(“नवउदारवाद के दौर
में हिन्दुत्व” विषय पर अहमदाबाद में प्रस्तुत व्याख्यान का
संशोधित एवं विस्तारित रूप)
‘आम लोग धर्म को सच
मानते
-सुभाष गाताडे
आम लोग धर्म को सच मानते हैं, समझदार लोग झूठ मानते हैं और शासक लोग उपयोगी समझते हैं।’
- सेनेका / ईसापूर्व ४ वर्ष से ईसवी ६५ तक)
दोस्तों,
अपनों के बीच होने
की एक सुविधा यह होती है कि आप इस बात से निश्चिंत रहते हैं कि किसी प्रतिकूल
वातावरण का सामना नहीं करना पड़ेगा, जो सवाल भी पूछे
जाएंगे या जो बातें भी कहीं जाएंगी वह भी अपने ही दायरे की होंगी। मगर फिलवक्त़
मैं अपने आप को एक अलग तरह की मुश्किल से घिरा पा रहा हूं।
मुश्किल यह है कि
जिस मसले पर - ‘नवउदारवाद के दौर में हिन्दुत्व’ - उस मसले को सदन में बैठे हर व्यक्ति ने ‘सुना है, धुना है और गुना है’। और खासकर जो नौजवान बैठे हैं, - जिनकी पैदाइश सम्भवतः बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके पहले लागू किए जा रहे ‘नए आर्थिक सुधारों’ के दौर में हुई थी - उनको फोकस करें तो कह सकते हैं कि उनकी सियासी जिन्दगी की
शुरूआत से ही यह दोनों लब्ज और उससे जुड़ी तमाम बातें महाभारत के अभिमन्यु की तरह
उनके साथ रही हैं।
निश्चित ही ऐसे
वक्त़ उलझनसी हो जाती है कि कहां से शुरू किया जाए।
अब इस उलझन को दूर
करने के लिए या यूं कहें कि बातचीत की सम्भावित एकरसता को तोड़ने के लिए मैंने यह
तय किया है मैं थोड़ी रवायत तोड़ दूं, परम्परा से हट
जाउं और शुरू से शुरू करने के बजाय अन्त से शुरू करूं। निष्कर्ष से ही शुरू करूं
और फिर ऐसा निष्कर्ष क्यों निकाला इसका विवरण दे दूं।
2
मैं समझता हूं कि
इतिहास में ऐसे मौके कभी कभी आते हैं, जब आप को अपनी
गहरी शीतनिद्रा से उबर कर बेहद बुनियादी किस्म की बातों के बारे में सोचना पड़ता है
और हवाओं की उलटी दिशा में खड़े होने का निर्णय लेना पड़ता है। उपरी तौर पर सबकुछ
सामान्यसा चलता रहता है, मगर सतह के नीचे बहुत कुछ घटित हो रहा होता है, जो एक तरह से समूचे समाज की दिशा को प्रभावित करनेवाला होता है। मेरा यह मानना
है कि आज ऐसे ही एक मुक़ाम पर हम सभी खड़े हैं।
मुझे बरबस नागरिक
अधिकार आन्दोलन के महान अश्वेत नेता मार्टिन ल्यूथर किंग के उस बहुचर्चित पत्रा -
जिसे बर्मिंगहैम की जेल से भेजे पत्र के तौर पर जाना गया था - का वह हिस्सा याद आ
रहा है जिसमें वह पूछते हैं कि अगर आप हिटलर के जर्मनी में आज रह रहे होते तो क्या
करते ? वे साफ कहते हैं कि ऐसे वक्त़ आते हैं जब ‘गैरकानूनी’ होना ही न्याय की आवाज़ सुनना होता है। उनके मुताबिक
हमें यह बात कभी
नहीं भूलनी चाहिए कि एडोल्फ हिटलर ने जर्मनी में जो कुछ किया वह ‘कानूनी’ था और हंगेरी में
स्वतंत्रता सेनानी जो कुछ कर रहे थे, वह ‘गैरकानूनी’ था। हिटलर के जर्मनी में एक यहुदी की मदद करना, उसे सहायता प्रदान करना ‘गैरकानूनी’ था। इसके बावजूद, मैं इस बात पर पुरयकीं हूं कि अगर उस वक्त़ मैं जर्मनी में रह रहा होता, तो मैंने अपने यहुदी भाइयों की मदद की होती।
/Rev. Dr. Martin Luther King, Jr. “Letter from a
Birmingham Jail.” Letter. (1963)
आप में से कुछ लोग
मार्टिन ल्यूथर किंग के प्रस्तुत पत्र के निहितार्थ की मौजूदा वक्त़ में
प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर सकते हैं, मेरी बात से पूरी
तरह असहमत हो सकते हैं या मुझ पर जनतंत्र की बुनियादी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने
का आरोप लगा सकते हैं जब कुछ लोगों के हिसाब से 1200 सालों की गुलामी के बाद पहली दफा कोई हिन्दू
कर्णधार’ ने सत्ता की बागडोर संभाली है।
कुछ लोग यह भी कह
सकते हैं कि आप हमें परोक्ष-अपरोक्ष 2002 की याद बार बार
क्यों दिलाते रहते हैं जबकि यह 2015 है जनाब और जनता
ने बहुमत से 2002 को भूलते हुए
निर्णय सुनाया है और आप की सुई वहीं अटकी है।
आप की बात सही है
कि हमें ‘आगे बढ़ना चाहिए’ ‘वी शुड मूव अहेड।’
आखिर अपने ही
इतिहास के ऐसे हिस्से को लेकर जिसे याद करना भी कितनी बेवकूफी है जिससे
पुराने घाव हरे हो जाएं और नासूर बनते ऐसे घावों का आप के पास कोई फौरी इलाज तक न
हो। दिलो दिमाग़ पर लगे उन घावों को याद करने से क्या फायदा जो आप को न केवल अपनी
बल्कि उस समूची इन्साफपसन्द, तरक्कीपसन्द तहरीक/आन्दोलन की बेबसी की
भी याद दिलाते रहें, जब धर्मनिरपेक्षता के मूल्य सूबा गुजरात की
धरती पर तार तार हो रहे थे और सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश के लब्जों को उधार
लेकर कहें जब वहां ‘नीरो बंसी बजा रहे थे।’
और ईमानदारी की
बात है कि मैंने अपने इतिहास के ऐसे तमाम स्याह प्रसंगों को लेकर फिलवक्त़ मौन ओढ़
लिया है, महज 2002 ही नहीं मैंने 1992-93 के एक
प्रार्थनास्थल के विध्वंस और उसके बाद पैदा की गयी सुनियोजित हिंसा को लेकर, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या
के बाद देश की राजधानी से लेकर तमाम क्षेत्रों में फैलायी गयी सुसंगठित हिंसा के
बारे में, 1983 में नेल्ली में
कुछ घंटों के अन्दर ढाई हजार निरपराध अल्पसंख्यकों की हत्या के बारे में या 1969 के किझेवनमी नामक जनसंहार के बारे में - जब
अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए लोग संघर्ष कर रहे थे और भूस्वामियों ने हथियारबन्द होकर
उन पर हमला किया और 42 बच्चों एवं महिलाओं को मार डाला और अदालत में
सभी हमलावर बेदाग बरी हो गए - भी फौरी तौर पर चुप्पी ओढ़ ली है। और अपनी बियाबान हो
चली आंखों में यह सच्चाई भी अंकित कर ली है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र
कहलानेवाले मुल्क में भी किस तरह हिंसाचारों को अंजाम देने वाले लोग या उसकी
सुचिंतित अनदेखी करनेवाले लोग किस किस तरह से लाभान्वित होते रहते हैं। और कभी कभी
तो सत्ता के गलियारों में भी पहुंचते रहते हैं।
पाल आर ब्रास नामक
विद्वान हैं जिन्होंने आज़ादी के बाद कई दंगों का अध्ययन किया है और वह तो इस नतीजे
तक पहुंचे हैं कि यहां संस्थाबद्ध दंगा प्रणालियां अर्थात इनिस्टटयूशनलाइज्ड रायट
सिस्टम्स /institutinalied riot systems/ विकसित हुई हैं। उनका मानना है कि ‘दंगे की
स्वतःस्फूर्तता’ आदि की बातें तथ्य से परे हैं और स्थितियां ऐसी
हैं कि अगर निहित स्वार्थी तत्व चाहें तो दंगों का ‘आयोजन’ किया जा सकता है।
मेरे बेहद अज़ीज
कवि गोरख पांडेय ने कितनी सही बात कही थी
इस साल दंगा बहुत
हुआ
बहुत हुई है खून
की बारिश
और अगले साल
अच्छी फसल होगी
मतदान की।
इसके पहले कि मैं
अपनी बात आगे बढ़ाउं, एक छोटीसी बात अवश्य नोट करवाना चाहता हूं कि
इन्साफ का यह तकाज़ा है, इन्सानियत की चली आ रही तवारीख़/इतिहास इस बात
का गवाह है, ऐसे सभी मामलों में न्याय के सवाल को कभी भी
दबाया नहीं जा सकता। वह सवाल बार बार लौट कर आता रहता है।
मैंने फिलवक्त़
मौन ओढ लिया है इसका मतलब कोई इस गफलत में न रहे कि हम इन्साफ के सवाल को हमेशा
हमेशा के लिए भूल गए हैं और आप अमन कायम होने की बात करके, आर्थिक मुआवजा देने का राग अलापते हुए न्याय के मसले से तौबा नहीं कर सकते
हैं। उसी 2002 को पलट कर देखें कि आज दंगाइयों के कई सरगना
एवं तमाम प्यादे दंडित हो चुके हैं। वजीरे आज़म मोदी - जो उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्रीथे, के मंत्रिमंडल की काबिना मिनिस्टर माया कोदनानी जैसों को उमर कैद की सज़ा हो
चुकी हैं, एवं कभी विश्व हिन्दू परिषद के अग्रणी नेता रह
चुके बाबू बजरंगी जैसे आततायियों को भी उमर कैद हो चुकी है।
यकीं मानिये
इन्साफ के सवाल को अन्तहीन लटका कर नहीं रखा जा सकता।
आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों न्याय के सवाल को हमें संबोधित करना ही पड़ता है। और उन तमाम
हाथों एवं दिमागों एवं तंजीमों की, संगठनों की
शिनाख्त करनी ही पड़ती है, जिन्होंने वक्त़ वक्त़ पर मानवता को शर्मसार
करनेवाले काम किए।
हमारा पड़ोसी मुल्क
बांगलादेश इसका गवाह है, जहां लगभग 45 साल पहले अंजाम
दिए गए इन्सानियत के खिलाफ अपराधों को लेकर अब फैसले सुनाये जा रहे हैं। या लातिन
अमेरिका में स्थित छोटे से मुल्क ग्वातेमाला को देखें , जहां 70 के दशक में
मूलनिवासी समुदायों के खिलाफ अमेरिकी सेनाओं के समर्थन में वहां के तानाशाहों ने
अंजाम दिए कतलेआम - जिसमें ढाई लाख लोग मारे गए थे - को लेकर पिछले दिनों रिटायर
हो चुके 18 मिलिटरी कमांडरों को गिरफतार किया गया, जिनके खिलाफ जनसंहार को अंजाम देने या लोगों को गायब करने जैसे ‘इन्सानियत के
खिलाफ अपराध’ के तमाम आरोप लगे हैं। या आज से ठीक सौ साल
पहले टर्की में अंजाम दिए गए आर्मेनियाईयों के व्यापक जनसंहार का मसला आज भी
सूर्खियों में आता है, जबकि उसके पीड़ित तथा अंजामकर्ता भी कब के गुजर
चुके हैं। पीड़ितों की सन्तानें और वहां जम्हूरियतपसन्द अर्थात जनतंत्र प्रेमी लोग
लोग यही चाहते हैं कि सरकार कबूल करे कि लाखों की तादाद में उनका संहार हुआ था। और
टर्की की सरकार अभी भी इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। आलम यह है कि अगर आप ने
आर्मनियाई लोगों के जनसंहार की बात कही तो इसी पर आप पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया
जा सकता है।
फिलवक्त़ इस बात
का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है कि ‘हम’ और ‘वे’ की यह सियासत
कितने कहर और बरपा करेगी !
3.
