत का वातावरण पैदा करने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसकी परिणति इस हत्या में हुई। सच्चाई यह है कि हिन्दुत्व अतिवादी गांधीजी से जबरदस्त नफरत करते थे, जो इस बात से भी स्पष्ट होता है कि नाथुराम गोडसे की आखरी कोशिश के पहले चार बार उन्होंने गांधी को मारने की कोशिश की थी। (गुजरात के अग्रणी गांधीवादी चुन्नीभाई वैद्य के मुताबिक हिन्दुत्व आतंकियों ने उन्हें मारने की छह बार कोशिशें कीं)। 

अगर हम गहराई में जाने का प्रयास करें तो पाते हैं कि उन्हें मारने का पहला प्रयास पुणे में (25 जून 1934) को हुआ जब वह कार्पोरेशन के सभागार में भाषण देने जा रहे थे। उनकी पत्नी कस्तुरबा गांधी उनके साथ थीं। इत्तेफाक से गांधी जिस कार में जा रहे थे, उसमें कोई खराबी आ गयी और उसे पहुंचने में विलम्ब हुआ जबकि उनके काफिले में शामिल अन्य गाडियां सभास्थल पर पहुंचीं जब उन पर बम फेंका गया। इस बम विस्फोट ने कुछ पुलिसवालों एवं आम लोग घायल हुए।

महात्मा गांधी को मारने की दूसरी कोशिश में उनका भविष्य का हत्यारा नाथुराम गोडसे भी शामिल था। गांधी उस वक्त पंचगणी की यात्रा कर रहे थे, जो पुणे पास स्थित एक हिल स्टेशन है (मई 1944) जब एक चार्टर्ड बस में सवार 15-20 युवकों का जत्था वहां पहुंचा। उन्होंने गांधी के खिलाफ दिन भर प्रदर्शन किया, मगर जब गांधी ने उन्हें बात करने के लिए बुलाया वह नहीं आए। शाम के वक्त प्रार्थनासभा में हाथ में खंजर लिए नाथुराम गांधीजी की तरफ भागा, जहां उसे पकड़ लिया गया।

सितम्बर 1944 में जब जिन्ना के साथ गांधी की वार्ता शुरू हुई तब उन्हें मारने की तीसरी कोशिश हुई। जब सेवाग्राम आश्रम से निकलकर गांधी मुंबई जा रहे थे, तब नाथुराम की अगुआई में अतिवादी हिन्दु युवकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। उनका कहना था कि गांधीजी को जिन्ना के साथ वार्ता नहीं चलानी चाहिए। उस वक्त भी नाथुराम के कब्जे से एक खंजर बरामद हुआ था।

गांधीजी को मारने की चौथी कोशिश में (20 जनवरी 1948) लगभग वही समूह शामिल था जिसने अन्ततः 31 जनवरी को उनकी हत्या की। इसमें शामिल था मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, नाथुराम गोडसे और नारायण आपटे। योजना बनी थी कि महात्मा गांधी और हुसैन शहीद सुरहावर्दी पर हमला किया जाए। इस असफल प्रयास में मदनलाल पाहवा ने बिडला भवन स्थित मंच के पीछे की दीवार पर कपड़े में लपेट कर बम रखा था, जहां उन दिनों गांधी रूके थे। बम का धमाका हुआ, मगर कोई दुर्घटना नहीं हुई, और पाहवा पकड़ा गया। समूह में शामिल अन्य लोग जिन्हें बाद के कोलाहल में गांधी पर गोलियां चलानी थीं, वे अचानक डर गए और उन्होंने कुछ नहीं किया।

उन्हें मारने की आखरी कोशिश 30 जनवरी को शाम पांच बज कर 17 मिनट पर हुई जब नाथुराम गोडसे ने उन्हें सामने से आकर तीन गोलियां मारीं। उनकी हत्या में शामिल सभी पकड़े गए, उन पर मुकदमा चला और उन्हें सज़ा हुई। नाथुराम गोडसे एवं नारायण आपटे को सज़ा ए मौत दी गयी, (15 नवम्बर 1949) जबकि अन्य को उमर कैद की सज़ा हुई। इस बात को नोट किया जाना चाहिए कि जवाहरलाल नेहरू तथा गांधी की दो सन्तानों का कहना था कि वे सभी हिन्दुत्ववादी नेताओं के मोहरे मात्रा हैं और उन्होंने सज़ा ए मौत को माफ करने की मांग की। उनका मानना था कि इन हत्यारों को फांसी देना मतलब गांधीजी की विरासत का असम्मान करना होगा जो फांसी की सज़ा के खिलाफ थे। ..

