क्या केसरिया पलटन गाय के नाम पर फैलायी जा रही
संगठित हिंसा से कभी तौबा कर सकेगी
(न्यू
सोशलिस्ट इनिशिएटिव द्वारा जारी वक्तव्य )
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गोरक्षा के नाम पर स्वयंभू हथियारबन्द गिरोहों की अत्यधिक
सक्रियता, जिसमें
जबरदस्त तेजी भाजपा के केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद आयी है, उसे
एक मुंहतोड़ जवाब पिछले दिनों गुजरात में मिला। जिस बेरहमी से शिवसेना से सम्बद्ध
एक गोरक्षक दल ने उना में दलितों के समूह पर हमला किया, (11 जुलाई
2016) जो
मरी हुई गाय की खाल उतार रहे थे, उन्हें सार्वजनिक तौर पर पीटा और गोहत्या का
आरोप लगा कर उन्हें पुलिस स्टेशन तक ले गए और इस समूची घटना का विडिओ बना कर सोशल
मीडिया पर भी डाला ताकि और आतंक फैलाया जा सके, उस घटना ने जबरदस्त गुस्से को जन्म दिया है।
हजारों हजार दलित सूबे के अलग अलग हिस्सों में सड़कों पर
उतरे हैं, उन्होंने
सरकारी दफ्तरों का घेराव किया है, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया है, पूरे
राज्य स्तर पर बन्द का आयोजन किया है और सरकार को झुकाने की कोशिश की है। उन्होंने
दोषियों को सख्त सज़ा देने की सरकार से मांग की है और साथ ही साथ उन पुलिस एवं
प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है, जिन्होंने
दलितों की शिकायत की अनदेखी की, जब उन्हें प्रताडित किया जा रहा था।
प्रतिरोध कार्रवाइयों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। दलित अभी
भी गुस्से में हैं। विरोध रैलियांे का अभी भी आयोजन हो रहा है।
उना में दलित अत्याचार की घटना का विरोध करते हुए लगभग तीस
दलित युवकों ने एक सप्ताह के अन्दर आत्महत्या करने की कोशिश की है। अलग अलग
राजनीतिक दलों के लोगों ने दलितों से अपील की है कि वह ऐसे कदम को न उठाएं और
शान्तिपूर्ण तरीके से संघर्ष जारी रखें। निस्सन्देह, उना की घटना और उसके बाद नज़र आए दलित आक्रोश ने
एक तरह से दलित आन्दोलन के एक नए मुक़ाम का आगाज़ किया है क्योंकि दलितों को यह बात
अन्ततः समझ में आयी है कि हिन्दुत्व की सियासत किसी भी मायने में दलितों की हितैषी
नहीं है और वह शुद्धता और प्रदूषण पर आधारित जाति व्यवस्था को अधिक मजबूत करती है।
हिन्दुत्व की राजनीति के साथ दलितों का बढ़ता मोहभंग उस घटना में भी उजागर हुआ जब
विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला मोदी के गृहनगर वाडनगर में पहुंचा जहां हजारों दलितों
ने उग्र प्रदर्शन में हिस्सा लिया और दलितों पर अमानवीय अत्याचार के लिए
प्रधानमंत्राी मोदी और भाजपा को सीधे जिम्मेदार ठहराया। इस घटना के विडिओ दिखाते
हैं कि प्रदर्शन में शामिल दलित ‘हाय रे मोदी .... हाय हाय रे मोदी’ का
नारा लगा रहे थे - यह उस नारे का संशोधित रूप था जिसे महिलाएं हिन्दुओं के अंतिम
संस्कार के प्रदर्शन में लगाती हैं। दलितों के इस गुस्से ने
अस्सी के दशक की शुरूआत में दलितों की पुरानी पीढ़ी के लोगों द्वारा किए गए लड़ाकू
प्रदर्शनों की याद ताज़ा कर दी जब वे आरक्षण की नीति की हिमायत में सड़कों पर उतरे