दक्षिण एशिया के
इस हिस्से के ‘बनने’ की कहानी अपने आप
में दिलचस्प है।
बचपन से हम सभी
यही सुनते आए हैं कि धरती के इस हिस्से में किस तरह लोग आते रहे और यहीं के
बाशिन्दे बनते गए। फिराक़ गोरखपुरी का मशहूर शेर है
सरजमीने हिन्द पर
अक़वामे आलम के ‘फिराक़’
का़फिले बसते गये, हिन्दोस्तां बनता गया।
मगर अब जबकि आज़ाद
हुए सत्तर साल होने को है हिन्दोस्तां बनने की इस पूरी प्रक्रिया को उलटी दिशा में
घुमाने की, कौन यहां का है और कौन बाहरी है, इसे तय करने की और उस पर फैसला सुनाने की प्रक्रिया तेज हो चली है। हम क्या खा
सकते हैं, क्या पी सकते हैं, किससे प्रेम कर सकते हैं और किसे अपना दोस्त मान सकते हैं इसके बारे में तमाम
निर्णय बिग ब्रदर लगनेवाली सरकार की ओर से या उसके साथ जुड़े झंुडों की तरफ से तय
किए जा रहे हैं।
नयी तरह की
धमकियां इन दिनों सूर्खियां बन रही हैं।
‘आप को वजीरे आज़म
की गददी पर जनाब मोदी मंज़ूर नहीं है ,पाकिस्तान चले
जाइये।’
‘आप ‘पवित्र दिनों पर
मीट का सेवन करते हैं, पाकिस्तान चले जाइये।’
‘आप लव जिहाद के
नाम पर फैलाये जा रहे विद्वेष का विरोध करते हैं, पाकिस्तान चले
जाइये।’
देश की
साहित्यिक-सांस्क्रतिक जगत की अज़ीम शख्सियतों को इसी के तहत अपमानित किया गया है।
कन्नड भाषा के मशहूर साहित्यकार अनंतमूर्ति हों या नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य
सेन हों उन्हें भी ऐसी ही ‘सलाहें’ दी गयी हैं।
अपने से असहमति
रखने वाले हर दूसरे शख्स को ‘पाकिस्तान’ भेजने की इस ‘जिद’ को देखते हुए किसी ने व्यंग में यही कहा कि ऐसे सभी लोग पाकिस्तान टूरिजम को
बढ़ावा देने में लगे हैं। विडम्बना यही है कि ऐसे प्रचार को लेकर सत्ता के उपरी
इदारों से कोई रोक लगना दूर उल्टे शह दिखती है। वैसे आज कल जनाब मोदी एवं
पाकिस्तान के पी एम नवाज शरीफ आपस में जितनी दोस्ती का इजहार कर रहे हैं - यहां तक
कि शरीफ की सालगिरह पर उन्हें हैप्पी बर्थडे बोलने के लिए पी एम मोदी भी ‘अचानक’ पाकिस्तान पहुंचे थे - इस स्थिति को देखते हुए भक्तों को अब उनके हिसाब से ‘विधर्मियों’, ‘देशद्रोहियों’ आदि को किसी अन्य मुल्क भेजने के बारे में
सोचना चाहिए।
अगर बारीकी से
देखें तो ऐसी बातों में और रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्षपद के प्रत्याशी डोनाल्ड
टंम्प द्वारा ‘अमेरिका में मुसलमानों के प्रवेश को रोक देने’ के प्रस्ताव में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। मालूम हो कि उनके इस विषाक्त
प्रचार को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से राष्टपति पद की प्रत्याशी सुश्री
क्लिन्टन की यह टिप्पणी रेखांकित करनेवाली है, जिसमें उन्होंने
कहा है कि किस तरह टंम्प ‘इस्लामिक स्टेट’ के सबसे बड़े
रिक्रूटर अर्थात भर्ती कर्ता बन गए हैं।
एक तरह से कहें तो
आज ऐसे हालात बनाए गए हैं कि व्यक्ति की स्वायत्तता या व्यक्ति के अधिकार का मसला
भी मुल्तवी किया जा रहा है।
व्यक्ति की
स्वायत्तता से जुड़े ऐसे तमाम निर्णय एक झुंड द्वारा, एक समूह द्वारा आप
के लिए तय किए जा रहे हैं और आप से यह कहा जा रहा है कि आप ‘अनुशासित होकर
इनका पालन करें’ /आयदर फॉल इन लाइन/ या नतीजों के लिए तैयार रहे
/फेस द कानसिक्वेन्सेस/ निश्चित ही झंुड की बात मानने के अपने ‘फायदे’ भी हैं। आप तरह तरह से लाभान्वित हो सकते हैं, नौकरी में तरक्की
पा सकते हैं, कमसे कम किसी अप्रत्याशित मानसिक/शारीरिक हमले
से बच सकते हैं।
इक्कीसवीं सदी को
भारत की सदी बनाने का ऐलान आए दिन होता रहता है। क्या ऐसी परिस्थिति - जहां आप को
वही बोलने के लिए कहा जाये जो बिग ब्रदर को मंजूर हो, वही गाने के लिए कहा जाए जैसा कि उन्हें मंजूर हो, वही सोचने के लिए कहा जाए जो उनके इशारों पर हो - ऐसे मुल्क का निर्माण कर
सकती है, जो दुनिया में अव्वल बने।
तयशुदा बात है कि
नहीं !
4
महान दार्शनिक एवं
गणितज्ञ प्रोफेसर बर्टान्ड रसेल ने आज से लगभग नब्बे साल पहले एक व्याख्यान
दिया था, जिसका शीर्षक था कि ‘व्हाय आई एम नॉट ए ख्रिश्चन’ अर्थात ‘मैं ईसाई क्यों
नहीं हूं’ ? ‘नेशनल सेक्युलर सोसायटी’ के तत्वावधान में /6 मार्च 1927/ दिए गए इस
व्याख्यान का अंत उन्होंने इन शब्दों से किया था:
‘हम अपने पैरों पर खड़े होना चाहते हैं और दुनिया
जैसी है, उसे देखना चाहते
हैं - दुनिया को उसी तरह देखना चाहते हैं और उससे डरना नहीं चाहते हैं। हम उससे
निष्पन्न आतंक से दब कर नहीं बल्कि अपनी बुद्धिमत्ता से दुनिया को जीतना चाहते
हैं।..एक बेहतर दुनिया के लिए ज्ञान, दयालुभाव और साहस की जरूरत है ; अपने अतीत की ओर पश्चात्तापभरे अन्दाज़ में लालायित होने या अज्ञानी लोगों
द्वारा सदियों पहले उच्चारे गए शब्दों के जरिए मुक्त बुद्धिमत्ता को जंजीरों में
जकड़ने की जरूरत नहीं है। उसके लिए एक निर्भीक नज़रिया और मुक्त चिन्तन की आवश्यकता
है। उसके लिए भविष्य के प्रति उम्मीद की जरूरत है, न ऐसे अतीत की ओर झांकते रहना है जो समाप्त हो चुका है ,...
(We want to stand upon our own feet and
look fair and square at the world -- its good facts, its bad facts, its
beauties, and its ugliness; see the world as it is and be not afraid of it.
Conquer the world by intelligence and not merely by being slavishly subdued by
the terror that comes from it. ..A good world needs knowledge, kindliness, and
courage; it does not need a regretful hankering after the past or a fettering
of the free intelligence by the words uttered long ago by ignorant men. It
needs a fearless outlook and a free intelligence. It needs hope for the future,
not looking back all the time toward a past that is dead, which we trust will
be far surpassed by the future that our intelligence can create.)
मगर एक तरह से ऐसी
तमाम तंज़ीमें या संगठन - जो खास धर्मविशेष को प्रस्थानबिन्दु मान कर चल रही हैं -
उनके साथ एक आज़ाद व्यक्ति का रिश्ता कैसा होना चाहिए, क्या उसे ऐसी विचारधाराओं को चुपचाप मान लेना चाहिए या यह स्पष्ट करना चाहिए
कि वह उनसे सहमत नहीं है, इसके सन्दर्भ में भी उपरोक्त व्याख्यान में
बहुत कुछ है।
इसलिए मुझे लगता
है कि भारत से ताल्लुक रखनेवाले हर व्यक्ति के सामने या हम कह सकते हैं कि दक्षिण
एशिया के इस हिस्से में रहनेवाले लोगों के सामने जहां धर्माधारित सियासत न केवल
नयी वैधता बल्कि समर्थन भी हासिल कर रही है, जहां बहुसंख्यकवाद
का उभार दिख रहा है, वहां आज़ादमना लोगों को इस सवाल का जवाब देना है
कि हिन्दु धर्म से निष्पन्न राजनीतिक हिन्दुइजम अर्थात हिन्दुत्व के साथ, इस्लामिजम के साथ, बौद्ध धर्म से ताल्लुक रखने का दावा करने वाले
बौद्ध उग्रवाद के साथ या सिख धर्म की दुहाई देनेवाले खालिस्तान के फलसफे के साथ
उसका क्या रिश्ता है।
रसेल के प्रश्न के
तर्ज पर उसे इस सवाल का जवाब देना है ‘व्हाय आई एम नाट ए
हिन्दुत्वाइट ऑर ए संघी’ ? ‘व्हाय आई एम नॉट ए इस्लामिस्ट’ आदि।
गौरतलब है कि अपने
व्याख्यान को बर्टान्ड रसेल कई हिस्सों में बांटते हैं: वह शुरू करते हैं ‘ईसाई कौन है’ इसकी परिभाषा से, फिर ईश्वर के अस्तित्व को लेकर प्रस्तुत तर्कों
की बात करते हैं, चर्च ने किस तरह प्रगति को बांधित किया है, धर्म का आधार किस तरह डर है आदि विभिन्न पहलुओं पर वह बात करते हैं।
अन्त में वह लिखते हैं कि ‘हमें क्या करना चाहिए’ - जिसका एक हिस्सा उपरोल्लेखित है।
जैसा कि मैंने
पहले ही कहा था कि मैं निष्कर्ष से शुरू कर रहा हूं, लिहाजा मैं अपनी
समझदारी से उन प्रमुख बातों को रखने की कोशिश करूंगा कि इस बात के बावजूद कि
मौजूदा हुकूमत जनतांत्रिक प्रक्रियाओं के जरिए सत्ता में आयी है, इसके बावजूद कि 21 वीं सदी की इस दूसरी दहाई में अब किसी नए 2002 के होने या करने
की स्थितियां नहीं है, इसके बावजूद कि संसदीय विपक्ष बिखराव की स्थिति
में है और वाम की ताकतें भी समूची परिस्थिति पर कोई निर्णायक प्रभाव छोड़ने की
स्थिति में नहीं है, मैं इस पूरे निज़ाम से अपने असहमत होने का ऐलान
करता हूं। और बकौल मुक्तिबोध ‘अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने’ के लिए तैयार हूं क्योंकि ‘मठ और गढ़ तोड़ने’ के लिए वह अब
जरूरी हो गया है।
5.
बन्द दिमाग़ और
कुन्द चिन्तन - पहरे में स्वतंत्र विचार
मौजूदा निज़ाम से मेरी सबसे पहली परेशानी स्वतंत्रा विचार पर लगातार पड़ रही बंदिशों को लेकर है
आप इसे तीन
लेखकों/कार्यकर्ताओं की हत्या के तौर पर देखें या ‘पेरूमल मुरूगन
जैसे लेखकों की ‘मौत की घोषणा’ के तौर पर देखें
या वेंडी डोनिगर की किताब या रामानुजम जैसों के रामायण पर केन्द्रित निबंध के
पाठयक्रम से बाहर किए जाने के तौर पर देखें या किन्हीं प्रोफेसर अशोक वोहरा -
जिन्होंने अपने हिसाब से पश्चिमी लेखकों द्वारा की जा रही हिन्दू धर्म की आलोचना
की समीक्षा करने का प्रयास किया था - उन पर लादे गए मुकदमे के तौर पर देखें, एक स्पष्ट पैटर्न यही उभरता दिखता है कि ऐसा कोई भी विचार, चिन्तन जो अपने समाज, राजनीति, इतिहास या अपने
अतीत को खुले दिमाग से देखने की कोशिश करेगा वह अब ‘प्रतिबंधित
क्षेत्र’ है। और अगर आप ने इन सीमाओं को लांघने की कोशिश
की तो परिणाम जगजाहिर है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब मराठी साहित्य सम्मेलन के इस
साल चुने गए अध्यक्ष जनाब सबनिस इन तत्वों के हमले का निशाना बने। दरअसल सम्मेलन
के अध्यक्ष के तौर पर पुणे के पास एक जगह बोलते हुए, उन्होंने
प्रधानमंत्राी मोदी के बारे में अपनी बेबाक राय रखी, जो कइयों को
नागवार गुजरी, उसी के बाद कथित तौर पर उन्हें हिन्दूवादी संगठनों की तरफ से जान से
मारने की धमकियां मिलीं।
ऐसे समाज के
वर्तमान एवं भविष्य की कल्पना की जा सकती है जहां /घोषित/अघोषित/ तरीकों से चिन्तन
पर पाबन्दी लगी है, जहां हर बार आप को सोचना पड़े कि क्या बोले और
क्या न बोलें !