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ नाथुराम गोडसे के सम्बन्ध मसला अभी भी सुलझाया नहीं जा सका है। दरअसल महात्मा गांधी की हत्या की चर्चा जब भी छिड़ती है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े आनुषंगिक संगठन गोडसे और उसके आतंकी गिरोह के बारे में बहुत घालमेलवाला रूख अख्तियार करते हैं। एक तरफ वह इस बात की भी कोशिश करते हैं कि यह दिखाएं कि गांधीजी की हत्या के वक्त उनमें से किसी का संघ से कोई ताल्लुक नहीं था। साथ ही साथ वह इस बात को भी रेखांकित करना नहीं भूलते कि किस तरह गांधीजी के कदमों ने लोगों में निराशा पैदा की थी।.....

नाथुराम गोडसे से करीबी से जुड़े लोग, जो खुद गांधीजी की हत्या की साजिश में शामिल थे, वे इस मसले पर अलग ढंग से सोचते हैं। अपनी किताब 'Why I Assassinated Mahatma Gandhi (मैंने महात्मा गांधी को क्यों मारा, 1993)’ नाथुराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे लिखते हैं: 

‘‘उसने (नाथुराम) ने अपने बयान में कहा था कि उसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को छोड़ा था। उसने यह बात इस वजह से कही क्योंकि गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी की हत्या के बाद बहुत परेशानी में थे। मगर यह बात सही है कि उसने संघ नहीं छोड़ा था।’’.. 

अंग्रेजी पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ को दिए साक्षात्कार में (जनवरी 28,1994, अरविन्द राजगोपाल) गोपाल गोडसे ने वही बात दोहरायी:
प्रश्न: क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे़ थे
उत्तर: सभी भाई संघ में थे। नाथुराम, दत्तात्रोय, मैं और गोविन्द। आप कह सकते हैं कि हम अपने घर के बजाय संघ में ही पले बढ़े। संघ हमारे लिए दूसरे परिवार की तरह था।
प्रश्न: नाथुराम संघ में ही था ? उसने संघ को नहीं छोड़ा था ?
उत्तर: नाथुराम संघ का बौद्धिक कार्यवाह बना था। उसने अपने बयान में कहा था कि उसने संघ छोड़ा था। उसने यह बात इस वजह से कही क्योंकि गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी की हत्या के बाद बहुत परेशानी में थे। उसने कभी भी राष्टञªीय स्वयंसेवक संघ को नहीं छोड़ा।..
यह अकारण नहीं कि अपनी किताब ‘गांधी हत्या और मैं’ (सूर्यभारती प्रकाशन, दिल्ली) की शुरूआत में गोपाल गोडसे बताते हैं कि किस तरह फांसी जाने के पहले उन्होंने जहां एक तरफ ‘अखण्ड भारत’ तथा ‘वन्दे मातरम्!’ का नारा लगाया तथा मातृभूमि के नाम पर ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे..’गाया। याद रखें कि यही वह गीत है जो संघ की शाखाओं में प्रमुखता से गाया जाता है।

इस पूरी साजिश में सावरकर की भूमिका पर बाद में विधिवत रौशनी पड़ी। याद रहे गांधी हत्या को लेकर चले मुकदमे में उन्हें सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया था। 

मालूम हो कि गांधी हत्या के सोलह साल बाद पुणे में हत्या में शामिल लोगों की रिहाई की खुशी मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। 12 नवम्बर 1964 को आयोजित इस कार्यक्रम में शामिल कुछ वक्ताओं ने कहा कि उन्हें इस हत्या की पहले से जानकारी थी। अख़बार में इस ख़बर के प्रकाशित होने पर जबरदस्त हंगामा मचा और फिर 29 सांसदों के आग्रह तथा जनमत के दबाव के मद्देनज़र तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्राी गुलजारीलाल नन्दा ने एक सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक कमीशन गठित किया।

कपूर आयोग ने हत्या में सावरकर की भूमिका पर नए सिरेसे निगाह डाली। आयोग के सामने सावरकर दो सहयोगी अप्पा कासार - उनका बाडीगार्ड और गजानन विष्णु दामले, उनका सेक्रेटरी भी पेश हुए, जो मूल मुकदमे में बुलाए नहीं गए थे। कासार ने कपूर आयोग को बताया कि कि किस तरह हत्या के चन्द रोज पहले आतंकी गोडसे एवं दामले सावरकर से आकर मिले थे। बिदाई के वक्त सावरकर ने उन्हें एक तरह से आशीर्वाद देते हुए कहा था कि ‘यशस्वी होउन या’ अर्थात कामयाब होकर लौटो। दामले ने बताया कि गोडसे और आपटे को सावरकर के यहा जनवरी मध्य में देखा था। 

न्यायमूति कपूर का निष्कर्ष था 
"इन तमाम तथ्यों के मद्देनजर यही बात प्रमाणित होती है कि सावरकर एवं उनके समूह ने ही गांधी हत्या की साजिश रची।" 
विडम्बना यही कही जाएगी कि इसके पहले ही सावरकर की मृत्यु हुई थी।

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