थे और उन्होंने हिन्दुत्ववादी संगठनों का सीधे मुकाबला किया था।
यह समूची उथलपुथल आम दलितों के लिए भी - जिनकी आबादी लगभग
आठ फीसदी तक है और जो लम्बे समय से हिन्दुत्ववादी संगठनों के नफरत एवं असमावेश के
प्रोजेक्ट में लगभग समाहित थे - सीखने का अनुभव रहा है। प्रदर्शनकारियों द्वारा
अपनाए गए संघर्ष के एक रूप ने सत्ताधारी तबके को काफी बेचैन किया है और जिस रूप के
राष्ट्रीय स्तर पर फैलाव की सम्भावना बनती है। इसके तहत उन्होंने मरी
हुई गायों को लाकर सरकारी दफ्तरों जानेमाने नेताओं के घरों के सामने फेंका है, जिन्हें
वहां से हटाना भी प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हुआ है। दलितों के अच्छे खासे
हिस्से ने मरी हुई गायों को उठाना भी बन्द कर दिया है और यह ऐलान भी कर दिया है कि
अब वह भले ही
भूख से मर जाएं मगर इस पेशे को कभी नहीं अपनाएंगे। दरअसल, इस
कदम से दलितों ने मनुवादी/ब्राहमणवादी ताकतों को एक चेतावनी दी है कि जिस दिन वह
उन ‘गन्दे’ कामों
को करना बन्द कर देंगे, जिसके लिए उन्हें लांछन लगाया जाता है, वर्ण
समाज के लिए प्रलय जैसी स्थिति पैदा होगी। संघर्ष के इस रूप की अगुआई कर रहे एक
कार्यकर्ता ने एक पत्रकार से बात करते हुए कहा कि उन्होंने यह कदम इसलिए उठाया है
ताकि स्वयंभू गोभक्तों को सबक सीखाया जा सकेः ‘गोरक्षक हम पर हमला करते हैं क्योंकि वह समझते
हैं कि गाय उनकी माता है, ठीक है, अब उन्हें चाहिए कि अपनी माता की सेवा करे औरजब वह मरे तो उसकी लाश को उठाएं।’ (
मीडिया के अलग अलग हिस्सों में प्रकाशित फैक्ट फाइंडिंग
रिपोर्टें बताती हैं कि किस तरह पुलिस ने इन अत्याचारियों को रास्ते में नहीं रोका
और मामूली प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाने के लिए घंटों बरबाद किए। ऐसी अपुष्ट ख़बरें
भी मिली हैं कि स्थानीय पुलिस ने गोरक्षक दल को खुद सूचित किया था कि मरी हुई गाय
की खाल उतारी जा रही है। समूचे मामले में स्थानीय पुलिस की संलिप्तता एवं सांठगांठ
इस बात से भी उजागर होती है कि विडिओ के रूप में समूची घटना के प्रमाण मौजूद होने
के बावजूद - जो उजागर करते हैं कि दलितों पर सार्वजनिक अत्याचार की इस घटना में
तीस से अधिक लोग शामिल थे - उसने सिर्फ आठ लोगों को गिरफतार किया है और यह
प्रमाणित करने में लगी है कि यह अपवादात्मक घटना है।
दलितों के बढ़ते आक्रोश ने, जिस दौरान राज्य सरकार गोया शीतनिद्रा में रही, उसने
ऐसी तमाम अन्य घटनाओं को उजागर किया है जब गोरक्षकों ने दलितों पर हमले किए थे और
पुलिस ने पीड़ितों की शिकायत लेने में भी नानुकुर की थी। इस घटना ने दलितों के
रोजमर्रा के अपमान एंव भेदभाव, सामाजिक जीवन में मौजूद व्यापक अलगाव एवं
अस्प्रश्यता, बुनियादी
मानवाधिकार से उन्हें किया जा रहा इन्कार और हाल के वक्त़ में अत्याचारों की
घटनाओं में हुई जबरदस्त बढ़ोत्तरी की परिघटना को नए सिरेसे रेखांकित किया है और इस
बात को भी दर्शाया है कि किस तरह इस बढ़ते आतंक को रोकने के लिए अधिक सक्रिय कदम
उठाने के मामले में सत्ताधारी जमातें असफल रही हैं।