हम देख सकते हैं
जो स्थिति यहां विकसित हो रही है उसकी हमारे पड़ोसी मुल्कों के साथ - चाहे
बांगलादेश हो या पाकिस्तान हो - काफी समानता है और हम देख सकते हैं कि किस तरह का
भविष्य हमारी राह देख रहा है, जहां लोग महज अपने ब्लागपोस्ट के लिए हत्यारे
दस्तों को निशाना बनते दिख रहे हैं।
स्वतंत्र विचारों
को प्रतिबंधित करने का एक नतीजा यह दिखता है कि इससे भारतीय समाज की पहले से चली आ
रही आत्ममुग्धता पर प्रश्नचिन्ह उठना दूर, उसे नयी मजबूती
मिलती रहती है। दरअसल हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहले से ही हमारा समाज बेहद
आत्ममुग्ध समाज रहा है, जिसे यह वहम रहा है कि वह ‘विश्वगुरू’ है, और स्वतंत्र विचार पर लगनेवाली बंदिशें ‘पहले से करेला और
उपर नीम चढ़ा’ जैसी स्थिति में पहुंचाती है।
नेहरू की चर्चित
किताब ‘भारत एक खोज’ का वह प्रसंग
बहुचर्चित है, जिसमें चीनी यात्राी हुएन त्संग के यात्रावर्णन
का प्रसंग है। हुएन त्संग लिखते हैं कि भागलपुर में उनकी मुलाकात एक विद्वान कर्ण
सुकर्ण से हुई, जिसने एक विचित्रा पहनावा ओढ़ रखा था। उसने अपने
पेट पर लकड़ी की पटिटयां बांधी थीं और सरपर रखे एक बक्से में जलती मशाल रखी थी।
हुएन त्संग के यह पूछे जाने पर कि उसके इस पहनावे का राज क्या है तो उसने बताया कि
उसके पास इतना ज्ञान है कि उसका पेट फटा जा रहा है, जिसकी वजह से उसे
बांध कर रखना पड़ता है और मशाल का औचित्य इसलिए क्योंकि वह अंधेरे में भटके लोगों
को राह दिखाना चाहता है।
हमारी यह
आत्ममुग्धता विभिन्न सर्वेक्षणों में आज भी प्रगट होती रहती है, जो इस बात को भी रेखांकित करता है कि हम सभी के अन्दर कहीं न कहीं वही ‘कर्णसुकर्ण’ मौजूद है, जिसे यह वहम है कि वह दुनिया को ज्ञान दे सकता
है। विडम्बना है कि जो हक़ीकत है वह उससे काफी दूर है। हम अपने यहां के अग्रणी
शिक्षा संस्थानों के बारे में भले ही अपनी पीठ थपथपाते रहें, उनमें अपनी सन्तानों को प्रवेश दिलाने के लिए अरबों-खरबों रूपए के कोचिंग
माफिया को खड़ा होने पर गुरेज न करें, मगर दुनिया के
अग्रणी शिक्षा संस्थानो की सूची में वह कहीं नहीं ठहरते। न कोई आई आई टी और न ही
कोई इंडियन इन्स्टिटयूट आफ साइंस। अगर विश्व के अग्रणी दो सौ शिक्षा संस्थानों की
सूची में कोई आई आई टी या आई आई एस टपक जाए तो सूर्खियां बनती हैं।
यह आत्ममुग्धता
सत्ता के इदारों में सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों के चिन्तन एव विचारों में बखूबी
प्रतिबिम्बित होती है।।
एक अस्पताल का
उदघाटन करते वक्त पिछले साल जनाब मोदी ने (25 अक्तूबर 2014)यह दावा किया कि
प्राचीन भारत में हजारों साल पहले प्लास्टिक सर्जरी एवं जेनेटिक विज्ञान का
अस्तित्व था। उनके लिए यही वह
तरीका था जिसके चलते गणेश को हाथी का सर लगाया गया और किस तरह एक योद्धा भगवान मां
की कोख के बाहर पैदा हुआ:
“हम लोग अपने मुल्क
पर गर्व कर सकते हैं कि किसी दौर में हमारे मुल्क ने चिकित्सा विज्ञान में कितना
हासिल किया था। हम सभी महाभारत के कर्ण के बारे में पढ़ते हैं। अगर हम गहराई में
जाकर सोचें तो हमें पता चलता है कि महाभारत के मुताबिक कर्ण अपनी मां के कोख के
बाहर जनमा था। इसका मतलब था कि जेनेटिक विज्ञान उस वक्त़ अस्तित्व में था। यही वजह
थी कि कर्ण अपने मां के कोख के बाहर जनमा ... हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं।
निश्चित ही उस वक्त़ कोई प्लास्टिक सर्जन रहा होगा जिसने मानवीय शरीर पर हाथी का
सर लगा दिया और इस तरह प्लास्टिक सर्जरी की शुरूआत की।’’
कहां तो चाहिये यह
था कि इस भाषण की व्यापक भर्त्सना होती क्योंकि यह समूचा प्रलाप संविधान की धारा 51 /ए/ का उल्लंघन कर रहा था जो ‘वैज्ञानिक चिन्तन
पर जोर देती है’ और इस बात को रेखांकित करती है कि ‘हर नागरिक का
बुनियादी कर्तव्य है कि उसे बढ़ावा दे’, मगर ऐसा कुछ नहीं
हुआ। यहां तक कि मीडिया में भी इसे लेकर चर्चा नहीं चली और इस बात को देखते हुए भी
कि किस तरह हिन्दु राष्टवादी विचारों को केन्द्र में लाया जा रहा है, उसे लेकर कोई हंगामा नहीं हुआ।
ज्ञानपीठ सम्मान
के स्वर्णजयंती समारोह में बोलते हुए जनाब मोदी ने अपने इसी किस्म के ज्ञान मोती
श्रोताओं के सामने परोसे
‘वेदों ने न केवल
पर्यावरण की समस्याओं पर बात की मगर उसके समाधान भी सुझाये। यह एक ऐसे युग में हुआ
जबकि किसी ने पर्यावरणीय दोहन के बारे में सोचा तक नहीं था।(The Times of India; April 26, 2015).
विज्ञान एवं
मिथकों का आपसी काकटेल बनाने का ही नतीजा यह है कि पिछले साल भारत विज्ञान
कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में आमंत्रित व्याख्यान के अन्तर्गत कैबिनेट मंत्री की
अध्यक्षता में किन्हीं बोडस नामक व्यक्ति ने व्याख्यान दिया कि किस तरह हजारों साल
पहले भारत में विमान उड़ते थे या इस साल मैसूर में आयोजित कांग्रेस में कानपुर से
पहुंचे किसी प्रोफेसर ने शंख फूंक कर यह दावा किया की कि किस तरह शंख बजाना
गुणकारी हो सकता है, यहां तक कि उससे सफेद हो चुके बाल भी काले हो
सकते हैं। गनीमत इसी बात की रही कि इसी ‘विज्ञान कांग्रेस’ के पर्यावरण पर केन्द्रित सत्रा में ‘भगवान शिव को किस
तरह पहला पर्यावरणवादी’ कहा जा सकता है, इस पर केन्द्रित
पर्चा पढ़ा नहीं गया ; हालांकि आयोजन समिति ने उसे स्वीकार कर लिया
था।
यह अकारण नहीं कि
जनाब रामचंद्र गुहा ने पिछले दिनों अपने साक्षात्कार में बताया कि फिलवक्त सत्ता
की बागडोर सम्भाली हुकूमत स्वाधीन भारत के अब तक के इतिहास की सबसे अधिक ‘बुद्धिजीवी विरोधी’ हुकूमत है। प्रोफेसर संजय सुब्रमहमण्यम - जो न वाम और न दक्षिण खेमे से जुड़े
माने जाते हैं - उनका कहना था कि 'This
government suffers from intellectual deficit' अर्थात ‘यह सरकार अकल से पैदल है।’ अपने साक्षात्कार के अन्त में ; (Sagarika Ghose, TNN | Dec 20, 2015, 12.00 AM IST) प्रोफेसर संजय सुब्रहमण्यम से पूछा गया अंतिम
प्रश्न एवं उसका उत्तर गौरतलब है:
Does
the Indian public discourse today worry you?
You know Indians are known to be the most abusive users
of the internet. Indian trolling is known widely to be highly vitriolic. Yet
today if there is an authoritative work, say on Shivaji, Golwalkar or Annadurai
written by a real historian, that work might well be censored. So there's a
very interesting paradox. Those who are real people, with real emails and real
names are totally censored, those who are anonymous are empowered to say
whatever they want. Anonymous people are free to scream out their rage but real
people with a name are told to say nothing. This to me is another post-modern
paradox of authorship. Real people have the right to say nothing, anonymous
people have a right to say everything. So we are becoming a society of cowards.
It's a terrifying idea.
इसका लुब्बेलुआब
यही है कि आज असली लोग आज कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं हैं और आलम यह है कि
छदम नामों से जितना भी जहर उगला जा सके इसपर कोई रोक नहीं है। यह स्थिति समाज के
बौद्धिक दिवालियापन की स्थिति का द्योतक है, जिसे निश्चित ही
देश की हाक़िम तंजीमों के उभार के साथ जोड़ा जा सकता है।
कोई भी देख सकता
है कि स्वतंत्र चिन्तन, प्रगट बहस मुबाहिसा, तर्कशीलता पर आक्रमण एक तरह से प्रबोधन की समूची विरासत को खतरे में डालता है।
मालूम हो कि प्रबोधन ने धर्म की आलोचना का रास्ता सुगम किया था, अब जैसा कि आलम है यह कहा जा रहा है कि तर्कशीलता को धर्म/आस्था का अनुगामी
होना चाहिए। यह चिन्तन प्रबोधन की अन्तर्वस्तु तक पहुंचता है।
प्रबोधन की
परियोजना से एकीक्रत पुरोहितशाही विरोधी रूख (anti
clerical stand) को हम महान
दार्शनिक वाल्टेयर के चर्चित उदाहरण से समझ सकते हैं, जिन्होंने कोविले’ नामक व्यक्ति के - जिसे ‘चरित्राहीन’ घोषित किया गया था - चर्च द्वारा अनुशासित किए जाने को लेकर आवाज़ बुलन्द की
थी। / जिसका उल्लेख सुश्री मीरा नन्दा अपने लम्बे आलेख ‘ब्रेकिंग द स्पेल
आफ धर्मा’ में करती हैं/ वोल्टेयर द्वारा आवाज़ बुलन्द किए
जाने के बाद उनकी हिमायत में उनके समय के इतने विचारक, दार्शनिक खड़े हो गए कि चर्च को ही झुकना पड़ा।
वोल्टेयर को गुजरे
दो सौ साल से अधिक वक्त़ हो गया और आज 125 करोड़ की आबादी के
इस मुल्क को - जिसके कर्णधारों का दावा है कि 21 वीं सदी इसी मुल्क
की होगी उसे - वोल्टेयर के पहले के मध्ययुगीन अंधकार के दौर में रफता रफता ढकेला
जा रहा है।
मेरी परेशानी
सियासत एवं मजहब के घोल के रूप में नज़र आ रहे इस हुकूमत के रूख पर भी है।
हिन्दुत्व , इस्लामिजम या
जियनिजम आदि: धर्म और राजनीति का खतरनाक घोल
इसमें कोई दोराय
नहीं कि ऐसे तमाम विचार जो मनुष्य को मनुष्य समझने से इन्कार करते हैं, 21 वी सदी में उसे
धर्म एवं राजनीति के खतरनाक संश्रय से संचालित करना चाहते हैं, उसे ‘हम’ या ‘वे’ की सियासत में उलझा देते हैं, एक तरह से समूची
मानवता के अस्तित्व/वजूद को ही मानने से इन्कार करते हैं और इसलिए ऐसे विचार कुल
मिला कर मानवता के दूरगामी भविष्य के लिए नुकसानदेह हैं। आदिम समय में या मध्ययुग
ने - किसी अन्य विकल्प के अभाव में भले ही इस संश्रय ने - समाज को संचालित किया
होगा, ईशकेन्द्रित (theocentric )समाज से मानवकेन्द्रित (anthropocentric)समाज में संक्रमण के दौरान रोल अदा किया होगा, मगर आज की तारीख में उनका स्थान इतिहास की किताबों में या म्युजियम में होना
चाहिए। 21 वीं सदी में समाज के संचालन का बुनियादी नियम
यह सुनिश्चित होना चाहिए कि वहां राज्य एवं धर्म में अलगाव सुनिश्चित हो।
याद कर सकते हैं
कि डा. अम्बेडकर को, जिन्होंने संविधान निर्माण के मसविदा समिति के
अध्यक्ष के तौर पर भारत को एक धर्मनिरपेक्षता एवं जनतंत्र के बुनियादी मूल्यों पर
आधारित संविधान दिलाने में अहम भूमिका अदा की, वह इस मामले में
बिल्कुल स्पष्ट थे। संविधान समिति का सदस्य बनने के चार साल पहले लिखी अपनी किताब ‘व्हाट गांधी एण्ड कांग्रेस हॅव डन टु अनटचेबल्स” में वह लिखते हैं
“अस्पृश्यों ने ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी पाने का विरोध नहीं
किया। सिर्फ ब्रिटिशों से आज़ादी पर हम सन्तुष्ट नहीं हो सकते। उनका जोर महज
स्वतंत्र भारत तक सीमित नहीं है। आज़ाद भारत लोकतंत्र के लिए बाधारहित बने इस मकसद
को मददेनज़र रखते हुए वह कहते हैं कि भारत की विशिष्ट सामाजिक संरचना के चलते
अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के खिलाफ खड़ा पाया जाता है। अगर
संविधान के अन्तर्गत इस बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के जहरीले दांत तोड़ने का इन्तज़ाम
नहीं किया गया तो भारत में लोकतंत्र कभी भी बाधारहित नहीं हो सकता। इसलिए
अस्पृश्यों ऐसा एक संविधान चाहिए जो भारत की विशिष्ट
परिस्थिति पर गौर करें और उसके हिसाब से सुरक्षात्मक उपाय करे। तभी हिन्दू
बहुसंख्यक समुदाय को अस्पृश्यों का दमन कर सकनेवाली राजनीतिक ताकत हासिल नहीं
होगी। अस्पृश्यों को भी अल्प रूप में ही सही दमन का प्रतिकार करने
की राजनीतिक ताकत मिलेगी। बहुसंख्यकों के खिलाफ अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में वह
सक्षम होंगे। संक्षेप में कहें तो, हिन्दु बहुसंख्यकों का दमनतंत्र अस्तित्व में आने से पहले ही अस्पृश्यों के लिए संविधान में उपाय करना जरूरी है
(डा बाबासाहेब
अम्बेडकर, रायटिंग्ज एण्ड
स्पीचेज, वाल्यूम 9, पेज 169, उदध्रत ‘परिवर्तनाचा
वाटसरू, जनवरी 1-15, 2016)
स्पष्ट है कि
संविधान के प्राक्कथन में भले ही धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया हो, बकौल डा अम्बेडकर ‘हिन्दू कम्युनल मेजॉरिटी’ के हाथों में सत्ता आने पर अल्पसंख्यकों पर किस तरह का कहर बरपा हो सकता है, इसके बारे में वह सचेत थे, इसलिए उन्होंने संविधान की अन्तर्वस्तु ही ऐसी
बनायी कि अल्पसंख्यकों पर किसी किस्म का सामुदायिक अत्याचार एवं दमन न हो सके।
रेखांकित करने की
बात है कि अपने आप को इन दिनों अम्बेडकर का सच्चा अनुयायी बताने में फिक्रमंद
सत्ताधारी जमातें - उनके इन सरोकारों को हाशिये पर रखते हुए - पहले कभी छदम
धर्मनिरपेक्ष कह कर अपने विरोधियों का माखौल उड़ाते रहे हैं तो इन दिनों कई कोणों
से इस अवधारणा पर हमले करते दिख रहे हैं। अगर गृहमंत्राी राजनाथ सिंह सदन के पटल
पर एक तरफ यह कहते दिखते हैं कि ‘दरअसल संविधान में
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा बाद में प्रविष्ट की गयी’ तो जनाब मोदी ‘सेक्युलेरिजम इज
इंडिया फर्स्ट’ जैसी व्याख्या करते दिखते हैं, यूं तो संघी जन एवं संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा इस बात को भी याद दिलाना नहीं
भूलते कि ‘दरअसल हिन्दू धर्म ही बुनियादी तौर पर सहिष्णु
है, इसलिए यह मुल्क सेक्युलर है’।
संसद के पटल पर
धर्मनिरपेक्षता को ‘इंडिया फर्स्ट’ के नारे के साथ
परिभाषित करनेवाले जनाब मोदी एवं उनके सहयोगी संविधान के बुनियादी मूल्य के तौर पर
स्वीकृत इस विचार का मज़ाक उड़ाने से भी नहीं चूकते, जबकि उसी संविधान की कसम खाकर वह मंत्राी पद सम्भाले हैं। याद कर सकते हैं कि
जब प्रधानमंत्राी के तौर पर मोदी जापान के सम्राट से मुलाकात करने पिछले साल गए थे, तब उन्होंने उन्हें भगवदगीता की प्रति भेंट की और इस मौके पर बल्कि अपने घरेलू
राजनीतिक विरोधियों का मज़ाक उड़ाया। उन्होंने कहा कि ‘मुझे मालूम नहीं
कि इसके बाद भारत में क्या होगा। हो सकता है कि इस मसले पर टीवी पर बहस चले। हमारे
सेक्युलर मित्रा वहां तूफान खड़ा कर देंगे कि मोदी अपने को क्या समझते हैं। वह अपने
साथ गीता ले गए हैं, इसका मतलब वह उसे भी साम्प्रदायिक बनाएंगे’ (टाईम्स आफ इंडिया, 3 सितम्बर 2014)उधर आयर्लण्ड की यात्रा में जब इंडो आयरिश छात्रों ने संस्कृत श्लोकों को पढ़ा तो
व्यंग की भाषा में उन्होंने कहा ‘यह खुशी की बात है
कि आप इसे आयर्लण्ड में कर सकते हैं, अगर इसे भारत में
किया गया होता तो उससे धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े होते।(हिन्दुस्तान टाईम्स, सितम्बर 24, 2015)
ऐसे बयानों से दो
तरह की आपत्ति है: क्या जिस संविधान की हिफाजत करने की व्यक्ति ने कसम खायी हो, वह उसे इस तरह का मज़ाक उड़ाना क्या शोभा देता है ? दूसरी अहम बात जब
आप विदेश जाते हैं तो देश के नुमाइन्दे के तौर पर जाते हैं, वहां अपनी घरेलू राजनीति के विरोधियों को नीचा दिखाने का काम नहीं करते। आप ने
कभी सुना है कि ओबामा ने भारत की सरजमीं पर आकर उनके पूर्ववर्ती बुश का मज़ाक उडाया
हो ? निश्चित ही नहीं!
मगर जनाब मोदी ऐसा ‘पराक्रम’ कई बार कर चुके
हैं।
जनतंत्र का विलोप
निरक्षर अब पंचायत
के बाहर
अभी ज्यादा समय
नहीं बीता जब भारत के चुनाव के इतिहास में पहली दफा किसी कार्पोरेट समूह द्वारा
खड़े किए गए पैनल को पंचायत चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। एक कार्पोरेट समूह
द्वारा बनायी गयी टवेन्टी टवेन्टी नामक टीम ने केरल की किज़ाक्कमबलम ग्राम पंचायत
में उन्नीस में से 17 सीटें हासिल कर पंचायती राज के जरिए सत्ता के
विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देने की नीति के सामने खड़ी नयी चुनौतियों की तरफ इशारा
किया था।
केरल के पंचायत
चुनावों में उपरोक्त कार्पोरेट समूह द्वारा अपने समर्थक पैनल खड़ा करके जीताने को
लेकर चर्चा अभी चलही रही थी - किस तरह ऐसा कदम पंचायती राज के जरिए सत्ता के
विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा दे रहा है, उस सिलसिले को खलल
डालेगा - कि उसी पंचायती राज के संचालन से आबादी के एक विशाल हिस्से को लड़ने से
वंचित करने के सूबा हरियाणा सरकार के कदम पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगायी गयी मुहर
का मामला सूर्खियों में आया है।
सर्वोच्च न्यायालय
की पीठ ने हरियाणा पंचायती राज /संशोधन/ अधिनियम, 2015 पर अपनी मुहर लगा दी है। और अब इसके तहत ‘निरक्षर’ - ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने सामान्य श्रेणी में दसवी पास नहीं हो और दलित तबके
से जुड़ा हो तो आठवीं पास न हो या दलित स्त्री हो तो पांचवी पास न हो - तो उसे
पंचायत स्तर पर चुनाव लड़ने से वंचित करने की हरियाणा सरकारी नीति अब लागू होगी।
इतनाही नहीं चुनाव में लड़ने के लिए सभी प्रत्याशियों के घर एक अदद टॉयलेट होना
अनिवार्य बना दिया गया है।
विडम्बना ही है कि
रिप्रेजेन्टशन आफ पीपुल्स एक्ट - जो यह तय करता है कि कौन लड़ सकता है या नहीं लड़
सकता है - वह महज इसी आधार पर किसी को चुनाव लड़ने से वंचित करता है अगर वह
दोषसिद्ध अपराधी हो या किन्हीं कारणों से उसने चुनाव की संहिता का उल्लंघन किया
हो। अब पंचायत स्तर के चुनावों में इससे भी सख्त नियम लागू किए जाएंगे। राजस्थान
के बाद हरियाणा यह दूसरा राज्य बना है, जिसने ऐसे सख्त
नियम बनाए हैं। अब हरियाणा में अनुसूचित तबके की 70 फीसदी महिलाएं और 41 फीसदी पुरूष चुनाव लड़ने से अपात्रा घोषित किए
जाएंगे।
चाहे केरल में
पंचायत चुनाव में कार्पोरेट दखल को रेखांकित करता प्रसंग हो या हरियाणा को लेकर
अदालती फैसला हो, हम देख सकते हैं कि इन दोनों ही घटनाओं ने
पंचायती राज पर धनाढयों एवं वर्चस्वशाली जातियों के दबदबे की संभावना के द्वार अब
खुल गए हैं। गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी और अन्य विकसित पश्चिमी देशों में भी आप
को किसी भी स्तर का चुनाव लड़ने के लिए किसी शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता नहीं
है। अन्य सफल कहे जानेवाले जनतंत्रा जो मानव विकास सूचकांकों की श्रेणी में भी
उंचे पायदान पर हैं, वहां पर भी चुनाव लड़ने की न्यूनतम योग्यता
नागरिकता है, उम्र है, वोट देने की
पात्राता है।
मगद दुनिया के
सबसे बड़े लोकतंत्रा ने इस दिशा में एक ‘नयी नज़ीर’ कायम की है।
जनतंत्र का
बहुसंख्यकवाद में रूपांतरण
फिलवक्त हमारे
सामने ऐसी संसद है जहां सत्ताधारी पार्टी का एक भी सदस्य मुल्क के सबसे बड़े
अल्पसंख्यक समुदाय से नहीं है। यह ऐसी संसद है जहां अल्पसंख्यक समुदाय का सबसे कम
प्रतिनिधित्व है।
बहुसंख्यकवाद यहां
अपने पूरे स्पेक्टम में पूरे शबाब पर दिखता है जिसमें खुल्लमखुल्ला समुदायद्वेष से
लेकर सौम्य साम्प्रदायिकता उजागर होती है।
चन्द मिसालें
गौरतलब हैं:
बिहार के चुनाव
में जब बीजेपी को यह स्पष्ट हो गया कि पांवों तले जमीन खिसक रही है तो जनाब मोदी
ने यह प्रचार करने में संकोच नहीं किया कि अगर विरोधी सत्ता में आते हैं तो वह
आरक्षण के कोटे से अल्पसंख्यकों को भी हिस्सा दे सकते है उसी दौरान भाजपा अध्यक्ष
ने यह कहा कि अगर बीजेपी को शिकस्त मिलती है तो पाकिस्तान में पटाके छूटेंगे।
हरियाणा के
मुख्यमंत्री यह कहते हैं कि भारत के अल्पसंख्यकों को अपनी खाने पीने की आदतों में
बदलाव लाना होगा, अगर उन्हें भारत में रहना है। विदेश मंत्री यह
दावा करती है कि गीता को राष्टीय ग्रंथ का दर्जा प्रदान किया जाए।
त्रिपुरा के
राज्यपाल पद पर तैनात तथागत यह टिवट करते हैं कि याकूब मेमन के जनाज़े में शामिल
लोगों पर बारीक निगाह रखी जाए क्योंकि उनमें से कई सम्भावित आतंकी हैं।
वैसे
बहुसंख्यकवाद किस तरह इस बहुधर्मीय, बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक समाज में आकार ले रहा है, इसे हम पलीटाना को ‘पवित्र नगर’ घोषित किए जाने के
फैसले से भी देख सकते हैं। अहमदाबाद के पास स्थित इस नगर को - जैनों के पवित्र
मंदिर होने के नाम पर - अंडा-मांसविहीन क्षेत्रा घोषित किया गया जबकि
जैनियों की तादाद बहुत कम है और पलीटाना की आबादी का बहुमत मांस या अंडाहारी रहा
है। इसके चलते न केवल आबादी के बड़े हिस्से के खाने पीने के अधिकार पर अंकुश लगा
बल्कि हजारों ऐसे लोग भी बेकार हो गए जो अंडा से लेकर मीट मछली के व्यापार में कई
स्तरों पर जुड़े थे।
सभी जानते हैं कि
पलीटाना कोई अकेला नगर भारत में नहीं है, जिसे समुदायविशेष
की भावनाओं का खयाल करने के नाम पर ‘पवित्र’ घोषित किया गया है, मध्यप्रदेश का अमरकंटक, उज्जैन हो आंध्र प्रदेश का तिरूपति मंदिर का इलाका हो या बाकी राज्यों में
उपस्थित ऐसे कई नगर खास खास समुदायों की ‘भावनाएं आहत’ न होने के नाम पर पवित्र नगर घोषित किए गए हैं। ‘पवित्र नगरों’ के ऐलान की इस बढ़ती प्रतियोगिता के मददेनज़र यह तथ्य भी नोट करना समीचीन होगा
कि खालिस्तानी आन्दोलन के उरूज के दिनों में - जब भिण्डरावाले के लोग संगठित हो
रहे थे - शायद पहली बार इस किस्म की मांग रखी गयी थी। अम्रतसर जो सिखों के लिए
पवित्रा माना जाता है, वहां से सिख धर्म के लिए वर्जित चीजें हटा देने
की मांग रखी गयी थी।
कल्पना ही की जा
सकती है कि एक बहुधर्मीय मुल्क में जो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देता है, ‘पवित्र नगरों का निर्माण किस किस्म की आपसी दरारों को पैदा कर सकता है।
इतिहासविमुखता से
इतिहास गढ़ने तक
‘तुम अपने अतीत पर गोले बरसाओगे तो वह तुम पर बम बरसाएगा’
दक्षिण एशिया के
इस भूभाग के - जिसे इन दिनों हम भारत नाम से सम्बोधित करते हैं - दो महान शासक
-सम्राट अशोक एवं अकबर - जिनकी वजह से आज भी भारत जाना जाता है, गैरहिन्दू थे , इस सच्चाई से क्या मुंह मोड़ा जा सकता है ?
क्या इस सच्चाई को
छिपाया जा सकता है कि 200 साल की गुलामी का भारत का इतिहास रहा है ?
क्या यही बात कहीं
दबा कर रखी जा सकती है कि ‘हिन्दुओं का ‘हारों की दास्तान’ का लम्बा इतिहास रहा है।
इतिहास को धर्म के
चश्मे से देखनेवाले लोगों के सामने ऐसे कई तथ्य उपस्थित हैं जो उन्हें बेहद ‘असहज’ जान पड़ सकते हैं ।
अब ऐसी स्थिति को
लेकर एक प्रवृत्ति औपनिवेशिक काल में विद्यमान रही है जब उस हारे हुए दौर में
प्रबुद्धों के एक हिस्से ने अपने आप को ‘विश्वगुरू’ कहलाना शुरू किया था, जो एक तरह से उपनिवेशवादी चिन्तकों के एक
हिस्से द्वारा ही प्रसारित की जा रही थी। विडम्बना यही है कि 2014 के सत्ता परिवर्तन
के बाद यही हास्यास्पद समझदारी को नयी वैधता दिलाने की कोशिश की जा रही है।
एक तरीका यह भी
दिखता है कि बर्तानवी उपनिवेशवाद तथा पहले सहस्त्राब्द के अन्त में शुरू हुए बाहरी
आक्रमणों को - मुहम्मद गज़नी के दौर के बाद - एक साथ मिला लिया जाए अर्थात कानफलेट
किया जाए, जबकि यह स्पष्ट है कि ब्रिटिशों के पहले जो लोग
आक्रमणकारी बन कर आए वह यहीं के होकर रह गए। जब डेढ साल पहले जनाब मोदी ने देश की
सत्ता की बागडोर सम्भाली तब संसद में अपनी पहली तकरीर में उन्होंने उसे 1,200 साल की गुलामी के
बाद शुरू नए अध्याय की बात कह कर भारत के इतिहास के पुनर्लेखन की गोलवलकरी
परियोजना को एक तरह से मंजूरी दे दी। (देखें, इंडियाज सीज़र, फ्रंटलाइन, 19 दिसम्बर 2015)
वैसे दक्षिण
एशियाई महाद्वीप के इस हिस्से के इतिहास को लेकर दो पड़ोसी मुल्कों के चिन्तन में
गजब की समानता दिखती है। पाकिस्तान का ‘आधिकारिक इतिहास’ भी गज़नी से शुरू होता है और अब नए निज़ाम के आने के बाद वही स्थिति यहां होने
को है। उपनिवेशवादी साहित्यकार जेम्स मिल ने भारत के इतिहास का कालखण्ड विभाजन इस
तरह किया था: हिन्दू कालखण्ड, मुस्लिम कालखण्ड और ब्रिटिश कालखण्ड। दिलचस्प
है कि संघीजनों की कवायद भी इसी कालखण्ड विभाजन पर संचालित होती है।
अपने इतिहास से इन्कार की इस कवायद पर वरिष्ठ पत्रकार सईद
नकवी ने अपने भाषण में /जोशी अधिकारी इन्स्टिटयूट, 2 दिसम्बर 2015/ एक
दिलचस्प किस्सा पिछले दिनों सुनाया था। उनके मुताबिक संयुक्त राष्टसंघ की तरफ से
हर मुल्क में ‘हेरिटेज सिटीज’ अर्थात ‘विरासत वाले शहर’ घोषित किए जाते है। चीन में ऐसे 12
शहर है, मगर अभी तक भारत का एक भी शहर इसमें
शुमार नहीं किया जा सका है। ऐसा नहीं कि इसके लिए टीमों गठन नहीं हुआ, मगर इन अध्ययन दलों के सामने यह मुश्किल पेश आयी कि ऐसे जो भी शहर चिन्हित
किए जा सके वह भारत के मुस्लिम विरासत की गवाही दे रहे थे। अब भारत जो औपचारिक तौर
पर सेक्युलर है, मगर जहां हिन्दू बहुसंख्या में है - वह अगर
इस तरह की बात कहने लगे कि उसकी विरासत मुस्लिम है, तो यह
राजनीतिक तौर पर बेहद असुविधाजनक होता, इसलिए सारा प्रोग्राम
ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
निश्चित ही इस निज़ाम को लेकर मेरी बेचैनी को बयां करने के
लिए कई बातें बतायी जा सकती हैं, जैसे किस तरह इन दिनों वह भले ही आए दिन
जुबां पर अम्बेडकर को लाते रहते हों, मगर उनके दिलों की
गहराइयों में हेडगेवार-गोलवलकर गहराई तक विराजमान हैं। यह वही गोलवलकर हैं जो
आज़ादी के वक्त संघ के सुप्रीमो थे और उन्होंने अन्त तक मनुस्मृति की हिमायत की, एक व्यक्ति एक मत/वोट के आधार पर जब
स्वाधीन भारत के संविधान का निर्माण किया जा रहा था तब उन्होंने न केवल उसकी
मुखालिफत की और उसके स्थान पर मनुस्म्रति को लागू करने का आग्रह किया। इतनाही नहीं
हिटलर की अगुआई में जब नात्सी ताकते यहुदियों के नस्लीय सफाये की मुहिम में
मुब्तिला थी तो न केवल उन्होंने उसकी प्रशंसा की बल्कि अपने यहां की ‘अल्पसंख्यक समस्या’ के समाधान के तौर पर उसे देखा।
और जब ‘हिन्दु कोड बिल’ के जरिए हिन्दु
स्त्रियों को सीमित अधिकार प्रदान किए जा रहे थे, तब इसे ‘परम्परा में दखलंदाजी’ कह कर उसका विरोध किया था।
यूं कहें तो हिन्दुराष्ट के तसव्वुर/कल्पना एवं अमल को लेकर
कई सारी बातें जोड़ी जा सकती हैं, जो हमारे सामने प्रश्नों का एक जंजाल
उपस्थित करती हैं, गोया हमने बर्रे के छत्ते पर हाथ डाला हो,
मगर फिलवक्त हम उन्हें मुल्तवी करेंगे।
और उन सवालों से रूबरू होंगे जो हिन्दुत्व के उभार को लेकर
हमारे सामने उपस्थित होते हैं।?
6.
पहले किस्म का सवाल हाशिये से केन्द्र की तरफ हिन्दुत्व के
सफर से ताल्लुक रखता है।
एक समझदारी यह कहती है कि यह हिन्दुत्व ब्रिगेड के लम्बे
समय से चले आ रहे सांगठनिक कामों एवं काफी स्रजनात्मक राजनीतिक रणनीतियों का नतीजा
है।
दूसरी समझदारी इसे मुख्यतः सांस्क्रतिक और ऐतिहासिक
सन्दर्भों में व्याख्यायित करती है और बताती है कि वे इसी वजह से कामयाब हुए
क्योंकि उन्होंने ‘धार्मिक राष्टवाद’ की लम्बे समय से विद्यमान बातों
को अपनी परियोजना में इस्तेमाल किया।
तीसरी समझदारी इन दोनों धाराओं से -राजनीतिक प्रणाली या
धार्मिक व्यवस्था - अलग हट कर इसे एक ‘प्रतिगामी इन्कलाब’ (कान्जर्वेटिव
रेवोल्यूशन’) के तौर पर देखती है जो एक तरह से
उत्तरऔपनिवेशिक भारत में राजनीतिक दायरे एवं सार्वजनिक जीवन में व्यापक जनतांत्रिक
रूपांतरण के खिलाफ उठी प्रतिक्रिया के तौर पर उभरी है। इसके मुताबिक जनतांत्रिक
बदलावों ने जिस तरह निम्न जातियों एवं अल्पसंख्यकों में राजनीतिक लामबन्दी को
तीव्र किया, उसी के साथ वैश्विक सांस्क्रतिक एवं आर्थिक
प्रवाहों से टकराते हुए, ऐसी स्थितियां निर्मित हुईं जिसने न
केवल आर्डर(व्यवस्था) एवं उच्चनीचसोपानक्रम(हाइरार्की) की अवधारणा को प्रश्नांकित
किया, उसी ने इस स्थिति को निर्मित किया।
बकौल थॉमस ब्लॉम
हानसेन
..it was the desire of
recognition within an increasingly global horizon, and the simultaneous
anxities of being encroached upon by the Muslims, the plebians and the poor
over the last decade have prompted millions of Hindus to respond to the call
for Hindutva at the polls and in the streets, and to embrace Hindu nationalist
promises of order, discipline and collective strength.(Page 5, The Saffron
Wave)
दूसरे किस्म का सवाल जनतंत्र की अपनी ट्रेजेक्टरी (trajectory) को लेकर उपस्थित
होता है
आखिर किस तरह
जनतंत्र जो एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर गठित होता है वहीं रफता रफता
बहुसंख्यकवाद में परिणत होता है। जहां विशिष्ट बहुसंख्यक समुदाय अपने आप को ‘जनतांत्रिक’ ढंग से सत्ता के इदारों में स्थापित करता है और अन्य पर अंकुश कायम रखता है।
तीसरे किस्म का
प्रश्न जनतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता के आपसी अन्तर्सम्बन्ध को लेकर उठता है।
अगर जनतंत्र का मतलब सदियों से सामन्ती, प्राकपूंजीवादी बन्धनों में
जकड़े लोगों का - जो किसी राजा, सामन्त या ईश्वरीय सत्ता में
न केवल यकीन करते हैं बल्कि उसके अधीन अपने आप को पाते हैं - अपनी नियति चुनने का
हक़ खुद पा लेना मान लें, जहां वह अपने शासक को भी चुनने के
लिए स्वतंत्रा दिखते हैं, तो फिर ऐसे लोग आसानी से धर्म एवं
राज्यसत्ता के अलगाव - जो धर्मनिरपेक्षता का असली अर्थ है - या सभी धर्मों के
प्रति सम्मान भाव - जिस अन्दाज़ में यहां उसे अमली जामा पहनाया जाता रहा है - उन
सिद्धांतों के प्रति आसानी से किस तरह अनुकूलित हो सकते हैं।
इन सवालों से एक
अलग किस्म का सवाल एक नए मूल्यांकन का भी उठता है जिसका ताल्लुक नेहरू के
मूल्यांकन से है। यह सवाल इसलिए अधिक मौजूं हो उठा है कि नेहरू ने भारत का जैसा
तसव्वुर/कल्पना किया था, उसे सर के बल खड़ा किया जा रहा है। मोदी के बाद
नेहरू होने के मायने बदल गए हैं।
फिलवक्त़ इन सभी प्रश्नों को मुल्तवी कर हम उस बड़े सवाल की
तरफ बढ़ेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि हिन्दुत्व की इस सियासत की आर्थिक
अन्तर्वस्तु क्या है ? उसका आर्थिक सन्दर्भ क्या है ?
7.
राजनीति, जैसा कि इतालवी मार्क्सवादी एन्तोनिओ
ग्रामशी लिखते हैं, वह संमिश्र दर्शनों से निर्देशित होती
है।(Politics as the Italian Marxist Antonio Gramsci argued is always
underpinned by hybrid philosophies.) हाल के समयों में
उसका सबसे बेहतरीन उदाहरण, हुकूमत की बागडोर सम्भाले देश के
मौजूदा शासकों से, तय होता है जो एक तरफ हिन्दुत्व
वर्चस्ववाद के असमावेशी/बहुसंख्यकवादी विश्व नज़रिये की हिमायत करते हैं और साथ ही
साथ वह - विकास के नारे के तले नवउदारवादी एजेण्डा को
आगे बढ़ाने में लगे हैं।
‘ध्रुवीकरण करनेवाले व्यक्ति’ से ‘विकासपुरूष’ के तौर पर
जनाब नरेंद्र मोदी का रूपांतरण, भारतीय राजनीति के इस नए
मुक़ाम को प्रतिबिम्बित करता है। जैसा कि हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं वह एक ऐसे
संसद की अगुआई कर रहे हैं, जिसमें आज़ादी के बाद अल्पसंख्यकों
की तादाद सबसे कम है और सत्तााधारी पार्टी के पास ऐसा एक भी सांसद नहीं है
जो देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखता हो।
हम इसे ऐसी हुकूमत
कह सकते हैं जो दो कदमों पर चल रही है
‘विकास’ की भाषा में
समेटा गया नवउदारवादी संक्रमण और उसके साथ (जब भी जरूरत पड़े) साम्प्रदायिक तनावों
का उदभव ताकि मेहनतकश अवाम के विभिन्न तबकों में दरारें पैदा की जा सकें ताकि
वंचना एवं दरिद्रीकरण के व्यापक मुददे न उठ सकें यह सिलसिला आम हो चला है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब इस हुकूमत के ग्रह मंत्रालय ने
बीते वर्ष के साथ तुलना कर बताया कि किस तरह 2015 में साम्प्रदायिक तनावों/घटनाओं में 25
फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है।
इन बढ़ते तनावों को जानने के लिए
राजधानी दिल्ली पर निगाह डाली जा सकती है, जहां विगत डेढ साल
के अन्दर नए नए इलाके तनावों की चपेट में आए, जबकि उसके पहले
डेढ दशक तक आम तौर पर साम्प्रदायिक सदभाव का वातावरण कायम रहा था
जैसा कि हम देख
रहे हैं इस रणनीति का उन्हें आज तक काफी फायदा हुआ है।
इस हक़ीकत के एहसास के बावजूद कि अपने झूठे वायदों से जनता
को बेवकूफ बनाया गया है - याद कर सकते हैं जनाब मोदी का बहुचर्चित चुनावी वादा कि
ब्लैक मनी को लौटा ले आएंगे और हरेक के खाते में 15 लाख आएगा, जिसे बाद
में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने जुमला घोषित कर दिया - कई सारे अन्य महत्वपूर्ण
मुददों पर उन्होंने खायी पलटी अर्थात लिये ‘यू टर्न’,
इस हक़ीकत के बावजूद कि हाल के समयों मे जीवनावश्यक वस्तुओं के दामों
में जबरदस्त तेजी देखी गयी है, हम जनता के गुस्से को सड़क पर
उतरता नहीं देखते, क्योंकि हम देख रहे हैं कि ‘हम’ और ‘वे’ की राजनीति सर उठा कर बोल रही है। लोग इस बात से अधिक परेशान दिखते हैं कि
पड़ोसी के खाने के प्लेट में क्या है और इस बात पर गौर करने को तैयार नहीं है कि
उनकी अपनी थाली खाली है।
एक साल पहले चर्चित डाक्युमेंटरी निर्माता आनंद पटवर्धन
ने, अपने व्याख्यान में - जिसका शीर्षक था ‘वी एण्ड
अवर नेशनहुड रिडिफाइन्ड;, जिसे उन्होंने एडिटर्स गिल्ड
द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिया था - मोदी के ‘विकास मॉडल’
पर रौशनी डाली थी और इस बात की झलक दिखायी थी कि भारतीय अवाम के लिए
उसमें क्या रखा है। उनके मुताबिक
- नदियों को आपस में जोड़ कर, खदान परियोजनाओं या स्टाक मार्केट के माध्यम से विनिवेश को तेज करके साझा
संसाधनों को कार्पोरेट को सौंपना अब काफी नहीं है। विचारधारा की जड़े गहरी जानी
चाहिए, इस पर सरकार का जोर है। गुजरात की आठवीं कक्षा
की समाज विज्ञान की पाठयपुस्तक /2013/ उदारीकरण, निजीकरण और
भूमंडलीकरण के विचारों को देश की तमाम समस्याओं के समाधान के तौर पर पेश करती है
- यह विचार कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा आम नागरिकों के लिए असफल साबित हुई
है, इसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की प्रणाली के
जरिए परोसा जा रहा है ताकि निजी हितों द्वारा सार्वजनिक सम्पत्ति पर कब्जे को सुगम
बनाया जा सके।
- मौजूदा हुकूमत नागरिकों के हर अधिकारों को अधिकाधिक तेजी के साथ संकुुचित करना
चाह रही है, जितनी तेजी इसके
पहले कि कांग्रेस की अगुआईवाली संप्रग सरकार के लिए सम्भव नहीं हुई थी। विशाल
परियोजनाओं के लिए तत्काल पर्यावरणीय क्लीयरेन्स, भूमिअधिग्रहण के रास्ते की बाधाओं को दूर करने की कवायद, विशाल परियोजनाओं के भविष्य को तय करने के ग्राम सभाओं के अधिकारों को समाप्त
करने की पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा की जा रही कोशिश, आरक्षित जंगल जमीन के विशाल भूखण्ड को अदानी जैसे कार्पोरेट समूहों को सौंपना
- और गुजरात जैसे ‘मॉडल राज्य’ में कुपोषण की बढ़ती दर - ऐसे तमाम उदाहरण उस परिघटना की याद दिलाते हैं जब
हिटलर की जर्मनी में कार्पोरेट सम्राटों की बन आयी थी।''
एक साल से अधिक
वक्त़ हो गया जब इस समझदारी को व्यापक जनसमूह के साथ सांझा किया गया था और पीछे
मुड़ कर हम देख सकते हैं कि ऐसी नीतियां लागू करने में सरकार में कितनी तेजी आयी है, जो इस तरह पहले से हाशिये पर पड़े लोगों एव गरीबों को अधिक हाशिये पर डाल
देंगे। अच्छे दिनों का वायदा अवश्य किया गया था मगर वह आम लोगों के लिए नहीं बल्कि
थैलीशाहों और कार्पोरेट सम्राटों के लिए पहुंच चुके हैं।
अपने एक आलेख ‘हाउ मि मोदीज वूडू इकोनोमिक्स विल टिवस्ट इंडियाज डेस्टिनी’ (http://www.dailyo.in/politics/modi-government-reforms-capitalism-reagan-free-market-voodoo-economics/story/1/6615.html)
प्रोफेसर अमिताभ भटटाचार्य लिखते हैः
- आज देश ‘सही’
दावे के साथ कह सकता है कि उसके यहां गरीब और अमीर के बीच सबसे अधिक
खाई है। जबकि भारतीयों का एक छोटा हिस्सा दुनिया के सबसे सम्पन्न व्यक्तियों में
अपने आप को शुमार कर सकता है, यह देश दुनिया के सबसे अधिक
कुपोषित लोगों का भी घर है।
- पूंजी के निर्माता अर्थव्यवस्था की
बढ़ोत्तरी की तुलना में अपने लिए अधिक तेजी के साथ दौलत बटोर रहे हैं। ऐसे किसी
प्रोग्रेसिव वेल्थ टैक्स अर्थात सम्पदा कर के अभाव में भारत की आर्थिक विषमता अधिक
तेजी से बढ़ने की सम्भावना है। 2015-2016 के बजट में मोदी
सरकार ने तो सम्पदा कर भी समाप्त किया
कुछ के लिए ‘नवउदारवाद एक तरह से शुरू से ही आबादी के
सबसे सम्पन्न तबके के लिए वर्गीय सत्ता सौंप देने की कोशिश थी।’(Dumeneil
and Levy ) अगर हम भारत में असमानता की स्थिति और उसके
गतिशील स्वरूप को देखें तो इस पहलू पर रौशनी पड़ सकती है।
‘द हिन्दू’ ने पिछले साल एक स्टोरी की थी ‘इंडियाज स्टेगरिंग
वेल्थ गैप(Updated: December 8, 2014
11:06 IST, http://www.thehindu.com/data/indias-staggering-wealth-gap-in-five-charts/article6672115.ece) और अपने आप से कुछ सवाल पूछे थे कि ‘भारत में असमानता
कैसी दिखती है ? भारत के सबसे गरीबतम दस फीसदी के पास देश की
सम्पदा का कितना हिस्सा है और सम्पन्न किस तरह सम्पन्न हो रहे हैं ?’ उन्होंने पाया
........ सबसे प्रथम, देश के गरीबतक 10 फीसदी और सबसे अमीरतम 10 फीसदी के पास एकत्रित सम्पदा के बीच का अन्तराल प्रचंड है ; भारत के रईसों को सबसे उपरी 10 फीसदी सबसे गरीब 10
फीसदी से 370 गुना सम्पदा पर नियंत्राण रखे
हुए है
.. भारत के सबसे अमीर दस फीसदी लोग वर्ष 2000
से अधिकाधिक अमीर होते जा रहे हैं, और मौजूदा
समय में उनके पास कुल सम्पत्ति का तीन चौथाई है
.. भारत के अतिरईस अर्थात सुपररिच 1 फीसदी लोग - उससे भी अधिक रफतार से अमीर हो रहे हैं। 2000 की शुरूआत में भारत के इन उपरी 1 फीसदी के पास भारत
की कुल सम्पदा का कम हिस्सा था जबकि दुनिया के सबसे रईस एक फीसदी के पास अधिक
हिस्सा था। वैश्विक मंदी के बाद यह नज़ारा बदल गया है - जबकि दुनिया के अतिसम्पन्न
अभी रिकवर कर रहे हैं - भारत के 1 फीसदी के पास मुल्क की कुल
सम्पदा का आधे से अधिक हिस्सा है।
यह अकारण नहीं था कि अग्रणी
अमेरिकी पत्रिका ‘फोर्बेस’ ने बिजनेस
फ्रेण्डली मोदी की तुलना रेगन - अमेरिका के पूर्वराष्टपति के साथ की थी जिनके तहत
अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने स्पष्टतः नवउदारवाद की दिशा में कदम बढ़ाये थे। अगस्त 2014
के उसके अंक में प्रकाशित एक लेख का शीर्षक था ‘रिपब्लिकन इंडिया थिंक्स नरेन्द्र मोदी इज न्यू रेगन’
8.
वर्गीय स्वरूप
यथावत महज स्वरूप में तब्दीली
अक्सर ऐसा कहा जाता है - या यूं कहें कि पूंजी के विचारकों
द्वारा प्रचारित किया जाता है - कि नवउदारवादी पूंजीवाद के तहत राज्य का पीछे हटना
अर्थात रिटीट आफ द स्टेट दिखता है। दरअसल उसे राज्य का पीछे हटना नहीं बल्कि राज्य
की बदली भूमिका के तौर पर रख सकते हैं।
आखिर राज्य की बदली भूमिका को कैसे देखा जा सकता है ?
नेहरू के जमाने में भी देश पूंजीवादी रास्ते पर चल रहा था
और मोदी के जमाने में भी उसी पर चल रहा है, मगर एक फरक यूं देख सकते हैं। संमिश्र
अर्थव्यवस्थावाले या कल्याणकारी पूंजीवाद वाले मॉडल में राज्य निश्चित ही निजी
सम्पत्ति की हिफाजत करता था, मगर वह कमसे कम वर्गों से उपर
उठ कर कहीं कदम उठाता दिखता है। नवउदारवाद के तहत राज्य खुल्लमखुल्ला पूंजीपतियों
का हितसम्वर्द्धन करता दिखता है।
गौतम अदानी जैसों का अधिकाधिक उंचाइयों पर पहंुचते जाना
दरअसल कार्पोरेट कर्णधारों एवं सरकार के बीच बढ़ती नज़दीकी का एक लक्षण मात्रा है।
शायद स्वतंत्रा भारत के सत्तर साला इतिहास में यह पहली दफा देखने में आया है कि एक
खास कार्पोरेट सम्राट प्रधानमंत्राी की हर विदेश यात्रा पर उनके साथ जाता है।
.. न्यूयार्क में जब मोदी ने संयुक्त राष्टसंघ को सम्बोधित किया तब अदानी
श्रोतासमूह में बैठे थे और उन्होंने जापान, आस्टेलिया और
फा्रंस की यात्रा उसी समय की जब प्रधानमंत्राी वहां पहुंचे थे। हिन्दुस्तान टाईम्स
के मुताबिक वह ब्राजिल में प्रधानमंत्राी के साथ थे, ‘वर्ल्ड
टेड स्कैनर’ के मुताबिक मोदी जब भूटान गए तब वह साथ थे। यह
अलग बात है कि कम्पनी के प्रवक्ता ने इन रिपोर्टो से इन्कार किया है।
अन्य किसी
खरबपति की तुलना में अदानी, उम्र 52 वर्ष,
ने विगत साल में मोदी के साथ सबसे अधिक यात्राएं की हैं और इस तरह
व्यापक दुनिया में वह इंडिया इन्कार्पोरेटेड के सबसे चर्चित शख्सियत के तौर पर
उभरे हैं। सितम्बर 2013 में जबसे मोदी ने प्रधानमंत्राी पद
के लिए अपनी दावेदारी पेश की है उनकी सम्पत्ति में चौगुना इजाफा हुआ है, जो देश के अभिजातों में सबसे अधिक इजाफा है।.."
यह तो सही है कि नवउदारवाद का भारतीय जमीं पर आगमन 80 के दशक के उत्तरार्द्ध या 90
के दशक के पूर्वार्द्ध में चिन्हित किया जा सकता है। यह भी सही है
कि संमिश्र अर्थव्यवस्थावाले मॉडल से बाज़ारशक्तियों को खुली छूट देने का सिलसिला
कांग्रेस के जमाने में ही सिरे चढ़ा था। इन दिनों रिजर्व बैंक के गवर्नर पद पर आसीन
रघुराम राजन ने यहां पूंजीपतियों को मालामाल करने की, दरबारी
अर्थात क्रोनी पूंजीवाद के विकसित होने की परिघटना पर टिप्पणी करते हुए ‘वाल स्टीट जर्नल’ (16 अप्रैल 2010/
में भारत में खरबपतियों के विकास की प्रक्रिया को रेखांकित किया था।
'Too many people have gotten too rich, based on their
proximity to government....corruption in India's political establishment used
to be about the sale of permits during the license permit raj. Reforms have
created new sources of rents for the establishment..scarce national resources
like forest, coal and minerals can be allocated. Land can be expropriated from
those who do not have connections or formal title, converted to industrial use
and allocated. Public land can always be disposed off to favourable parties (
Wall Street Journal, 16 April 2010)
बद से बदतर होता
कृषि संकट - जिसमें पिछले बीस साल में तीन लाख से
अधिक किसानों ने आत्महत्या की है - इसी नवउदारवादी व्यवस्था का प्रतिबिम्बन
दिखता है, जहां राज्य अब घाटा होने वाले उद्यमों में
निवेश करने को तैयार नहीं है। इस तरह हर घंटे में दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
आर्थिक सुधार और उदारीकरण के नाम पर बैक के नियमों का जो
विनियमन हो रहा है, जिसका नतीजा बैड डेब्टस अर्थात ऐसे कर्जों के रूप में सामने आ रहा है,
जहां बड़े पूंजीशाह कर्जा ले लेते हैं, मगर
लौटाते नहीं है। अभी रिजर्व बैंक आफ इंडिया के हवाले से प्रसारित ‘फायनान्शियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट बताती है कि मार्च 2015 के 4.6 फीसदी से सितम्बर 2015 के
5.1 फीसदी तक यह बढ़ गया है। /देखें, ीhttp://epaper.mailtoday.in/673566/mt/Mail-Today,-December-24,-2015#page/22/2/ मार्च 2015 में जहां बड़े देनदारों का हिस्सा 78.2
फीसदी था तो सितम्बर में वह 87.4 तक पहंुच
चुका है।
अगर हम बारीकी से मामले की पड़ताल करने की कोशिश करें तो देख
सकते हैं कि कार्पोरेट क्षेत्रा को ऐसा कर्जा मुहैया करने में सार्वजनिक क्षेत्र
के बैंक ही आगे रहते हैं। और नवउदारवाद की नीतियों का आलम है कि मार्च 2013 तक इन बैंकों के ‘बैड डेब्टस’ अर्थात न लौटनेवाले कर्जे की मात्रा
पांच साल के अन्तराल में ही 400 फीसदी बढ़ गयी थी, जो आंकड़ा 1 लाख 64 हजार करोड़
रूपए तक पहुंचा था और इस घाटे की पूर्ति के लिए सरकारी बैंकों को अपने मुनाफे का
एक लाख चालीस हजार करोड़ रूपया देना पड़ा था। यह तथ्य भी नोट करनेलायक है कि इस
कर्जे का लगभग 40 फीसदी हिस्सा महज तीस खातों से जुड़ा था।
कम्प्टोलर एण्ड आडिटर जनरल जनाब विनोद राय अपनी किताब
में बताते हैं कि रिजर्व बैंक आफ इंडिया के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि 2013 के अन्त तक नान परफार्मिंग
एसेटस 3.61 फीसदी तक पहुंचे थे, जो
अपने आप में चिन्तित करनेवाला आंकड़ा समझा गया था। स्वयं रिजर्व बैंक आफ इंडिया का
मानना था कि 2014 के अन्त तक आते आते यह राशि बैंकों द्वारा
दिए गए कर्जों के पांच प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। ‘ट्रेंड ऐंड प्रोग्रेस आफ बैंकिंग इन इंडिया’ के नाम से
रिजर्व बैंक की तरफ से केन्द्र सरकार को जो समय समय पर रिपोर्ट भेजी जाती है,
इसमें इसी तथ्य पर जोर दिया गया था। हम अन्दाज़ा ही लगा सकते हैं कि
वास्तविक देनदारियां इससे अधिक होंगी क्योंकि रिजर्व बैंक की रिपोर्ट इन विभिन्न
बैंकों द्वारा खुद प्रस्तुत आंकड़ों पर ही आधारित होती है, न
कि किसी स्वतंत्रा एजेंसी द्वारा एकत्रित आंकड़ों पर।
‘डाउन द रैबिट होल: व्हाट द बैंकर्स आर नाट
टेलिंग यू’ शीर्षक किताब /द रिसर्च कलेक्टिव, दिल्ली 2014/ शीर्षक से प्रकाशित किताब में इससे
जुड़े तमाम तथ्य पेश किए गए हैं। बैंकों के राष्टीयकरण के वक्त़ जो तर्क पेश किया
गया था कि इससे कर्जा वितरण में अधिक लोकतांत्रिकरण होगा, उसे
धता बताते हुए अब इन सरकारी बैंकों में निजी क्षेत्रों को ही कर्जा देने में
जबरदस्त बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। 2004 से 2011 के दरमियान अकेले स्टेट बैंक आफ इंडिया द्वारा प्राइवेट क्षेत्रा को कर्जा
देने के मामले में 500 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है।
सरकारी बैंकों में कार्पोरेट क्षेत्र की बढ़ती देनदारी और
कर्ज की पुनर्रचना के नाम पर बैंक प्रबन्धन द्वारा की जानेवाली कवायद के विरोध में
बैंको के कर्मचारियों के अखिल भारतीय संगठन ‘आल इंडिया बैंक एम्प्लायिज एसोसिएशन’
ने दिसम्बर 2013 में जारी अपनी प्रेस
विज्ञप्ति में एक महत्वपूर्ण बात कही थी ‘जनता का पैसा जनता
के कल्याण पर खर्च किया जाना चाहिए, राष्टीय बचत को राष्ट के
विकास पर खर्च होना चाहिए न कि कार्पोरेट लूट पर’।
एक ऐसे वक्त़ में जब पैसे की कमी के नाम पर सरकारी स्कूलों
को धडल्लेसे बन्द किया जा रहा हो, ग्रामीण श्रमिकों की क्रय शक्ति बढ़ाने में
कारगर महात्मा गांधी राष्टीय रोजगार योजना को सीमित करने की बात की जा रही हो,
उस वक्त सरकारी पैसों की ऐसी लूट पर रोक लगाने की मांग करना क्या
गैरवाजिब है ?
भाजपाशासित राज्य एक तरह से सरकारी स्कूलों को बन्द करने के
मामले में अव्वल है। वर्ष 2014 मे जहां सूबा राजस्थान में 17,000
से अधिक सरकारी स्कूल समायोजन के नाम पर बन्द किए गए तो उसके बाद
गुजरात एवं मध्यप्रदेश में 13,000 से अधिक स्कूल बन्द किए गए।(http://timesofindia.indiatimes.com/city/jaipur/State-closes-down-highest-number-of-schools-in-2014/articleshow/45769230.cms)
सबके प्रति समान भाव से व्यवहार करने का दावा करने वाली
न्यायपालिका भी सम्पनों एवं धनी लोगों के बरअक्स गरीबों, मजदूरों के साथ दोहरा व्यवहार
करती है। उपहार केस का फैसला सामने है, जहां अन्सल बन्धुओं
की प्रगट संलिप्तता के बावजूद अदालत ने ‘उनकी उम्र को देखते
हुए’ उन्हें जेल की सज़ा से मुक्त किया और महज जुर्माना अदा
करने को कहा।
वही न्यायपालिका प्रिकॉल या मारूति के मजूदरों के सवाल पर
अपना वर्गीय पूर्वाग्रह छिपाने से नहीं बचती।
शहर में झुग्गी तोड़ने के सरकारी अभियान को लेकर अदालत के
बदलते रूख पर काफी चर्चा हो चुकी है। अब अदालती भाषा में उन्हें illegal trespassers अर्थात
‘गैरकानूनी घुसपैठिये’ कहा जाता है,
उनकी तुलना ‘जेबकतरों’ तक
से की जाती है। निश्चित ही बीत गए वे दिन जब ओलगा टेलिस बनाम मुंबई म्युनिसिपल
कार्पोरेशन मामले में, जहां मुंबई के झुग्गी झोपड़ी निवासियों
के मकानों को तोड़ने का मसला सामने आया था तब सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ
ने संविधान की धारा 21 के तहत जीवन के अधिकार की गारंटी दी
गयी है जिसमें जीवनयापन का अधिकार भी शामिल है और कार्पोरेशन को निर्देश दिया था
कि उन ‘गैरकानूनी निवासियों’ अर्थात
झुग्गी झोपड़ी के निवासियों को वैकल्पिक जमीन उपलब्ध की जाए। (http://indiankanoon.org/doc/709776/)
गैरबराबरी बढ़ानेवाली इन नीतियों को लेकर एक महत्वपूर्ण सवाल
यह खड़ा हो सकता है कि नवउदारवाद का सामाजिक आधार कहां है ?
ऐसी नीतियां जब लागू की जा रही हों जो प्रगट रूप में पूंजी
के पक्ष में हो, जिससे व्यापक जनसमुदाय में असन्तोष फैलने की गुंजाइश हो, उस वक्त़ उसे इस बात को ध्यान में रखना ही होता है कि उसके पक्ष में
समाज का कौनसा तबका खड़ा हो सकता है ?
शिक्षित मध्यम वर्ग ऐसा तबका है जो उसे समर्थन, सहयोग एवं वैधता नहीं जुबां
अर्थात आर्टिक्युलेशन प्रदान करता है।
नवउदारवाद अपने बुनियादी स्वरूप के चलते ‘जहां वह मुनाफे का निजीकरण करता
है और खतरों अर्थात रिस्कस का समाजीकरण करता है’ हमेशा अपने
लिए संकटों की जमीन तैयार करता रहता है। नवउदारवाद मॉडल में निहित है कि वह
सामाजिक ध्रुवीकरण को अधिकाधिक तेज करे , जो पहले से हाशिये
पर है उसके बहुलांश को अधिकाधिक हाशिये पर डाले और पूंजीवाद के कल्याणकारी माडल
में उपस्थित सामाजिक सुरक्षा योजनाआंे में भी अधिकाधिक कटौती करके और उसके साथ ही
दुनिया भर में तीखे सामाजिक एवं वर्ग संघर्ष फैले हैं।
रेबेका फिशर द्वारा सम्पादित एक किताब के मुताबिक (देखें, Corpwatch)
‘‘ भूमंडलीकरण ने पैदा किए दरिद्रीकरण के
प्रभावों ने सामाजिक संघर्षों और राजनीतिक संकटों को जन्म दिया है, जिसे काबू करना अब व्यवस्था के लिए अधिकाधिक मुश्किल होता जा रहा है। यह
नारा कि ‘हम 99 फीसदी हैं ’ इसी हक़ीकत से पैदा होता है कि 80 के दशक में जबसे
पूंजीवादी भूमंडलीकरण तेज हुआ है, उसके साथ ही वैश्विक
गैरबराबरी और दरिद्रीकरण में भी तीव्रता आयी है। हाल के दशकों में मानवता के बड़े
हिस्से की स्थिति बद से बदतर होती गयी है। यहां तक कि अंतरराष्टीय मुद्रा कोष को
भी वर्ष 2000 की अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्वीकारना
पड़ा है कि ‘‘हाल के दशकों में, विश्व
के आबादी के पंाचवे हिस्से की स्थितियां खराब हुई है। बीसवीं सदी की यह सबसे बड़ी
आर्थिक विफलता है।’’
(Quoted
in ‘Infopack’ : Capitalism and Democracy, PEACE, 2015, Page 78)
और इस संकट से उबरने के लिए वह रास्ते ढंूढने की कोशिश करता
है।
- वह इस बात को प्रचारित करता है कि पर्याप्त
‘सुधार’ नहीं हुए हैं
- वह यह भी कहता है कि भ्रष्टाचार समस्याओं
की असली जड़ है
- उसका यह भी कहना होता है कि लोकरंजनवादी
अर्थात पाप्युलिस्ट योजनाओं का संकट है
- वह गवर्नंस के संकट की बात करता है न कि
नवउदारवाद के संकट की
- निश्चित ही उसे इस प्रस्ताव से भी कोई
गुरेज नहीं होता कि हिन्दुत्व या इस्लामिजम जैसी असमावेशी विचारधारा, यहां खास समुदाय को निशाने पर रखनेवाली सियासत का जोर समाज में बढ़े।
दरअसल जहां तक कार्पोरेट हितों का सवाल है, जो इन दिनों यहां उदघाटित होते
नवउदारवाद के सिलसिले में दिख रहे हैं, उसके तहत हिन्दु
राष्टवाद के प्रति सम्मोहन या हिन्दुत्व या ऐसीही असमावेशी विचारधाराओं के प्रति
प्रेम ऐसी तमाम बातें महज सांयोगिक हैं। बुनियादी सरोकार पूंजी के तर्क की सेवा
करना है जो मुनाफे पर टिका है।
21 वीं सदी की इस दूसरी दहाई में जबकि
नवउदारवादी नीतियों की - अर्थात उदारीकरण, निजीकरण एवं
भूमंडलीकरण की नीतियों की - हवा बह रही है, समाजवादी प्रयोगों
की फौरी विफलता के बाद पूंजीवादी सरकारों ने कल्याणकारी भूमिका से कदम पीछे खींचने
का सिलसिला शुरू किया है, तब यही नज़र आ रहा है कि सामाजिक
सांस्क्रतिक स्तर पर हिन्दुत्व की नीतियों और आर्थिक स्तर पर नवउदारवादी नीतियों
के बीच आपसी सामंजस्य दिख रहा है ..हम उसे एक नया कन्जक्चर भी कह सकते हैं..
10
यह तो सही है कि नवउदारवाद का भारतीय जमीं पर आगमन 80 के दशक के उत्तरार्द्ध या 90
के दशक के पूर्वार्द्ध में चिन्हित किया जा सकता है। यह भी सही है
कि संमिश्र अर्थव्यवस्थावाले मॉडल से बाज़ारशक्तियों को खुली छूट देने का सिलसिला
कांग्रेस के जमाने में ही सिरे चढ़ा था।
मगर हमें यह बात भी कभी नहीं भूलनी चाहिए कि संमिश्र
अर्थव्यवस्थावाले उस मॉडल के साथ भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ की पूरी तरह से सहमति
कभी नहीं थी। दूसरे 90 की शुरूआत में जब नये आर्थिक सुधारों के नाम पर अर्थव्यवस्था में बदलावों
को अंजाम दिया जाने लगा तो इन सुधारों का सैद्धान्तिक विरोध उसने कभी नहीं किया।
संघ के जरिए भले ही अपने समर्थक तबके को सन्तुष्ट रखने के लिए उसने स्वदेशी का राग
अलापा हो, मगर भाजपा की अगुआई में जब केन्द्र में पहली दफा
सरकार बनी तो सत्ता मिलते ही उसने उसी रास्ते पर चलने का निर्णय लिया।
तीसरे यह भी सही है कि हिन्दुत्व का उभार नवउदारवाद के
प्रतिरोध को कुंद करता है तथा नवउदारवाद हिन्दुत्व की मारकता को तीखा करता है।
हिन्दुत्व का उभार - जो ‘हम’ और ‘वे’ की सियासत के जरिए वर्गाधारित राजनीति/संघर्ष को
कमजोर करता है, नवउदारवाद के लिए फायदेमंद होता है। पचास के
दशक में जब अमेरिकी विद्वानों - ओवरस्टीट और विण्डमीलर - ने ‘कम्युनिजम इन इंडिया’ नामक अध्ययनपरक किताब लिखी थी,
जिसके बारे में यह कहा जाता था कि वह सीआईए के सहयोग, समर्थन से बनी है ; उसमें उन्होंने आकलन प्रस्तुत
किया था कि भारत में पूंजीवाद के संकट में फंसने पर आमूलचूल बदलाव को रोकने में
हिन्दुत्ववादी संगठन मदद पहुंचा सकते हैं। गौर कर सकते हैं कि यह वही दौर था जब एक
तिहाई दुनिया में लाल परचम की ताकतें हुकूमत में थीं और विश्व के पूंजीपतियों को
कम्युनिजम का खौफ सता रहा था, जिससे बचने के लिए वह तरह तरह
की कवायद में जुटे थे।
साथ ही जुड़ा मसला है नवउदारवाद जो राज्य को अधिकाधिक सीमित
करने की, राज्य सुरक्षा या कल्याणकारी कामों के दायरे से राज्य के हटने की हिमायत
करता है, यूनियन अधिकारों में कटौती की बात करता है, वह एक तरह से हाशिये पर पड़े तबके को, वंचित समुदायों
को ‘अपने-अपने’ हवाले करता है। अलग अलग
समुदायों के श्रमिकों के एक साथ काम करते हुए ‘श्रमिक’
के तौर पर, ‘मेहनतकश’ के
तौर पर नयी पहचान कायम करने की, अपनी घेटटोगत पहचानों के
दायरे से आगे बढ़ने की सम्भावना को जिस तरह समाप्त करता है, वह
स्थिति हिन्दुत्व जैसे असमावेशी विचारों के लिए मुफीद होती है।
क्या यह कहा जा सकता है कि नवउदारवाद और हिन्दुत्व का जो
गठजोड़ है, वह चिरकालिक है और उसके अन्दर कोई दरारें नहीं हैं।
दरअसल दोनों के बीच आपस में विवाद भी हैं और दोनों
परिघटनाओं के आन्तरिक विसम्वाद भी हैं।
हिन्दुत्व का विचार जहां सभी हिन्दुओं को समेटने की बात
करता है, मगर सोपानक्रम की तरह से कायम असमानता पर टिके हिन्दु धर्म और उसे मिली ‘ईश्वरीय स्वीकृति' से परे जाने की बात
नहीं करता है, उस पर सवाल नहीं उठाता है। सभी हिन्दुओं को एक
करने की बात करनेवाला हिन्दुत्व जातिप्रथा की समाप्ति की बात नहीं करता, न उसे सैद्धांतिक औचित्य प्रदान करनेवाले मनुवाद पर हमला करता है।
नवउदारवाद सभी के लिए समृद्धि की बात करता है जो कुल मिला
कर एक दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है।
हाल ही में प्रकाशित ‘क्रेडिट सुसे ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट’( 2015) भारत में बढ़ती असमानता को लेकर पहले साझा किए तथ्यों की
ताईद करती है। वह बताती है कि किस तरह भारत की एक फीसदी उपरी आबादी के पास देश की
सम्पदा का आधे से अधिक हिस्सा है। आज़ाद भारत में यह पहली दफा हुआ है। अगर 2014
में यह हिस्सा 49 फीसदी था तो 2015 तक आते आते यह हिस्सा 53 फीसदी हो चुका है, जो चार फीसदी बढ़ोत्तरी है। जनाब मोदी के प्रधानमंत्री पद के पहले साल में भारत में विगत पन्दरह साल
में असमानता में सबसे तेज बढ़ोत्तरी हुई है।
इस हक़ीकत को हमें रेखांकित करना चाहिए कि भारत के सबसे
सम्पन्न 100 थैलीशाहों की कुल सम्पदा भारत की 70 फीसदी आबादी
अर्थात 87 करोड़ लोगों से अधिक है। जनाब मुकेश अंबानी,
जो उन पूंजीपतियों में अग्रणी थे, जिन्होंने
प्रधानमंत्राी पद के लिए मौजूदा प्रधानमंत्री की हिमायत की थी, वह आज की तारीख में भारत के सबसे धनी शख्स हैं और भारत की नीचली 20
फीसदी आबादी - 25 करोड़ लोगों - से भी अधिक
सम्पदा उनके पास आज है।
आखिर वे सभी जो भारत की सरजमीं पर रहते हैं उनके लिए किस
किस्म का भविष्य बदा इसकी यह छोटीसी झलक मात्र है ?
क्या भारत 21 वीं सदी में एक आर्थिक महाशक्ति बनकर
उभरेगा जैसा कि उसके मौजूदा हुक्मरान और उनके भक्त एवं चीअरलीडर्स बताएं जा रहे
हैं या वह भारत के प्रथम प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू की चेतावनी को याद करें तो
अपने पड़ोसी मुल्क की तर्ज़ पर ‘हिन्दू पाकिस्तान’ में रूपांतरित होगा। याद करें कि नेहरू ने इस खतरे को पूरी तरह देखा था कि
किस तरह एक बहुधर्मीय मुल्क में बहुसंख्यकों का सम्प्रदायवाद किस तरह अपने आप को
राष्टवाद के रूप में पेश करता है और एक दिन समूचे राज्य पर कब्जा करने की स्थिति
में भी पहुंच सकता है।
स्थितियां वाकई बहुत गंभीर दिखती हैं।
एक संकेत देना मौजूं होगा, प्रतिष्ठित ब्रिटिश जर्नल ‘लान्सेट’ ने देश में स्वास्थ्य के मद में बजट में
हुई कटौती के मददेनज़र यह भविष्यवाणी की है कि अगर यह सिलसिला जारी रहा तो भारत में
कुछ बीमारियों के epidemic रूप लेने का ख़तरा है।
आखिर दक्षिण की ओर उन्मुख भारत की इस यात्रा को रोकने के लिए
क्या किया जा सकता है ?
आखिर क्या किया जाए कि साम्प्रदायिकताविरोध , धर्मनिरपेक्षता और
जनतंत्र एवं समानता के संघर्ष को नयी ताकत एवं उर्जा मिले।
नवउदारवाद और हिन्दुत् के 'अपवित्र गठबन्धन' को
चुनौती देने के लिए संक्रमणकालीन मांग के तौर पर हमें सभी के लिए बुनियादी
अधिकारों की मांग बुलन्द करनी पड़ेगी। हर व्यक्ति के लिए बुनियादी अधिकार
संस्थाबद्ध करने होंगे। इसी के साथ आवश्यकता होगी कि हर व्यक्ति के बुनियादी
आर्थिक अधिकार क्या हैं , ऐसे अधिकार जो justiciable हों अर्थात न मिले तो उन्हें अदालत में चुनौती दी जा सके।
ऐसी हर मांग जो नवउदारवाद की मुनाफे की मांग पर चोट कर सके, जनतंत्र के संकुचन को चुनौती
दे सके, धर्मनिरपेक्षता के उसूल को स्थापित कर सके उसके बारे
में सोचना होगा। जाति उन्मूलन एवं जेण्डर उत्पीड़न से मुक्ति के सवाल पर भी संघर्ष
तीखे करने होंगें।
मकसद हो कि हम समान नागरिकों के विशाल दायरे का निर्माण कर
सकंें, सार्वभौमिक नागरिकता की धारणा को आगे विकसित कर सकें।
नवउदारवाद एवं हिन्दुत्व के इन दिनों गलबहियां कर रहे ‘दानव’ पर
तभी अंकुश लगाया जा सकता है, जब हम ऐसे तमाम सवाल जो उसके
अवयवों पर आघात पहुंचाते हों, उन पर संघर्ष तेज हो।
फिलवक्त़ ऐसे संघर्ष भले ही भारत में ही नहीं दुनिया में
कमजोर अवस्था में हो, मगर जैसा कि किसी राजनेता ने कहा है कि जिन्दा कौमें लम्बे समय तक इन्तज़ार
नहीं करती, यह दौर भी अस्थायी साबित होगा। अगर हम वैचारिक
स्तर पर तैयारी करते रहें और सांगठनिक स्तर पर अपने आप को मजबूत करते रहें और ऐसे
तमाम सवालों पर साझी कार्रवाइयों में उतरते रहें या साझे मोर्चों का निर्माण करें
तो फिर दुनिया की कोई ताकत इस ‘दानव’ को
बचा नहीं सकती।
एक बेहतर, मानवीय, समतामूलक,
इन्साफपसन्द एवं तरक्कीपसन्द समाज का निर्माण तय है।
इन्कलाब जिन्दाबाद !!
(New Socialist Initiative द्वारा आयोजित
सभा में प्रस्तुत वक्तव्य चन्द संशोधनों के साथ, 29 दिसम्बर 2015)
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